Dr (Miss) Sharad Singh |
दिवस, सप्ताह या मास से आगे भी रहे हिन्दी की चिंता
- डॉ. शरद सिंह
पं. मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन, महात्मा गांधी से ले कर अटल बिहारी वाजपेयी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा और राज्यों के बीच संपर्क की भाषा बनाने का अथक प्रयास किया। यहां तक कि थियोसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट ने कहा था, ‘भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।’ लेकिन आज अंग्रेजी-भक्ति के आगे हिन्दी की उपेक्षा यथावत है। हिन्दी की चिंता दिवस, सप्ताह, पखवाड़े और मास में सिमट कर रह जाती है। क्या इतने सीमित समय का प्रयास पर्याप्त है हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिए? सोचना होगा इस पर भी।
Charcha Plus - दिवस, सप्ताह या मास से आगे भी रहे हिन्दी की चिंता - Hindi Diwas 2019 - Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh |
पुरुषोत्तम दास टंडन ने महामना के आदर्शों के उत्तराधिकारी के रूप में हिंदी को निज भाषा बनाने तथा उसे राष्ट्र भाषा का गौरव दिलाने का प्रयास आरम्भ कर दिया था। सन् 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए महात्मा गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के योग्य ठहराते हुए कहा था कि, ‘मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।’ इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएं सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाएं। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदीसेवा को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में महात्मा गांधी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। महात्मा गांधी की प्रेरणा से सन् 1927 में मद्रास में तथा सन् 1936 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गईं।
अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया था। वे चाहते रहे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का सम्मान मिले। इसीलिए जो हिन्दी के प्रति अनिच्छा प्रकट करते थे उनके लिए अटल बिहारी का कहना था कि ‘‘क्या किसी भाषा को काम में लाए बिना, क्या भाषा का उपयोग किए बिना, भाषा का विकास किया जा सकता है? क्या किसी को पानी में उतारे बिना तैरना सिखाया जा सकता है?’’
22 फरवरी 1965 को राज्यसभा में राजभाषा नीति पर परिचर्चा के दौरान उन्हांने दिया था, इसमें हिन्दी की उपेक्षा के प्रति उनकी पीड़ा को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है-‘‘सभापति जी! मेरा दुर्भाग्य है, मेरी मातृभाषा हिन्दी है। अच्छा होता यदि मैं किसी अहिन्दी प्रांत में पैदा हुआ होता क्योंकि तब अगर हिन्दी के पक्ष में कुछ कहता तो मेरी बात का ज्यादा वजन होता। हिन्दी को अपनाने का फैसला केवल हिन्दी वालों ने ही नहीं किया। हिन्दी की आवाज पहले अहिन्दी प्रांतों से उठी। स्वामी दयानंद जी, महात्मा गांधी या बंगाल के नेता हिन्दीभाषी नहीं थे। हिन्दी हमारी आजादी के आंदोलन का एक कार्यक्रम बनी और चौदह सूत्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत उसका समावेश किया गया। हमारे संविधान का जो पहला मसविदा बना, उसमें अंग्रेजी के लिए पांच साल देना तय किया गया था, लेकिन श्री गोपालास्वामी अयंगार, श्री अल्लादि कृष्णास्वामी और श्री टी.टी. कृष्णमाचारी के आग्रह पर वह पांच साल की अवधि बढ़ाकर पन्द्रह साल की गयी। हिन्दी अंकों को अंतर्राष्ट्रीय अंकों का रूप नहीं दिया गया। राष्ट्रभाषा की जगह हिन्दी को राजभाषा कहा गया। उस समय अहिन्दी प्रान्तों से हिन्दी का विरोध नहीं हुआ था। संविधान में जो बातें थीं, उनका विरोध या तो राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने किया, जो अंग्रेजी नहीं चाहते थे या स्वर्गीय मौलाना आजाद ने किया, जो हिन्दी की जगह हिन्दुस्तानी चाहते थे, मगर दक्षिण में हिन्दी के विरोध में आवाज नहीं उठी थी, लेकिन पंद्रह साल में हमने क्या किया?’’
हिन्दी के संदर्भ में क्या हम आज महामना मदनमोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी के उद्गारों एवं प्रयासों को अनदेखा तो नहीं कर रहे हैं? वस्तुतः ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है। राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक दायित्व देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है। राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्कभाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है। राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है। विश्व में हिन्दी का गौरव तभी तो स्थापित हो सकेगा जब हम अपने देश में हिन्दी को उचित मान, सम्मान और स्थान प्रदान कर दें। हिन्दी के मार्ग में कहीं न कहीं सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी की है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमारे युवाओं में यहां युवा का अर्थ एक पीढ़ी पहले के युवाओं से भी है, अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपॉर्च्युनिटी’ देती है। इस बुनियादी बाधा को दूर करने के लिए हमें तय करना होगा कि हम पढ़ाई के लिए हिन्दी का कौन-सा स्वरूप रखें जिससे हिन्दी रोजगार पाने के लिए की जाने वाली पढ़ाई का शक्तिशाली माध्यम बन सके। दो में से एक मार्ग तो चुनना ही होगा- या तो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को विभिन्न विषयों का माध्यम बना कर युवाओं को उससे भयभीत कर के दूर करते जाएं या फिर हिन्दी के लचीलेपन का सदुपयोग करते हुए उसे रोजगार की भाषा के रूप में चलन में ला कर युवाओं के मानस से जोड़ दें। यूं भी भाषा के साहित्यिक स्वरूप से जोड़ने का काम साहित्य का होता है, उसे बिना किसी संशय के साहित्य के लिए ही छोड़ दिया जाए। आखिर हिन्दी को देश में और विदेश में स्थापित करने के लिए बीच का रास्ता ही तो चाहिए जो हिन्दी को रोजगारोन्मुख बनाने के साथ उसके लचीलेपन को उसकी कालजयिता में बदल दे। इससे भी पहले हमें छोड़ना होगा अपने उस दोहरेपन जिसके चलते हिन्दी की भलाई दिवस, सप्ताह और मास में सिमट कर रह जाती है और शेष दिनों में हम अंग्रेजी की सेवा करते रह जाते हैं ।
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सागर दिनकर, 11.09.2019
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