प्रस्तुत है आज 12.01.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री डाॅ. चंचला दवे के कविता संग्रह "हां, मैं ऐसी ही हूं" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
व्यष्टि से समष्टि की व्याख्या करती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - हां, मैं ऐसी ही हूं
कवयित्री - डाॅ. चंचला दवे
प्रकाशक - अनुज्ञा बुक्स, 1/10206, लेन नं. 1ई, वेस्ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली-32
मूल्य - 295 रुपए
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संवेदना का प्रतिशत भले ही अलग-अलग हो किन्तु प्रत्येक व्यक्ति संवेदनशील होता है। संवेदना कविता का मूल आधार होती है। संवेदना ही विचारों को रससिक्त कर प्रस्तुत करने की कला सिखाती है। जो संवेदनशील है, वहीं कविता रच सकता है और जो संवेदनशील है, वही उस कविता के मर्म को समझ सकता है। संवेदना का एक अभिन्न तत्व होता है औचित्य। औचित्य के बिना न तो संवेदना जागती है और न पक्षधरता के लिए प्रेरित होती है। यह औचित्य घर, परिवार, समाज से ही मिलता है। अपने आस-पास के परिवेश का वैश्विक धरातल पर आकलन कर कवि परिस्थितियों को समग्रता से आंकता है और उसमें मौजूद कमियों, विसंगतियों को रेखांकित करके उसमें सुधार के लिए आवश्यक संकेत देता है, कभी मुखर तो कभी दबे-छिपे शब्दों में। कविता में स्थानीयता की समझ उसे वैश्विक बना देती है। कोई भी रचनाकार वर्तमान को समृद्ध किए बिना भविष्य की रचना नहीं कर सकता। श्रेष्ठ कवि वही है जो संस्कृति को आत्मसात कर के आधुनिक मूल्यों को प्रस्तुत करता है।
बाह्य परिस्थितियों से प्रभावित हो कर अंतर्मन में द्वंद्व जाग उठता है और यही सृजन का प्रस्थान बिन्दु बनता है। प्रेम से उपजा अंर्तद्वंद्व कालिदास से ‘‘मेघदूतम्’’ की रचना करता है तो राजनीति से उपजा अंर्तद्वंद्व रामधारी सिंह ‘दिनकर’ से ‘‘भारत का यह रेशमी नगर’’ कविता लिखवा देता है। यही अंर्तद्वंद्व जब चित्रकार की कूची से निकलता है तो पिकासो विशाल पेंटिंग ‘‘गुएर्निका’’ बना डालते हैं, भले ही इसके बदले उन्हें देशद्रोही कहलाना पड़ता है। सच्ची कला और कविता निर्भीक होती हैं। कविता और कला की यही एकरूपता कविता-कला का निर्माण करती है अर्थात् जहंा काव्य भी हो और कला भी अर्थात् साहित्य सृजन की एक कलात्मक अभिव्यक्ति। अब जहां कलात्मकता होगी वहां रागात्मकता भी होगी ही। इस संबंध में डॉ. नगेन्द्र अपनी पुस्तक ‘आस्था के चरण’ में लिखते हैं कि ‘‘काव्य के विषय में और चाहे कोई सिद्धान्त निश्चित न हो, परन्तु उसकी रागात्मकता असंदिग्ध है। कविता मानव मन का शेषसृष्टि के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करती है।’’
डाॅ. चंचला दवे स्त्री के आत्मसम्मान के प्रति रागात्मकता का अनुभव करती हुई लिखती हैं-
नारी/जीवन में तेरी
शक्ति-बुद्धि की
सतत बहे धारा/तेरा यही
संकल्प हो यही/व्रत हो तेरा
क्षमा शील करूणा/की खान
विश्व के दिग- दिगंत
चरणों में तेरे/झुकाये भाल।
जहां तक कविता में रागात्मकता का प्रश्न है तो रागात्मकता ही वह मूलभूत प्राणतत्त्व है जिसके द्वारा मानव मन शेष सृष्टि के साथ मधुरिम और रसात्मक सम्बन्ध बनाता है। मानव मन की जीवंतता को मूर्तिमान करने में या जीवन की वास्तविकता को देखने-परखने या समझने के संदर्भ में रागात्मकता जैसे अनिवार्य तत्व की असंदिग्ध भूमिका होती है। इस दृष्टि को प्राप्त करने के लिये कवि का सहृदय और रागी होना आवश्यक है। सत्योन्मुखी रागात्मकता एक शिवात्मक कविता को जन्म देती है। किसी कविता को समझने के लिए उसके अर्थ और भावार्थ दोनों को ग्रहण किया जाना चाहिए।
