Thursday, August 14, 2025

सागर की स्वतंत्रता सेनानी सहोदराबाई राय - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

( जनसंपर्क विभाग सागर द्वारा अपने सोशल मीडिया साइट पर प्रकाशित)
लेख
सागर की स्वतंत्रता सेनानी सहोदरा बाई राय
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
वरिष्ठ साहित्यकार एवं इतिहासविद

   बुंदेलखंड के सागर जिले के एक छोटे से गांव कर्रापुर की एक विधवा महिला ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में न केवल अपना उल्लेखनीय योगदान दिया बल्कि देश के आजाद होने के बाद सागर की प्रथम निर्वाचित सांसद बनकर सागर के स्त्री समाज को गौरान्वित किया। वस्तुतः, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान घटी घटनाएं आज भी रोमांचित कर देती हैं। क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या बूढ़े, क्या बच्चे सभी के मन में एक ही लगन थी कि देश आजाद हो जाए। बुंदेलखंड में सन 1942 में बुंदेला विद्रोह के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन का जो पहले प्रहार अंग्रेज सरकार पर पड़ा उसने एक तरह से पहले दस्तक दे दी थी स्वतंत्रता प्राप्ति के द्वार पर। यूं भी अंग्रेज सरकार बुंदेलखंड के लोगों के दुस्साहस से इतनी घबराई रहती थी कि उन्होंने दमनकारी नीति अपनाते हुए इस क्षेत्र को शिक्षा और विकास में पीछे रखा। उन्हें लगता था कि बुंदेलखंड की आम जनता आर्थिक विपन्नता के चलते टूट जाएगी और हार मान लेगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अंग्रेजों का यह अनुमान गलत साबित हुआ। उन्होंने बुंदेलखंड के इतिहास और तत्कालीन वर्तमान को देखते हुए भी अनदेखा किया जिसके कारण उन्हें बार-बार मुंह की खानी पड़ी और अपने मंसूबों में सफल होने के लिए छल-कपट का सहारा लेना पड़ा। बुंदेलखंड में भी देश के अन्य भागों की भांति स्वतंत्रता आंदोलन जोर पकड़ता गया। पुरुष, महिलाएं, बच्चे सभी स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होते चले गए। तब किसने सोचा था कि जिस बुंदेलखंड के ग्रामीण क्षेत्र में स्त्रियों को घर से बाहर निकलने पर भी पाबंदी थी, वहां से एक महिला गोवा के स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदार बनेगी। स्वयं सहोदरा बाई राय ने भी यह नहीं सोचा रहा होगा।

सहोदरा बाई राय का जन्म 30 अप्रैल 1919 को दमोह जिले के एक छोटे से गांव बोतराई में हुआ था। उनके पिता वीरेन्द्र सिंह खंगार क्षत्रिय समाज के साधारण किसान थे। सहोदरा बाई राय का मूल नाम सुखरानी था। वे बचपन से ही फुर्तीली और नेतृत्व प्रतिभा से पूर्ण थीं। अपनी बाल्यावस्था में उन्हें कबड्डी, गुल्ली-डंडा, खेलने से ले कर तलवार चलाने का भी शौक था। सहोदरा बाई राय ने अपनी सहेलियों को एकत्र कर एक सेना बनाई थी, जिसका नाम था- “सहोदरा सेना“। यह सहोदरा सेना प्रभात फेरियों का नेतृत्व करती थी। यदि आज उस समय के ग्रामीण अंचल के परिवेश को देखा जाए तो यह सब अविश्वसनीय -सा लगता है। 

