12 जनवरी: स्वामी विवेकानंद जयंती अर्थात् राष्ट्रीय युवा दिवस :
स्वामी विवेकानंद का पत्र युवाओं के नाम
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
प्रति वर्ष 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद जयंती राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाई जाती है। उनका जन्मदिवस राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रमु्ख कारण उनका दर्शन, सिद्धांत, विचार और उनके आदर्श हैं जो युवाओं को उचित मार्ग दिखाने में सक्षम हैं। उन्होंने युवाओं को धैर्य, व्यवहारों में शुद्धता रखने, आपस में न लड़ने, पक्षपात न करने और हमेशा संघर्षरत् रहने का संदेश दिया था कि ‘‘यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले ‘अहं’ ही नाश कर डालो।’’ आज भी उनके विचार कई युवाओं के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बने हुए हैं।
भारतीय विचारकों में जिनके विचारों का सबसे अधिक प्रभाव जनमानस पर पड़ा वे हैं स्वामी विवेकानंद। वे युवाशक्ति के महत्व को पहचानते थे और युवाओं को देशनिर्माण में सक्रीय भागीदार बनाना चाहते थे। सन् 1897 में मद्रास में युवाओं को संबोधित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था ‘‘जगत में बड़ी-बड़ी विजयी जातियां हो चुकी हैं। हम भी महान विजेता रह चुके हैं। हमारी विजय की गाथा को महान सम्राट अशोक ने धर्म और आध्यात्मिकता की ही विजयगाथा बताया है और अब समय आ गया है भारत फिर से विश्व पर विजय प्राप्त करे। यही मेरे जीवन का स्वप्न है और मैं चाहता हूं। हमारे सामने यही एक महान आदर्श है और हर एक को उसके लिए तैयार रहना चाहिए, वह आदर्श है भारत की विश्व पर विजय। इससे कम कोई लक्ष्य या आदर्श नहीं चलेगा, उठो भारत...तुम अपनी आध्यात्मिक शक्ति द्वारा विजय प्राप्त करो। इस कार्य को कौन संपन्न करेगा? मेरी आशाएं युवा वर्ग पर टिकी हैं।’’
स्वामी विवेकानन्द अपने गुरु रामकृष्ण देव से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने अपने गुरु से ही यह ज्ञान प्राप्त किया कि समस्त जीव स्वयं परमात्मा का ही अंश हैं, इसलिए मानव जाति की सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। स्वामी विवेकानंद का मानना था कि अधिकतर युवा सफल और अर्थपूर्ण जीवन तो जीना चाहते हैं, लेकिन अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वे शारीरिक रूप से तैयार नहीं होते। इसलिए स्वामीजी ने युवाओं को शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने की सलाह दी।
एक महत्वपूर्ण पत्र आज भी प्रासंगिक है जो स्वामी विवेकानन्द ने लिखा था, जिसमें उन्होंने भारतीय संस्कृति और धर्म का जन-जन में संचार करने के लिए युवाओं का आह्वान किया था। स्वामीजी ने अपने अल्प जीवन में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र और प्रगतिशील समाज की परिकल्पना की थी। स्वामी जी यह पत्र 19 नवम्बर 1894 को लिखा थे। यह पत्र उनकी भावनाओं, मान्यतओं और जीवन दर्शन का स्पष्ट प्रमाण है। पत्र का एक अंश यहां प्रस्तुत है -
‘‘हे वीर हृदय युवाओ!
यह बङे संतोष की बात है कि, अब तक हमारा कार्य बिना रोक-टोक के उन्नति ही करता चला आ रहा है। इसमें हमें सफलता मिलेगी, और किसी बात की आवश्यकता नही है, आवश्यकता है केवल प्रेम, निष्कपटता और धैर्य की। इहलोक और परलोक में यही बात सत्य है। यदि कोई कहे कि देह के विनाश के पिछे और कुछ नही रहा तो भी उसे यह मानना ही पङेगा कि स्वार्थपरता ही यर्थाथतः मृत्यु है।
परोपकार ही जीवन है, परोपकार न करना ही मृत्यु है। युवाओ! सबके लिए तुम्हारे हृदय में दर्द हो- गरीब, मूर्ख, पददलित मनुष्यों के दुख का तुम अनुभव करो, सम्वेदना से तुम्हारा हृदय भरा हो। यदि कुछ भी संशय हो तो सब कुछ ईश्वर के समक्ष कह दो, तुरन्त ही तुम्हे शक्ति, सहायता और अदम्य साहस का आभास होगा। गत दस वर्षो से मैं अपना मूलमंत्र घोषित करता आया हूं- प्रयत्न करते रहो। अब भी मैं कहता हूं कि अकिंचन प्रयत्न करते चलो। जब चारो ओर अंधकार ही अंधकार था तब भी मैं प्रयत्न करने को कहता था, अब तो कुछ प्रकाश नजर आ रहा है। अतः अब भी यह कहूंगा कि प्रयत्न करते रहो। वत्स, उरोमा अनंत नक्षत्र रचित आकाश की ओर भयभीत दृष्टि से