‘‘हां, मैं ऐसी ही हूं’’ कविता में डाॅ. चंचला दवे निजता के अर्थ से भावार्थ की गूढ़ता का आह्वान करती हैं, जब वे ये पंक्तियां लिखती हैं कि-‘‘
मै बचपन से/ऐसी ही हूं
होली की ज्वाला
के साथ में जन्मी
होना तो चाहिए था/आग मुझे
पर पानी ही रह गई।
अग्निपुंज बनने के स्थान पर पानी रह जाने की पीड़ा बहुसंख्यक स्त्रियों की पीड़ा है। स्त्री अपने अस्तित्व को स्थापित करने के लिए सदियों से संघर्षरत है, यही संघर्ष उसमें उष्मा बनाए रखता है। आशय यह कि कवयित्री डाॅ. चंचला दवे की कविताएं जो इस संग्रह में संग्रहीत हैं, समग्रता से समझे जाने की अपेक्षा रखती हैं। इन कविताओं में यह खूबी है कि जब इन्हें शाब्दिक अर्थ में लिया जाए तो यह निजी यानी व्यष्टि की कविताएं प्रतीत होंगी। किन्तु जब इनमें गहरे पैंठ कर इनके भावार्थ को ग्रहण किया जाए तो यह सकल यानी समष्टि की कविताएं दिखाई देंगी।
डाॅ. चंचला दवे का प्रथम काव्य संग्रह ‘‘गुलमोहर’’ मैंने पढ़ा है और उसका आकलन भी किया है। अब यह उनका दूसरा काव्य संग्रह ‘‘हां, मैं ऐसी ही हूं’’ उनकी सृजनयात्रा के एक और महत्वपूर्ण पड़ाव को चिन्हित करता है। जैसे कि मैंने अभी लेख किया कि इस संग्रह की कविताएं व्यष्टि से समष्टि को व्याख्यायित करती हैं। उनकी किसी कविता को पढ़ कर जहां लगता है कि वे अपनी निजी पीड़ा को अभिव्यक्ति दे रही हैं, ठीक वहीं सम्पूर्ण स्त्री समाज की पीड़ा सिंक्रोनाईज़ हो कर हमारे सामने आ खड़ी होती है। जो डाॅ. चंचला दवे अनुभव करती हैं, वहीं सैंकड़ों, हजारों, लाखों स्त्रियां महसूस करती हैं। साहित्य में स्त्रियों की सृजनात्मकता साहित्य को पूर्णता प्रदान करती है। डाॅ. चंचला दवे की स्त्रियों के जीवन को लेकर, समाज की दशा-दिशा को लेकर जो मुखरता है वह इस संग्रह की कविताओं को आंतरिक बल प्रदान करती है।
समसामयिकता भी इस संग्रह की कविताओं का एक विशेष गुण है। समूचा विश्व जिस पीड़ा से गुज़रा है और अभी तक गुज़र रहा है, कोरोना आपदा की वह पीड़ा आने वाली पीढ़ियों तक को दंश करती रहेगी। जब हम इतिहास के पन्नों में ब्लैक डेथ, हैजा, प्लेग आदि महामारियों के बारे में पढ़ते हैं जिसमें हज़ारों लोगों ने अपने प्राण गंवाए, तो उस समय यह सोच कर संतोष कर लेते हैं कि तब विज्ञान ने इतनी प्रगति नहीं की थी कि हम महामारी से होने वाली जनहानि को कम कर पाए होते। लेकिन आज हमारी यह सोच मिथ्या साबित होने लगती है जब कोरोना से मरने वालों के आंकड़े हमारी आंखों के सामने आते हैं। इन आंकड़ों से कवयित्री के मन का उद्वेलित होना स्वाभाविक है। वे लिखती हैं-‘‘ कोरोना फिर कहर/बरसा रहा है/कहीं सिमटता/नजर नहीं आ रहा/और ऐसे समय में/बहुत जरुरी काम होने चाहिए/वे हो भी रहे हैं/वेक्सीन लगाये जा रहे/टीका उत्सव मनाया जा रहा/चुनाव भी हो रहे/परीक्षाएं स्थगित हो रही/रोजी रोटी के साधन/फिर छीने जा रहे/पारा भी खूब चढ़ रहा/प्राण-वायु के टोटे/पड़ रहे।’’
डाॅ. चंचला दवे का यह काव्य संग्रह समाज से सरोकारित, स्त्रीविमर्श रचता और समसामयिकता को रेखांकित करता एक महत्वपूर्ण संग्रह है जिसे पढ़ कर इसमें संग्रहीत कविताओं के भाव और प्रभाव का न केवल रसास्वादन किया जा सकता है अपितु वैचारिक धरातल पर चिंतन और मनन भी किया जा सकता है।
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