उन दिनों बुंदेलखंड में भी बालविवाह का चलन था। अतः मात्र 15 वर्ष की आयु में सहोदरा बाई का विवाह दमोह जिले के खेरी ग्राम के खंगार क्षत्रिय परिवार के श्री मुरलीधर के साथ कर दिया गया। दुर्भाग्यवश सहोदरा बाई के वैवाहिक जीवन को जल्दी ही ग्रहण लग गया। किसी अज्ञात बीमारी के कारण मुरलीधर राय का निधन हो गया। एक तो ग्रामीण क्षेत्र और उस पर एक विधवा स्त्री (अवयस्क युवती)। भांति-भांति के कष्टों का सामना उन्हें करना पड़ा। किन्तु सहोदरा बाई ने हार नहीं मानी। तब सहोदरा बाई पर दबाव डाला कि वे एक आम विधवा स्त्री की तरह दब कर रहें और उपेक्षित जीवन जिएं। सहोदरा बाई को यह स्थिति स्वीकार्य नहीं थी। वे ससुराल छोड़ कर दमोह के खेरी ग्राम से सागर के कर्रापुर में अपनी बड़ी बहन के पास आकर रहने लगी। कर्रापुर में उन दिनों भी बड़ी संख्या में महिलाओं द्वारा बीड़ी बनाई जाती थी। सहोदरा बाई आर्थिक रूप से अपनी बड़ी बहन पर बोझ नहीं बनना चाहती थीं अतः उन्होंने भी अन्य महिलाओं के साथ बीड़ी बना कर आजीविका चलाना आरम्भ कर दिया। यही से सहोदरा बाई को श्रमिकों की समस्याओं का पता चला। वे बीड़ी श्रमिक महिलाओं में जागरूकता लाने के प्रयास करने लगीं।  

   सहोदरा बाई महात्मा गांधी से बहुत प्रभावित थीं। सन 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन की लहर बुंदेलखंड में भी गहराने लगी। धरना, प्रदर्शन, विरोध आदि किए जाने लगे। इस दौरान विरोध स्वरूप तोड़फोड़, आगजनी, सरकारी सम्पत्ति को क्षति भी पहुंचाई गई। रेल लाईन को क्षतिग्रस्त किया गया तथा टेलीफोन के तार काटेगए। सहोदरा बाई भला कैसे पीछे रहतीं?  तत्कालीन स्वतंत्रता सेनानी रघुवर प्रसाद मोदी, गोपालकृष्ण आजाद, महेश दत्त दुबे, नारायण गोपीलाल श्रीवास्तव आदि के साथ ही सहोदरा बाई ने अपनी गिरफ्तारी दी। सहोदरा बाई को 6 माह के कारावास की सजा दी गई। सन 1945 में उन्होंने गांधी जी के साथ नौआखाली के दंगापीड़ित क्षेत्रों का दौरा किया और वहीं राहत-कार्य संभाला।
कारावास में रहते हुए सहोदरा बाई को गोआ मुक्ति संघर्ष के बारे में पता चला था। किन्तु वे जेल से बाहर आ कर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कंधे से कंधा मिला कर जूझती रहीं। सन 1947 में देश स्वतंत्र हो गया। किन्तु गोवा उस समय भी परतंत्र था। उस पर पुर्तगालियों का अधिकार था। पुर्तगालियों के विरुद्ध गोवा में पहला विद्रोह 15 जुलाई 1583 को कुंकली में हुआ था। पुर्तगालियों ने बातचीत के लिये कुंकली इलाके से 15 लोगों को बुलाया और उन्हें घेरकर धोखे से हमला कर दिया। जिसमें सभी की मौत हो गई। फिर सन 1788 में पिन्टो विद्रोह हुआ। वितोरिनो फारिया और जोस गोंसाल्वेजजो उस समय पुर्तगाल में थे। दोनों यूरोप में लोकतंत्र के आगमन को देख रहे थे। ये दोनों गोवा लौटे और आजादी व लोकतंत्र के विचार को गोवा में पोषित किया। पिंटो परिवार की मदद से 1788 में विद्रोह हुआ जिसे कुचल दिया गया। गोवा के स्वतंत्रता आंदोलन इससे थमा नहीं बल्कि 1912 तक राणे समुदाय ने निरंतर पुर्तगालियों से सशस्त्र संघर्ष किया। सन 1930 में पुर्तगाल में कोलोनियल एक्ट पास किया गया जिसके अनुसार पुर्तगाल के किसी भी उपनिवेश में रैली, मीटिंग और अन्य कोई सरकार विरोधी सभा और गतिविधि पर प्रतिबन्ध लगा दिया। सन 1932 में जब अतोनियो द ओलिवीरा सालाजार पुर्तगाल के शासक बनें, तब गोवा में दमन अपने चरम पर पहुंच गया। इस पर गोवा के क्रांतिकारियों को शेष भारत से समर्थन और सहयोग मिलने लगा। 