Tuesday, September 21, 2021

पाठकों से गहन संवाद करती कहानियां | समीक्षा | समीक्षक - डॉ शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 21.09. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई वरिष्ठ कथालेखिका दीपक शर्मा के कहानी संग्रह "पिछली घास" की  समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
पाठकों से गहन संवाद करती कहानियां 
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - पिछली घास
लेखिका      - दीपक शर्मा
प्रकाशक     - रश्मि प्रकाशन, महाराज पुरम, कृष्णा नगर, लखनऊ-226023 (उप्र)
मूल्य        - 200/-
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‘‘पिछली घास’’ लेखिका दीपक शर्मा की सोलह कहानियों का संग्रह है। हिन्दी कथाजगत में दीपक शर्मा एक जाना-पहचाना नाम है। 30 नवम्बर 1946 में अविभाजित भारत के लाहौर में जन्मीं दीपक भुल्लर जो विवाह के बाद दीपक शर्मा के नाम से चर्चित हुईं लखनऊ क्रिश्चियन काॅलेज के स्नातकोत्तर अंग्रेजी विभाग में लम्बे समय तक अध्यक्ष एवं रीडर के पद पर रहीं। अब तक उनके बीस कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। स्वभाव से सरल, मृदुभाषी, मिलनसार इस वरिष्ठ लेखिका से मेरी पहली मुलाक़ात सन् 2010 में लखनऊ में इनके निवास पर हुई थी। दीपक शर्मा से मिलते समय यह विश्वास कर पाना कठिन होता है कि एक सौम्य, शांत स्त्री के भीतर विचारों और संवेदनाओं के अनेक ज्वालामुखी दबे हुए हैं बिलकुल ‘‘रिंग आॅफ फायर’’ की तरह। ये सुप्त ज्वालामुखी जब-तब उनकी कहानियों के कथानक बन कर अव्यवस्था के प्रति विद्रोह का लावा उगलने लगते हैं। किन्तु यह लावा इस सावधानी से बहता है कि सब बुरा-बुरा नष्ट हो जाए और अच्छा-अच्छा बच जाए। दीपक शर्मा ने अपने कहानी लेखन की शुरुआत पंजाबी में की। सन् 1979 में इनकी पहली हिन्दी कहानी ‘‘कोलम्बस अलविदा’’ पत्रिका ‘‘धर्मयुग’’ में प्रकाशित हुई। इसके बाद दीपक शर्मा ने हिन्दी कहानी का जो दामन पकड़ा आज भी उसे मज़बूती से थामे हुए हैं। 
इस कहानी संग्रह में गगन गिल की संक्षिप्त तथा मधु बी. जोशी की विस्तृत भूमिका पढ़ने के बाद इसमें संग्रहीत कहानियों के प्रति जिज्ञासा का विस्फोट होना स्वाभाविक है। एक आतुरता जाग उठती है इन सोलह कहानियों की सोलह दुनियाओं से गुज़रने की। संग्रह में मौजूद सोलह कहानियों में पहली कहानी है-‘‘चमड़े का अहाता’’। यह एक मानवीय विमर्श की कहानी है। इसमें एक ऐसा अहाता है जो हमारे आस-पास उपस्थित है एक ‘अंडरवर्ल्ड’ की तरह। लेकिन यह किसी माफिया अंडरवर्ल्ड नहीं है बल्कि हमारे कथित सम्य समाज के राजमार्ग के ठीक बीचो-बीच बने सीवेज़ के मेनहोल के ठीक नीचे है। एक सुगबुगाती, बजबजाती हुई दुनिया। चमड़े के शोधन कार्य की दुर्गन्धयुक्त दुनिया। जहां जानवरों की खालें खरीदी जाती हैं और उन्हें ‘चमड़ा’ बना कर बेचा जाता है। इस दुनिया में चर्मशोधन से भी अधिक दुर्गन्ध उस अपराध की है जो कि घृणित सामाजिक अपराध है, कन्या-वध का। चर्मशोधन की रासायनिक द्रव से भरी टंकियां चमड़ा शोधने के चुनौती भरे काम की गवाही होने के साथ ही उस अपराध की भी गवाह हैं जो कभी नहीं होना चाहिए था। एक चुभता हुआ पारस्परिक संवाद ही इस अपराध को एक झटके में बेनक़ाब कर देता है -
