Friday, September 20, 2019

बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां आज नहीं जानतीं मामुलिया - डॉ. शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां आज नहीं जानतीं मामुलिया
    - डॉ. शरद सिंह
      (नवभारत में प्रकाशित)
     बुंदेलखंड में अनेक त्योहार मनाए जाते हैं जिन्हें बड़े-बूढ़े, औरत, बच्चे सभी मिलकर मनाते हैं। लेकिन कुछ त्यौहार ऐसे भी हैं जिन्हें सिर्फ बेटियां ही मनाती हैं, विशेष रूप से कुंवारी कन्याएं। ऐसा ही एक त्यौहार है मामुलिया। बड़ा ही रोचक, बड़ा ही लुभावना है यह त्यौहार। यह जहां एक और बुंदेली संस्कृति को रेखांकित करता है, वहीं दूसरी ओर भोली भाली कन्याओं के मन के उत्साह को प्रकट करता है। दरअसल मामुलिया बुंदेली संस्कृति का एक उत्सवी-प्रतीक है। आज के दौड़-धूप के जीवन में जब बेटियां पढ़ाई और अपने भविष्य को संवारने के प्रति पूर्ण रूप से जुटी रहती है उनसे कहीं सांस्कृतिक लोक परंपराएं छूटती जा रही है मामुलिया का भी चलन घटना स्वाभाविक है। आज बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां नहीं जानती मामुलिया। यूं तो मामुलिया मुख्य रूप से क्वांर मास में मनाया जाता है।
बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां आज नहीं जानतीं मामुलिया - डॉ. शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित)
       इस त्यौहार में अलग-अलग दिन किसी एक के घर मामुलिया सजाई जाती है। जिसके घर मामुलिया सजाई जाने होती है, वह बालिका अन्य बालिकाओं को अपने घर निमंत्रण देती है। सभी बालिकाओं के इकट्ठे हो जाने के बाद वे मिलकर गोबर से आंगन लीपती हैं। आंगन लीपने के बाद आंगन के बीच एक सुंदर चौक पूरा जाता है। इस चौक के बीचो-बीच बेर की हरी शाखा को खड़ा किया जाता है। बेर न मिलने पर बबूल की शाखा भी काम में लाई जाती है या फिर नींबू संतरा आदि कांटेदार पेड़ की शाखा। वैसे बेर की शाखा को सबसे अच्छा माना जाता है। चौक में खड़ी की गई बेर की शाखा को पहले हल्दी चावल से पूजा जाता है। फिर उसके ऊपर लहंगा और चुनरी डालकर उस पर महावर लगाया जाता है। इसके बाद बेर के कांटों में रंग-बिरंगे फूल लगा कर उसे सजाया जाता है। यही सजी हुई शाख मामुलिया कहलाती है। चावल की लाई, मखाने आदि भी कांटों पर लगाए जाते हैं जिससे मामुलिया का सौंदर्य बढ़ जाता है। मामुलिया को सजाने के बाद भुने चने, ज्वार की लाई, केला, खीरा आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इसके बाद बालिकाएं हाथों में हाथ डालकर मामुलिया के चारों ओर घूमती हुई गाती है-                                 
मामुलिया के आए लिवौआ
झमक चली मोरी मामुलिया......

मामुलिया के पूजन के बाद मामुलिया को लेकर जुलूस के रूप में बालिकाएं घर से निकल पड़ती हैं। साथ ही वे गीत गाती चलती हैं कि -
ले आओ आओ चंपा चमेली के फूल
सजाओ मोरी मामुलिया
ले आओ आओ गेंदा हजारी के फूल
सजाओ मेरी मामुलिया.....
   
