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चर्चा प्लस | वसुधैव कुटुंबकम वाली संस्कृति में अब संकटग्रस्त है कुटुंब ही | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
चर्चा प्लस | वसुधैव कुटुंबकम वाली संस्कृति में अब संकटग्रस्त है कुटुंब ही | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
चर्चा प्लस
वसुधैव कुटुंबकम वाली संस्कृति में अब संकटग्रस्त है कुटुंब ही
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
हमें अपनी भारतीय संस्कृति पर इस लिए गर्व होता है कि हमारी संस्कृति एक विस्तृत दृष्टिकोण रखती है। इसका आधारभूत सूत्र है-‘‘वसुधैव कुटुबंकम’’- अर्थात पूरी पृथ्वी एक कुटुंब है। जिस वैश्विकता की अवधारणा को हम आज डिजिटल क्रांति से जोड़ कर देखते हैं, उस अवधारणा को प्राचीन भारतीय मनीषियों ने पहले ही आत्मसात कर लिया था। सच तो यह है कि हम उस अवधारणा को बोल रहे हैं अपना नहीं रहे हैं। क्योंकि जहां कुटुंब ही छोटे-छोटे परिवारों के रूप में बंटता जा रहा हो वहां वसुधा यानी पृथ्वी को कुटुंब मानने की की बात स्वयं को धोखा देने जैसी बात है।
आज लगभग हर परिवार छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटता जा रहा है। पहले पति, पत्नी और बच्चों वाली लघु इकाई और फिर बच्चों के बड़े हो कर अपनी पढ़ाई और कैरियर के लिए चले जाने पर बुजुर्ग प्रौढ़ या पति, पत्नी वाली अत्युत छोटी इकाई। आज आधुनिक परिवार का स्वरूप यही है तो फिर बसुधैव कुटुंबकम कहना क्या थोथापन नहीं है? रिश्तेदार मात्र शादी-विवाह आदि के उत्सवों एकत्र होते हैं जहां धन के दिखावे के सामने संवेदनाएं दम तोड़ती रहती हैं। बड़े-बुजुर्ग वसीयत के कागजों तक उपयोगी रहते हैं अन्यथा प्रेम का प्रवाह वीडियो काॅल तक सीमित हो कर रह जाता है। कम से कम यह तो नही थी हमारी सांस्कृतिक पारिवारिक अवधारणा। आज तो एक पडा़ेसी भी दूसरे पड़ोसी से बिना स्वार्थ के हलो-हाय नहीं करता है। जबकि प्राचीन काल में परिदृश्य इसके एकदम उलट था। प्राचीन भारतीय समाज में परिवार को बहुत अधिक महत्व दिया जाता था। प्राचीन ग्रंथों से तत्कालीन पारिवारिक संरचना एवं उसके संगठन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। मानव जीवन मं दाम्पत्य जीवन का संतति की दृष्टि से बहुत अधिक महत्व था। परिवार में पुत्र तथा पुत्री की स्थिति निर्धारित रहती थी। वृद्धों के प्रति प्राचीन भारतीय समाज में परम्परागत विचार थे।
परिवार का संगठन - परिवार मानव सभ्यता के विकास का वह रूप है जो मनुष्य को सुव्यवस्थित, सुसंगठित एवं आपसी सहयोग की भावना से रहना सिखाता है। परिवार को समाज का एक ऐसा लघु रूप कहा जा सकता है जिसमें हर आयु वर्ग के, विभिन्न विचारों वाले मनुष्य एक साथ रहते हैं तथा परस्पर सहयोग के द्वारा अपना संगठन बनाए रखते हैं। इस संगठन का आधार प्रायः रक्त संबंध तथा वैवाहिक संबंध होता है। परिवार के संबंध में आधुनिक समाजशास्त्रियों के जो विचार हैं लगभग वही विचार प्राचीन भारतीय समाज में भी पाए जाते थे।
