प्रस्तुत है आज 18.01.2022 को दैनिक "आचरण" में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका श्रीमती आराधना खरे के कहानी संग्रह "मंथन" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
स्त्रीजीवन का मनोवैज्ञानिक विमर्श रचती कहानियां
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - मंथन
लेखिका - आराधना खरे
प्रकाशक - स्टोरीमिरर इंफोटेक प्रा.लि.,145, पहला माला, पवई प्लाज़ा, हीरानन्दानी गार्डन्स, मुंबई
मूल्य - 200 रुपए
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कहानियां हर व्यक्ति के जीवन में उसकी बाल्यावस्था से ही प्रवेश कर जाती हैं। नानी, दादी, मां, पिता एवं अपने परिवार के बड़ों से कहानी सुनने का अवसर हर किसी को मिलता है चाहे उसके परिजन शिक्षित हों या अशिक्षित। कहानी का प्रत्यक्ष संबंध शिक्षित होने से कहीं अधिक अनुभव एवं कल्पनाशीलता से होता है। किन्तु कहानी और शिक्षा का परस्पर बड़ा घनिष्ठ होता है। हर कहानी का उद्देश्य कोई न कोई शिक्षा अथवा जानकारी देना होता है, चाहे वह वीरता का संचार करने वाली राजा-रानी की कहानी ही क्यों न हो। ‘‘पंचतंत्र’’ की कहानियां इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं जो शिक्षा देने के उद्देश्य से ही लिखी गईं। हर कहानीकार कहानी के माध्यम से अपने अनुभवों को वे चाहे निजी हों, परिवार के हो, समाज के हो अथवा देश के हों, साझा करना चाहता है। यहां एक बात और महत्वपूर्ण है कि यह आवश्यक नहीं कि कहानी लिखनेे वाला साहित्य का ही विद्यार्थी हो, वह किसी भी विषय का स्काॅलर हो सकता है। बस, शर्त यही है कि उसकी विषय का आकलन करने और उसे कथारूप में अभिव्यक्त करने की कला आती हो। आखिर कहानी को ‘‘कहानी कला’’ यूं ही तो नहीं कहा जाता है। कहानी के मूल तत्व अर्थात् कथानक, पात्र एवं चरित्र, संवाद, भाषा-शैली, वातावरण और उद्देश्य कहानी के स्वरूप को तय करते हैं। इन सभी तत्वों पर जिसकी अच्छी पकड़ हो वह श्रेष्ठ कहानी कह या लिख सकता है।
इस बार जिस कहानी संग्रह को समीक्षा के लिए सामने रखा गया है उसका नाम है ‘‘मंथन’’। यह लेखिका आराधना खरे का प्रथम कहानी संग्रह है। आराधना खरे रसायनशास्त्र की व्याख्याता रही हैं किन्तु साहित्य के प्रति बचपन से ही इनका रुझान था। आकाशवाणी, पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कहानियां, कविताएं प्रसारित, प्रकाशित होती रहीं। ‘‘मंथन’’ उनकी 34 कहानियों का संग्रह है जिसमें इस नाम की कोई कहानी नहीं है अर्थात् संभवतः अब तक उनके द्वारा लिखी गई कहानियों का मंथन करके उनमें 34 कहानियों को संग्रह के लिए चुना गया और इसीलिए संग्रह का नाम ‘‘मंथन’’ रखा गया। चूंकि संग्रह में लेखिका की ओर कोई प्राक्कथन नहीं है अतः संग्रह का ‘‘मंथन’’ नाम रखे जाने के संबंध में अनुमान ही लगाया जा सकता है। इस संग्रह में एक गहन विचारणीय तथ्य है जिसके बारे में समीक्षा के अंतिम भाग में चर्चा करूंगी। पहले संग्रह की कहानियों पर दृष्टिपात आवश्यक है।
