Saturday, October 5, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | सबई पे किरपा राखियो, ओ मां ! | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
सबई पे किरपा राखियो, ओ मां !
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
   नवरातें चल रईं। जागां-जागां माता की झांकियां सजी दिखा रईं। संझा-सकारें माता के जयकारे लग रए। अपने इते पुरव्याऊ टौरी की झांकी सबसे पुरानी आए। जेई 120 सालों से उते दुर्गा रखी जा रईं। हऔ, 1905 में पैली बेर उते दुर्गा मैया रखी गईं हतीं। लोग बताऊत आएं के जोन स्व. हीरासिंह राजपूत ने पैली मूर्ति राखी हती बा मूर्ति उन्ने खुदई  बनाई रई। ऊ टेम पे जे ट्रक-ट्रैक्टर तो इत्ते हते न, सो बनाबे वारी जागां से माता की मूरत खों कंधा पे बिठा के लाओ गओ रओ। तब से आज लौं पुरव्याऊ टौरी की दुर्गा मैया कंधा पे सवार हो के निकरत आएं औ सबरे कैत चलत आएं के “चल माई”। जे समै पे स्व. हीरासिंह राजपूत जू की चौथी पीढ़ी चल रई, मनो उन्ने सोई जे परंपरा बना रखी आए। रामधई ! जो अच्छी चीजें चलत रयें तो भौतई अच्छो लगत आए।
    सबई खों मां प्यारी औ मां खो सबई प्यारे। काए से के देवी मैया बच्चन में भेद-भाव  नईं करत, बा तो मानुष आए जोन के जी में ‘हमें-हमें’ लगो रैत आए। हमाये दोरे की रोड साजी बन जाए, दूसरे के दोरे की जाए चूला में। जेई चलन सो चल रओ। तभईं तो पूरे शहर की मुतकी रोडें मिटी डरीं, मनो कोनऊं मों बोल के नईं जानत। आवारा कुत्ता, गैयां सो बरहमेस रोड पे हल्लू-हाय करत मिलत आयें। मने का आए के इते तो फीता कटवाबे की जल्दी रैत आए, काम पूरो करबे की नोईं। सो, अब तो दुर्गा मैया को ई भरोसो आए के बे हम सबई पे किरपा बनाएं राखें। 
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Friday, October 4, 2024

शून्यकाल | देवी दुर्गा को भी बहुत प्रिय है मोटा अनाज जौ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक "नयादौर" में मेरा कॉलम "शून्यकाल" -                                                                 देवी दुर्गा को भी बहुत प्रिय है मोटा अनाज जौ
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
    नवरात्रि की शुरुआत के साथ ही जौ के बीज ‘‘ज्वारे’’ के रूप में बोए जाते हैं। क्या आप जानते हैं कि जौ कितना महत्वपूर्ण अनाज है? आप कहेंगे कि हाँ! आजकल इसे मोटे अनाज के रूप में खाने पर जोर दिया जा रहा है। इसे स्वास्थ्य के लिए अच्छा बताया जा रहा है। जलवायु परिवर्तन को देखते हुए भी ज्वार की खेती को बढ़ावा देने की जरूरत महसूस की जा रही है। लेकिन क्या आप यह भी जानते हैं कि हमारे वैदिक साहित्य में इसे ‘‘ब्रह्मा का अन्न’’ माना गया है। वेदों में उल्लेख है कि धरती पर सबसे प्राचीन अनाज जौ है। इसीलिए इसे यज्ञ, हवन और जवारों में भी पवित्र अनाज के रूप में शामिल किया जाता है और देवी मां दुर्गा को भी मोटा अनाज जौ बहुत प्रिय है।
वर्तमान में पूरे विश्व में खाद्य समस्या और जलवायु परिवर्तन को देखते हुए मोटे अनाज के उपयोग और उत्पादन पर जोर दिया जा रहा है। हमारे देश भारत में भी मोटे अनाज को खाद्यान्न के मूल आधार के रूप में देखा जा रहा है। ये मोटे अनाज हैं जौ, बाजरा, रागी आदि। ये सभी अनाज पहले हमारे भोजन की थाली में शामिल होते थे। लेकिन आधुनिकता और पाश्चात्य भोजन शैली के कारण ये हमारी भोजन की थाली से दूर होते चले गए। जबकि हमारे देश में, चाहे वे किसी भी धर्म से ताल्लुक रखते हों, सभी जानते हैं कि नवरात्रि की शुरुआत में श्ज्वारेश् बोए जाते हैं। यह एक तरह का धार्मिक अनुष्ठान है। इन बीजों को बोने का एक अर्थ यह भी है कि इससे देवी दुर्गा प्रसन्न होती हैं और अच्छी फसल का आशीर्वाद देती हैं। हालांकि इस संबंध में देश के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग मान्यताएं और कहानियां प्रचलित हैं। लेकिन सभी का मानना है कि देवी मां को जौ के बीज चढ़ाने से वे प्रसन्न होती हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि देवी मां दुर्गा को भी मोटा अनाज जौ पसंद है। यह धरती पर उगाए जाने वाले सबसे पुराने अनाजों में से एक है। प्राचीन काल से ही इसका इस्तेमाल धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता रहा है। संस्कृत में इसे ‘‘यव’’ कहा जाता है। इसका उत्पादन मुख्य रूप से रूस, यूक्रेन, अमेरिका, जर्मनी, कनाडा और भारत में होता है।

नवरात्रि में जौ बोने का विशेष महत्व है। नवरात्रि में कलश और घटस्थापना के साथ ही घट में जौ (कभी-कभी गेहूं) बोया जाता है। मां दुर्गा को यह बहुत पसंद है। आइए जानते हैं क्या है इसका रहस्य। नवरात्रि में देवी दुर्गा के नौ रूपों की विधि-विधान से पूजा की जाती है और व्रत रखे जाते हैं। नवरात्रि के नौ दिनों में लोग अपने घरों में अखंड ज्योति जलाते हैं। साथ ही माता रानी के नौ रूपों की पूजा भी करते हैं। नवरात्रि में कलश स्थापना और जौ का बहुत महत्व होता है। नवरात्रि के पहले दिन घटस्थापना यानी कलश स्थापना के साथ ही जौ बोए जाते हैं। कहा जाता है कि इसके बिना मां अम्बे की पूजा अधूरी रहती है। कलश स्थापना के साथ जौ बोने की परंपरा काफी पुराने समय से चली आ रही है। ऐसे में आइए आज जानते हैं कि नवरात्रि में जौ क्यों बोए जाते हैं और इसके पीछे क्या धार्मिक मान्यता और वैज्ञानिक महत्व है?

