Saturday, January 4, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | ई नई साल में पैलें पुरानी सल्लें सोई निपटा देओ, मालक हरों | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
ई नई साल में पैलें पुरानी सल्लें सोई निपटा देओ, मालक हरों
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
    न ईं साल के दूसरे दिनां के लाने प्रसासन की तरफी से एक बैठक को बुलौवा मिलो। हमें खुसी भई के चलो प्रसासन वारे पब्लिक की बात सुनबों चात आएं। अब जे ने पूछो के उते काए की बैठक हती औ हमें का कै के बुलाओ गओ और उते का हो रओ हतो। जेई से हमें समझबे में तनक टेम लगो के उते बतकाव काय की हो रई। बाकी समझ में आतई सात हमने सोई सोच लई के अपनी बारी आबे पे हमें का कैने। काय से हम तो ऊ टेम पे खुद खों पब्लिक की तरफी से मान रए हते। उते चरचा हो रईती अपने परधानमंत्री जू के 2047 वारे मिसन पे सागर के बिकास की। बतकाव करे में का जात आए। कए-कए में तो तला के कारीडोर पे ताजमहल खड़ो कर देओ। जेई से हमने कई के मालक, जे जो स्मार्ट सिटी जबसे बनीं, तभई से सिविल लाईन चौराहा पे अच्छे खात-पीयत भिखमंगन की जमात दिखान लगी। जबलौं उते ठैरो सो बे प्रान सो खा जात आएं। का जे अच्छी बात आए? हमनेे सोची के हम पढ़े-लिखों की बैठक में आएं हैं सो हमने अंग्रेजी के दो अच्छर बोले के चौराहा खों ‘बैगर्स फ्री’ करो आप।
    फेर कई के ई नई साल में पैले तो बेई सल्लें निपटा दईं जाएं जोन पांछू से चली आ रईं। पानी रोजीना मिलत नईयां, सड़कें खुदत रैत आएं, मॉनिटरिंग की कमी दिखात आए, चाए जिला अस्पताल होय चाए बीएमसी दोई में कछू ने कछू सल्ल चलत रैत आए। जो बी सई आए के कछू अच्छो काम बी हो रओ। मनो पैले नैंचे की सगरी छिड़ियां तो सुधार लेओ, मालक! तभईं ऊपर चढ़ियो, ने तों मों के बल आड़े दिखाहो।
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Friday, January 3, 2025

शून्यकाल | नया साल और साहित्य की घटती पठनीयता का सवाल | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - शून्यकाल
नया साल और साहित्य की घटती पठनीयता का सवाल
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
      नए साल का स्वागत हम कर चुके हैं किन्तु कई ज्वलंत प्रश्न उत्तर की प्रतीक्षा में वैचारिक द्वार पर खड़े हैं। उन्हीं में से एक प्रश्न है साहित्य के पाठकों की कमी का। लगभग पूरी दुनिया के साहित्यिक समाज में साहित्य की घटती पठनीयता को लेकर पिछले कुछ दशक से चिंता व्याप्त है। विशेषरूप से उन भाषाओं के साहित्य को ले कर जिनका चलन अन्य भाषाओं से बुरी तरह प्रभावित हो रहा है जैसे हिंदी साहित्य। हिन्दी साहित्य के पाठकों की संख्या पिछले कुछ दशकों में घटी है, यह कहा जाता है। आइए देखते हैं कि क्या सचमुच हिंदी साहित्य की पठनीयता कम हो रही है या यह कोई भ्रम है? यदि यह सच है तो मूल समस्या क्या है?
         मैं यहां पहले ही स्पष्ट कर दूं कि यहां चर्चा मुद्रित पुस्तकों के पाठकों की जा रही है, ई-पुस्तकों अथवा डिज़िटल माध्यमों की नहीं। 
   कुछ दिन पहले एक कार्यक्रम के सिलसिले में कुछ साहित्यिक मित्रों से मिलने और चर्चा करने का अवसर मिला। कार्यक्रम शुरू होने में समय था अतः चर्चा निकली किताबों की। एक कवयित्री ने बड़े उत्साह के साथ बताया कि उन्होंने कल ही गगन गिल की कविताएं पढ़ी हैं। उनका कहना था कि गगन गिल वास्तव में बहुत अच्छा लिखती है। मैंने उनसे पूछा कि वे तो वर्षों से कविताएं लिख रही है क्या इसके पहले आपने उनकी कविताएं नहीं पढ़ीं? उन्होंने मुझे यह कहकर चौंका दिया इससे पहले तो उन्होंने गगन गिल का नाम भी नहीं सुना था। मैंने पूछा तो फिर अब आपने उनका नाम कहां सुन लिया? उन्होंने बड़ी ईमानदारी से उत्तर दिया की ‘‘गगन गिल को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है न, और यह खबर मैंने अखबारों में पढ़ी थी।’’ यह बात वह महिला कह रही थी जो स्वयं एक कवयित्री है। एक कवयित्री होने के बावज़ूद वे हिंदी में लिखे जा रहे काव्य को लेकर किस तरह बेखबर है यह सोचकर मुझे चिंता हुई। क्या तब तक उस काव्य का रसपान नहीं किया जा सकता है जब तक वह पुरस्कार की पाइप लाइन से न गुज़रे? 