बर्गेस एवं लॅाक के अनुसार-‘ परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो विवाह, रक्त अथवा गोद लेने के संबंधों द्वारा संगठित है। एक छोटी-सी गृहस्थी का निर्माण करता है और पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन के रूप में एक दूसरे से अंतःक्रियाएं करता है तथा एक सामान्य संस्कृति का निर्माण और देख-रेख करता है।’
प्राचीन भारत में परिवार का बहुत अधिक महत्व था। परिवार का मुख्य उद्देश्य संतति होता था। समाज की इकाई के रूप में भी परिवार महत्वपूर्ण होता था। परिवार के कुछ महत्वपूर्ण उद्देश्य थे -
(क) परिवार मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था।
(ख) यह सामाजिक संरचना को बल प्रदान करता था।
(ग) यह चारो पुरुषार्थों का निर्वाह करने में सहायता प्रदान करता था।
(घ) परिवार गृहस्थाश्रम की आवश्यकताओं को पूरा करने का अवसर प्रदान करता था।
(ङ) यह संतति तथा संतान के लालन-पालन के लिए उचित वातावरण प्रदान करता था।
(च) परस्पर सहयोग का वातावरण प्रदान करता था।
युवा स्त्री तथा युवा पुरूष विवाह करके परिवार का निर्माण करते थे। वे संतानोत्पत्ति करते थे तथा अपने वंश को आगे बढ़ाते हुए सुखमय जीवन व्यतीत करते थे। आयु बढ़ने के साथ-साथ वे अपनी संतानों पर निर्भर होते जाते थे। वृद्धावस्था में वे अपने घर में अपने परिवार के बीच रह कर जीवन व्यतीत कर सकते थे अथवा वानप्रस्थ में जा सकते थे । वे सन्यास ग्रहण करके देशाटन भी कर सकते थे।
मुखिया -परिवार में एक साथ कई सदस्य रहते थे- माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधुएं, पौत्र, पौत्री, बंधु, बंधु-पत्नी आदि। परिवार का स्वरूप संयुक्त कुटुम्ब का होता था। परिवार का सबसे बड़ी आयु का व्यक्ति परिवार का मुखिया होता था। ऋग्वेद में परिवार के मुखिया के लिए ‘कुलपा’ शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रायः पिता परिवार का मुखिया होता था। पितामह (पिता के पिता) के साथ रहने पर पितामह परिवार का मुखिया माना जाता था। परिवार का मुखिया परिवार के सभी सदस्यों को एकसूत्र में बंाधे रखने का कार्य करता था। उसके आदेश का पालन करना सभी सदस्यों के लिए अनिवार्य होता था। सभी सदस्यों द्वारा उसे सम्मान दिया जाता था। वह सभी सदस्यों से प्रेमपूर्ण व्यवहार करता था। परिवार का मुखिया परिवार के किसी भी सदस्य को उसकी उद्दण्डता के लिए दण्डित कर सकता था। यह दण्ड संपत्ति में भागीदारी से अलग कर दिए जाने का भी हो सकता था। परिवार की संपत्ति पर परिवार के मुखिया का अधिकार होता था। प्राचीन विद्वानों ने परिवार के मुखिया की मुत्यु के पूर्व अथवा पिता की मृत्यु के पूर्व संतानों में संपत्ति के विभाजन को अनुचित माना है। गौतम धर्मसूत्र, मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार -‘पिता के जीवित होते हुए पुत्र का संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता है।’
स्मृति ग्रंथों में संपत्ति के अधिकार के संबंध में संतानों के लिए ‘अनीश’ शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसका अर्थ होता है जो संपत्ति का स्वामी न हो। कौटिल्य ने भी पिता के जीवनकाल में पुत्रों को संपत्ति का स्वामी नहीं माना है तथा ऐसे पुत्रों के लिए ‘अनीश्वर’ शब्द का प्रयोग किया है। ‘अनीश्वर’ अर्थात् संपत्ति पर जिसका अधिकार न हो।