जौ को भगवान ब्रह्मा का प्रतीक माना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब भगवान ब्रह्मा ने इस सृष्टि की रचना की तो वनस्पतियों में सबसे पहली फसल श्जौश् ही थी। इसीलिए नवरात्रि के पहले दिन घट स्थापना के समय सबसे पहले जौ की पूजा की जाती है और कलश में भी इसे स्थापित किया जाता है। जौ को सृष्टि की पहली फसल माना जाता है, इसलिए जब भी देवी-देवताओं की पूजा या हवन किया जाता है तो जौ को ही अर्पित किया जाता है। यह भी कहा जाता है कि जौ अन्न यानी ब्रह्मा के समान है और अन्न का हमेशा सम्मान करना चाहिए। इसलिए पूजा-पाठ में जौ का प्रयोग किया जाता है। नवरात्रि में कलश स्थापना के दौरान बोए गए जौ दो-तीन दिन में ही अंकुरित हो जाते हैं, लेकिन अगर ये अंकुरित न हों तो यह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। ऐसी मान्यता है कि अगर दो-तीन दिन बाद भी अंकुर न निकलें तो इसका मतलब है कि कड़ी मेहनत के बाद ही फल मिलेगा। इसके अलावा अगर जौ उग आए हैं लेकिन उनका रंग नीचे से आधा पीला और ऊपर से आधा हरा है तो इसका मतलब है कि आने वाला साल आधा तो ठीक रहेगा, लेकिन बाद में परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। अगर बोए गए जौ सफेद या हरे रंग के उग रहे हैं तो इसे बहुत शुभ माना जाता है। इसका मतलब है कि पूजा सफल रही। आने वाला पूरा साल खुशियों से भरा रहेगा। नवरात्रि के दिनों में कलश के सामने मिट्टी के बर्तन में जौ या गेहूं बोया जाता है और उसकी पूजा भी की जाती है। बाद में जब नौ दिन में जवारे बड़े हो जाते हैं तो उन्हें नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। देवी मां के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं के लिए जब भी हवन किया जाता है तो उसमें जौ का बहुत महत्व होता है। जौ बोने से बारिश, फसल और व्यक्ति के भविष्य का भी अनुमान लगाया जाता है। कहा जाता है कि अगर जौ सही आकार और लंबाई में नहीं उगते हैं तो साल छोटा रहेगा और फसल भी कम होगी। इसका असर भविष्य पर पड़ता है। बोए गए जौ का रंग भी शुभ और अशुभ संकेत देता है। ऐसा माना जाता है कि अगर जौ का ऊपरी आधा भाग हरा और निचला आधा भाग पीला है, तो इसका मतलब है कि आने वाला साल आधा अच्छा होगा और आधा मुश्किलों से भरा होगा। ऐसा माना जाता है कि अगर 2 से 3 दिन में जौ अंकुरित हो जाएं तो यह बहुत शुभ होता है और अगर आदि जौ नवरात्रि के अंत तक जौ नहीं उगते हैं, तो इसे अच्छा नहीं माना जाता है। हालाँकि, कभी-कभी ऐसा होता है कि अगर जौ को ठीक से नहीं बोया है, तो भी जौ नहीं उगते हैं। इसके साथ ही, अगर जौ का रंग हरा है या सफेद हो गया है, तो इसका मतलब है कि आने वाला साल बहुत अच्छा होगा। इतना ही नहीं, देवी भगवती की कृपा से आपके जीवन में अपार सुख और समृद्धि आएगी। ऐसा कहा जाता है कि नवरात्रि के दौरान बोए गए जौ जितने अधिक बढ़ते हैं, उतनी ही अधिक देवी दुर्गा की कृपा बरसती है। यह इस बात का भी संकेत है कि व्यक्ति के घर में सुख और समृद्धि आएगी।