मैंने उन कवयित्री से पूछा कि आपने अब तक किन-किन कवि या कवयित्रियों की रचनाएं पढ़ी हैं? उन्होंने बहुत ही संकोच से उत्तर दिया की बहुत कम। फिर उन्होंने साहित्यिक किताबें न पढ़ पाने के कई कारण गिना डाले। थोड़ी देर बाद कार्यक्रम आरंभ हुआ और पहले वक्ता ने ही हिंदी साहित्य के पाठकों की कमी केे प्रति चिंता जताई। उन्होंने दोष दिया अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव को। स्वाभाविक है सबसे पहले दोषी अंग्रेजी का बढ़ता प्रभाव ही दिखाई देता है। विडंबना देखिए कि जो हिंदी साहित्य का सृजन करते हैं जो हिंदी साहित्य में पाठकों की कमी के प्रति चिंता व्यक्त करते हैं वे ही सबसे पहले अच्छे से अच्छे अंग्रेजी स्कूल में अपने बच्चों को भर्ती करते हैं और उनके अंग्रेजी बोलने की दक्षता पर खुश होते हैं। खैर, ये अलग मुद्दा है। बहरहाल इस घटना के बाद मैंने चिंतन किया तो मुझे लगा कि पाठकों की तो छोड़िए, हिंदी साहित्यकार हिंदी का कितना साहित्य पढ़ते हैं, यह विचारणीय है। एक बार एक महाविद्यालय के हिंदी प्राध्यापक ने बड़े शान से मुझे बताया था कि वे चेतन भगत की किताबें पढ़ते हैं। चेतन भगत की किताबें पढ़ने में कोई दोष नहीं है किन्तु दुख इस बात का था कि वे उसे हिन्दी साहित्य मान कर पढ़ते थे। उन्होंने चेतन भगत की अंग्रेजी पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद पढ़ कर मान लिया कि चेतन भगत हिन्दी के साहित्यकार हैं। उस पर इससे भी बड़े दुख की बात थी कि वे हिन्दी के प्राध्यापक थे। हिन्दी के साहित्यकारों के रूप में जहां वे सूर, तुलसी और प्रेमचंद को जानते थे, उसी श्रृंखला में उन्होंने चेतन भगत को भी खड़ा कर दिया था। 
इस तरह की घटनाएं सोचने को विवश करती हैं कि जब हम हिन्दी साहित्य में पाठकों की कमी का स्यापा करते हैं तो उसमें कितने प्रतिशत विशुद्ध पाठक हैं और कितने प्रतिशत साहित्यकार? यहां साहित्यकार से आशय आलोचक, समीक्षक एवं सृजनकर्ताओं आदि सभी से है। क्या कथित बड़े आलोचक नवोदित या अचर्चित लेखकों की रचनाएं पढ़ते हैं। साहित्यिक आयोजनों के दौरान अनेक नवोदित अथवा छोटे समझे जाने वाले साहित्यकार अपनी पुस्तकें अतिथि के रूप में आमंत्रित बड़े साहित्यकार को इस आशा से भेंट करते हैं कि वह बड़ा साहित्यकार उनकी पुस्तक कम से कम एक बार तो जरूर पढे़गा, लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं होता है। बहुत कम बड़े साहित्यकार ऐसे हैं जो नवोदित या छोटे साहित्यकारों की पुस्तकों पर गहराई से दृष्टिपात करते हैं। वहीं, यदि वह नवोदित साहित्यकार उनके परिचय के दायरे का है तो फिर बात अलग है। फिर तो उसे स्थापित करने के लिए बड़े-बड़े साहित्यकार बड़े-बड़े मंचों से उनके नाम और उनकी पुस्तक का उल्लेख करते हैं। खैर यह भी विषयांतर है। मूल प्रश्न है हिन्दी साहित्य की पुस्तकों के पाठकों की कमी का। यह सच है कि हिन्दी साहित्य के पाठकों की कमी होती जा रही है और उसका एक कारण रहा है