1955 में एक जत्था गोवा के स्वतंत्रता सेनानियों के समर्थन में पहुंचा जिसमें सहोदरा बाई भी शामिल थीं। वहां महिलाओं की एक आमसभा आयोजित की गई जिसको सुधाताई जोशी संबोधित कर रही थीं। उसी समय पुलिस ने सशस्त्र धावा बोल दिया और गोलियां चलाते हुए तिरंगे को गिराने का प्रयास किया। तब सहोदरा बाई ने आगे बढ़ कर तिरंगे को थाम लिया। वे पुलिस की गोलियों से घायल हो गईं लेकिन उन्होंने तिरंगे को गिरने नहीं दिया। सहोदरा बाई को क्रांतिकारी सुरक्षित स्थान पर ले गए और तत्काल चिकित्सा कर के उनके प्राण बचा लिए गए। 

    1971 के लोकसभा चुनाव में टिकट दिया और वे जीती भीं। सहोदरा बाई ने कर्रापुर में अपनी जमीन अस्पताल के लिए दान की थी। इस जमीन पर उनके नाम से अब भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र संचालित है। इसके अलावा सागर का पॉलिटेक्निक कॉलेज भी वीरांगना सहोदरा बाई के नाम पर है। सहोदरा बाई का निधन 26 मार्च 1981 को कैंसर से हुआ। सहोदरा बाई राय का सामाजिक संघर्ष राजनीतिक यात्रा और देश की आजादी के लिए किए गए उत्साही कार्य आज भी सभी के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।
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बतकाव बिन्ना की | आजादी की पैली क्रांति अपने बुंदेलखंड में भई रई | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
आजादी की पैली क्रांति अपने बुंदेलखंड में भई रई
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
      ‘‘काए बिन्ना, सबई जने जेई कैत आएं के सबसे पैले 1857 में क्रांति भई रई, जबके हमने कऊं पढ़ो रओ के ईसे पैले तो अपने बुंदेलखंड में क्रांति भई रई। सो ऊको पैलो काए नईं कओ जात आए?’’ भैयाजी अपनों मूंड़ खुजात भए बोले। बड़े टेंशन में दिखा रए हते बे।
‘‘आप सांची कै रए भैया जी! 1857 से पैले तो 1842 में अपने इते बुंदेलखंड में भौतई बड़ी क्रांति भई रई, जोन को ‘बुंदेला क्रांति’ कओ जात आए।’’ मैंने भैयाजी को बताओ।
‘‘सो बा कोन ने करी हती? मने 1857 वारी तो मंगल पांडे ने सुरू करी, बा वारी कोन से सिपाई ने करी हती?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘बा क्रांति कोनऊं सिपाई ने सुरू ने करी हती, बा तो राजा मधुकरशाह जू ने करी हती। बाकी पैले आप जो जान लेओ के बुंदेला क्रांति के कारण का हते। वैसे ईको बुंदेला विद्रोह कै-कै के ईको इंप्वार्टेंस कम कर दओ जातो आए। मनो जे कोनऊं ऊंसई बिद्रोह ने रओ, पूरी क्रांति भई रई।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘तो भओ का रओ?’’ भैयाजी ने पूछी। उने कोन पतो रओ।
‘‘भओ जे के अंग्रेजन ने एक तो लगान बढ़ा दओ औ ऊपे सल्ल जे के जोन लगान ने चुका पात्तो ऊकी जमीन हड़प लई जात्ती। मने सीदे कओ जाए तो जमीन हड़बे के लानेई लगान बढ़ाओ गओ रओ। उने पता रई के इते के किसान गरीब आएं सो बे लगान चुका ने पाहें। फेर इत्तोई नईं, अंग्रेजन ने का करी के जोन जमीदारों खों लगान वसूलबे को अधिकार दओ रओ उने ऊमें से हींसा कम दओ जान लगो। ईसे जमीदारों की दसा दूबरी हो गई। औ जे जो दीवानी मुकदमा की तारीखें बढ़ा-बढ़ा के पेरबे