जौ बोने की रस्म हमें अपने भोजन और अनाज का हमेशा सम्मान करना सिखाती है। इसका वैज्ञानिक पहलू यह है कि इस तरह खेती से न जुड़ा व्यक्ति भी खेती के काम को समझ पाता है। यहां तक कि परिवार के बच्चे भी ज्वार बोने और उसे हरा-भरा रखने में जरूरी सावधानियों को जान और समझ पाते हैं। स्वस्थ ज्वारे खेती के लिए मौसम को समझने में भी मदद करते हैं। जरा सोचिए जौ का मोटा अनाज कितना महत्वपूर्ण है, जिसे देवी मां को प्रसन्न करने के लिए उनके सामने उगाया जाता है और फिर नौ दिन बाद उन ज्वारों को देवी मां के साथ जल में विसर्जित कर दिया जाता है। यानी उन अनाजों को देवी मां के साथ ही भेज दिया जाता है, जैसे विदाई के समय रास्ते में किसी मेहमान को खाने के लिए खाना पैक करके दिया जाता है। ऐसे महत्वपूर्ण अनाजों को हमें अपने रोजमर्रा के जीवन में अपनाने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि मोटा अनाज स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है। जौ जैसा मोटा अनाज खाने के बहुत लाभ हैं, जैसे- मोटे अनाज में प्रोटीन, खनिज, और विटामिन, चावल और गेहूं से तीन से पांच गुना ज्यादा होते हैं। मोटे अनाज में फाइबर काफी होता है, जिससे पाचन तंत्र बेहतर होता है। मोटे अनाज में कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स (जीआई) होता है, जिससे मधुमेह की रोकथाम में मदद मिलती है। मोटे अनाज में कैल्शियम, आयरन, और जिंक जैसे खनिज होते हैं। मोटे अनाज में मौजूद पोषक तत्व हड्डियों को मजबूत बनाते हैं और कैल्शियम की कमी को रोकते हैं। मोटे अनाज में मौजूद फाइबर की वजह से लंबे समय तक पेट भरा रहता है, जिससे बार-बार खाने की जरूरत नहीं होती। मोटे अनाज खाने से एनीमिया का खतरा कम होता है। मोटे अनाज दिल के लिए भी अच्छे होते हैं। 

खाद्य विशेषज्ञ मोटे अनाज खाने का तरीका भी सुझाते हैं। उनके अुनसार मोटे अनाज को हमेशा भिगोकर या अंकुरित करके खाना चाहिए। मोटे अनाज में फिटिक एसिड होता है, जो शरीर में बाकी पोषक तत्वों को अवशोषित नहीं होने देता। लेकिन परंपरागत तरीकों से भी मोटे अनाज को खाया जा सकता है जैसे उबाल कर, पीस कर रोटी आदि के रूप में।

यही सब कारण हैं कि आजकल मोटे अनाज को स्वास्थ्य के लिए अच्छा बताया जा रहा है। जलवायु परिवर्तन को देखते हुए भी ज्वार की खेती को बढ़ावा देने की जरूरत महसूस की जा रही है। वेदों में उल्लेख है कि धरती पर सबसे प्राचीन अनाज जौ और इसकी भांति मोटे अनाज की श्रेणी में आनेे वाले अन्न ही हमें स्वास्थ्य एवं खद्यान्न संकट से भी उबार सकते हैं। अतः इस नवरात्रि से गर्व के साथ याद रखिए कि देवी मां दुर्गा को भी मोटा अनाज जौ बहुत प्रिय है और हम इसे उनके आशीर्वाद के रूप में अपनी खाद्यचर्या में शामिल कर सकते हैं। 
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Thursday, October 3, 2024

नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
सभी मित्रों को नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं 
🚩🚩🚩🙏🚩🚩🚩
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Wednesday, October 2, 2024

चर्चा प्लस | कैसा था महात्मा गांधी का ईश्वर | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
(2 अक्टूबर, गांधी जयंती विशेष) 
कैसा था महात्मा गांधी का ईश्वर? 