उनकी कीमतें। वैसे इस समस्या को प्रकाशकों ने जल्दी ही समझ लिया और अब वे भी हार्ड बाउंड के साथ पेपरबैक्स संस्करण प्रकाशित करते हैं ताकि पाठक उसे आसानी से खरीद सकें। इससे बुकस्टाॅलों पर हिन्दी साहित्य की घटती दर को एक बार फिर बढ़त मिली है। यद्यपि इससे लेखक को आर्थिक नुकसान होता है किन्तु हिन्दी का लेखक तमाम प्रकार के नुकसान उठाने का आदी होता है। वह अपनी जेब से पैसे खर्च कर के किताब छपवाता है, फिर उसे मुफ्त में बांटता है जिससे लोग उसकी किताब पढ़ें। लेकिन किताब लेते समय कोई भी यह ईमानदारी नहीं दिखाता है कि साफ कह दे कि ‘‘मैं अभी नहीं पढ़ सकूंगा या सकूंगी।’’ वह किताब लेने से मना नहीं करता है। फिर वह किताब या तो उसके घर के रद्दी के ढेर में शामिल हो जाती है या फिर किसी और को यह जाने बिना भेंट कर दी जाती है कि वह उसे पढ़ेगा भी या नहीं।
             अब दिल पर हाथ रख कर स्वयं साहित्यकार ईमानदारी से सोचें कि वे परस्पर एक-दूसरे का कितना साहित्य पढ़ते हैं? क्या मेरे शहर के साहित्यकार अपने शहर के सभी रचनाकारों की पुस्तकें पढ़ चुके हैं या पढ़ते हैं? उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा। यही हाल हर शहर में है। जो आज लिख रहे हैं विशेषरूप से सोशल मीडिया की वाहवाही से प्रेरित हो कर उनमें से बहुतायत ऐसे हैं जिन्होंने न तो स्थापित रचनाकारों की पुस्तकें पढ़ी हैं और न वर्तमान अद्यतन रचनाकारों की। यदि वे पढ़ते नहीं हैं तो वे कैसे समझ पाते हैं कि क्या लिखा गया है? क्या लिखा जा रहा है? या क्या लिखा जाना चाहिए? फिर भी वे लिख रहे हैं और निरंतर लिख रहे हैं, इस भ्रम के साथ कि उन्हें जरूर पाठक समुदाय मिल जाएगा। जब साहित्यकार परस्पर एक-दूसरे की रचनाओं से स्वयं विमुख रहते हैं तो पाठकों को कैसे दोषी ठहरा सकते हैं कि वे साहित्य नहीं पढ़ रहे हैं। 
रहा असली पाठकों का प्रश्न तो हिन्दी को युवा पाठक मिलना इसलिए भी कम हो चला है क्योंकि आज का युवा अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाता है इसलिए उसे हिंदी से ही लगाव नहीं रहता है तो हिन्दी साहित्य कहां से पढ़ेगा। अतः पाठकों की संख्या कम होना स्वाभाविक है। सो, हिन्दी साहित्य की ओर पाठकों को आकर्षित करने और उन्हें पढ़ने के लिए लालायित करने की दिशा में क्या किया जा सकता है, यह मंथन का विषय है। इस पर विस्तार से चर्चा ‘‘शून्यकाल’’ के आगामी लेख में। तब तक इस लेख की यदि कोई बात उद्वेलित करती तो उस पर चिंतन और मंथन किया जा सकता है। मेरे इस लेख में सपाट बयानी में महसूस हो सकती है लेकिन मुझे लगता है कि समय अब सपाट बयानी का ही आ गया है। घुमा फिरा कर चिंतन या मंथन करने से साहित्य को ही और अधिक नुकसान पहुंचेगा, यह मेरी निजी राय है।
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बतकाव बिन्ना की | सो का सोची जे नए साल के लाने? | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
सो का सोची जे नए साल के लाने?
