Dr (Miss) Sharad Singh |
बुंदेलखंड की कटक गाथाएं
- डॉ. शरद सिंह
(नवभारत में प्रकाशित )
(नवभारत में प्रकाशित )
बुंदेलखंड में शौर्य गाथाओं की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितने शौर्य के कार्य। बुंदेलखंड में शौर्य गाथाओं की एक लंबी परंपरा पाई जाती है 12वीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक अनेक शौर्य गाथाएं लिखी गई जिनमें प्रमुख हैं- रासो, कटक और राछरे। क्योंकि गाथाओं की परंपरा मुख्य रूप से वाचिक रही है अतः जिनको संग्रहीत कर लेखबद्ध कर लिया गया वे उपलब्ध हैं और उनका गायन किया जाता है। बुंदेली शौर्य गाथाओं में सबसे अधिक ख्याति नाम गाथा है-‘आल्हाखंड’ जिसे लोक गायक ढोलक की थाप पर आज भी गाते हैं। ‘आल्हाखंड’ के रचयिता थे कवि जगनिक। इसी प्रकार ’विजयपाल रासो’ भी जगनिक के द्वारा लिखा गया। जिसमें राजा विजयपाल राठौर के शिकार खेलने जाने वर्णन है। जहां अचानक राजा पृथ्वीराज के सैनिकों से मुठभेड़ हो जाती है। इस मुठभेड़ में विजयपाल राठौर पृथ्वीराज के सैनिकों को पराजित करने में सफल हो जाते हैं। जिसके बाद पृथ्वीराज कन्नौज पर आक्रमण कर देते हैं और कवि जगनिक दोनों पक्ष में सुलह कराने का प्रयास करते हैं। एक अन्य शौर्य गाथा है ‘वीर सहदेव चरित’, जिसे कवि केशवदास ने लिखा था। रासो परंपरा में जोगीदास भांडेरी द्वारा रचित ‘दलपत राव रासो’, लाल कवि रचित ‘छत्र प्रकाश’, कवि सबसुख द्वारा रचित भगवंत सिंह रासो, कभी गुलाब चतुर्वेदी का ‘करहिया का रासो’, कवि श्रीधर का ‘पारीछत रासो’, कवि आनंद सिंह कुड़रा का ‘बाघाट रासो’ आदि शौर्य गाथा के अतिरिक्त कुछ गाथाएं कटक गाथाओं के अंतर्गत आती हैं।
Bundelkhand Ki Katak Gathayen - Dr Sharad Singh - Published in Navbharat |
कटक गाथाएं रासो एवं राछरे गाथाओं से विषय के आधार पर भिन्न नहीं हैं। इनमें भी राजाओं की शौर्य कथाएं निबद्ध हैं। पन्ना नरेश महाराज छत्रसाल के समकालीन कवि दान में उनकी शौर्य की स्तुति करते हुए जो कटक बंध लिखा उसका नाम है ‘छत्रसाल जू देव कौ कटक बंध’। इस कटक गाथा में महाराज छत्रसाल और मोहम्मद खान के मध्य हुए युद्ध का विस्तृत वर्णन है जिसमें महाराजा छत्रसाल एवं बुंदेली सैनिकों की वीरता का वर्णन किया गया है दतिया के प्रसिद्ध विद्वान स्वर्गीय बाबू लाल गोस्वामी ने ‘छत्रसाल जूदेव कटक बंध’ का संपादन किया तथा सन 1992 में भानु प्रिंटर्स दतिया से इसे प्रकाशित कराया।
भग्गी दाऊजू श्याम द्वारा रचित ‘झांसी कौ कटक’ सन उन्नीस सौ ईसवी की रचना मानी जाती है इसे स्वर्गीय डॉ. भगवान दास महौर ने ‘लक्ष्मी बाई रासो’ के साथ संयुक्त रूप से सन 1969 में प्रकाशित कराया। झांसी के जनकवि भग्गी दाऊजू श्याम सन 1857 की क्रांति के सहभागी थे। ‘झांसी कौ कटक’ में गीतों के माध्यम से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता का वर्णन किया गया है। बुंदेलखंड में 1857 से पहले भी बुंदेलों ने अंग्रेजों का सशस्त्र विरोध किया था। जिसका प्रमाण ‘पारीछत कौ कटक’ में मिलता है। इस शौर्य गाथा में जैतपुर के महाराज पारीछत और अंग्रेजों के मध्य युद्ध का वर्णन है। यह युद्ध सन 1841 में हुआ था। अंग्रेजों की राजनीतिक लिप्सा को चुनौती देते हुए बेरमा नदी के किनारे बिलगांव में महाराज पारीछत ने अंग्रेजों से युद्ध किया जिसमें पुरैना, बिलगांव आदि के रहवासियों ने अंग्रेजों से लोहा लिया। यद्यपि महाराज पारीछत विजयी नहीं हुए और उन्हें बंदी बना कर कानपुर जेल में रखा गया जहां सन 1853 में उन्हें फांसी दे दी गई। ‘पारीछत कौ कटक’ के रचयिता कवि बृजकिशोर माने जाते हैं। वीर रस की इस रचना ने लोक काव्य के रूप में प्रसिद्धि पाई।
