प्रिय ब्लॉग साथियों, प्रस्तुत है आज "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट "सृजन" में प्रकाशित मेरा व्यंग्य लेख "बेचारे बदरंगे बैंगन" ...😀😊😛
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बेचारे बदरंगे बैंगन
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
यूं तो जब से कड़ाके की ठंड पड़नी शुरू हुई तब से रजाई और कंबल से कुछ अधिक ही प्रेम बढ़ गया है। घड़ी का निठल्ला कांटा जिसे समय दिखाने के अलावा और कुछ काम ही नहीं है, जब सुबह के सात पर जा पहुंचता है तो झक मार कर रजाई से विदा लेनी पड़ती है। रजाई भी इस बात से व्याकुल हो उठती है कि उसे अब दिन भर मेरा विरह सहना पड़ेगा। उसकी व्याकुलता देख मेरा दिल टुकड़े-टुकड़े होने लगता है लेकिन किया क्या जाए, मुआ नल में पानी भी तो साढ़े सात तक आ ही जाता है। पानी आने से पहले बहुत सारे काम निपटा लेने ज़रूरी होते हैं।
आज भी सुबह सात बजे रजाई का विछोह सहन करते हुए नल में पानी आने से पूर्व और पानी भरने से ले कर पानी जाने के बाद तक के सारे काम निपटा कर मैं चाय का प्याला लेकर बाहर निकली। सोचा ज़रा धूप ले ली जाए। यही तो मौसम है विटामिन डी लेने का। वरना गर्मी में यही धूप विटामिन डी की जगह डेंजरस लगने लगेगी। तो मैं जैसे ही चाय का प्याला ले कर घर के बाहर निकली वैसे ही सब्ज़ीवाला हाथठेला ले कर सामने आ खड़ा हुआ।
‘‘दीदी, कुछ ले लो। भिंडी है, नए आलू हैं, टमाटर, बैंगन, पत्ता गोभी....।’’ उसने सब्ज़ियां गिनानी शुरू की।
‘‘नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए! अभी रखी हैं सब्ज़ियां।’’ मैंने मना किया।
‘‘ले लो दीदी, अभी तुषार पड़ जाएगा तो सब्ज़ियां मंहगी हो जाएंगी। बारिश में तो ख़राब हो ही गई हैं।’’ बातूनी सब्ज़ीवाला पीछा छोड़ने के मूड में नहीं था। मैंने उससे पीछा छुड़ाने की गरज से उसके ठेले पर सजे बैंगनों की ओर इशारा करते हुए पूछा,‘‘ये इन बैंगनों को क्या हो गया? कितने बदरंगे दिख रहे हैं। कहां से ले आए ये? ज़रूर ये दवा डले हुए होंगे। अच्छे होते तो मैं ले लेती।’’
‘‘अरे, दीदी! ये बैंगन अंदर से अच्छे ही हैं। कहो तो काट के दिखा देता हूं। इनमें बीज नहीं मिलेंगे, गूदा ही गूदा मिलेगा। अच्छे रसीले हैं, बरमान घाईं।’’ सब्ज़ीवाले ने कहा। दरअसल, नर्मदा के तट पर बसे बरमान के बैंगन बहुत प्रसिद्ध हैं। हर सब्ज़ीवाला अपने बैंगन को या तो बरमान का घोषित कर देता है या फिर बरमान के बैंगनों जैसा। जैसे ग़ज़क कहीं भी बने लेकिन उस पर ग्वालियर का ठप्पा ज़रूर लगा दिया जाता है।
‘‘लेकिन ये देखने में ही बुरे दिख रहे हैं, एकदम बदरंगे।’’ मैंने फिर बैंगनों सूरत पर छींटा कसा, ‘‘अभी तो तुषार भी नहीं पड़ा फिर ये बदरंगे कैसे हो गए?’’ मैंने उसी की बात से उसे पकड़ने की कोशिश की।
‘‘मैंने कब कहा कि बैंगन को तुषार लग गया है? अब जे ऐसे काए हो गए हैं, जे न पूछो आप।’’ सब्ज़ीवाले ने बुंदेली मिश्रित हिन्दी में कहा।
‘‘हां, तुम क्या बताओगे? वैसे ही दिखाई दे रहा है कि ये हानिकारक दवा डले बैंगन हैं। तभी तो बदरंगे हो गए हैं।’’ मैंने फिर कटाक्ष किया।
‘‘अरे नहीं दीदी, इनपे कोई दवा-अवा नहीं डली है। ये तो शरम के मारे बदरंगे हो गए हैं।’’ सब्ज़ीवाले की बात सुन कर मैं चकित रह गई। ऐसे उत्तर की आशा मुझे नहीं थी।
‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’ मैंने उससे पूछा।
‘‘मतलब जे कि आजकल नेता हरें बैंगन घांई हो गए हैं। बल्कि उन्ने तो बैंगनों को भी मात कर दिया है। चुनाव आए नहीं कि थाली के बैंगन घांई इते से उते होने लगते हैं। आपने टीवी पे समाचार नहीं देखा क्या?’’ उसने उल्टे मुझसे प्रश्न कर दिया।
‘‘देखा है न! रोज़ देखी हूं समाचार।’’ मैंने कहा।
‘‘सो, आपने देखा ई होगा कि कित्ते नेता रोज के रोज इते से उते हो रहे हैं, इत्ते तो थाली के बैंगन भी नहीं होत हैं। जेई से हमाए जे बैंगन शरम से लाल हो गए। बाकी जे ठहरे हरे वाले सो, पूरे लाल तो न हो पाए, बदरंगे हो कर रह गए हैं, बेचारे हमाए बैंगन।’’ सब्ज़ीवाले ने भोलेपन का प्रदर्शन करते हुए कहा।
इतनी गहरी बात। मैं उसकी समझ देख कर दंग रह गई। कहावत का इतना अच्छा प्रयोग तो हिन्दी साहित्य के एम.ए. के छात्र भी नहीं कर पाएंगे, जितना सटीक प्रयोग उसने किया।
‘‘तो दीदी, कित्ते तौल दूं बैंगन? आधा किलो कि एक किलो?’’ सब्ज़ीवाले ने मेरी मनोदशा देखते हुए मौके का फ़ायदा उठाने की कोशिश की। उसका तीर निशाने पर लगा था। वह अपने बदरंगे बैंगनों की बेगुनाही के लिए दमदार दलील दे चुका था और वह सफल भी हो गया। उसकी बातों से प्रभावित हो कर मेरे मुंह से बिना सोचे-समझे निकला,‘‘अच्छा एक किलो तौल दो!’’
वह भारी प्रसन्न होता हुआ बोला, ‘‘आप खुद ई छांट लो!’’
‘‘अरे, अब क्या छांटना है? छांटा-छांटी तो वहां चल रही है जहां चुनाव होने हैं। इन बेचारे बैंगनों को क्या छांटना? तुम तो अपने हिसाब से तौल दो।’’ मैंने उसकी दलील के सम्मोहन में आ कर बैंगन खरीद लिए। सब्ज़ीवाला मुझे बैंगन टिका कर चला गया और मैंने उन बैंगनों को रसोई घर में ला कर थाली में नहीं रखा बल्कि टोकरी में ही रहने दिया। थाली में रखने से कहीं बैंगन और अधिक शरमने लग सकते थे और इससे उनका बदरंगापन बढ़ जाता। उफ! बेचारे बदरंगे बैंगन, उनकी तो थाली भी छिन गई। उनकी थाली पर तो अब दूसरे ही लुढ़कने लगे हैं।
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(नवभारत, 16.01.2022)
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ज़बरदस्त व्यंग्य
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना सोमवार. 17 जनवरी 2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जबरदस्त व्यंग्य! एक मुहावरे पर सुटीक व्यंग्य रचना। बेचारे थाली के बैंगन भी शर्मा गए आज के नेताओं की लुढकन को देख कर।
ReplyDeleteसुटीक को सटीक पढ़ें कृपया।
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteनेताओं की लुढ़कन और दलबदलूपन पर सब्जी वाले भी व्यंग कस रहे....
बेचारे बैंगन कभी सब्जियों के राजा तो आज शर्मसार हैं
लाजवाब व्यंग।
हा हा हा... अरे क्या जबरदस्त लिखा है आपने..।
ReplyDeleteचुनावी मौसम के बदरंगे बैंगन।
बेहतरीन कटाक्ष।
सस्नेह।
वाह ! कमाल की लेखनी
ReplyDeleteमजेदार ।
ReplyDeleteवाह क्या कहने ,बेचारे बदरंगे बैगन की परिस्थिति पर, बहुत खूब
ReplyDelete😀😀😀👌👌👌 बहुत बढ़िया शरद जी। बैंगनकी थाली छीन ली चुनावी शेरों ने 😀😀 वो भी थाली के बैंगन हो चले। सुंदर हल्के फुल्के व्यंग्य के लिए हार्दिक आभार और अभिनंदन 😀🙏
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