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राष्ट्रीय पोषण मास : लड़ाई जारी है कुपोषण से
- डाॅ शरद सिंह
प्रति वर्ष 1 सितम्बर से 7 सितम्बर तक राष्ट्रीय पोषण सप्ताह मनाया जाता है किन्तु इस वर्ष पूरा सितम्बर मास पोषण मास रहेगा। भारत जैसे विकासशील देश में कुपोषण की समस्या चुनौती भरी है। विशाल जनसंख्या, सीमित संसाधनों तथा आर्थिक भ्रष्टाचार के बीच का द्वंद्व समस्या को समूल समाप्त नहीं होने देता है। फिर भी प्रयास तो सतत जारी रहने चाहिए। इस बार की थीम भी यही है।
भारत में 93.6 प्रतिशत बच्चों (6-23 माह) को पर्याप्त पोषक आहार नहीं मिल पाता है। यदि बच्चों को लंबे समय तक आवश्यक संतुलित आहार नहीं मिलता तो उनके शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है, जिससे वे आसानी से कई तरह की बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। साथ ही आहार में पोषण की कमी शारीरिक और बौद्धिक विकास को भी प्रभावित करती है। इस साल राष्ट्रीय पोषण सप्ताह के लिए है- ‘‘कुपोषण से लड़ना जारी, पहले 1000 दिन फोकस’’।
राष्ट्रीय पोषण सप्ताह (एनएनडब्ल्यू), भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, खाद्य और पोषण बोर्ड द्वारा शुरू किया गया वार्षिक पोषण कार्यक्रम है। यह कार्यक्रम पूरे देश में प्रतिवर्ष 1 से 7 सितंबर तक मनाया जाता है। पोषण सप्ताह मनाने का मुख्य उद्देश्य उत्तम स्वास्थ्य के लिए पोषण के महत्व पर जागरूकता बढ़ाना है, जिसका विकास, उत्पादकता, आर्थिक विकास और अंततः राष्ट्रीय विकास पर प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक वर्ष पोषण सप्ताह स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राष्ट्रीय पोषण सप्ताह मनाता है जिसमें इस अवधि के दौरान बच्चों के स्वास्थ्य की रक्षा और उनकी बेहतरी में उचित पोषण के महत्व के बारे में जन जागरूकता पैदा करने के लिए एक सप्ताह का अभियान चलाया जाता है। पोषण शिक्षा के द्वारा अच्छे स्वास्थ्य और स्वस्थ जीवन को बढ़ावा देने के लिये वर्ष 1982 में केन्द्रीय सरकार द्वारा पहली बार इस अभियान की शुरुआत की गयी क्योंकि राष्ट्रीय विकास के लिये मुख्य रुकावट के रुप में कुपोषण है। इसी लक्ष्य के लिये लोगों को बढ़ावा देने के लिये, खाद्य और पोषण बोर्ड की 43 ईकाई (महिला और बाल विभाग, स्वास्थ्य और एनजीओ) पूरे देश में कुशलता से कार्य कर रही है।
ज़मीनी सच्चाई एक अलग ही कहानी कहती है। उचित पोषण की कमी और भूख से होने वाली मृत्यु से जुड़े आंकड़े एक भयावह तस्वीर सामने रखते हैं। पोषण राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर सन् 2020 के उत्तरार्द्ध में जारी तीन चैंका देने वाली रिपोटर््स सामने आई थीं जिनमें से एक नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) रिपोर्ट खुद भारत सरकार ने जारी की है। इस रिपोर्ट का पहला भाग 12 दिसंबर 2020 को जारी किया गया था। बाकी दो रिपोर्टों में से एक ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) अक्तूबर के तीसरे सप्ताह में जारी की गई। इसकी मान्यता पूरी दुनिया में है। इसे जर्मनी और आयरलैंड की दो नामी संस्थाएं संयुक्त तौर पर हर साल जारी करती हैं। तीसरी रिपोर्ट है- हंगर वॉच। जो भारत में काम कर रहे भोजन का अधिकार अभियान (राइट टू फूड कैंपेन) ने जारी की थी। इन तीनों रिपोर्टों का संकेत इस ओर था कि विश्व शक्ति बनने की चाह रखने वाले भारत में भूख आज भी सबसे बड़ी चिंता है।