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
          ‘‘काए बिन्ना, जे नए साल के लाने का सोची?’’ भैयाजी ने मोए देखतई साथ मोसे पूछी।
‘‘का सोचने भैयाजी? जैसे हते, ऊंसई आएं, साल में का बदलो? खाली कलेंडर बदलो आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘जे कोन टाईप की बात कै रईं बिन्ना? तुमई कैत हो के नए साल में कछू नओ करो, कछू अच्छो करो औ तुमई ऐसी बुझई सी बतकाव कर रईं, का हो गओ?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘कछू नईं!’’ मैंने कई।
‘‘कछू तो आए ने तो तुम ई टाईप से ने बोलतीं। सांची बताओ के का हो गओ?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘सई में कछू नईं भओ!’’ मैंने फेर के कई।
‘‘अरे बिन्ना, तुम आ गईं। अच्छो रओ। अब तुम जे बताओ के तुम हमाए संगे जिम चलहो के नईं?’’ भौजी मोए देखतई सात पूछो।
‘‘जिम? आप जिम जा रईं?’’ मोए जा सुन के भौतई अचम्भो भओ।
‘‘औ का! का हम जिम नईं जा सकत? इतई कछू दूर पे नओ जिम खुलो आए जीमें लुगाइयन के लाने लेडी सिखाबे वारी आए।’’ भौजी ने बताई।
‘‘जिम जा के का हुइए भौजी?’’मैंने भौजी से पूछी।
‘‘का हुइए? जे जो वजन बढ़ो जा रहो और कम्मर सोई कमरा बनी जा रई, बा कछू कम हुइए।’’ भौजी ने कई।
‘‘मनो भौजी जो एक दार जिम जान लगो तो फेर बरहमेस जाने परत आए ने तो औ तेजी से वजन बढ़त आए।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘जा कोन ने कई?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘सुनी आए।’’ मैंने कई।
‘‘तुम कब से सुनी-सुनाई में परन लगीं?’’ भौजी ने मोए तानो मारो।
‘‘आज बिन्ना को मूड ठीक नईं दिखा रओ। हमसे सोई ऊंसईं-ऊंसई बतकाव कर रईं।’’ भैयाजी बोले। 
‘‘ऐसो कछू नईयां भैयाजी! मोरो मूड ठीक आए। बाकी मोए जा नई समझ आ रई के भौजी को जिम जाबे की कां से सूझ परी?’’ मैंने कई।
‘‘जा जब हमें नईं समझ आई, सो तुमें कां से समझ में आहे?’’ भैयाजी हंस के बोले।
‘‘जे दंत निपोरी ने करो आप। आपई ने कई रई कि तुम मुटा रईं कछू हाथ-पांव हिलाओ करो। मनो हम तो अजगर घांईं डरे रैत आएं। घर के सगरे काज सो आपई करत हो।’’ भौजी भन्ना के बोलीं।
‘‘भैयाजी, इत्ती तो मोटी नईं भईं भौजी के आप इने टोकन लगो।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘अरे, हमने तो इनसे ठिठोली करी हती।’’ भैयाजी घबड़ा के बोले।
‘‘हऔ, कऊं नई! ठिठोली नई करी हती। आपने जे सोई कई रई के बा अपने रामआसरे की घरवारी खों देखो, बा जिम जाउत आए। कित्ती फिट दिखात आए। सो अब हमें सोई फिट बनने। काय से आप औरन की लुगाई खों ने हेरो।’’भौजी ताव खात भई बोलीं।
‘‘हैं? जो का आए भैयाजी ? आपने भौजी से ऐसी कई? आपने रामआसरे भैया की घरवारी को देखबे की बात करी? हे भगवान जो का करो!’’ मोरो मों से निकरो।
‘‘अब तुम ने रार मचाओ बिन्ना! हमाई तो मत मारी गई रई जो हमने ऊके बारे में बोल दओ। हमें का करने ऊसे, बा कऊं जाए।’’ भैयाजी बुरे फंसे।