भैरोंलाल रचित ‘भिलसांय कौ कटक’ में बघेल राजा ठाकुर रणमत सिंह और अंग्रेजों के मध्य पुटरा नामक स्थान में सन 1857 में हुए युद्ध का वर्णन है। सन् 1857 में रणमत सिंह की रीवा जागीर पन्ना रियासत के अंतर्गत आती थी। रणमत सिंह मूलतः बघेल क्षत्रिय थे। किसी कारण पन्ना और रीवा रियासतों के बीच मन मुटाव हो गया। सन् 1850 में दोनों रियासतों ने युद्ध की तैयारियां होने लगीं। किन्तु अंग्रेजों की मध्यस्थता के कारण युद्ध टल गया। इसके बाद रणमत सिंह जागीर छोड़कर अपने कुछ साथियों के साथ सागर आ गए। जहां वे अंग्रेजी सेना में लेफ्टिनेंट हो गए। कुछ दिनों बाद उन्हें पदोन्नति देकर नौगांव भेज दिया गया। जहां उन्होंने केप्टन के रूप में पदभार संभाल लिया। तभी 1857 का दौर शुरू हुआ। अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति फूट पड़ी। कैप्टन रणमत सिंह की पलटन को आदेश मिला कि वे क्रांतिकारी बख्तबली और मर्दन सिंह को पकड़ने का अभियान चलाएं। रणमत सिंह ने यह अभियान नहीं चलाया, बल्कि वे दिखावे के लिए यहां-वहां डोलते रहे। यह बात अंग्रेजों को पता चल गई। उन्होंने रणमत सिंह और उनके साथियों को बर्खास्त कर दिया और गिरफ्तारी आदेश जारी कर दिए। अंग्रेज फौज में रहते हुए रणमत सिंह लगभग 300 लोगों की एक टुकड़ी बना ली थी। बर्खास्त होने के बाद यह टोली खुलकर क्रांति में शामिल हो गई। लेकिन उन्हें धोखे से बंदी बना कर बांदा जेल भेज दिया गया। बांदा में 1 अगस्त 1859 को उन्हें फांसी दे दी गई। इस घटनाक्रम का रोचक विवरण ‘भिलसांय कौ कटक’ में मिलता है।
बुंदेलखंड की कटक शौर्यगाथा परंपरा को आधुनिक मंच देने के लिए सन् 2013 में बॉलीवुड के चर्चित फिल्म अभिनेता एवं नाट्य निदेशक गोविंद नामदेव ने एनएसडी, अथग और सागर विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में एक वर्कशॅप संचालित किया था। वर्कशॉप के समापन पर गोविंद नामदेव के निर्देशन में 30 दिसंबर 2013 को तीन दिवसीय नाटक की श्रृंखला ‘मधुकर कौ कटक’ का मंचन किया गया था। इस गाथा में बुंदेला वीर मधुकर शाह बुंदेला की गौरवगाथा है। ललितपुर जिले के नाराहट में जन्मे बुंदेला वीर मधुकर शाह ने ‘बुन्देला विद्रोह’ की अलख जगाते हुए स्वयं आगे बढ़ कर अंग्रेजो से लोहा लिया था। मधुकर शाह को छल द्वारा बंदी बना कर सागर जेल में रखा गया और उसी जेल के प्रांगण में उन्हें फांसी दे दी गई। उस समय उनकी आयु मात्र 21 वर्ष थी। ‘मधुकर कौ कटक’ का इसके बाद अनेक बार मंचन किया जा चुका है। अभिनेता एवं निदेशक गोविंद नामदेव ने बुंदेलखंड की गाथा परंपरा को नाट्य-मंचन का प्लेटफार्म दे कर जिस प्रकार एक बार फिर लोकप्रिय बनाने का कदम उठाया वह सराहनीय है। इसी तरह के और भी कई प्रयास किए जाने की आवश्यकता है जिसमें इस प्रकार की गाथाओं का पुनर्मुद्रण एवं डिज़िटलाईजेशन भी जरूरी है जिससे ये गाथाएं संरक्षित हो सकें।
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भग्गी दाऊजू श्याम द्वारा रचित ‘झांसी कौ कटक’ सन उन्नीस सौ ईसवी की रचना मानी जाती है इसे स्वर्गीय डॉ. भगवान दास महौर ने ‘लक्ष्मी बाई रासो’ के साथ संयुक्त रूप से सन 1969 में प्रकाशित कराया। झांसी के जनकवि भग्गी दाऊजू श्याम सन 1857 की क्रांति के सहभागी थे। ‘झांसी कौ कटक’ में गीतों के माध्यम से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता का वर्णन किया गया है। बुंदेलखंड में 1857 से पहले भी बुंदेलों ने अंग्रेजों का सशस्त्र विरोध किया था। जिसका प्रमाण ‘पारीछत कौ कटक’ में मिलता है। इस शौर्य गाथा में जैतपुर के महाराज