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                            
        सभी जानते हैं कि महात्मा गांधी के अंतिम शब्द थे ‘‘हे राम!’’ तो क्या महात्मा गांधी सिर्फ़ श्रीराम को पूजते थे अथवा उनकी दृष्टि में ईश्वर का कोई भी स्वरूप था? महात्मा गांधी सत्य के पक्षधर थे और उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक पक्ष को पूरी सच्चाई से दुनिया के सामने रखा। अपने आस्था पक्ष को भी उन्होंने कभी किसी से नहीं छिपाया। वे धर्मनिरपेक्ष थे किन्तु नास्तिक नहीं थे। विशुद्ध आस्तिक थे। इस तथ्य को उन लोगों को समझना चाहिए जो धर्म और ईश्वर के नाम पर कट्टर विचारों का पोषण करते हैं।  
       महात्मा गांधी ईश्वर के प्रति अपनी आस्था को जानना धर्म के एक ऐसे स्वरूप से परिचित होना है जिसमें ईश्वर साकार भी है और निराकार भी। शब्दों में वर्णन किए जाने योग्य भी है और वर्णनातीत भी। सभी जानते हैं कि महात्मा गांधी के अंतिम शब्द थे ‘‘हे राम!’’ तो क्या महात्मा गांधी सिर्फ़ श्रीराम को पूजते थे अथवा उनकी दृष्टि में ईश्वर का कोई भी स्वरूप था? महात्मा गांधी सत्य के पक्षधर थे और उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक पक्ष को पूरी सच्चाई से दुनिया के सामने रखा। अपने आस्था पक्ष को भी उन्होंने कभी किसी से नहीं छिपाया। वे धर्मनिरपेक्ष थे किन्तु नास्तिक नहीं थे। विशुद्ध आस्तिक थे। इस तथ्य को उन लोगों को समझना चाहिए जो धर्म और ईश्वर के नाम पर कट्टर विचारों का पोषण करते हैं।  
   महात्मा गांधी का कहना था कि -‘‘संसार का परित्याग तो मेरे लिए सरल है, लेकिन मैं ईश्वर का परित्याग करूं, यह अविचारणीय है। मैं जानता हूं कि मैं कुछ भी करने में समर्थ नहीं हूं। ईश्वर सर्वसमर्थ है। हे प्रभो, मुझे अपना समर्थ साधन बनाएं और जैसे चाहें, मेरा उपयोग करें। मैंने ईश्वर के न तो दर्शन किए हैं और न ही उन्हें जाना है। मैंने ईश्वर के प्रति दुनिया की आस्था को अपनी आस्था बना लिया है और चूंकि मेरी आस्था अमिट है, मैं उस आस्था को ही अनुभव मानता हूं लेकिन यह कहा जा सकता है कि आस्था को अनुभव मानना तो सत्य के साथ छेड़छाड़ करना है। सच्चाई शायद यह है कि ईश्वर के प्रति अपनी आस्था का वर्णन करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है।’’
गांधी जी ने अपने विचारों को उदाहरण देते हुए समझया कि -‘‘आप और मैं इस कमरे में बैठे हैं, इस तथ्य से भी ज्यादा पक्का भरोसा मुझे ईश्वर के अस्तित्व में है। इसलिए मैं यह भी निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि मैं वायु और जल के बिना तो जीवित रह सकता हूं, पर ईश्वर के बिना नहीं रह सकता। आप मेरी आंखें निकाल लें, पर मैं उससे मरूंगा नहीं। आप मेरी नाक काट लें, पर मैं उससे मरूंगा नहीं, पर ईश्वर के प्रति मेरी आस्था को ध्वस्त कर दें तो मैं मर जाऊंगा।’’ उन्होंने आगे कहा कि ‘‘आप इसे अंधविश्वास कह सकते हैं, पर मैं स्वीकार करता हूं कि मैं इस अंधविश्वास को उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक गले लगाए हूं, जिस प्रकार कोई खतरा या संकट आने पर मैं अपने बचपन में ‘राम नाम’ का श्रद्धापूर्वक जप करने लग जाता था। इसकी सीख मुझे एक बूढ़ी परिचारिका ने दी थी।’’
महात्मा गांधी मानते थे कि ईश्वर डराता नहीं है, वह भभीत नहीं करता है, वह तो मनुष्य के मन में बैठा हुआ डर है जो उसे ईश्वर से भयभीत रहने को विवश करता है। इस संबंध में उन्होंने कहा कि -‘‘मेरा विश्वास है कि हम सभी ईश्वर के सन्देशवाहक बन सकते हैं, यदि हम मनुष्य से डरना छोड़ दें और केवल ईश्वर के सत्य का शोध करें। मेरा पक्का विश्वास है कि मैं केवल ईश्वर के सत्य का शोध कर रहा हूं और मनुष्य के भय से सर्वथा मुक्त हो गया हूं। मुझे ईश्वरीय इच्छा का कोई प्राकट्य नहीं हुआ है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि वह प्रत्येक व्यक्ति के सामने नित्य अपना प्रकटन करता है लेकिन हम अपनी अंतर्वाणी के लिए कान बंद कर लेते हैं। हम अपने सम्मुख दैदीप्यमान अग्निस्तम्भ से आंख मींच लेते हैं। मैं उसे सर्वव्यापी पाता हूं।’’