‘‘कछू कओ, अब तो हमें जिम जाने औ बोई जिम जाने जिते बा जात आए।’’ भौजी अड़ गईं।
‘‘तुमें जिम जाने सो जाओ, पर रामधई हमें बा रामआसरे की लुगाई से कछू मतलब नोईं।’’ भैयाजी की दसा देख के मोय मनई मन हंसी आ रई हती। सो मैंने सोई तनक मजा लेबे की सोची।
‘‘नए साल की जा सुरुआत तो ठीक नई कहानीं।’’ मैंने फिकर जताई। 
‘‘खूब ठीक आए बिन्ना, तुम फिकर ने करो! अपन दोई जिम चलबी।’’ भौजी कम्मर सकत घांई बोलीं।
‘‘पर हमाए ऐंगर जिम के लाने पइसा नइयां। उते तो भौतई फीस हुइए।’’ मैंने कई।
‘‘होन देओ, जित्ती होय! तुमाए भैयाजी हम दोई की फीस भरहें न!’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, मालकन चली जइयो, मनो अब हमें माफ कर देओ!’’ भैयाजी हाथ जोर के सरेंडर होत भए बोले।
‘‘काय खों माफ कर दें? आपने बातई ऐसई करी आए के जोन की माफी नईं दई जा सकत आए।’’ भौजी ने भैयाजी खों औ हड़काओ। अब मोय भैयाजी पे तनक दया आन लगी।
‘‘भौजी, वैसे एक बात आए के पैले लुगाइयां घर के मुतके काम करत्तीं, सो उनको फिट रहबे के लाने अलग से कछू नई करने परत्तो। मनो अब घरे आड़ी की काड़ी नईं टारत औ उते जिम में जा के पसीना बहाउत आएं। सई कई के नईं? मनो अपनई ओरन खों देख लेओ। अपन ओरें घर को कित्तो काम करत आएं और करीब-करीब ठीकई आएं।’’ मैंने बात बदरवे के लाने भौजी से कई।
‘‘सई कै रई बिन्ना! हमें कभऊं नई लगो के जिम जाबे की जरूरत आए। घर के काम कर लेओ, संझा ने तो संकारे तनक घूम आओ, इत्तई में तो सब ठीक रैत आए।’’ भौजी तनक आराम से बोलीं।
‘‘सो बिन्ना हम जे पूछ रए हते के जे नए साल के लाने तुमने का सोची?’’ भैयाजी ने सोई माहौल बदलत देख मोसे पूछी।
‘‘भैयाजी मैंने सोची आए के ई साल मोए कोनऊं से कोऊ उम्मींद नई राखने।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘का मतलब?’’ भैयाजी मोरी बात सुन के चैंके।
‘‘मतलब जे भैयाजी, के आजकाल अपने वारे सोई राजनेता भए जा रए। ऊपरे से कछू दिखात औ भीतरे से कछू औ निकरत। कोन कब पांव तरे से जमीन खेंच ले, कओ नईं जा सकता। सो हमने जेई सोची आए के अब ई साल से बस काम से काम राखने औ कछू नईं।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘कै तो ठीक रईं बिन्ना! पर हमें पतो के तुम ई पे टिके ने रै पाहो।’’ भौजी बोल परीं। औ मोय लगो के सई में भौजी मोय कित्ते अच्छे से जानत आएं। मनो करो का जाए आजकाल मेलजोल वारे सोई नेता घांईं खेल खेलत आएं। आप के मों पे आपई की बड़वारी करहें औ संगे नैचे से आपई की जड़े काटहें। खैर, साल की सुरू में जो सोचो बा अखीर लौं टिकत नईयां। सो जो हुइए, बा देखी जैहे। आप सोई बताइयो के आप ओरन ने का सोची जे नए साल के लाने?                                                                             
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के ई बारे में, के आजकाल संबंधो से बड़ो स्वारथ काए होन लगो! 