मत देखो, वह हमें कुचल डालेगा। धीरज धरो, फिर तुम देखोगे कि कई धंटो में वह सब का सब तुम्हारे पैरों तले आ गया है। धीरज धरो, न धन से काम होता है, न यश काम आता है, प्रेम से ही सबकुछ होता है। चरित्र ही, कठिनाइयों की संगीन दिवारें तोङ कर अपना रास्ता बना लेता है। अब हमारे सामने यह समस्या है- स्वाधीनता के बिना किसी प्रकार की उन्नति संभव नही है। हमारे पूर्वजों ने धार्मिक चिंता में हमें स्वाधीनता दी थी और उसी से हमें आश्चर्यजनक बल मिला है, पर उन्होने समाज के पैर बङी-बङी जंजीरों से जकङ दिए और उसके फलस्वरूप हमारा समाज, थोङे शब्दों में यदि कहें तो ए भयंकर और पैशाचिक हो गया है। दूसरों को हानि न पहुंचाते हुए, मनुष्य को विचार और उसे व्यक्त करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए एवं उसे खान-पान, पोशाक, पहनावा, विवाह आदि हर एक बात में स्वाधीनता मिलनी चाहिए।
भारत को उठना होगा, शिक्षा का विस्तार करना होगा, स्वहित की बुराइयों को ऐसा धक्का देना होगा कि वह टकराती हुई अटलांटिक महासागर में जा गिरे। ब्राह्मण हो या सन्यासी, किसी की भी बुराई को क्षमा नही मिलनी चाहिए। अत्याचारों का नामोनिशान न रहे, सभी को अन्न अधिक सुलभ हो। किन्तु, यह व्यवस्था धीरे-धीरे लानी होगी। अपने धर्म पर अधिक जोर देकर और समाज को स्वाधीनता देकर यह करना होगा। प्राचीन धर्म से पौरोहित्य की बुराईयों को हटा दो, तभी तुम्हे संसार का सबसे अच्छा धर्म मिल पाएगा। भारत का धर्म लेकर एक यूरोपीय समाज गढ सकते हो। मुझे विश्वास है कि यह संभव है और एक दिन ऐसा जरूर होगा। एक ऐसे उपनिवेश की स्थापना करो जहां सद्विचार वाले लोग रहें, फिर यही मुठ्ठी भर लोग सारे संसार में अपने विचार फैला देंगे। इसके लिए धन की आवश्यकता है सही, पर धन आ ही जाएगा। इस बीच में एक मुख्य केन्द्र बनाओ और भारत भर में उसकी शाखाएं खोलते जाओ। कभी भी किसी मूर्खता से जन्मे कुसंस्कारों को सहारा न देना। स्वामी रामानुज ने सबको समान समझकर मुक्ति में सबका समान अधिकार घोषित किया था, वैसे ही समाज को पुनः गठित करने की कोशिश करो। उत्साह से हृदय भर लो और सब जगह फैल जाओ। नेतृत्व करते समय सबके दास बनो, निस्वार्थ रहो कभी भी एक मित्र के पीछे निन्दा करते न सुनो। धैर्य रखो तभी सफलता तुम्हारे हाथ आएगी। काम करो, काम करो औरों के हित के लिए काम करना ही जीवन का लक्षण है। हां! एक बात पर सतर्क रहना, दूसरों पर अपना रौब जमाने की कोशिश न करना। दूसरों की भलाई में काम करना ही जीवन है।
मैं चाहता हूं कि हममें किसी प्रकार की कपटता, कोई दुरंगी चाल न रहे, कोई दुष्टता न रहे। मैं सदैव प्रभु पर निर्भर रहा हूं, सत्य पर निर्भर रहा हूं जो कि दिन के प्रकाश की तरह उज्जवल है। मरते समय मेरी विवेक बुद्धि पर ये धब्बा न रहे कि मैने नाम या यश पाने के लिए ये कार्य किया। दुराचार की गंध या बदनियती का नाम भी न रहने पाए। किसी प्रकार का टालमटोल या छिपे तौर पर घात या गुप्त शब्द हममें न रहें। गुरु का विशेष कृपापात्र होने का दावा भी न करें। यहां तक कि हममें कोई गुरु भी न रहे।
साहसी युवाओ! आगे बढो! चाहे धन आए या न आए, साथी मिलें या न मिलें, तुम्हारे पास प्रेम है। बस आगे बढो, तुम्हे कोई नही रोक सकेगा। सतर्क रहो। जो कुछ असत्य है, उसे पास न फटकने दो। सत्य पर दृढ़ रहो तभी हम सफल होंगे शायद थोङा अधिक समय लगे पर हम सफल होंगे। इस तरह काम करते जाओ कि मानो मैं कभी था ही नही। इस तरह काम करो कि तुम पर ही सारा काम निर्भर है। भविष्य की सदी तुम्हारी ओर देख रही है- भारत का भविष्य तुम पर निर्भर है। काम करते रहो। तुम लोगों को मेरा आर्शिवाद इति!’’
स्वामी विवेकानंद ने युवाओं का आह्वान करते हुए कठोपनिषद का एक मंत्र कहा था-
‘‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।’’
- अर्थात उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक कि अपने लक्ष्य तक न पहुंच जाओ। इसीलिए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने स्वामी विवेकानंद के बारे में कहा था-‘‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं, तो विवेकानन्द को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।’’
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