पिता - प्राचीन भारतीय परिवारों में पिता परिवार का मुखिया होता था। वह अपने परिवार के लालन-पालन करता था। परिवार के सभी सदस्य उसकी आज्ञा का पालन करते थे तथा उसके परामर्श पर ही कोई कार्य करते थे। पिता का यह दायित्व होता था कि वह अपनी पत्नी अर्थात् परिवार की माता की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखे। वह अपनी संतानों की शिक्षा, पोषण तथा बहुमुखी विकास के लिए उत्तरदायी होता था। ऐतरेय बाह्मण के अनुसार पिता का पुत्र पर पूरा अधिकार रहता था। वह उसे प्रेम कर सकता था तथा दण्डित कर सकता था। पिता का दायित्व होता था कि वह अपने परिवार के सदस्यों में अनुशासन बनाए रखे। इसके लिए उसे कठोर कदम उठाने के भी अधिकार थे। वह अपने परिवार के सदस्यों को उनकी त्रुटियों, उद्दण्डता अथवा पारिवारिक नियमों की अवहेलना करने के अपराध में दण्डित कर सकता था। पारिवारिक न्याय करते समय वह संबंधों को महत्व नहीं दे सकता था। ऋग्वेद में ऋजाश्व की कथा का उल्लेख मिलता है। ऋजाश्व की लापरवाही के कारण सौ भेड़ों को भेड़िए ने खा लिया। इस घटना से क्रोधित हो कर ऋजाश्व के पिता ने उसे अंधा कर के दण्डित किया। मनुस्मृति में भी कठोर दण्ड का उल्लेख किया गया है। मनुस्मृति के अनुसार- ‘पत्नी, पुत्र, भाई अथवा दास यदि कोई अपराध करे तो उन्हें रस्सी के कोड़े अथवा बेंत से पीठ पर मार कर दण्डित करना चाहिए।’ यह व्यवस्था दायित्वों के सही निर्वाह को बनाए रखने के लिए थी न कि पिता द्वारा तानाशाही के लिए, जैसा कि प्रायः गलत ढंग से व्याख्यायित कर दिया जाता है।
माता - प्राचीन भारतीय परिवार में पिता के उपरान्त माता को ही सबसे अधिक महत्व दिया जाता था। माता का दायित्व होता था कि वह अपने पति तथा अपनी संतानों की उचित देख-भाल करे। अपनी संतानों को प्रेम करे तथा उनसे आदर प्राप्त करे। ऋग्वेद के अनुसार पुत्रवती माता का परिवार में उच्च स्थान होता था। ऋग्वेद में सती प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता है। जिससे पता चलता है कि विधवा होने पर माता का सम्मान कम नहीं होता था।
संतान तथा अन्य संबंधी - संतान तथा अन्य संबंधियों का परिवार के प्रति उत्तरदायित्व होता था। परिवार में संगठन बनाए रखना, एक दूसरे के प्रति परस्पर प्रेम तथा आदर की भावना रखना, संकट के समय परस्पर एक-दूसरे की सहायता करना तथा मिलजुल कर अन्न उगाना अथ्वा शिकार करना आदि संतानों तथा अन्य निकट संबंधियों के लिए अनिवार्य था। संतानों से अपेक्षा की जाती थी कि वे परिवार के मुखिया, माता, अपने बड़े भाई-बहन का आदर करें। परिवार के मुखिया तथा माता का कहना मानें। परिवार के मुखिया के घर पर न होने पर घर के बड़े पुत्र का कहना मानें।
इस प्रकार प्राचीन भारत में पारिवारिक संगठन को बनाए रखने के प्रति विशेष ध्यान दिया जाता था। तत्कालीन परिवर का स्वरूप मुख्य रूप से केन्द्रीकृत था। संयुक्त अर्थात् अधिक सदस्यों वाले परिवार अच्छे माने जाते थे। इसीलिए प्राचीन ग्रंथों में परिवार को ‘कुल’ अथवा ‘कुटुंब’ कहा गया है। आज कुटुंब की अवधारणा को फिर ये समझने और उसे अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि परिवार के बड़े-बुजुर्गों की छत्र-छाया के बिना पलने, बढ़ने वाले बच्चे स्वच्छंदता का पाठ पढ़ते जा रहे हैं और इससे समाज में उद्दण्डता बढ़ रही है।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 18.12.2025 को प्रकाशित)
