प्रस्तुत है आज 25.01.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि कैलाश तिवारी ‘विकल’ के काव्य संग्रह "बतरस" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
यथार्थ की तस्वीर दिखातीं कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह - बतरस
कवि - कैलाश तिवारी ‘विकल’
प्रकाशक - अनुकथन प्रकाशन, अजंता प्रेस, बण्डा-बेलई, जिला सागर (म.प्र.)
मूल्य - 100 रुपए
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ये कविताएं
दुनिया भर की कविताओं से
बहुत अलग हैं
इन कविताओं में वो जीवन
धड़क रहा है
जिसको पाने
हर अच्छे मानव के मन में
ललक रही है।
- ये पंक्तियां उस काव्यात्मक भूमिका की अंश हैं जिसे प्रतिष्ठित शायर मायूस सागरी ने बतौर पुस्तक-भूमिका लिखी हैं। इस काव्यात्मक भूमिका को पढ़ कर इस बात का अनुमान हो जाता है कि संग्रह की कविताओं में कुछ अलग हट कर बात कही गई है। यह काव्य संग्रह है ‘‘बतरस’’ और कवि हैं कैलाश तिवारी ‘‘विकल’’। संग्रह में एक और भूमिका है जो साहित्यकार स्व. महेन्द्र फुसकेले द्वारा लिखी गई है। उन्होंने अपनी भूमिका के आरम्भ में ही लिखा है कि -‘‘बतरस का मूल स्वर राजनीतिक है, जो सामाजिक बदलाव चाहती है।’’
बतरस शब्द से ही ध्वनित होता है, जिसमें बातों का रस हो। यह रस किसी भी प्रकार का, किसी भी स्वाद का हो सकता है। मीठे रस की जो मिठास एक सामान्य व्यक्ति को मधुर लगती है, वह मधुमेह के मरीज को विष के समान हानिकारक लगेगी। वहीं जो करेले का रस सभी को कड़वा और अरुचिकर लगता है, वही कड़वा रस मधुमेह के मरीज के लिए स्वास्थ्यवर्द्धक होने के कारण उसे रुचिकर होता है। इसी तरह यदि कविता में अव्यवस्था के यथार्थ को पिरोया जाए तो पीड़ितवर्ग को वह अपनी आवाज़ के सामन प्रतीत होती है किन्तु वहीं यथार्थ भरी कविता अव्यवस्था फैलाने वालों को अपने विरोधस्वरूप नागवार गुज़रती है। सच कहना ताकतवर की बदसूरती को आईना दिखाने के समान होता है और आईना दिखाने का साहस सब में नहीं होता है। ऐसे ताकतवरों को झूठ बोलने वाले आईने पसंद होते हैं जो हर बार यही कहे कि ‘‘इस दुनिया में आप से सुंदर और कोई नहीं।’’ लेकिन एक सच्चा साहित्यकार कभी चाटुकारिता नहीं करता है और हमेशा यथार्थ के पक्ष में ही खड़ा दिखाई देता है। कैलाश तिवारी ‘‘विकल’’ के भीतर का कवि भी अपनी कविताओं के माध्यम से यथार्थ का उद्घोष करता है।
‘‘बतरस’’ कविता संग्रह की कविताओं में व्यंजनात्मकता के साथ ही चुनौती भरी हुंकार भी है। इसमें संग्रहीत कुल अड़तीस कविताओं में गांव, शहर, रोज़मर्रा का जीवन, विसंगतियों के प्रति क्षोभ, प्रतिरोध आदि के अनेक रंग मौजूद हैं। जिसके मूल स्वर में सब कुछ सुधारे जाने की ललक ध्वनित है। इसीलिए इन कविताओं में एक तीखापन भी है। इसी संदर्भ मेें ‘‘एक तुम हो’’ शीर्षक कविता देखिए-
मुख्यमंत्री
चुनता है मंत्री
अपने खास-म-खास
जिन्हें चुन कर भेजती है जनता
फिर मंत्री
अपने लिए चुनता है जनता,
उद्योगपति, अफ़सर, सप्लायर
मालदार, ठेकेदार
एन.जी.ओ, मीडियाकर्मी/कलाबाज़,
और टुकड़खोर, मजमेबाज़,
इसी तरह सब चुनते हैं
अपने-अपने लिए जनता
सेवा तो सेवा है
अस न बस करनी है।
वस्तुतः कैलाश तिवारी ‘‘विकल’’ की कविता, काव्य के साथ समय की आलोचना भी है। जो प्रकारांतर से एक स्पष्ट विचारधारा को सामने लाती है, जिसके तार उनकी सारी कविताओं से जुड़े हैं। यह एक अच्छी बात है कि वे कहीं भी अपनी विचारधारा से विचलित नहीं हुए हैं। उनकी एक कविता है ‘‘अपराधी कौन’’ जो पूंजीवाद के चरित्र को खंगालती दिखाई देती है-
मंदिर-मूर्ति
है बिड़ला की
जितनी चीज़ें बनाती फैक्ट्री
उतने बनते मंदिर-मूर्तियां
भगवान बिड़ला के हैं
या / बिड़ला हैं भगवान
ये तो सब जाने राम
हम तो बस इतना जानते हैं
हम हैं निर-अपराध।
आजीविका के लिए हाट-बाज़ार में दूकानें लगाना, श्रम की मंडी में खड़े हो कर अपने श्रम की बोली लगवाना यह भी एक सच है ग्राम्य जीवन का। गंावों से श्रमिक शहरों में आते हैं जिनमें से कोई गिट्टी फोड़ता है तो कोई माल ढोता है तो कोई मिट्टी खोदने का काम करता है लेकिन उन सबके मन में यही आशा होती है कि वे अपने श्रम से अपने परिवार के भरण-पोषण का जुगाड़ कर लेंगे। ‘‘श्रम विक्रेता’’ कविता के आरंभिक अंश में गंावों के नामों का उल्लेख करते हुए बड़ी सुंदरता से इस तथ्य को कवि ने सामने रखा है -
कोई रीठी, कोई सलैया से
कोई माजरखेड़ा, कोई पटना-बुजुर्ग
या ख़ुर्द से
हर कोई अपनी-अपनी
पोटली में
बांध कर लाया है
मिट्टी की ख़ुश्बू
आशा का दो मुट्ठी चून।
‘‘विकल’’ ने मां पर कविता लिखी है, बिन्ना ख़ाला पर कविता लिखी है, वे ज़र्दा-चूना को भी नहीं भूले हैं। वे जहां ब्राह्माण्ड की बात करते हैं वहीं सड़े आलुओं-सी सड़ी व्यवस्था को जीवन से बाहर फेंक देना चाहते हैं। ‘‘विकल’’ की कविताएं ठहर कर सोचने को विवश करती हैं, अपने भीतर की भीरुता को आंकने का आग्रह करती हैं और आह्वान करती हैं यथार्थ को समझने, परखने और सुधारने का। यक़ीनन, ‘‘बतरस’’ एक ऐसा काव्य संग्रह है जो बाज़ारवाद के प्रभाव में चिंतन की क्षमता खोती जा रही मानसिकता को झकझोरने में सक्षम है। इस संग्रह की कविताओं को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए।
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