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Wednesday, January 1, 2025

साहित्य की उपलब्धियां विश्वास दिलाती हैं कि उम्मीद अभी बाकी - शरद सिंह

साहित्य की उपलब्धियां विश्वास दिलाती हैं कि उम्मीद अभी बाकी हैः शरद सिंह

हार्दिक आभार प्रलेस सागर 🌹🙏🌹
हार्दिक धन्यवाद पत्रिका 🙏🚩

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चर्चा प्लस | चलिए, लें नए साल में आसान संकल्प कुछ अपने लिए, कुछ समाज के लिए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
चलिए, लें नए साल में आसान संकल्प कुछ अपने लिए, कुछ समाज के लिए 
     - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
     हमारी दैनिक गतिविधियों का कलैंडर जनवरी से ही आरम्भ होता है और यहीं से नए साल की शुरूआत होती है। निःसंदेह यह हिन्दू नववर्ष नहीं है किन्तु वैश्विक नववर्ष के रूप में इसे ठीक उसी तरह से सभी ने स्वीकार किया है जैसे अंग्रेजी के अंकों को। हम में से बहुत से लोग हैं जो नया वर्ष आरम्भ होते ही जनवरी से दिसम्बर तक के अपनों लक्ष्यों एवं संकल्पों का निर्धारण करते हैं। अपने संकल्पों कीे घोषणा करते हैं लेकिन साल के अंत तक उन्हें पूरा नहीं कर पाते हैं। इसलिए अच्छा यही है कि साल का आरम्भ कुछ आसान संकल्पों से करें जिन्हें हम सुगमता से पूरा कर सकते हैं।  
 
    संकल्प लेना एक जिम्मेदारी का निर्णय है। जब कोई व्यक्ति संकल्प लेता है तो वह उसके प्रति वचनबद्ध हो जाता है। हम सभी की आदत है कि हम नया साल आरम्भ होते ही अपने लिए नए-नए संकल्प तय करने लगते हैं। जैसे कोई सोचता है कि अब इस साल तो मैं अपने छूटे हुए काम पूरे कर लूंगा, कुछ नया काम कर के रहूंगा, अपना वजन कम करुंगा, अपनी सेहत पर ध्यान दूंगा आदि-आदि। एक लम्बी सूची होती है नए संकल्पों की। लेकिन यह व्यवहारिक बात है कि बहुत कम लोग अपने संकल्पों को पूरा कर पाते हैं। साल के अंत में जब वे लेखाजोखा करते हैं तसे पता चलता है कि वे एकाध संकल्प ही पूरा कर सके हैं। इसीलिए बेहतर है कि ऐसे आसान संकल्प लें जो हमारे और समाज दोनों के हित में हो। चलिए देखते हैं वे कौन से संकल्प हो सकते हैं जिनको लेना और पूरे करना हमारे लिए जरूरी है।
सबसे पहले अपनी सेहत पर ध्यान देने का संकल्प लेना जरूरी है। कहा भी जाता है कि स्वास्थ्य है तो सबकुछ है। लेकिन यथार्थ में सबसे अधिक अवहेलना हम अपनी सेहत की ही करते हैं। इस बारे में एक दिलचस्प घटना बताती हूं। हुआ यह कि मेरे एक परिचित हैं, वे पिछले साल बार-बार बीमार पड़ते रहे। जब डाॅक्टर ने उन्हें पैथालाॅजी में जांच कराने भेजा तो पता चला कि उन्हें डायबिटीज़ हो चुकी है। वे बड़े दुखी हुए। मैंने चर्चा के दौरान उनसे पूछा कि आपने पहले जांच नहीं कराई? उन्होंने कहा कि नहीं, मुझे जरूरत महसूस नहीं हुई। तब मैंने उनसे कहा कि आजकल जरूरत समझ में नहीं आती है। आवश्यक तो यही है कि साल में एक बार पूरी जांच करा लेना चाहिए। उन्होंने तपाक से कहा जबर्दस्ती क्यों जांच कराई जाए? क्या आप जानती नहीं कि जांच कराने में कितना पैसा खर्च होता है? मुझसे भी नहीं रहा गया और मैंने उन्हें टोंक दिया कि उससे तो कम ही खर्च होता है जितने में आप बड़े होटलों में महीने में दो-तीन पार्टी कर डालते हैं। मेरी सच्ची बात उन्हें बुरी लगी और वे खिसिया कर रह गए। उस समय मुझे अपनी मां की वह बात याद आई जो वे कहा करती थीं कि साफ, शुद्ध और अच्छा खाओ, भले ही इसके बदले तुम्हें दूसरी चीजों में कटौती करनी पड़े। हमारे घर हमेंशा शरबती गेंहूं ही खरीदा जाता था। एक बार गेंहूं की बोरी हमारे घर आई, उस दौरान एक परिचित घर आई हुई थीं। उन्होंने