‘‘मैं सब जानता हूं’’ भाई फिर हंसा, ‘‘मैं किसी से नहीं डरता। मैंने एक बाघिनी का दूध पिया है, किसी चमगीदड़ी का नहीं।’’
‘‘तुमने चमगीदड़ी किसे कहा?’’ सौतेली मां फिर भड़कीं।
‘‘चमगीदड़ी को चमगीदड़ी कहा है।’’ भाई ने सौतेली मां की दिशा में थूका,‘‘तुम्हारी एक नहीं दो बेटियां टंकी में फेंकी गईं, पर तुम्हारी रंगत एक बार नहीं बदली। मेरी बाघिनी मां ने जान दे दी, मगर जीते जी किसी को अपनी बेटी का गला घोंटने नहीं दिया।’’
दीपक शर्मा की कहानियों को पढ़ते समय हिन्दी कहानी के उस इतिहास पर भी संक्षिप्त दृष्टिपात कर लेना चाहिए जहां से हिन्दी कहानी ने नई कहानी का स्वरूप ग्रहण किया। वह नई कहानी विधा जिसकी छाप दीपक शर्मा की कहानियों में स्पष्ट दिखाई देती है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ की कड़ी में हिन्दी भाषा के उन्नयन और गद्य-विधाओं के सूत्रपात ने जिस भाषाई जनतांत्रिक का निर्वाह करते हुए साहित्य रचना की नींव रखी, उसका स्वर आज की रचनाओं में भी सुनाई देता है। उत्तर भारतेन्दु युग जिस रचनात्मकता के संक्रमण का दौर था, उसमें कथा साहित्य के प्रति आग्रह की अपेक्षा की जा रही थी। रोचकता की प्रधानता थी। देवकीनंदन खत्री और गोपालराम गहमरी इत्यादि ने तिलिस्मी ताने-बाने का गल्प तैयार कर कथा-सृजन की अच्छी वृत्तांतमूलक जमीन तैयार कर दी थी। साथ ही इनकी रचनाओं ने हिन्दी का एक बहुत बड़ा पाठकवर्ग भी तैयार कर दिया था। तत्कालीन कथा-लेखन की भाषा खत्री-गहमरी के भाषाई तिलिस्म के इर्द-गिर्द बनती चली गई। परन्तु बीसवीं सदी का हिन्दी कहानी का कथ्य दूसरे ही धरातल पर विकसित हुआ।  कहानी में आमजीवन के यथार्थ से जुड़ने का प्रयास स्पष्ट दिखाई देने लगा। यद्यपि भारतेन्दु युग ने साहित्य को सथार्थ से जोड़ने की प्रक्रिया आरम्भ कर दी थी। इसका परिवर्द्धित संस्करण द्विवेदी युग में दिखाई देता है। जब हिन्दी भाषा के तीन प्रमुख उन्नायकों- माधवराव सप्रे, महावीर प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने दौर की आरंभिक कहानियां लिखीं तो उन्होंने भी कहानी के नए प्रतिमान गढ़े जो पूर्व से इतर थे। यह हिन्दी कथा साहित्य के इतिहास में वह एक क्रांतिकारी शुरूआत थी। कहानी के नए सरोकारों और प्रयोगधर्मिता को लेकर डॉ. धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’ में कहानी के बदले हुए स्वरूप को रेखांकित करते हुए कहानीकारों-मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव का त्रिकोण स्थापित कर दिया। इसे कथालोचना में कुछ विचलन भी पैदा हुआ परन्तु सन् 1954 के ‘कहानी विशेषांक’ ने नई कहानी की वैचारिक भूमि पहले ही स्थापित कर दी थी। अमरकांत की कहानी ‘डिप्टी कलक्टरी’ और कमलेश्वर की कहानी ‘राजा निरबंसिया’ लिखी जा चुकी थीं। इसी क्रम में मोहन राकेश का कहानी संग्रह ‘नए बादल’ सन् 1956 में आया। इसी दौर में निर्मल वर्मा की कहानी ‘परिंदे’ और भुवनेश्वर की कहानी ‘भेड़िये’ और उषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ पर चर्चाएं शुरू हो चुकी थीं। इन्हीं कहानियों को नई कहानी की प्रारंभिक कहानियों में गिना जाता है। इनके अलावा ‘कहानी’ और ‘नई कहानियां’ पत्रिकाओं ने इस आंदोलन की अधिकारिक रूप से घोषित पत्रिका थी।