आराधना खरे की कहानियां परिवार और समाज में स्त्री जीवन को व्याख्यायित करती कहानियां हैं। संग्रह की कहानियों से गुज़रते हुए यह मानना पड़ेगा कि लेखिका को मनोविज्ञान की अच्छी समझ है। उनके पात्रों का मनोविज्ञान कथा के महत्व को बखूबी प्रस्तावित करता है। जैसे संग्रह की पहली कहानी है ‘‘एक बार फिर’’। यह कहानी मनोवैज्ञानिक धरातल पर मानवीय विमर्श रचती है। लेखिका ने कहानी के माध्यम से यह यथार्थ सामने रखा है कि चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, उसकी यही इच्छा होती है कि उसका जीवनसाथी उसके अलावा और किसी को न चाहे। इस समस्या को लेकर कई बार दाम्पत्य संबंधों में दरार पड़ जाती है। जबकि कई बार स्त्री को दोयम होने का दंश सहन करना पड़ता है। ‘‘एक बार फिर’’ की नायिका अपने सांवले, साधारण रंग-रूप के कारण अपने छोटी बहन की तुलना में कमतर ही ठहराई जाती रही। फिर जब इकतीस वर्ष की आयु में उसका विवाह हुआ तो वह भी एक विधुर से। अतः विवाह के बाद उसे अपने पति की दिवंगत पूर्व पत्नी की सुंदरता की तुलनात्मक उपस्थिति का दंश सहने को विवश होना पड़ा। यह उसके अविवाहित जीवन के अनुभव से भी अधिक कष्टप्रद था। फिर भी एक स्त्री अपना दाम्पत्यजीवन को बचाने के लिए कभी आशा की डोर नहीं छोड़ती है। इसी तरह कथा की नायिका को भी आशा है कि संतान सुख उसके इस दुख को दूर कर देगा और उसका पति उसके आंतरिक सौंदर्य को समझ जाएगा। यह कहानी निराशा में आशा की डोर ढूंढ लेने का एक मजबूत आधार सुझाती है। संग्रह की सभी कहानियों की तरह यह भी एक छोटी-सी कहानी है किन्तु इसका कथानक दीर्घ विमर्श रचने में सक्षम है।
‘‘मंत्र’’ कहानी भी एक मनोवैज्ञानिक समस्या का महत्वपूर्ण समाधान प्रस्तुत करती है। पति अंतर्मुखी है और पत्नी बहिर्मुखी। पति अपनी पत्नी की सुख-सुविधाओं में कोई कमी नहीं रखता है किन्तु पति के मौन स्वभाव के कारण पत्नी को घुटन महसूस होती रहती है जिसका असर उनके बच्चे पर भी पड़ने लगता है। धीरे-धीरे दोनों के बीच अलगाव की स्थिति भी आ जाती है किन्तु एक घटना उनके बीच के अंतर को मिटा देती है। यही घटना दाम्पत्य जीवन के सुख का मंत्र साबित होती है। इस कहानी में लेखिका ने एक सुंदर परिवार-विमर्श रचा है जिसका मूलमंत्र यही है कि यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो उसे व्यक्त भी करिए जोकि दाम्पत्य जीवन में सबसे आवश्यक है।
एक और कहानी है ‘‘अमृत’’। यह एक संदेशात्मक कहानी है। कहानी में इस तथ्य को केन्द्र में रखा गया है कि वैवाहिक संबंध में संबंधियों के बीच दिखावे से अधिक आत्मीयता को महत्व दिया जाना चाहिए। महत्व इस बात का नहीं होना चाहिए कि विवाह में कितना खर्च किया गया, कितना दिखावा किया गया अपितु महत्व इस बात का होना चाहिए कि विवाह के दौरान कितनी आत्मीयता और अपनत्व का आदान-प्रदान किया गया।
