Thursday, September 26, 2019

चर्चा प्लस ...25 सितम्बर जन्मतिथि पर विशेष : धर्म-संस्कृति की स्वतंत्रता के पक्षधर थे पं.दीनदयाल उपाध्याय - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
25 सितम्बर जन्मतिथि पर विशेष :
धर्म-संस्कृति की स्वतंत्रता के पक्षधर थे पं.दीनदयाल उपाध्याय

- डॉ. शरद सिंह
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पं. दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा था कि ‘हम स्वतंत्र हो गए हैं तो संस्कृति का यह प्रवाह फिर से बह निकलना चाहिए।’ दीनदयाल जी के लिए धर्म का व्यापक अर्थ रखता था। वे धर्म को व्यवहारिक दृष्टि से देखते थे तथा उसी आधार पर धर्म की व्याख्या करते थे। धर्म के नाम पर विभाजन अथवा शत्रुता उन्हें उचित नहीं लगती थी क्यों उनका मानना था कि धर्म जिस समाज में रखता है और समाज की भलाई के लिए जिन बातों को धारण करता है, वही धर्म है। दरअसल, पं. दीनदयाल के विचारों को समझने के लिए राजनीति के चश्में को उतारना जरूरी है। 
Charcha Plus - 25 सितम्बर जन्मतिथि पर विशेष... धर्म-संस्कृति की स्वतंत्रता के पक्षधर थे पं.दीनदयाल उपाध्याय  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
     पं. दीनदयाल उपाध्याय ने मनुष्य एवं राष्ट्र के समुचित विकास के लिए सांस्कृतिक स्वतंत्रता को अति आवश्यक माना। इस संबंध में उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था कि ‘‘15 अगस्त 1947 को हमने एक लड़ाई जीती है। अपने विकास के मार्ग के रोड़ों को दूर करने के लिए हमें स्वतंत्रता की आवश्यकता थी। अब हमारी आत्मानुभूति का मार्ग प्रशस्त हो गया है। अब मानव की प्रगति के लिए हमें इसकी सहायता करनी है। हमारी आत्मा अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह कर उठी, केवल इसलिए नहीं कि वे अंग्रेज थे बल्कि इसलिए कि हमारे दैनिक जीवन में अंग्रेजी रीत-रिवाज़ तथा विदेशी दृष्टिकोण स्थिर होता जा रहा था। उसके कारण सारा वातावरण दूषित होने लगा था। अब अंग्रेजों के जाने के बाद उनके स्थान पर हमारे अपने रक्त-मांस के लोगों का राज्य आ गया है, इसका हमें हर्ष है। किन्तु अब हमारी अपेक्षा है कि जिस समाज ने उन लोगों को बनाया है उसकी भावनाओं की धड़कनें उनके हृदय में उठनी चाहिए। ऐसा नहीं होता है तो यह कहना होगा कि अब भी स्वतंत्रता की यह लड़ाई पूरी होनी है।’’
सांस्कृतिक स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित करते हुए दीनदयाल जी ने इसी तारतम्य में आगे लिखा था कि ‘‘हमें आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा अध्यात्मिक स्वतंत्रता चाहिए। स्वतंत्रता में आत्मानुभूति का होना महत्वपूर्ण है। कारण यह है कि संस्कृति शरीर में प्राण की भांति राष्ट्रजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुभव की जा सकती है। प्रकृति पर विजय प्राप्त करते समय मानव अपनी जीवनदृष्टि से जो रचना करता है उसमें उसकी संस्कृति दिखाई देती है। संस्कृति कभी भी गतिशून्य नहीं होती। नदी के प्रवाह की भांति वह गतिमान रहती हैं उस प्रवाह के साथ ही उसके कतिपय गुण-विशेषों का भी निर्माण होता है। यह सांस्कृतिक दृष्टिकोण उसके साहित्य, कला, दर्शन, स्मृतिशास्त्र तथा सामाजिक इतिहास सब में व्यक्त होता रहता है। हम स्वतंत्र हो गए हैं तो संस्कृति का यह प्रवाह फिर से बह निकलना चाहिए। राष्ट्रभक्ति की भावना भी इसी संस्कृति से उत्पन्न होती है और यही संस्कृति राष्ट्र की सीमाओं को लांघ कर मानवजाति के साथ उस राष्ट्र की एकात्मकता का नाता जोड़ती है। इसीलिए सांस्कृतिक स्वतंत्रता परमावश्यक है। उसके बिना स्वतंत्रता व्यर्थ होगी और वह टिकेगी भी नहीं।’’