नई कहानी के मूल बिन्दुओं को अपने अवचेतन में ग्रहण करते हुए दीपक शर्मा ने अपना कथा संसार रचा उसमें सच के उद्घाटन का तीव्र आग्रह दिखाई देता है। उदाहरण के लिए इसी संग्रह की दूसरी कहानी ‘‘प्रेत छाया’’ अतीत में सन् 1928 में ले जाती है जब देश में साईमन कमीशन का लागू किए जाने का जम कर विरोध हो रहा था। लोग खुली सड़कों पर भीड़ की शक़्ल में निकल कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहे थे। मगर भीड़ हमेशा अनेक चेहरे लिए होती है। ‘‘गो साईमन गो’’ की नारे लगाती भीड में एक लड़के ने अपनी जाई और बहन को खो दिया था। अब जब वह लड़का चेचक की बीमारी से ग्रस्त हो कर आईसोलेशन के दिन काट रहा होता है तो उसे महसूस होता है कि उसकी जाई उससे मिलने आई है, एक प्रेतछाया की भांति। अपनों को खोने की पीड़ा और एक उद्देश्यपूर्ण देशव्यापी विरोध के बीच की अंतर्कथा। यह कहानी अपने छोटे से आकार में बड़ी-सी कथा समेटे हुए है, गोया यह कहानी नहीं अपितु एक ‘मेमोरी चिप’ हो।
संग्रह में एक कहानी है ‘‘मां का दमा’’। यह सूत और सूती कपड़ा डाई करने वाले कारखाने में काम करने वाली स्त्रियों में से एक मंा की कहानी है। अस्वस्थकर वातावरण में काम करती महिलाएं चैतरफा मुसीबतें झेलती हैं। बेटे की ओर से कही गई इस कहानी में बेटा बताता है कि उसकी मां को दमा हो गया था जिस पर उसके पिता मां को ‘‘घोंघी’’ कह कर पुकारते थे। मां की पीड़ा का अपमान करता सम्बोधन। जबकि इसमें भला मां का क्या दोष था? लड़के ने स्वयं अपनी आंखों से कारखाने की दशा देखी थी-‘‘मां के कारखाने में काम चालू है। गेट पर मां का पता पूछने पर मुझे बताया जाता है, वे दूसरे हाॅल में मिलेंगी, जहां केवल स्त्रियां काम करती हैं। जिज्ञासावश मैं पहले हाॅल में जा टपकता हूं। यह दो भागों में बंटा है। एक भाग में गट्ठों में कस कर लिपटाई गई ओटी हुई कपास मशीनों में चढ़ कर तेजी से सूत में बदल रही है, तो दूसरे भाग में बंधे सूत के गट्ठर करघों में सवार हो कर सूती कपड़ों का रूप धारण कर रहे हैं। यहां सभी कारीगर पुरुष हैं। ...दूसरे हाॅल का दरवाज़ा पार करते ही क्लोरीन की तीखी बू मुझसे आन टकराती है। भाप की कई-कई ताप तरंगों के संग मेरी नाक और आंखें बहने लगती हैं। थोड़ा प्रकृतिस्थ हो कर देखता हूं, भाप एक चैकोर हौज से मेरी ओर लपक रही है। हौज में बल्लों के सहारे सूती कपड़े की अट्टियां नीचे भेजी जा रही हैं। हाॅल में स्त्रियां ही स्त्रियां हैं। उन्हीं में से कुछ ने अपने चेहरों पर मास्क पहन रखे हैं, ऑपरेशन करते समय डाॅक्टरों और नर्सों जैसे।’’