‘‘निर्णय’’ आत्मकथात्मक कहानी है। गोया कोई अपने जीवन के पन्ने खोल कर सामने रख रहा हो। कहानी की नायिका अपनी सेवानिवृत्ति को ले कर बहुत अधिक उत्साहित थी क्योंकि उसने अपना अब तक का सारा जीवन एक कामकाजी गृहणी के रूप में व्यतीत किया था। अर्थात नौकरी के समय नौकरी और शेष समय सिर्फ़ घर-परिवार की चिंता। सेवानिवृत्ति के समय तक पुत्र-पुत्री अपने-अपने संसार में रच-बस चुके थे अतः वह अब अपने अधूरे रह गए सपनों को पूरा करना चाहती थी। ढेर सारा साहित्य पढ़ना और खूब लिखना। यही चाहती थी वह। किन्तु सेवानिवृत्ति के कुछ समय बाद ही उसे अहसास हो गया कि एक खालीपन उसके भीतर घर करता जा रहा है। सतत् दौड़-धूप में सक्रिय रहने वाली स्त्री एक स्थान पर बैठ कर अधिक समय स्वयं को व्यस्त नहीं रख सकती है। तब उसे स्वयं को व्यस्त रखने का एक और रास्ता अपनाना पड़ा। उसने अपने पति की सलाह पर बस्ती के बच्चों को निःशुल्क पढ़ाना शुरू कर दिया। यह कहानी उन सभी के लिए एक बड़ा संदेश देती है जो सेवानिवृत्ति के बाद रिक्तिता से घिरने लगते हैं और यही रिक्तिता आगे चल कर उनके अवसाद का कारण बनती है, फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष। वस्तुतः यह भी एक मनोवैज्ञानिक समस्या है कि जिस व्यक्ति ने अपने जीवन भर दूसरों के लिए ही कुछ किया हो वह स्वयं पर केन्द्रित हो कर अधिक दिन तक संतुष्ट नहीं रह सकता है।
संग्रह की तीन कहानियों की बानगी से ही समझा जा सकता है कि लेखिका आराधना खरे कहानी के तानेबाने में मनोविज्ञान को बखूबी बुन सकती हैं। भाषा पर भी उनका अधिकार अच्छा है तथा शैली रोचकतापूर्ण है। छोटी कहानी में बहुत कुछ कह देने की कला उन्हें आती है। उनकी सभी कहानियां प्रभावी हैं और पठनीय हैं।
अब बात करूंगी उस विषय की जिसके बारे में मैंने अंत में चर्चा करने की बात की थी। संग्रह के आरम्भ में तीन समीक्षात्मक लेख हैं जिनमें पहला लेख साहित्यकार टीकाराम त्रिपाठी का है। ‘‘भारतीय समाज और स्त्रीविमर्श’’ शीर्षक से यह लेख ‘‘पुस्तक समीक्षा’’ के रूप में दिया गया है जिसमें त्रिपाठी जी ने आराधना खरे के इस संग्रह की कहानियों की गहराई से समीक्षा की है। दूसरा समीक्षा लेख कैलाश तिवारी ‘‘विकल’’ का है तथा तीसरा समीक्षा लेख डाॅ. मनोज श्रीवास्तव का है। पुस्तक के आरम्भ में ही प्राक्कथन, भूमिका, प्रस्तावना, आमुख अथवा पुरोवचन होने के स्थान पर ‘‘पुस्तक समीक्षा’’ का होना खटकता है। पुस्तक समीक्षा तो वह तत्व है जो पुस्तक और पाठक के बीच सेतु का काम करती है जिसे पुस्तक के प्रथम संस्करण में नहीं अपितु समाचारपत्र, पत्रिका अथवा किसी अन्य माध्यम में होना चाहिए, जहां से पुस्तक के बारे में जानकारी पा कर, जिज्ञासु हो कर पाठक पुस्तक को पढ़ने का इच्छुक हो उठे। संग्रह के आरम्भिक पन्नों में पुस्तक समीक्षा का होना ऐसा प्रतीत होता है मानो मंगलाचरण के स्थान पर उपसंहार प्रस्तुत कर दिया गया हो। बस, यह अच्छी बात है कि संग्रह की कहानियां दमदार हैं इसलिए इस ‘‘नवप्रयोग’’ ने कहानियों के प्रभाव पर विपरीत असर नहीं डाला है। यह लेखिका का प्रथम कहानी संग्रह है अतः भविष्य में उन्हें इस प्रकार के प्रयोगों से बचना होगा। इसमें दो राय है नहीं कि यह कहानी संग्रह पढ़े जाने योग्य है इसीलिए मैंने संग्रह की सभी कहानियों की चर्चा नहीं की है शेष कहानियों के बारे में पाठक स्वयं पढ़ कर जाने तो अधिक रुचिकर रहेगा।
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