    इस प्रकार गांव भर में घूमती हुई बालिकाएं नदी अथवा तालाब के किनारे पहुंचती हैं। वे मामुलिया को नदी या तालाब में सिरा देती हैं। मामुलिया सिरा कर लौटते समय पीछे मुड़कर नहीं देखा जाता। कहते हैं कि पीछे मुड़कर देखने से भूत लग जाता है। घर लौटने पर वह बालिका जिसके घर मामुलिया सजाई गई थी, शेष बालिकाओं को भीगे चने का न्योता देती है।
मामुलिया के इस त्योहार से एक रोचक कथा जुड़ी है।   एक गांव में मामू लिया नाम की एक लड़की रहती थी वह बेहद गरीब थी लेकिन उतनी ही सुंदर थी एक बार एक राजकुमार मामूली आके गांव से गुजरा तो उसने मां मूल्य को देखा और उसे देखते ही मुक्त हो गया राजकुमार नेमा मूल्य से विवाह करने की इच्छा प्रकट की मां मूल्य की सहेलियों को जब यह पता चला तो वह बहुत खुश हुए सभी लड़कियां मामू लिया और राजकुमार को गांव की सीमा पर स्थित नदी तक पहुंचाने गई मां मूल्य को विदा करके लौटते समय उन्होंने यह सोचकर पीछे मुड़कर नहीं देखा कि इससे उनके बीच का मुंह जाग उठेगा फिर ना तो मामूली अपना गांव छोड़कर जा सकेगी और ना उसकी सहेलियां उसे जाता हुआ देख सकेंगे इस कथा के अनुसार मामू लिया के प्रतीक स्वरूप वेज की शाखा को सजाया जाता है और पूजा अनुष्ठान तथा गाना बजाना करके उसे विदा कर दिया जाता है ।
आज जब समय तेजी से बदलता जा रहा है और ग्रामीण क्षेत्रों की बेटियां भी पढ़-लिख कर अपना कैरियर बनाने में जुटी रहती है, वे लोक परंपराओं से दूर होती जा रही हैं। मामुलिया जैसे पर्व त्योहार कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं जबकि यह त्यौहार बेटियों को प्रकृति से जोड़ने और उनमें सौंदर्यबोध को बढाने का त्योहार है। लेकिन आज बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां नहीं जानती मामुलिया के बारे में। जीवन में प्रगति भी आवश्यक है किन्तु उतनी ही आवश्यक है लोकपरंपराओं से खुद को जोड़े रखना। लोक परंपराएं अतीत और भविष्य, नवीनता और पुरातन, आधुनिकता और संस्कार को परस्पर जोड़े रखने का काम करती हैं। ये जातीय गौरव से जोड़ कर व्यक्ति में आत्मगौरव की भावना बढ़ाती हैं। बुंदेली लोक-संस्कृति की गहरी समझ रखनेवाले विद्वान डॉ. श्यामसुंदर दुबे  लोक की परंपरा प्रवाह एवं पहचान पर चिंता जताते हुए आधुनिकता के बढ़ते दबावों से उत्पन्न खतरों की ओर ध्यानाकर्षण करते रहे है। उनके अनुसार ‘हमें अपनी परंपराओं से खुद को जोड़े रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए।’

     मामुलिया बेटियों के पारस्परिक बहनापे का भी त्यौहार है। इस त्यौहार में बड़ों का हस्तक्षेप न्यूनतम रहता है अतः इससे बेटियों में सब कुछ खुद करने का आत्मविश्वास और कौशल बढ़ता है। इस प्रकार के त्यौहारों को उत्सवी आयोजन के रूप में मनाते हुए बचाया जा सकता है। जैसे दिसम्बर 2012 में झांसी महोत्सव में भी मामुलिया सजाने की प्रतियोगिता करा कर बेटियों को मामुलिया के बारे में जानकारी दी गई थी। इसी प्रकार 12 अक्टूबर 2016 को हमीरपुर आदिवासी डेरा में ‘बेटी क्लब’ द्वारा लोक परंपरा का खेल मामुलिया और सुअटा खेला गया।  इसका संरक्षण आवश्यक है। क्योंकि यह परंपरा बेटियों के सम्मान के लिए बनाई गई है। ग्राम बसारी, हटा आदि लोकोसत्वों में भी मामुलिया जैसी परम्पराओं पर ध्यान दिया जाता है किन्तु जरूरी है शहरी जीवन को इन रोचक परम्पराओं से जोड़ना।
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(नवभारत, 20.09.2019)
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