हर साल खाद्य और पोषण बोर्ड राष्ट्रीय पोषण सप्ताह के लिए एक विषय को र्निदिष्ट करता है और देश के सभी चार क्षेत्रों में स्थित अपने 43 सामुदायिक खाद्य और पोषण विस्तार इकाइयों के माध्यम से कार्यशालाओं, क्षेत्र के अधिकारियों के उन्मुखीकरण प्रशिक्षण, जागरूकता सृजन का आयोजन करता है। सप्ताह के दौरान शिविर और सामुदायिक बैठकों का आयोजन किया जाता है। राज्य सरकारों, शैक्षिक संस्थानों और स्वयंसेवी संगठनों के संबंधित विभागों के सहयोग से कार्यशालाओं, व्याख्यान, फिल्म और स्लाइड शो, प्रदर्शिनयों का आयोजन करते हैं। शैक्षिक कार्यक्रमों के दौरान, स्वास्थ्य और पोषण के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करता है, जिसमें टीकाकरण, स्तनपान, स्वच्छता और स्वच्छता के सिद्धांतों, भोजन की तैयारी के दौरान पोषक तत्वों के संरक्षण सहित महत्व शामिल हैं।
ग्लोबल हंगरइंडेक्स 2020 - इस वैश्विक सूचकांक में दुनिया के 107 देशों में हुए इस सर्वेक्षण में भारत 94वें नंबर पर है, सूडान के साथ। यह स्थिति गंभीर स्तर की मानी जाती है। अर्थव्यवस्था के आकार के मामले में भारत से कमजोर पाकिस्तान (88), नेपाल (73), बांग्लादेश (75) और इंडोनेशिया (70) जैसे देशों को हंगर- इंडेक्स में भारत से ऊपर जगह मिली। मतलब ये कि वहां हालात भारत से बेहतर हैं। हंगर-इंडेक्स में चीन दुनिया में सबसे संपन्न 17 देशों के साथ पहले नंबर पर है। अफगानिस्तान, नाइजीरिया और रवांडा जैसे गिनती के कुछ देश ही इस सूचकांक में भारत से पीछे हैं।
हंगर-वॉच की रिपोर्ट - भारत के 11 राज्यों में सर्वेक्षण के बाद राइड टू फूड कैंपेन ने यह रिपोर्ट जारी की। इसमें साल 2015 के बाद से 2020 तक भूख से कथित तौर पर हुई कम से कम 100 मौतों का भी जिक्र किया गया। रोजी-रोटी अधिकार अभियान के कार्यकर्ताओं ने झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, दिल्ली, छत्तीसगढ़, राजस्थान और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के 3,994 लोगों से बातचीत कर यह रिपोर्ट तैयार की। इनमें शहरी और ग्रामीण दोनों आबादी को शामिल किया गया था। इस सर्वे में दावा किया गया कि लॉकडाउन के दौरान भारत के कई परिवारों को कई-कई रातें भूखे रह कर गुजारनी पड़ीं। इनके पास खाने के लिए कुछ नहीं था। यह स्थिति लगभग 27 प्रतिशत लोगों की थी। लॉकडाउन से पहले जिन 56 प्रतिशत लोगों को रोज खाना मिलता रहा, उनमें से भी हर सात में से एक को सितंबर-अक्टूबर 2020 के महीने में कभी-कभी भूखे रहना पड़ा। लगभग 71 प्रतिशत लोगों के भोजन की पौष्टिकता में लॉकडाउन के दौरान कमी आई। इनमें से 40 प्रतिशत लोगों के भोजन की गुणवत्ता काफी खराब रही। दो-तिहाई लोगों के भोजन की मात्रा में कमी आई। 28 प्रतिशत लोगों के भोजन की मात्रा लॉकडाउन के बाद काफी कम हो गई है। लगभग 45 प्रतिशत लोगों को भोजन के लिए कर्ज लेना पड़ा। यह हालत सिर्फ निम्न आय वर्ग के लोगों की नहीं रही। 