को चलन आए, बा सोई अंग्रेजन के टेम से सुरू भओ। मने कोऊ अपनी जमीन के लाने मुकदमा करे औ दो-चार पीढ़ियन लौं फंदा में लटको रए। सो जे दसा देख के बुंदेला राजा हरें खौलन लगे। उनें दबाने के लाने अंग्रेजन ने नारहट वारे मधुुकरशाह बुंदेला औ जवाहर सिंह बुंदेला के लाने अदालत में डिक्री दे के उनकी जायदाद जब्त करबे की धमकी दई। ईके विरोध में मधुकरशाह बुंदेला औ अंग्रेजन के सिपाइयन में झड़प भई जीमें कछू सिपाई मारे गए। जेई के संगे क्रांति सुरू हो गई। ईमें मधुकर शाह को साथ दओ जैतपुर के राजा परिच्छित, हीरापुर के राजा हिरदेश शाह, चिरगांव के जागीरदार राव बसंत सिंह, झींझन के दीवानराव बसंत सिंह, नरसिंहपुर के डिलनशाह ने। मनो कछु स्वारथ वारे इते बी हते जिने बाद में समझ में आई के बे का गलती कर बैठे। मनो ऊ टेम पे तो राजा मधुकर शाह को साथ न दे के, उल्टे उने धोखे से पकरवा के भारी गलती करी रई।’’ मैं बता रई हती भैयाजी खों के बे बोर परे।
‘‘हैं? कोन ने पकरवा दओ मधुकरशाह जू खों?’’ मनो भैयाजी को झटका सो लगो।
‘‘अरे एक गद्दार रओ, बाकी मधुकरशाह जू को साथ ने दे के अंग्रेजन को साथ देबे वारों में शाहगढ़ के राजा बखतवली, बानपुर के मर्दनसिंह और चरखारी रियासत वारे रए। मनो 1857 लों उने सोई समझ में आ गई रई के बे गलत पाले में जाके ठाड़े हो गए रए। सो, उन ओरन ने 1857 वारी क्रांति के टेम पे रानी लक्षमीबाई को साथ दओ रओ। पर 1842 के टेम पे जो इन ओरन ने मधुकरशाह जू को साथ दओ रैतो तो इते को इतिहास कछू और होतो।  सागर, दमोए, जबलपुर, मंडला, नरसिंहपुर औ बैतूल लौं में अंग्रेज सरकार को विरोध होन लगो रओ। सागर में खुरई, खिमलासा, धामोनी, नरयावली औ सागर सहर में लूटपाट मचीं। नरसिंहपुर के डिलनशाह गौड़ ने देवरी औ नरसिंहपुर के लिंगे अंग्रेजन के नाक में दम कर दओ। हीरापुर से जबलपुर लौं हिरदेशाह जू ने अंग्रेजन की खिंचाई करी। देखत-देखत कछू समै के लाने जो भओ के नरसिंहपुर, सागर औ जबलपुर के भौत बड़े इलाका से अंग्रेजन को कब्जा छूट गओ रओ। ओई समै पे बेलगांव के़ जुुद्ध में जैतपुर के राजा परिच्छित ने अंग्रेजों को हरा दओ रओ। मनो अपने इते को इतिहास तो गद्दारन के मारे बिगड़त रओ। सो जेई भओ के हिरदेशाह जू पकरे गए। बाकी अंग्रेज कर्नल स्लीमैन के कए पे बाद में उने छोड़ दओ गओ रओ। लेकन अंग्रेज तो ई क्रांति के मुखिया मधुकरशाह जू खों पकरो चात्ते। एक गद्दार ने उनकी जा इच्छा पूरी कर दई। जबे मधुकरशाह एक के घरे सुस्ताबे के लाने सो रए हते तो बा गद्दार ने चुप्पे से अंग्रेजन खों खबर कर दई। सो मधुकरशाह जू पकरे गए। उने खुल्लेआम फांसी दे दई गई। आपको पतो के उनकी समाधि सागर की जेल में अबे लों पाई जात आए?’’ मैंने क्रांति की किसां सुनात भए भैयाजी से पूछी।
‘‘नई हमें नई पतो! मनो जे तो गजबई आए के हम इतई रैत आएं औ हमें नई पतो के सागर की जेल में मधुकरशाह जू की समाधि आए। हम तो जाबी दरसन करबे।’’ भैयाजी तनक इमोशनल होते भए बोले।
‘‘मैं सोई संगे चलबी। बाकी जो आपके लाने ई बारे में पतो नईयां सो ईमें आपको कोनऊं दोस नइयां। काए से के जा सब पढाओ जाए, बताओ जाए, तब तो पता परे।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘सई कै रईं बिन्ना! बाकी जो जब इत्ती बड़ी क्रांति हती तो ईको बिद्रोह काए कओ गओ? जे बात अब बी हमें समझ में ने आई।’’ भैयाजी सोचत भए बोले।