वे मानते थे कि ईश्वर में आस्था रखने वाला व्यक्ति भी कोई चमतकारी पुरुष नहीं बन जाता है। वह भी एक सामान्य मनुष्य ही रहता है। उनका कहना था कि -‘‘मुझे पत्र लिखने वालों में से कुछ यह समझते हैं कि मैं चमत्कार दिखा सकता हूं। सत्य के पुजारी होने के नाते मेरा कहना है कि मेरे पास ऐसी कोई सामथ्र्य नहीं है। मेरे पास जो भी शक्ति है, वह ईश्वर देता है, लेकिन वह सामने आकर काम नहीं करता। वह अपने असंख्य माध्यमों के जरिए काम करता है।’’
ईश्वर को ले कर महात्मा गांधी के विचार एकदम स्पष्ट थे। ईश्वर के स्वरूप को ले कर उनके मन में कोई अंतद्र्वन्द्व नहीं था। उनके अनुसार -‘‘मेरे लिए ईश्वर सत्य है और प्रेम है, ईश्वर आचारनीति है और नैतिकता है, ईश्वर अभय है। ईश्वर प्रकाश और जीवन का श्रोत है। फिर भी इन सबसे ऊपर और परे है। ईश्वर अंतःकरण है। वह नास्तिक की नास्तिकता भी है, चूंकि अपने असीम प्रेमवश ईश्वर नास्तिक को भी रहने की छूट देता है। वह हृदयों को स्वयं हमसे बेहतर जानता है। वह हमारी कही हुई बातों को सच नहीं मानता क्योंकि वह जानता है कि कई बार जान-बूझकर और कई बार अनजाने, हम जो बोलते हैं, हमारा अभिप्राय वह नहीं होता। जिन्हें ईश्वर की व्यक्तिगत उपस्थिति की दरकार है, उनके लिए वह व्यक्तिगत ईश्वर है जिन्हें उसका स्पर्श चाहिए, उनके लिए वह साकार है। वह विशुद्धतम तत्त्व है। जिन्हें आस्था है, उनके लिए तो बस वह है। वह सब मनुष्यों के लिए सब कुछ है। वह भीतर है, फिर भी हमसे ऊपर और परे है।’’
महात्मा गांधी धर्म के नाम पर परस्पर दुर्भावना रखने वालों सुधरने का अवसर देने की बात करते थे। उनके अनुसार - ‘‘उसके नाम पर घृणित दुराचार या अमानवीय क्रूरताएं की जाती हैं पर इनसे उसका अस्तित्व समाप्त नहीं हो सकता। वह दीर्घकाल से पीड़ा भोग रहा है। वह धैर्यवान है, पर भयंकर भी है। वह इस दुनिया और आने वाली दुनिया की सबसे कठोर हस्ती है। जैसा व्यवहार हम अपने पड़ोसियों-मनुष्यों और पशुओं-के साथ करते हैं, वैसा ही ईश्वर हमारे साथ करता है। वह अज्ञान को क्षमा नहीं करता। इसके बावजूद नित्य क्षमाशील है क्योंकि वह हमें सदा पश्चाताप करने का अवसर देता है।’’ गांधी जी मानते थे कि दुनिसा में सबसे बड़ा लोकतांत्रित कोई है तो वह है ईश्वर। वे रूपष्ट शब्दों में कहते थे कि ‘‘संसार में उस जैसा लोकतांत्रिक दूसरा नहीं है क्योंकि वह हमको अच्छाई और बुराई में से चुनाव करने के लिए स्वतंत्र छोड़ देता है। उस जैसा अत्याचारी भी आज तक नहीं हुआ जो प्रायः हमारे हांेठों से प्याला छीन लेता है और स्वेच्छा के नाम पर, हमें हाथ-पैर फेंकने के लिए अत्यंत संकुचित क्षेत्रा देकर फिर हमारी विवशता पर हंसता है। इसीलिए हिन्दू धर्म में कहा गया है कि यह सब उसका खेल अर्थात उसकी लीला है अथवा भ्रम यानी माया है। हम नहीं हैं, मात्रा वही है। यदि हम हैं तो हमें निरन्तर उसका स्तुतिगान करना है और उसकी इच्छानुसार कार्य करना है। हम उसकी बंसी की धुन पर नाचें तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।’’
वहीं दूसरी ओर ईश्वर को सबसे अनुशासनप्रिय भी मानते थे। वे कहते थे कि ‘‘जहां तक मैं समझता हूं, ईश्वर दुनिया का सबसे कठोर अधिकारी है, वह तुम्हारी जमकर परीक्षा लेता है और जब तुम्हें लगता है कि तुम्हारी आस्था डिग रही है या तुम्हारा शरीर जवाब दे रहा है और तुम डूब रहे हो, वह किसी-न-किसी प्रकार तुम्हारी सहायता के लिए आ पहुंचता है और यह सिद्ध कर देता है कि तुम्हें अपनी आस्था नहीं छोड़नी चाहिए। वह सदा तुम्हारे इशारे पर दौड़ा चला आएगा, लेकिन अपनी शर्तों पर तुम्हारी शर्तों पर नहीं। मैंने तो उसे ऐसा ही पाया है। मुझे एक भी उदाहरण ऐसा याद नहीं आता जब ऐन मौके पर उसने मेरा साथ छोड़ दिया हो।’’
