प्रस्तुत है आज 06.12.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक चन्द्रभान राही के कहानी संग्रह "रोटी की कीमत तथा अन्य कहानियां" की समीक्षा...
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पुस्तक समीक्षा
दाम्पत्य जीवन की त्रासदियों को उकेरती कहानियां
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - रोटी की कीमत तथा अन्य कहानियां
लेखक - चन्द्रभान राही
प्रकाशक - इंदिरा पब्लिशिंग हाऊस, ई-5/21, अरेरा काॅलोनी, हबीबगंज पुलिस स्टेशन रोड, भोपाल
मूल्य - 295/-
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कथा और उपन्यास जगत में चंद्रभान राही तेजी से अपनी जगह बनाते जा रहे हैं। उनका कहानी संग्रह ‘‘रोटी की कीमत’’ पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर संवेदनशील कहानियों का संग्रह है। कहानियों में परिवार एवं दाम्पत्य जीवन की समस्याओं को ले कर प्रेमचंद और उनके पूर्व के युग में बहुत-सी कहानियां लिखी गईं। दरअसल वह सामाजिक परिवर्तन का युग था जिसमें स्त्रियों ने घर से बाहर कदम रखना शुरू किया था। उस समय एक ऐसी समझ-बूझ की आवश्यकता थी जिसमें स्त्रियों के घर से बाहर निकलने को संवेदना के स्तर पर देखा जाए और उसे सकारात्मक दृष्टिकोण से स्वीकार किया जाए। इसके साथ ही स्त्रियों से भी यह आग्रह किया गया कि वे अपनी स्वतंत्रता और घरेलू दायित्वों के बीच संतुलन बनाए रखें। वह आरंभिक दौर था इसलिए इस प्रकार की सर्तकता एवं अपेक्षाएं स्वाभाविक थीं। इसके बाद ‘‘नई कहानी’’ का दौर आया जिसे कमलेश्वर और उत्तर कमलेश्वर कहानियों के रूप में भी देखा जाता है। इसी दौर में मन्नू भंडारी और ममता कालिया जैसी लेखिकाओं ने पारिवारिक एवं दाम्पत्य संबंधों में स्त्री और पुरुष के दायित्वों में संतुलन पर प्रश्न उठाए। इसी दौर में घर के बाहर के सामाजिक एवं आर्थिक जगत की कहानियां लिखी गईं। इन दोनों तरह की कहानियों की छाप चंद्रभान राही की कहानियों में देखी जा सकती है। उनके इस संग्रह की कुल कहनियों की पचहत्तर प्रतिशत कहानियों का मूल स्वर दाम्पत्य जीवन एवं स्त्री-पुरुष के सामाजिक संबंधों का है, शेष पच्चीस प्रतिशत कहानियां सामाजिक-आर्थिक आधार के कथानकों की हैं।
‘‘रोटी की कीमत तथा अन्य कहानियां’’ में कुल पचास कहानियां हैं। अपने संग्रह की शीर्षक कहानी के बारे में लेखक ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि -‘‘रोटी की कीमत कहानी की घटना ने मुझे अन्दर तक हिला कर रख दिया था। कहानी लिखने के बाद जब भी उसे पढ़ा करता था, तब शरीर के रोम-रोम में एक कम्पन हो जाती है। मन यह सोचने पर विवश हो जाता है कि क्या मानव समाज अपने नैतिक दायित्वों का इतना पतन कर बैठा है कि उसे सामान्य और असमान्य व्यक्ति में अन्तर दिखाई नहीं देता।’’ तो संग्रह की कहानियों पर दृष्टिपात करने का क्रम ‘‘रोटी की कीमत से ही आरम्भ किया जाए। यह उन अनाथ लड़कों की कहानी है जो होटलों की फिंकी हुई जूठन के सहारे अपना जीवन चलाते हैं। न रहने का कोई स्थाई ठिकाना और न पेट भरने का कोई स्थाई जुगाड़। परिवार का अर्थ तो वे जानते भी नहीं। गली के आवारा कुत्तों से होड़ करते हुए रोटी के दो निवाले पाने की ज़द्दोजहद वाकई अंतर्मन को झकझोर देती है। जो भी इस कहानी को पढ़ेगा उसके मन में यही प्रश्न उठेगा कि क्या हम जिस समाज में रहते हैं, यह उसी का दृश्य है? अविश्वसनीय-सा लगने वाला सौ टका सच। इस कहानी का कथानक इतने में ही नहीं ठहरता है, इससे भी आगे एक और कटु सत्य, बल्कि वीभत्स सत्य सामने आता है जब यह कहानी स्मरण कराती है कि पागल भिखारिनों को भी किस तरह एक देह मात्र समझा जाता है। यह सामाजिक, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक संवाद करती कहानी है। इस कहानी को संग्रह का नाम दिया जाना सार्थक है। यद्यपि उत्साहवश लेखक ने इसमें एक भूल कर दी है। एक स्थान पर लेखक ने कथा नायक लड़का झिन्कू की ओर से लिखा है-‘‘मैंने एक जगह कोयले के पुल की अंदर की दीवार पर अपना नाम लिख दिया था- झिन्कू। वहीं अपना बिस्तर, एक फटी चादर में, एक गिलास और एक फूटी प्लेट के साथ लपेट रखा था।’’ यहां भूल यह है कि जो लड़का पेट भरने के लिए कुत्तों से होड़ कर के जूठन पाता है, झिन्कू ने अपनी पगली मां को नहीं देखा था बल्कि एक भिखारिन की गोद में अपनी आंखें खोली थीं तोे उसने लिखना कब और कहां से सीख लिया? उसका लिखना सीख पाना यथार्थ से हट कर लगता है। या तो यह प्रसंग आना चाहिए था कि उसे किसी ने लिखना सिखाया या फिर उसे निरक्षर ही रहने देना था।
जैसाकि मैंने पहले कहा कि संग्रह की अधिकांश कहानियां दाम्पत्य जीवन की त्रासद दशाओं पर है। एक कहानी है ‘‘वापसी’’। इसमें तलाकशुदा पति-पत्नी संयोगवश एक ही ट्रेन में एक ही बोगी में आमने-सामने की सीट पर सफ़र करते हैं। दोनों अनुभव करते हैं कि परस्पर एक-दूसरे से उनकी अपेक्षाएं और आग्रह अभी भी छूटे नहीं हैं। जैसे, बोगी में चायवाले के आने पर पति सोचता है कि यदि मैं अपने लिए चाय लूंगा तो अपनी इस पूर्व पत्नी के लिए भी चाय लेनी पड़ेगी। यदि मैं इसके लिए चाय ले भी लूं और कहीं इसने सबके सामने मना कर दिया तो मेरा उपहास होगा। ठीक इसी समय पत्नी सोचती है कि मेरे पूर्व पति की हेठी अभी भी बरकरार है। इससे यह भी पूछते नही बन रहा है कि क्या तुम चाय पियोगी? इसी तरह भोजन मंगाने के समय अंतद्र्वन्द्व चलता है। अंततः पति अपने लिए भोजन मंगा लेता है लेकिन उसमें बैंगन की सब्ज़ी दे कर वह दुखी हो जाता है। उसे बैंगन पसंद नहीं। पत्नी भी यह देख कर चिन्ता में पड़ जाती है कि अब वह कैसे खाएगा? पत्नी जब देखती है कि उसके पूर्व पति से खाया नहीं जा रहा है तो वह अपने साथ लाए हुए भोजन में से सब्ज़ी निकाल कर ख़ामोशी से उसकी थाली में रख देती है। यहां स्त्री की कोमल भावना स्पष्ट दिखाई देती है। फिर दोनों मौन धारण किए हुए भोजन करते हैं। इन घटनाओं से पता चलता है कि दोनों के बीच तलाक का कारण छोटी-छोटी बातों को ले कर का टकराव रहा होगा। यात्रा के अंत में दोनों एक ही स्थान पर पहुंचते हैं, जहां पति के मित्र का विवाह है। पति के मित्र ने अपनी भाभी को ‘‘पूर्व भाभी’’ न मानते हुए आमंत्रित किया। शायद वह चाहता था कि पति-पत्नी दोनों के बीच एक बार फिर संवाद हो। दरके हुए रिश्तों में भी एक बार सहज संवाद कई नवीन संभावनाओं को जन्म दे देते हैं, यही पक्ष कथाकार ने कहानी में रखा है। यह पक्ष ही कहानी को सकारात्मक बनाता है। अन्यथा मात्र एक वाक्य जो नायक नायिका को अकेली यात्रा करते हुए देख कर दुर्भावनावश सोचता है, उसके वैचारिक चरित्र को उजागर करने के लिए पर्याप्त है-‘‘महेन्द्र सोच रहा था कि जब मैं बाजार जाने के लिए कहता था तो पूनम कहती -‘नहीं मैं अकेली नहीं जाऊंगी, मुझे डर लगता है। और आज देखो, अकेले ही सफ़र कर रही है। कहा जाता है कि औरत और जानवर पर से यदि अंकुश हटा दिया जाए तो उसकी रफ़्तार आंकना आसान नहीं।’’ अर्थात् जो व्यक्ति स्त्री और जानवर को एक समान मानता हो उसके दाम्पत्य संबंध में टकराव होना सुनिश्चत है, यदि उसकी पत्नी उससे सम्मान भरा व्यवहार चाहती हो।