15,000 रुपये या इससे अधिक की मासिक आमदनी वाले 42 प्रतिशत लोगों को भी इस दौरान पहले की अपेक्षा अधिक कर्ज लेना पड़ा। इस सर्वे से यह भी पता चला है कि लॉकडाउन समाप्त होने का बावजूद आर्थिक संकट जारी है। यद्यपि लॉकडाउन के दौरान पीडीएस से मुफ्त मिले अनाज, मिड डे मील योजना के तहत मिले सूखा राशन और आंगनबाड़ी केंद्रों से मिली खाद्य सामग्री से लोगों को कुछ राहत अवश्य मिली।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे - भारत सरकार द्वारा 22 राज्यों में कराए गए इस सर्वेक्षण के परिणामों से पता चला कि देश में कुपोषण के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। महिलाओं में एनीमिया की शिकायत आम है और बच्चे कुपोषित पैदा हो रहे हैं। इस कारण पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की लंबाई 13 राज्यों में सामान्य से कम है। 12 राज्यों में इसी उम्र के बच्चों का वजन लंबाई के अनुपात में सही नहीं है। यह सर्वे असम, बिहार, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात, कर्नाटक, मिजोरम, केरल, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह, हिमाचल प्रदेश, लक्ष द्वीप, दादरा एवं नगर हवेली और महाराष्ट्र आदि राज्यों के 6.1 लाख परिवारों के साथ किया गया था। सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार उम्र की तुलना में कम लंबाई वाले बच्चों की संख्या के मामले में बिहार 43 प्रतिशत, मेघालय के बाद देश में दूसरे नंबर पर है। गुजरात में यह आंकड़ा 39 प्रतिशत है। अर्थात् गुजरात और बिहार जैसे राज्यों में बच्चों का समुचित विकास नहीं हो पा रहा है। वे कुपोषित हैं। इस कारण उनमें लंबाई कम होने की समस्या है। आयु के अनुपात से कम वजन वाले बच्चों की संख्या बिहार में सबसे अधिक 22.9 फीसदी है।
शिशु मृत्यु दर के मामले देश के अधिकतर राज्यों में कम हुए हैं। इसकी वजह टीकाकरण बताई गई है, लेकिन भूख और कुपोषण की स्थिति अभी चिंतनीय स्तर पर है। पोषण की कमी और बीमारियां कुपोषण के सबसे प्रमुख कारण हैं। अशिक्षा और गरीबी के चलते भारतीयों के भोजन में आवश्यक पोषक तत्त्वों की कमी हो जाती है जिसके कारण कई प्रकार के रोग, जैसे- एनीमिया, घेंघा व बच्चों की हड्डियां कमजोर होना आदि हो जाते हैं। कहते हैं कि पहला सुख निरोगी काया, अर्थात् जीवन का अगर सबसे बड़ा सुख कोई है तो वह है निरोगी रहना। लेकिन निरोगी रहने के लिए सबसे पहले खान−पान पर ध्यान देना जरूरी होता है। अगर आपके शरीर की पोषण संबंधी जरूरतें पूरी होंगी तो कई बीमारियां आपको छू भी नहीं पाएंगी। लेकिन भारतवर्ष में बहुत से लोगों को शरीर की इन पोषण संबंधी जरूरतों के बारे में पता नहीं होता और इसलिए उन्हें जागरूक करने के लिए ही देश में हर साल एक से सात सितंबर तक राष्ट्रीय पोषण सप्ताह मनाया जाता है। लेकिन एक दिन, एक सप्ताह अथवा एक वर्ष पोषण संबंधी समस्याओं को सुलझाने के लिए पर्याप्त नहीं है। इस दिशा में लगातार प्रयास किए जाते रहने की आवश्यकता है।
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(सागर दिनकर, 02.09.2021)
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सार्थक लेखन
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