 महातमा गांधी के ईश्वर की व्यापकता ईश्वर अनंत थी। वे अपनी सभाओं में अपनी अपने बचपन के अनुभवों को भी साझा किया करते थे। फिर उन स्मृतियों एवं अनुभवों के आधार पर धर्म के स्वरूप और ईश्वर के अस्तित्व की व्याख्या करते थे। गाुधी जी का कहना था कि -‘‘शैशवकाल में मुझे ‘विष्णुसहस्त्रनाम’ का पाठ करना सिखाया गया था, लेकिन भगवान के ये हजार नाम ही नहीं हैं। हिन्दुओं का विश्वास है और मैं समझता हूं कि यह सत्य है कि संसार में जितने प्राणी हैं, उतने ही भगवान के नाम हैं। इसीलिए हम यह भी कहते हैं कि भगवान अनाम है और चूंकि भगवान के अनेक रूप हैं इसलिए हम उसे निराकार मानते हैं। जब मैंने इस्लाम का अध्ययन किया तो मैंने पाया कि इस्लाम में भी खुदा के बहुत से नाम हैं। जो कहते हैं कि ईश्वर प्रेम है, उनके साथ स्वर मिलाकर मैं भी कहूंगा कि ईश्वर प्रेम है लेकिन अपने अंतरतम में मेरा मानना है कि यद्यपि ईश्वर प्रेम है, पर सर्वोपरि ईश्वर सत्य है। यदि मनुष्य की वाणी के लिए ईश्वर का पूरा-पूरा वर्णन करना सम्भव हो तो मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि, जहां तक मेरा सम्बन्ध है, ईश्वर सत्य है।’’
महात्मा गांधी कहते थे कि जीवन के सत्य एवं तथ्य को खेजने के लिए ईश्वर के अस्तित्व को नकारना आवश्यक नहीं है। इस संबंध में वे अपना अनुभव बताते थे कि -‘‘मैंने पाया कि सत्य तक पहुंचने का सबसे छोटा रास्ता प्रेम के माध्यम से है लेकिन मैंने देखा कि कम-से-कम अंग्रेजी भाषा में, प्रेम के अनेक अर्थ हैं और वासना के अर्थ में मानव प्रेम पतनकारी प्रवृत्ति भी हो सकता है। मैंने यह भी देखा कि अहिंसा के अर्थ में, प्रेम को मानने वाले लोग, इस दुनिया में बहुत कम हैं लेकिन सत्य के कभी दो अर्थ मैंने नहीं देखें और नास्तिक भी सत्य की आवश्यकता अथवा शक्ति के विषय में आपत्ति नहीं करते। लेकिन सत्य की खोज करने के उत्साह में नास्तिकों ने ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिद्द लगा दिया है जो उनकी दृष्टि से सही है। इस तर्क के कारण ही मुझे लगा कि ‘ईश्वर सत्य है’ के स्थान पर मुझे ‘सत्य ईश्वर है’ कहना चाहिए। ईश्वर सत्य है, पर वह और भी बहुत कुछ है। इसीलिए मैं कहता हूं कि सत्य ईश्वर है। केवल यह स्मरण रखें कि सत्य ईश्वर के अनेक गुणों में से एक गुण नहीं है। सत्य तो ईश्वर का जीवंत स्वरूप है, यही जीवन है, मैं सत्य को ही परिपूर्ण जीवन मानता हूं। इस प्रकार यह एक मूर्त वस्तु है क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि, सम्पूर्ण सत्ता ही ईश्वर है और जो कुछ विद्यमान है अर्थात् सत्य, उस सत्य की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।’’
 इस प्रकार देखा जाए तो महात्मा गांधी का ईश्वर ही सत्य था और सत्य ही ईश्वर था। एक ऐसा ईश्वर जो जनप्रिय और जनहितकारी है, चाहे उसे किसी भी नाम से पुकारा जाए, चाहे किसी भी पद्धति से उसकी पूता की जाए। वस्तुतः महात्मा गांधी के ईश्वर संबंधी ये विचार आज अत्यंत प्रासंगिक हैं। कट्टरता के विरुद्ध ये विचार धर्म निरपेक्षता का उद्घोष करते हैं। अतः महात्मा गांधी के ईश्वर को समझना बेहद जरूरी है।
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Tuesday, October 1, 2024

पुस्तक समीक्षा | बुंदेलखण्ड की कथा लेखन परंपरा की साक्ष्य सहित पड़ताल | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 01.10.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई प्रो. पुनीत बिसारिया द्वारा संपादित पुस्तक "बुंदेलखण्ड के कथाकार" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
बुंदेलखण्ड की कथा लेखन परंपरा की साक्ष्य सहित पड़ताल
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - बुंदेलखण्ड के कथाकार
चयन एवं संपादन- प्रो. पुनीत बिसारिया 
प्रकाशक - हंस प्रकाशन, बी-336/1, गली नं.3, दूसरा पुस्ता, सोनिया विहार, नई दिल्ली - 110094
मूल्य    - 695/- (हार्ड बाउंड)