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पुस्तक समीक्षा | अशोक कुमार ‘नीरद’ की उम्दा ग़ज़लों का बेहतरीन संपादन | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
पुस्तक समीक्षा
अशोक कुमार ‘नीरद’ की उम्दा ग़ज़लों का बेहतरीन संपादन
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह-अंधेरे बहुत सर उठाने लगे हैं
कवि - अशोक कुमार ‘नीरद’
संपादक - हरेराम ‘समीप’
प्रकाशक - लिटिल बर्ड पब्लिकेशन्स, 4637/20, शॉप नं.-एफ-5, प्रथम तल, हरि सदन, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
मूल्य - 595/-
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हिन्दी ग़ज़ल दुष्यंत कुमार से पहले भी थी, बस, दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों से उसे एक नई पहचान मिली। किन्तु इस आधार पर दुष्यंत के पहले की हिन्दी ग़ज़लों को कमतर नहीं माना जा सकता है। वे ग़ज़लें तो नींव थीं हिन्दी ग़ज़ल की। इसी तारतम्य में देखा जाए तो अशोक कुमार ‘नीरद’ वे कवि हैं जिन्होंने सन 1968 से ही हिन्दी ग़ज़ल लिखना शुरू कर दिया था। हर कवि को ‘ब्लाकबूस्टर’ नेम-फेम मिले यह जरूरी नहीं होता किन्तु इससे उसकी रचनाधर्मिता की मूल्यवत्ता भी कम नहीं हो जाती है। निष्ठावान रचनाधर्मिता का मूल्यांकन करने के लिए समय स्वयं मार्ग ढूंढ लेता है। अर्थात उचित समय आने पर कोई न कोई सुधी संपादक रचनाकार की रचनाओं को पुनः प्रकाश में लाने का माध्यम बनता है। इससे एक और नई पीढ़ी उन रचनाओं से हो कर गुजर पाती है जो सराही तो गईं किन्तु ‘बिलबोर्ड’ पर चमक नहीं सकीं। यह सब लिखने का आशय यह नहीं है कि अशोक कुमार ‘नीरद’ कोई गुमनामी में खोए हुए कवि रहे हों, वे तो सदा अपनी ग़ज़लों के माध्यम से चर्चा में बने रहे हैं किन्तु उनकी चयनित ग़ज़लों का संपादन कर के एक महत्वपूर्ण कार्य किया है साहित्यकार, ग़ज़लकार एवं संपादक हरेराम ‘समीप’ ने। आज के समय में जब हिन्दी साहित्य खुद को हाशिए पर धकेले जाने से बचने के लिए संघर्ष कर रहा है, किसी भी वरिष्ठ ग़ज़लकार की लोकप्रिय ग़ज़लों को एक ज़िल्द में पिरोकर सहेजना एक महत्वपूर्ण कार्य है।
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश में सन 1951 में जन्मे अब फरीदाबाद निवासी हरेराम ‘समीप’ अब तक 32 पुस्तकों का संपादन कर चुके हैं। उनके स्वयं के सात ग़ज़ल संग्रह, आठ दोहा संग्रह, कविता, हायकु, कहानी संग्रह सहित साठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पुस्तक संपादन का उन्हें दीर्घ एवं सफल अनुभव है जो उत्कृष्ट साहित्य को सहेजने की उनकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है। हरेराम ‘समीप’ की शिक्षा नई दिल्ली में हुई जबकि बुरहानपुर में 1945 में जन्में अशोक कुमार ‘नीरद’ की शिक्षा मध्यप्रदेश के सागर विश्वविद्यालय से हुई। अब मुंबई में रह रहे अशोक कुमार ‘नीरद’ 12 वर्ष की आयु से साहित्य सृजन से जुड़ गए थे। उनके सात ग़ज़ल संग्रह एवं दो गीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘नीरद’ एक समर्थ गीतकार होने के साथ ही प्रतिष्ठित हिन्दी ग़ज़लकार भी हैं। यदि यह कहा जाए कि उनकी ग़ज़लों ने उन्हें विशेष पहचान दी, तो यह कहना गलत नहीं होगा।