स्वास्थ्य के लिए ऐसे घातक वातावरण में काम करने वाली स्त्रियों की पीड़ा को उनके निकट जा कर महसूस करने के बाद लिखी गई कहानी स्त्रीविमर्श का एक अलग ककहरा रचती है। दीपक शर्मा की संवेदनशीलता अपनी हर कहानी की भांति इस कहानी में भी बखूबी उभर की सामने आई है। कहानी ‘‘बापवाली’’ स्त्री के प्रति होने वाले घरेलू अत्याचारों का लेखा-जोखा सामने रखती है तो कहानी ‘‘ऊंट की पीठ’’ दहेज-लोलुपता और इस कुप्रथा को सवीकार करने वाले एक आम से पिता की मन को आलोड़ित करने वाली कहानी है।
कहानी ‘‘पुरानी फांक’’ संबंधों के जटिल समीकरण की अनूठी कहानी है। इस कहानी का एक संवाद देखिए जो अपने-आप में बहुत कुछ उद्घाटित करने में सक्षम है-
‘‘तुम्हें अपने वर्तमान को अनुभवों से भर लेना चाहिए।‘‘ सुहास मेरी ओर देख कर मुस्कुराता है,‘‘चूंकि तुम्हारे पास नए अनुभवों की कमी है, इसलिए तुम आने वाले अनुभवों को मनगढ़ंतपूर्वक धरण करती हो या फिर बीत चुके अनुभवों का पुनर्धारण। तुम्हें केवल अपने वर्तमान को भरना चाहिए।’’
‘‘वर्तमान?’’ घबराकर मैं अपनी आंखें मंजू दीदी के चेहरे पर गड़ा लेती हूं। मेरा वर्तमान? खिड़की के उस तरफ का एक भीषण रणक्षेत्र? और इस तरफ एक तलाक़शुदा छब्बीस वर्षीय रईसज़ादे के साथ एक कच्चा रिश्ता? दोनों तरफ एक ठीठ अंधेरा।’’
लेखिका ने मानवीय संबंधों के ज्यामितीय समीकरणों को ‘‘माना कि’’ की कल्पना से परे हट कर यथार्थ के पैमाने से नापते हुए प्रस्तुत किया है। कहानी ‘‘पिछली घास’’ इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। पांच संतानों वाला परिवार। जिसमें पिता की देहलोलुपता एक विध्वंस रचती है। पिता एक रिश्तेदार लड़की से बलात संबंध बनाता है जिसके परिणामस्वरूप छठीं संतान का जन्म होता है। उस लड़की और छठी संतान को पिता अपनी पत्नी और बेटी के रूप में अपना लेता है किन्तु बेटे के लिए यह सब सहज नहीं है। वह विद्रोही हो उठता है। पिता की धौंस से त्रस्त हो कर पिता को पुलिस की धमकी देता है, लिहाज़ा पिता अपनी वास्तविक पत्नी और पांचों बच्चों को छोड़ कर अपनी अवैध पत्नी और छठी संतान को ले कर फरार हो जाता है। इसके बाद वह परिवार संकटों के किस मुहाने पर जा खड़ा होता है और कैसे उनके सपनों की पर्तें उधड़ती चली जाती हैं, इसे कहानी को पढ़ कर ही अनुभव किया जा सकता है।
संग्रह की कहानियों में लेखिका का एक काल्पनिक स्थान है-कस्बापुर। यह स्थान गांव है, कस्बा, है शहर है और यहां तक कि देश का प्रतिबिम्ब भी है। कस्बापुर एक ऐसा गह्वर है जिसमें समाज की सारी समस्याएं और विडम्बनाएं समाई हुई हैं। एक जाना-पहचाना संसार रचता है कस्बापुर, जो संग्रह की कई कहानियों में मौजूद है। दीपक शर्मा भाषाई मायाजाल नहीं रचती हैं, वे सरल, बोलचाल के शब्दों में अपनी कहानियां लिखती हैं। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, अवधी, पंजाबी के शब्द बिना किसी विशेष आग्रह के स्वाभाविक रूप से अपनी जगह लेते जाते हैं। यही उनकी कहानियों का भाषाई सौंदर्य है जो कहानियों को एक प्रवाह में पठनीय बना देता है। कुल मिला कर ‘‘पिछली घास’’ को एक मूल्यावत्तापूर्ण कहानी संग्रह कहा जा सकता है।           
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1 comment:

  1. दीपक शर्मा जी बहुत ही अच्छी कहानी लिखी है अपने। धन्यवाद। Zee Talwara

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