दीनदयाल जी का मानना था कि सांस्कृतिक मौलिकता सांस्कृतिक स्वतंत्रता में निहित होती है और सांस्कृतिक मौलिकता ही किसी भी राष्ट्र, किसी भी समुदाय की वास्तविक पहचान होती है। ओढ़ी हुई संस्कृति ठीक उसी प्रकार होती है जैसे सिर पर से ओढ़ा हुआ कंबल जो प्रत्येक पग के साथ सिर पर से सरकता जाता है और उसे बार-बार सम्हालने का यत्न करना पड़ता है जबकि मौलिक संस्कृति उस ऊर्जा के समान होती है जो शरीर के भीतर उपस्थित रह कर गर्मी प्रदान करती है तथा शारीरिक दृढ़ता को प्रकट करती है। समाज और संस्कृति शरीर और ऊर्जा की भांति हैं, एक दूसरे के पूरक। इसीलिए समाज के उत्थान के लिए संस्कृति की मौलिकता अतिआवश्यक है।
दीनदयाल जी के धर्म का व्यापक अर्थ था। वे धर्म को व्यवहारिक दृष्टि से देखते थे तथा उसी आधार पर धर्म की व्याख्या करते थे। धर्म के नाम पर विभाजन अथवा शत्रुता उन्हें उचित नहीं लगती थी क्यों उनका मानना था कि धर्म जिस समाज में रखता है और समाज की भलाई के लिए जिन बातों को धारण करता है, वही धर्म है। ‘पांचजन्य’ में प्रकाशित अपने एक लेख में दीनदयाल जी ने धर्म की व्याख्या करते हुए लिखा था- ‘‘धर्म वही है जो सब के लिए लाभकारी होता है और जो मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करता है। ‘धारणात् धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः’ - यह हमारे यहां धर्म की व्याख्या है। अर्थात् जिन बातों, शक्तियों, भावनाओं, व्वस्थाओं तथा नियमों के कारण समाज की धारणा होती है, वही धर्म है। मनुष्य की धारणा जिन बातों से होती है वह मनुष्य धर्म, शरीर जिसकी धारणा करे वह शरीर धर्म, इसी प्रकार सारी प्रजा की एवं उसके भी परे जा कर समस्त जड़-चेतन संसार की धारणा जिसके कारण होती है उसके भी अपने निश्चित नियम होते हैं। धर्म ही सबकी धारणा करता रहता है। धर्म के बिना कोई बात टिक नहीं सकेगी। प्रत्येक वस्तु नष्ट हो जएगी। शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा से युक्त मानव की धारणा जो कर सकेगा, उसे ही धर्म कहा जाएगा। धर्म धारणा के साथ-साथ सामंजस्य स्थापित करने का कार्य करता है। इसीलिए आचरण के नियम बनते हैं। ये नियम देश, काल, स्थिति एवं वस्तु के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। कुछ नियम ऐसे होते हैं जो सभी पर लागू किए जा सकते हैं।’’
दीनदयाल जी मानते थे कि जो सच्चा धार्मिक व्यक्ति है वह परपीड़ा की बात सोच ही नहीं सकता है। कोई भी धर्म दूसरे को पीड़ा देकर प्रसन्न रहने की शिक्षा नहीं देता है। धार्मिक अनुष्ठानों में प्रसाद वितरण का बड़ा महत्व रहता है। ‘प्रसाद’ को मानव-आचरण से जोड़ते हुए दीनदयाल जी ने व्याख्या की थी कि ‘‘इदं न मम - अर्थात् यह मेरा नहीं है। यज्ञ पूरा होने के बाद जो शेष रहता है, हम प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। पहले प्रसाद, बाद में यज्ञ ऐसा कभी नहीं होता। हमें यह सिखाया गया है कि हम जितना उत्पादन करते हैं, सारा का सारा अपने अकेले के लिए नहीं होता। एक कमाता है किन्तु उसका भोग परिवार के सारे लोग करते हैं। अन्न भी हम केवल अपने लिए ही ग्रहण नहीं करते। परमात्मा की कृपा से मिले मानव शरीर का संरक्षण हो और वह परमात्मा के ही काम आ सके इस हेतु हम अन्न ग्रहण करते हैं। इसमें भावना यह है कि - मैं केवल मेरा अपना ही नहीं, अपितु दूसरों का भी विचार करूंगा।- यह विचार हमारे रोम-रोम में समा गया तो हम कह सकेंगे कि हमारा जीवन धर्माधिष्ठित है। इसी में से त्याग-भावना उत्पन्न होती है और उस त्याग भावना के बल पर जीवन की सभी समस्याओं का समाधान भी होता है।’’
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने धर्म को समाज के लिए उपकारी तत्व निरूपित किया। वे सदा धर्म को विद्वेष की वस्तु नहीं अपितु व्यक्ति एवं समाज का उत्थानकारक मानते रहे।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 25.09.2019)
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