‘‘अंधेरे बहुत सर उठाने लगे हैं’’ अशोक कुमार ‘नीरद’ की चयनित ग़ज़लों का संपादन करते हुए अपने सम्पादकीय लेख ‘‘समकालीन गीत और कविता के समीप आती गजलें’’ में हरेराम ‘समीप’ ने लिखा है कि -‘‘अशोक कुमार ‘नीरद’ हिन्दी गीतिकाव्य के एक समर्थ गीतकार और दुष्यंतकुमार के समकालीन गजलकार हैं। वस्तुतः वे दुष्यंत से पूर्व सन् 1968 से गजल लेखन कर रहे है। इन्होंने गीत और गजल को नए आयाम प्रदान किये हैं, जिससे गजल को ताजगी और नयी चेतना मिली है। गजल पर निरंतर लेखन करते हुए उसमें विषयवस्तु की नूतनता तथा समकालीन सन्दर्भों के द्वारा गजल-विधा को आज की कविता-विधा के समानांतर प्रस्तुत कर दिया है। अपने विपुल गजल-लेखन और पांच दशकों से काव्यमंचों की प्रस्तुतियों ने उन्हें एक संजीदा और लोकप्रिय कवि के रूप में प्रतिष्ठा दी है। कुछ वर्षों से मुम्बई विश्वविद्यालय के बी.ए. के कोर्स में एक गजल-संकलन में नीरद की पाँच गजलें भी शामिल हैं।’’
अपने सम्पादकीय लेख के और अंत में ‘समीप’ लिखते हैं कि - ‘‘अर्थात नीरद ने गजल के परम्परागत लहजे को आधुनिक हिन्दी गजल के तेवर में ढालने का उल्लेखनीय कार्य किया है। विशेष बात यह भी है कि प्रारम्भसे अब तक उनकी रचनात्मकता में जो नैरन्तर्य है, वह स्तब्ध करता है। नीरद की गजलों में भाव और भाषा का वही हिंदी रूप दिखाई देता है, जो हिंदी के नवगीत या जनकविता का उभरता है। उन्होंने जाने-अनजाने कविता, गीत और गजल को, उनके विन्यास और माध्यम की भिन्नताओं के बावजूद एक दूसरे के बहुत समीप लाकर खड़ा कर दिया है। उनकी ये गजलें हिंदी कविता की इसी यथार्थवादी प्रकृति और मिजाज से पूर्णतः मेल खाती हैं। अतः कह सकते हैं कि नीरद के इस प्रतिनिधि संग्रह ‘अँधेरे बहुत सर उठाने लगे हैं’ की गजलें समग्र हिन्दी कविता की श्रीवृद्धि करते हुए हिन्दी-गजल का बहुआयामी विकास करती हैं।’’
जब हरेराम ‘समीप’ जैसा समीक्षक संपादक ऐसी टिप्पणी करता है तो वह बहुत अर्थ रखती है। उन्होंने ‘नीरद’ की 145 गजलों का चयन कर के इस संग्रह में सहेजा है। हर ग़ज़ल ‘नीरद’ ग़ज़लगोई की विविधापूर्ण विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करती है। ‘नीरद’ की ग़ज़ल में ज़िन्दगी के कअु यथार्थ का अनुभव खुल कर बोलता है। जैसे यह बानगी देखिए-
थपेड़ों पर थपेड़े खा रहा हूँ
किनारा बन के मैं पछता रहा हूँ
दिलासों के थमाकर झुनझुने कुछ
अपाहिज सत्य को बहला रहा हूँ
जगत कुरुक्षेत्र था, कुरुश्रेत्र अब भी
मैं अर्जुन क्यों नहीं बन पा रहा हूँ
जो संवेदनशील है उसे वे सारे मुद्दे व्याकुल करते हैं जिनसे इंसानियत हताहत होती दिखाई देती है। जैसे धर्म के नाम पर बहुत शोर होता रहता है किन्तु दुखी, पीड़ित, शोषित इंसानों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। इस स्थिति से असहज हो कर ‘नीरद’ कहते हैं कि-
कभी है राम का मुद्दा कभी रहमान का मुद्दा
उठेगा तो उठेगा कब दुखी इन्सान का मुद्दा
बढ़ाये हाथ उसने तो सुनामी कह टूटा है