गेंहू के बारे में पूछताछ की और फिर बोलीं हम तो इतना मंहगा गेंहू नहीं खा सकते हैं। मां ने उनसे कह ही दिया कि आपकी इस सिल्क की एक  साड़ी से ज्यादा मंहगा नहीं है यह गेंहू। और इससे तो साल भर पेट भरेगा। वे परिचित इस बात पर इतनी नाराज हुईं कि उन्होंने बातचीत करना ही बंद कर दिया। ये दोनों घटनाएं बताने का आशय मात्र यही है कि इस नए साल में पहला संकल्प लीजिए कि भले ही कुछ खर्चों में कटौती करनी पड़े लेकिन अपनी और अपने परिवार की सेहत पर ध्यान देंगे। कम से कम एक बार पूरी जांच कराएंगे ताकि समय रहते स्वास्थ्य समस्या का पता चल जाए। याद रखिए कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क रहता है। 
 
बात मस्तिष्क की आई है तो दूसरा संकल्प यह लेना चाहिए कि न तो अपने को किसी से छोटा या बड़ा समझेंगे और न दूसरों को अपने से छोटा समझेंगे। दूसरों की अनावश्यक नुक़्ताचीनी भी नहीं करेंगे। क्योंकि यदि विचार अच्छे रहते हैं तो अपने भीतर से अच्छे काम करने की प्रेरणा जागती है। बुरे विचार व्यक्ति को कुंठित करते हैं। अकसर लोगों में ईर्ष्या की भावना बलवती हो जाती है कि ‘‘उसकी कमीज मेरी कमीज से अधिक सफेद क्यो?’’ फिर इसी ईर्ष्या के कारण वह दूसरे की उजली कमीज को गंदा करने के प्रयास में ही अपनी सारी ऊर्जा नष्ट करते रहते हैं। भले ही इस चक्कर में उनकी अपनी कमीज के चीथड़े उड़ने लगते हैं। इस नए साल में कम से कम यह संकल्प तो किया ही जा सकता है कि हम अपनी सारी ऊर्जा अपने को आगे बढ़ाने में लगाएंगे, दूसरों को धकेल कर पीछे करने में नहीं। यूं भी एक अच्छा मस्तिष्क परिवार में सुख शांति का संचार करता है। समाज में इतने भ्रष्टाचार के कांड जो आए दिन उजागर होते रहते हैं उनके पीछे यही ईर्ष्या की भावना मौजूद होती है। फलां के पास एक कार है तो हमारे पास दो कारें होनी चाहिए। भले ही दो कारें खरीदने के लिए भ्रष्टाचार का रास्ता अपनाना पड़े। उस मसय यह बात दिमाग में नहीं रहती है कि भ्रष्टाचार का रास्ता जेल जाने का कारण भी बन सकता है। इसलिए संयमित हो कर रहें तो चित्त भी शांत रहता है। 
तीसरा संकल्प यही होना चाहिए कि हम इस साल अपनी आंतरिक शांति को प्राप्त करेंगे। अपने जीवन को व्यवस्थित और संयमित करेंगे। इस समय सारी दुनिया जिस सबसे बड़ी मानसिक बीमारी से जूझ रही है, वह है अवसाद। आत्महत्या की दर भी अवसाद के कारण ही बढी है। इसलिए अवसाद को अपने पास फटकने ही क्यों दें? हम तो उस संस्कृति के वंशज हैं जिसमें कहा जाता है कि जो हमें नहीं मिला वह हमारा नहीं था। यदि यही सोच हम अपना लें तो अवसाद की अवस्था कभी नहीं आएगी। मेहनत करना हमारा कर्तव्य है लेकिन उसके परिणाम की मात्रा को ले कर हतोत्साहित होना गलत है। यदि एक प्रयास में सफलता नहीं मिली तो दूसरे प्रयास में सफलता मिल सकती है। यह बात विशेषकर उन लोगों को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए जो जरा सी असफलता पर भारी हतोत्साहित हो जाते हैं और अवसाद में डूब कर गलत कदम उठा लेते हैं। अपने जीवन को एक-दो नहीं बल्कि कई मौके दीजिए क्योंकि मौके कई बार पाए जा सकते हैं, जीवन नहीं। तो इस साल यह संकल्प ले ही लीजिए कि चाहे कुछ भी हो हताश नहीं होंगे।