पारीछत और अंग्रेजों के मध्य युद्ध का वर्णन है। यह युद्ध सन 1841 में हुआ था। अंग्रेजों की राजनीतिक लिप्सा को चुनौती देते हुए बेरमा नदी के किनारे बिलगांव में महाराज पारीछत ने अंग्रेजों से युद्ध किया जिसमें पुरैना, बिलगांव आदि के रहवासियों ने अंग्रेजों से लोहा लिया। यद्यपि महाराज पारीछत विजयी नहीं हुए और उन्हें बंदी बना कर कानपुर जेल में रखा गया जहां सन 1853 में उन्हें फांसी दे दी गई। ‘पारीछत कौ कटक’ के रचयिता कवि बृजकिशोर माने जाते हैं। वीर रस की इस रचना ने लोक काव्य के रूप में प्रसिद्धि पाई।
भैरोंलाल रचित ‘भिलसांय कौ कटक’ में बघेल राजा ठाकुर रणमत सिंह और अंग्रेजों के मध्य पुटरा नामक स्थान में सन 1857 में हुए युद्ध का वर्णन है। सन् 1857 में रणमत सिंह की रीवा जागीर पन्ना रियासत के अंतर्गत आती थी। रणमत सिंह मूलतः बघेल क्षत्रिय थे। किसी कारण पन्ना और रीवा रियासतों के बीच मन मुटाव हो गया। सन् 1850 में दोनों रियासतों ने युद्ध की तैयारियां होने लगीं। किन्तु अंग्रेजों की मध्यस्थता के कारण युद्ध टल गया। इसके बाद रणमत सिंह जागीर छोड़कर अपने कुछ साथियों के साथ सागर आ गए। जहां वे अंग्रेजी सेना में लेफ्टिनेंट हो गए। कुछ दिनों बाद उन्हें पदोन्नति देकर नौगांव भेज दिया गया। जहां उन्होंने केप्टन के रूप में पदभार संभाल लिया। तभी 1857 का दौर शुरू हुआ। अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति फूट पड़ी। कैप्टन रणमत सिंह की पलटन को आदेश मिला कि वे क्रांतिकारी बख्तबली और मर्दन सिंह को पकड़ने का अभियान चलाएं। रणमत सिंह ने यह अभियान नहीं चलाया, बल्कि वे दिखावे के लिए यहां-वहां डोलते रहे। यह बात अंग्रेजों को पता चल गई। उन्होंने रणमत सिंह और उनके साथियों को बर्खास्त कर दिया और गिरफ्तारी आदेश जारी कर दिए। अंग्रेज फौज में रहते हुए रणमत सिंह लगभग 300 लोगों की एक टुकड़ी बना ली थी। बर्खास्त होने के बाद यह टोली खुलकर क्रांति में शामिल हो गई। लेकिन उन्हें धोखे से बंदी बना कर बांदा जेल भेज दिया गया। बांदा में 1 अगस्त 1859 को उन्हें फांसी दे दी गई। इस घटनाक्रम का रोचक विवरण ‘भिलसांय कौ कटक’ में मिलता है।
बुंदेलखंड की कटक शौर्यगाथा परंपरा को आधुनिक मंच देने के लिए सन् 2013 में बॉलीवुड के चर्चित फिल्म अभिनेता एवं नाट्य निदेशक गोविंद नामदेव ने एनएसडी, अथग और सागर विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में एक वर्कशॅप संचालित किया था। वर्कशॉप के समापन पर गोविंद नामदेव के निर्देशन में 30 दिसंबर 2013 को तीन दिवसीय नाटक की श्रृंखला ‘मधुकर कौ कटक’ का मंचन किया गया था। इस गाथा में बुंदेला वीर मधुकर शाह बुंदेला की गौरवगाथा है। ललितपुर जिले के नाराहट में जन्मे बुंदेला वीर मधुकर शाह ने ‘बुन्देला विद्रोह’ की अलख जगाते हुए स्वयं आगे बढ़ कर अंग्रेजो से लोहा लिया था। मधुकर शाह को छल द्वारा बंदी बना कर सागर जेल में रखा गया और उसी जेल के प्रांगण में उन्हें फांसी दे दी गई। उस समय उनकी आयु मात्र 21 वर्ष थी। ‘मधुकर कौ कटक’ का इसके बाद अनेक बार मंचन किया जा चुका है। अभिनेता एवं निदेशक गोविंद नामदेव ने बुंदेलखंड की गाथा परंपरा को नाट्य-मंचन का प्लेटफार्म दे कर जिस प्रकार एक बार फिर लोकप्रिय बनाने का कदम उठाया वह सराहनीय है। इसी तरह के और भी कई प्रयास किए जाने की आवश्यकता है जिसमें इस प्रकार की गाथाओं का पुनर्मुद्रण एवं डिज़िटलाईजेशन भी जरूरी है जिससे ये गाथाएं संरक्षित हो सकें।
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(नवभारत, 13.09.2019)
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