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      प्रो. पुनीत बिसारिया प्राध्यापकीय दायित्व निभाते हुए परंपरागत कार्यशैली से अलग हट कर सोचते हैं और हमेशा कुछ नया एवं सार्थक सृजन सामने लाते हैं। हिन्दी साहित्य को फिल्मों के साहित्यपक्ष की ओर आकर्षित करने की सार्थक पहल में उनका नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। एक ओर हिन्दी साहित्य और दूसरी ओर फिल्म साहित्य, इनके बीच वे उपभाषा बुंदेली के साहित्य पर भी अपनी पारखी दृष्टि जमाए हुए हैं। बुंदेलखण्ड विश्वविद्यालय, झांसी (उ.प्र.) के हिन्दी विभाग में आचार्य प्रो. पुनीत बिसारिया यूं तो रायबरेली के बछरावां कस्बे में जन्मे और डाॅक्टरेट की उपाधि लखनऊ विश्वविद्यालय से पाई किन्तु बुंदेलखण्ड में आने के बाद बुंदेली भाषा और संस्कृति से उन्हें गहरा लगाव होता गया। वे उपभाषा बुंदेली के विकास के लिए हरसंभव प्रयास करते रहते हैं। इसी श्रृंखला में उन्होंने बुंदेलखण्ड के कथाकारों पर केन्द्रित एक पुस्तक का संपादन किया है जिसका नाम है-‘‘बुंदेलखण्ड के कथाकार’’। इस पुस्तक के लिए उन्होंने कथाओं का चयन स्वयं किया।
बुन्देली लोक साहित्य  गद्य और पद्य दोनों विधाओं में धनी है। बुन्देली में सामान्य जन जीवन से जुड़े संदर्भों के काव्य के साथ ही लोक गाथाएं भी सदियों से कहीं-सुनी जा रही हैं। इनमें भारतीय इतिहास के महाकाव्य कहे जाने वाले रामायण एवं महाभारत काल की कथाओं को भी गाथाओं के रूप में गाया जाता है। बुन्देलखण्ड में जगनिक के बाद विष्णुदास ने लगभग 14 वीं सदी में महाभारत कथा और रामायण कथा लिखी। विष्णुदास की महाभारत कथा 1435 ई. माना गया है। यह गाथा शैली में दोहा, सोरठा, चौपाई तथा छंदों सं युक्त है। बुन्देली की प्रसि़द्ध महाभारतकाल संदर्भित लोकगाथाएं हैं- बैरायठा, कृष्ण-सुदामा, द्रौपदी चीरहरण तथा मेघासुर दानव आदि। इनके अतिरिक्त राजा जगदेव की लोकगाथा में भी पाण्डवों की चर्चा का समावेश है। महाभारत कालीन चरित्रों से जुड़ी गाथाओं का इस प्रकार बुन्देलखण्ड में रूचिपूर्वक गाया जाना इस बात का द्योतक है कि बुन्देली जन प्रकृति से जितने वीर होते हें तथा मानवीय संबंधों के आकलन को लेकर उतने ही संवेदनशील होते हैं। उन्हें व्यक्ति के अच्छे अथवा बुरे होने की परख होती है तथा साहसी, वीर, उदार, दानी और सच्चा व्यक्ति अपना आदर्श प्रतीत होता है। इसीलिए जन-जन में गाए जाने वाली बैरायठा लोकगाथा में ‘महाभारत’ महाकाव्य की लगभग सम्पूर्ण कथा को जन-परिवेश में पस्तुत किया गया है। लोकगाथा अर्थात कथात्मक गीतों के साथ ही समय के साथ गद्यात्मक कथालेखन ने बुंदेलखण्ड में अपना स्थान बनाया जिसमें हिन्दी और बुंदेली दोनों प्रकार कथाएं आकार लेती गईं। हिन्दी में लिखी गई कथाओं ने हिन्दी साहित्य का जो इतिहास रचा वह निश्चितरूप से  रेखांकित किए जाने योग्य है। 

बुंदेलखण्ड में संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और बुंदेली तीनों में निरंतर साहित्य सृजन हो रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बुंदेली धरती साहित्य सृजन के लिए अत्यंत उर्वरा है। इस संबंध में प्रो. बिसारिया ने पुस्तक की प्रस्तावना में बुंदेलखण्ड के कथात्मक साहित्य की गौरवशाली परंपरा का एक संक्षिप्त परिचय दिया है जिसमें वे लिखते हैं कि -‘‘ बुन्देलखण्ड अंचल प्रकृति का रमणीक लीला स्थल रहा है, जहां अगस्त्य, अपाला, मैत्रेयी, लोपामुद्रा प्रभृति अनेक ऋषियों-ऋषिकाओं ने वैदिक ऋचाओं को अनुस्यूत कर कहानियों की शुरूआत की। रामायण काल में महर्षि वाल्मीकि ने चित्रकूट की सुरम्य उपत्यकाओं में बैठकर श्रामायणश् के माध्यम से रामकथा लिखी, जो उनके जीवनकाल में ही जन-मन का कंठहार बन गई और आज भी उतनी ही लोकप्रिय है। महाभारत काल में वेद व्यास ने कालप्रिय (वर्तमान कालपी) में ‘‘महाभारत’’ की सर्जना की। कालांतर में भवभूति ने यहीं ‘‘उत्तररामचरितं’’ लिखकर रामकथा को विस्तार दिया। हिन्दी साहित्य में देखें तो पाते हैं कि जगनिक ने ‘‘परमाल रासो’’ या ‘‘आल्ह खण्ड’’ लिखकर आल्हा ऊदल को तो अमर किया ही, वीरता के स्पंदन के लिए उत्प्रेरक की भूमिका भी निभाई।’’