‘‘बात’’ शीर्षक कहानी में एक नूतन कथानक उठाया गया है। कहानी की नायिका ऐसा पति नहीं चाहती है जो दास भाव से उसकी सेवा करता रहे और उसे महज रानी बना कर रखे। वह चाहती है कि एक सामान्य गृहणी की भांति उसे घर-गृहस्थी के काम करने दे। अपने पति के दासत्व भरे व्यवहार से तंग आ कर वह उसे छोड़ कर चली जाती है। तब पति का दोस्त उसे उसकी गलती बताता है। वस्तुतः लेखक ने इस कहानी में यह कहने का प्रयास किया है कि पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध यदि सहज रहें तो दाम्पत्य जीवन सुखद रहता है। एक भी पलड़ा भारी या हल्का होने पर मामला गड़बड़ा सकता है। किन्तु दिलचस्प बात यह है कि यहां भी उत्साहवश लेखक से एक चूक हो गई है। पत्नी जब पति के साथ वापस घर लौटने पर राजी हो जाती है तब का दृश्य है-‘‘बाहर आने के बाद अनिल ने रजनी से सूटकेस लेने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि न जाने क्या सोच कर पीछे हट गया, जिसे देख कर रजनी के होंठों पर एक मीठी-सी मुस्कान दौड़ गई।’’ वस्तुतः यहां कोई और उदाहरण होना चाहिए था। यह उदाहरण आगामी विपरीत असंतुलन की ओर संकेत करता नज़र आता है। कहीं पति अब की बार पत्नी के प्रति दासभाव के बजाए पत्नी को दासी बनाने का प्रयास तो नहीं करने लगेगा? बहरहाल, ऐसी चूकों के प्रति लेखक को सर्तकता बरतने की आवश्यकता है क्योंकि इनसे अच्छी-भली कहानी एक झटके से पटरी से उतर जाती है।
एक कहानी है ‘‘कीमत’’। इस कहानी का कथानक कार्यालयीन संबंधों के स्याह पक्ष की ओर ले जाता है। कथानायिका रजनी एक कार्यालय में क्लर्क है। वह अपने नए स्टेनो बाॅस के पास एक फाईल ले कर जाती है ताकि उस फाईल पर अधिकारी से हस्ताक्षर करा सके। स्टेनो अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए फाईल वहीं छोड़ जाने को कहता है और बताता है कि अभी अधिकारी नहीं आया है। रजनी उससे कहती है कि जब अधिकारी आए तो उसे सूचित कर दे ताकि वह हस्ताक्षर करा सके। क्योंकि आज ही हस्ताक्षर जरूरी है। अंततः अधिकारी का फोन आ जाता है कि वह कार्यालय नहीं आएगा। तो स्टेनो वह फाईल ले कर अधिकारी के घर चला जाता है, हस्ताक्षर कराने। रजनी केबिन में स्टेनो और फाईल दोनों को नदारत पा कर नाराज़ हो जाती है। इस संबंध में उसे बड़े साहब से डांट भी खानी पड़ती है। दूसरे दिन वह अपना रोष स्टेनो पर प्रकट करती है। स्टेनो उसे न बता पाने की अपनी गलती स्वीकार करता है और दोनों ही कुछ देर बाद मित्रवत हो जाते हैं। रजनी सोचती है कि उसने स्टेनों को बुरा-भला कह कर भूल की। उसे पहले स्टेनो से शांत भाव से पूछताछ करनी चाहिए थी। लेकिन इसके बाद कहानी एक अचानक करवट लेती है और रजनी अपनी भूल की ऐसी कीमत अदा करती है जिसे कीमत कहा जाए या अदमित इच्छा की पूर्ति कहा जाए, यह विवाद का प्रश्न हो सकता है। या फिर यह भी हो सकता है कि वह एक स्याह रास्ते पर चल कर अपना भविष्य सुरक्षित करना चाहती हो। ये प्रश्न पाइकों के विवेक पर छूट जाते हैं।
बहरहाल, चन्द्रभान राही की कहानियों में दाम्पत्य जीवन के संतुलन और सौंदर्य को ले कर जो आग्रह है वह महत्वपूर्ण है। बस, कमी है तो इस बात की कि वे कहीं-कहीं स्त्री की परंपरागत अनुचित-सी समझौतावादी भूमिका पर जोर देने लगते हैं। जिससे यह प्रश्न उठता है कि दाम्पत्य जीवन बनाए रखने के लिए हर बार स्त्री ही क्यों झुके? क्या दाम्पत्य जीवन बनाए क्या सिर्फ़ उसी की जिम्मेदारी है? वस्तुतः दाम्पत्य के परिदृश्य में झुकना किसी एक को नहीं चाहिए वरन दोनों को परस्पर एक-दूसरे के प्रति समान भाव से समर्पित रहना चाहिए। इस तरह के प्रश्नों का उठना भी कहानियों को विचारशीलता का पुट प्रदान करता है और इस दृष्टि से सभी कहानियां रोचक हैं। आरंभ से अंत तक पढ़ते जाने को विवश करती हैं। भाषा सरल और सहज है। संग्रह की कुछ कहानियां तो देर तक मन को उद्वेलित करने में सक्षम हैं। निःसंदेह यह संग्रह पठनीय है।
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