यह संकल्प लेना भी जरूरी है कि परिवार के सभी सदस्य परस्पर एक-दूसरे को अधिक से अधिक समय देंगे अर्थात् साथ-साथ समय बिताने का प्रयास करेंगे। आज जिस तरह से परिवार बिखर रहे हैं और पारिवारिक संबंध टूट रहे हैं वह चिंता का विषय है। परिवार न होने का दुख उनसे पूछिए जिनका परिवार नहीं होता अथवा जो अपने परिवार को खो चुके होते हैं। जिनके पास परिवार है उन्हें उसके महत्व को समझना चाहिए। हर एक रिश्ता महत्वपूर्ण होता है। और जो एकाकी है उन्हें समाज से जुड़ कर अपनी निराशा को दूर धकेल देना चाहिए। आखिर हम ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ की संस्कृति के संवाहक हैं। आज घर में यदि माता-पिता हैं, उनका विवाहित बेटा, बहू और नाती-पोते हेै तो भी वे सब एक छत के नीचे ठीक उस तरह रहते हैं जैसे किसी रेल्वे प्रतीक्षालय में एक ही रेल की प्रतीक्षा में चंद यात्री बैठे हों और वे सब अपने-अपने मोबाईल में डूबे हुए हों। यही तो हो रहा है घरों में। खाने की मेज पर भी मोबाईल, लैपटाॅप, और टीवी जैसे गैजेट्स मौजूद होते हैं। सभी आपस में बात करने के बजाए अपने-अपने गैजेट्स में खोए रहते हैं। इस स्थिति में प्रायः दादा-दादी, नाना-नानी जैसे लोग उपेक्षित हो जाते हैं जिन्हें न गैजेट्स चलाना आता है और न उनसे कोई बात करता है। ये वही निरीह प्राणी होते हैं जिन्होंने अपने बच्चों को बोलना सिखाया होता है और वही लोग अपने बच्चों के मुंह से चंद बातें सुनने को तरस जाते हैं। यानी कम से कम इस साल यह संकल्प तो लिया ही जाना चाहिए कि इस असंवेदनशीलता को दूर करेंगे और अपने परिवार, पड़ोस और समाज के लोगों से संवाद स्थापित करेंगे। 
अभी तक मैंने ऊपर जिन संकल्पों को उल्लेख किया है, वे इतने कठिन नहीं हैं जिन्हें पूरा न किया जा सके। अब कुछ और आसान संकल्प हैं जो लिए जाने चाहिए। जैसे अपने आस-पास के वातावरण को उसी तरह साफसुथरा रखेंगे जैसे अपने घर को रखते हैं। यह अच्छी सेहत के लिए भी जरूरी है। इस वर्ष कम से कम एक पेड़ लगाएंगे और उस पेड़ की देखभाल भी करेंगे। केवल पेड़ लगाने का दिखावा नहीं करेंगे। इस साल कम से कम एक असली ज़रूरतमंद की मदद करेंगे। यहां असली शब्द का प्रयोग मैं इसलिए कर रही हूं कि अकसर हम चौराहे पर भीख मांगने वाले बच्चों को पैसे दे कर सोचते हैं कि हमने उनकी मदद कर दी। पहली बात तो उनमें अधिकांश ऐसे होते हैं जो जरूरतमंद नहीं होते और अपने परिवार सहित अतिरिक्त आमदनी का जुगाड़ करने के लिए वहां भिखारी होने का नाटक करते हैं। यह कटुसत्य है। दूसरी बात है कि हम भिखारियों को भीख दे कर भिक्षा की कुप्रथा का समर्थन कर बैठते हैं। यदि सचमुच कोई जरूरतमंद है तो उन्हें उन संस्थाओं तक पहुंचने में मदद करें जो असली जरूरतमंदों की मदद करती है। उन संस्थाओं के लिए अपनी क्षमता अनुसार दान दें जो ऐसे लोगों की मदद करती है। कहने का आशय है कि एक अच्छे सामजिक परिवेश बनाने के लिए कुछ अच्छा सोचिए। दिखावा नहीं सच्ची मदद को अपनाइए। क्या यह संकल्प कठिन है? बिलकुल नहीं। 
और एक अंतिम संकल्प का महिला होने के नाते सिर्फ महिलाओं से आग्रह कर रही हूं कि एक महिला परिवार की धुरी होती है अतः अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखिए। घर की महिला का बीमार पड़ना पूरे परिवार को प्रभावित करता है। अपने खानपान के प्रति सजगता का संकल्प लीजिए। परिवार में सबके बाद खाना खाना अच्छा है लेकिन अपने लिए खाना बचा कर रखना भी उतनी ही जरूरी है। पूरा खाना खाइए,स्वस्थ-संतुलित भोजन करिए और योग या अन्य तरीकों से अपनी सेहत संवारिए। 
और अंत में यह बता दूं कि ये सभी संकल्प कोरे संकल्प नहीं है और न दूसरों को उपदेश देने के निमित्त से लिखे गए हैं, ये सभी मैं स्वयं हर साल अपनाती हूं और उन्हें हर संभव पूरा करती हूं। जिस संकल्प के पूरा होने में कसर रह जाती है उसे फिर नए साल में नए सिरे से अपना कर पूरा करती हूं। तो आप भी अपनाइए ये आसान संकल्प कुछ अपने लिए, कुछ समाज के लिए। नव वर्ष आप सभी के लिए शुभ और सुंदर हो!
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