बुंदेलखण्ड की कथात्मक साहित्य परंपरा में आधुनिककाल के साहित्यकारों ने अपने कथा लेखन से बुंदेलखंड में विशुद्ध कथापरंपरा को जन्म दिया। ‘‘बुंदेलखण्ड के कथाकार’’ पुस्तक में कुल 23 प्रतिनिधि कहानियां रखी गई हैं। यह बुंदेलखण्ड के कथाकारों पर केन्द्रित प्रथम खण्ड है। लेखक की महत्वाकांक्षी योजना में भावी खण्ड भी शामिल हैं। इस पुस्तक में बुंदेलखण्ड के कहानीकारों की वे कहानियां है जो उन्होंने हिन्दी में लिखी और इस क्षेत्र को हिन्दी साहित्य में स्थान दिलाया। 
पुस्तक की प्रथम कहानी है माधवराव सप्रे की कहानी ‘‘एक टोकरी-भर मिट्टी’’। इस कहानी को हिन्दी की प्रथम कहानी माना जाता है। इस प्रकार देखा जाए तो बुंदेलखण्ड ने हिन्दी साहित्य को प्रथम कहानी दी। सन 1871 में पथरिया जिला दमोह मध्यप्रदेश में जन्मे माधवराव सप्रे हिन्दी पत्रकारिता के पितामह माने जाते हैं। उनकी यह कहानी मर्मस्पर्शी भावनाओं से ओतप्रोत है। दूसरी कहानी मैथिलीशरण गुप्त की काव्यात्मक कथा है जो उन्होंने बच्चों के लिए लिखी थी। तीसरी कहानी मुंशी अजमेरी ‘‘प्रेम’’ की है जिसका नाम है ‘‘हेमला सत्ता’’। यहां यह बता देना समीचीन होगा कि इस पुस्तक में बुंदेलखण्ड की समग्रता को ध्यान में रखते हुए मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश दोनों क्षेत्रों के बुंदेली कथाकारों की कहानियों का चयन किया गया है। जैसे मधवराव सप्रे मध्यप्रदेश के बुंदेलखण्ड के थे तो मैथिलीशरण गुप्त, मुंशी अजमेरी, वृंदावनलाल वर्मा उत्तर प्रदेश के बुंदेलखण्ड के थे। चौथी कहानी वृंदावनलाल वर्मा की ‘‘शरणागत’’, पांचवी कहानी सियारामशरण गुप्त ‘‘काकी’’, छठी कहानी केदारनाथ अग्रवाल की ‘‘नर्तकी तथा सातवीं कहानी गोविंद मिश्र की ‘‘फांस’’ है।

पुस्तक में आठवीं कहानी हिन्दी की चर्चित कथाकार मैत्रेयी पुष्पा की ‘‘राय प्रवीण’’ है। वल्लभ सिद्धार्थ की कहानी ‘‘कथा’’ नवीं कहानी है तथा दसवीं कहानी डॉ. (सुश्री) शरद सिंह की ‘‘चल चकवा वा देस को, जहाँ रैन नहिं होय’’ है।

ग्यारहवीं कहानी ‘‘मैं भारत का सबसे गरीब आदमी’’ है जिसके कथाकार हैं डॉ. प्रमोद कुमार अग्रवाल तथा बारहवीं कहानी है रजनी गुप्त की ‘‘अमराई’’। तेरहवीं कहानी महेंद्र भीष्म की ‘‘हलाला’’, चैदहवीं कहानी विवेक मिश्र  की ‘‘दोपहर’’ तथा पंद्रहवीं कहानी डॉ. दया दीक्षित की ‘‘चिट्ठी-पत्तरी’’ है।
‘‘कोरोना लॉक डाउन और लड़की’’ सोलहवीं कहानी है जिसे लिखा है लखनलाल पाल ने। सत्रहवें क्रम में है बृज मोहन की ‘‘अपने अपने अस्त्र’’ तथा अठाहरवें पर पन्नालाल असर की कहानी ‘‘मुस्कुराता हुआ गुमनाम चेहरा’’। उन्नीसवी कहानी है डॉ. निधि अग्रवाल की ‘‘यमुना बैंक की वह मेट्रो’’ तथा बीसवीं कहानी है छाया सिंह  की ‘‘साँझी छत’’। 
पुस्तक की इक्कीसवीं कहानी है दिनेश बैस की ‘‘दूसरी पारी’’, बाईसवीं कहानी है अनीता श्रीवास्तव की ‘‘ईंट’’ तथा अंतिम तेईसवीं कहानी है डॉ. रामशंकर भारती की ‘‘देवस्वामिनी’’। 
इस पुस्तक में संग्रहीत कथाओं के द्वारा बुंदेलखण्ड के बीसवीं सदी से इक्कीसवीं सदी तक के कथा लेखन का एक बेहतरीन परिचय पाया जा सकता है। ये वे प्रतिनिधि कहानियां हैं जो इस क्षेत्र के कथाकारों की समसामयिकता को भी रेखांकित करती हैं। इन कहानियों में विषय की विविधता है। इन कहानियों में इतिहास भी है, पौराणिक संदर्भ भी हैं, अंचल की समस्याएं एवं कोरोनाकाल की विभीषिका की कठोर स्मृतियां भी हैं। ये कहानियों इस बात की साक्ष्य हैं कि बुंदेलखण्ड के कथाकार साहित्य के समायानुसार निरंतर विकास में आस्था रखते हैं। मैत्रेयी पुष्पा, शरद सिंह तथा रजनी गुप्त ने स्त्रीविमर्श की कहानियों को एक अलग पहचान दी। वहीं विवेक मिश्र का कथालेखन बाॅलीवुड के रजतपट तक जा पहुंचा है। ये कहानियां बताती है कि बुंदेली कथाकारों ने किस प्रकार समय की नब्ज़ को थाम कर कथानकों को परवान चढाया है। यह प्रो. पुनीत बिसारिया की चयन क्षमता की खूबी है कि उन्होंने बुंदेली कथाकारों के सृजन का गोया एक क्रमबद्ध इतिहास प्रस्तुत कर दिया है। इससे इस पुस्तक की उपादेयता शोधार्थियों के लिए भी द्विगुणित हो गई है। यह पुस्तक पठनीय भी है और संग्रहणीय भी है।                                
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