समंदर ने किया कब हल है रेगिस्तान का मुद्दा
जतन लाखों किये फिर भी न सुलझी दर्द की गुत्थी
ये जीवन है कि हिन्दुस्तान - पाकिस्तान का मुद्दा
‘नीरद’ की ग़ज़लों में कबीर का लहज़ा दिखाई देता है जब वे धर्म के नाम पर छलने और छले जाने पर चोट करते हैं। वे इस ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि मानवता पर वहशीपन हावी होता जा रहा है जिसे दूर करने के लिए अब गंभीरता से यत्न किया जाना आवश्यक है -
पुण्य कहलाती ठगी, कुछ कीजिये
सोच को दीमक लगी, कुछ कीजिये
बज रहें घड़ियाल-घंटे बोध के
पर नहीं गैरत जगी, कुछ कीजिये
किस तरह वहशी हुआ मानव, उसे
लग रही नफरत सगी, कुछ कीजिये
अशोक कुमार ‘नीरद’ कटाक्ष करने में भी माहिर हैं। राजनीति का मोहपाश हो या ब्रेनवाश करने वाले केन्द्र हों, कोई भी उनकी पैनी दृष्टि ये ओझल नहीं हो पाते हैं। ‘नीरद’ उन सबको अपनी ग़ज़लों के माध्यम से आड़े हाथों लेते हैं। जैसे इस ग़ज़ल को देखिए-
सियासत है नगर ऐसा जहाँ बस, जाया जाता है
गये तो लौटकर वापस नहीं फिर आया जाता है
बड़ी ही सुर्खियों में हैं मिलन की पाठशालाए
कि जिनमें प्यार से नफरत का फन सिखलाया जाता है
भौतिकता और बाज़ारवाद की अंधी दौड़ ने भ्रष्टाचार और स्वार्थ को बेतहाशा बढ़ावा दिया है। सच क्या है, झूठ क्या है? इसे जानने का कोई साधन नहीं बचा है सिवाय स्वविवेक के। किन्तु भौतिक लिप्सा स्वविवेक को भी रौंदने लगती है। ऐसी स्थिति में ‘नीरद’ कहते हैं-
नजारे नजर कैसे आने लगे हैं
सितमगर पयंबर कहाने लगे हैं
तिजारत में डूबी हुई है मुहब्बत
दिलों को कपट गुदगुदाने लगे हैं
समय के हुए पारखी लोग कितने
मिले जो भी अवसर भुनाने लगे हैं
यही कारण है कि ‘नीरद’ खुले शब्दों में भी बयान करते हैं वर्तमान दशा का और कहते हैं कि ‘‘अंधा है इन्साफ सिंहासन बहरा है/सच वालों पर सख़्त सितम का पहरा है।’’ साथ ही, वे कहीं-कहीं विक्षुब्ध हो कर दार्शनिक स्वर में कह उठते हैं-
हीरा तजकर पत्थर अर्जित करता है
थोथा क्यों जग को आकर्षित करता है
जीवन है सद्भावों का संगम फिर क्यों
सभ्य मनुज विघटन संवर्धित करता है
अचरज है वो शामिल है विद्वानों में
पाखंडों को जो संदर्भित करता है
जब अंधेरे बहुत सर उठाने लगते हैं तो कवि अपने काव्य की मशाल ले कर आगे आता है। कवि अशोक कुमार ‘नीरद’ भी अपनी ग़ज़लों के माध्यम से समस्त अव्यवस्थाओं एवं मानसिक पंगुता को ललकारा है। उनकी इस प्रकार की ग़ज़लों का चयन कर उन्हें सहेजने का जो कार्य हरेराम ‘समीप’ ने किया है, वह ‘नीरद’ की ग़ज़लों को एक दीर्घकालिक समय यात्रा पर ले जाने में सक्षम है। देखा जाए तो यह भी एक विशेष सौजन्यता एवं साहित्यधर्मिता की मिसाल है कि एक ग़ज़लकार अपने समकालीन दूसरे ग़ज़लकार की ग़ज़लों की मुक्तकंठ पैरवी करे। इससे हिन्दी साहित्य का भविष्य दृदृढ़ होता दिखाई देता है। साथ ही उस दीर्घ परंपरा से भी जुड़ने का अवसर इस गंज़ल संग्रह के द्वारा मिलता है जो दुष्यंत के पहले से और दुष्यंत के बाद तक सतत चली आ रही है। निश्चित रूप से यह एक महत्वपूर्ण ग़ज़ल संग्रह है जो शोधार्थियों एवं पाठकों के लिए समान रूप से उपयोगी है।
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