‘‘कछू नईं भैयाजी, बात इत्ती सी आए के पैले इते को इतिहास अंग्रेजन ने लिखों, फेर अंग्रेजन के पिट्ठुअन ने लिखो सो जेई लाने ईको बिद्रोह कै दओ गओ औ 1857 की क्रांति खों गदर कै दओ गओ। कैबे को तो जा कओ जात रओ के अंग्रेजन के राज में कभऊं सूरज नईं डूबत, सो इते उनको सूरज कछू जांगा, कछू समै के लाने डुबो दओ गओ रओ। जे भौत बड़ी बात रई। जो सबने साथ दओ रैतो औ गद्दारी ने करी गई होती तो सबसे पैले जो अपनो बुंदेलखंड आजाद भओ रैतो।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई कै रईं बिन्ना, जे सब बातें हमें पता नईं रईं। हमने तो बा 1857 वारी क्रांति भर पढ़ी रई।’’ भैयाजी अफसोस करत भए बोले।
‘‘हऔ, पैले इतिहास में इत्तो ज्यादा नईं पढ़ाओ जात रओ। अब तो स्कूल के सिलेबस लौं में बिद्रोह के नांव से बुंदेला क्रांति सामिल आए। बाकी, ईको क्रांति कओ जाओ चाइए।’’ मैंने कई।
‘‘सई बात। बाकी अब तो हमें मधुकरशाह जू की समाधि पे दरसन करने जाबे की भौतई इच्छा हो रई। कल नईं तो परों, हम जरूर जाबी।’’ भैयाजी बोले।
‘‘वैसे भैयाजी, आप जानत आओ के मोए राजनीति से कछू लेबो-देबो नईं रैत आए, मनो जो काम अच्छो करो जाए ऊकी तारीफ करे में मोए तनकऊं सकोच नई होत आए।’’ मैंने कई।
‘‘मने?’’ भैयाजी ने पूछी। 
‘‘मने जे के ई सरकार ने एक बड़ो अच्छो काम करो के आजादी की लड़ाई में उन ओरन को बी इतिहास लिखबाओ जोन के बारे में कोनऊं खों पतो ने हतो। मने गली-मोहल्ला के तो जानत्ते, बाकी औ बायरे कोऊ ने जानत्तो। ‘‘अनसुंग हीरोज आफ इंडियन फ्रीडम स्ट्रगल’’ योजना के तरे जो काम कराओ गओ। जा सांची में भौतई बड़ो काम कराओ गओ आए।’’ मैंने भैयाजी खों बताओ।
‘‘सई बताएं बिन्ना! जा बुंदेला क्रांति के बारे में जान के हमाओ सीना चैड़ो भओ जा रओ। सो आजादी की बरसगांठ पे तुमाए लाने खूब-खूब बधाई।’’ भैयाजी मगन होत भए बोले। 
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के हमाई आप ओरन खों बी आजादी की बरसगांठ पे खूब-खूब बधाई पौंचे! बंदेमातरम!      
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Wednesday, August 13, 2025

चर्चा प्लस | मैंने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के लिए उसे चुन लिया है जिसे राष्ट्रधर्म की समझ है | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस           
मैंने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के लिए उसे चुन लिया है जिसे राष्ट्रधर्म की समझ है
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
       15 अगस्त 1947 को देश को स्वतंत्रता प्राप्त हो गई किन्तु इसके साथ ही विभाजन का दंश भी मिला था जिसने हर भारतीय की आत्मा को झकझोर दिया था। ऐसे समय में देश के नागरिकों में राष्ट्र के प्रति उत्साह की नवीन ऊर्जा का संचार करना आवश्यक था। यह याद दिलाना जरूरी था कि स्वतंत्रता प्राप्ति की एक बड़ा लक्ष्य पा लिया है किन्तु अब नवीन राष्ट्र को नए सिरे से स्थापना देने के लिए सबको जुटना होगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ‘‘राष्ट्रधर्म’’ का प्रकाशन आरम्भ हुआ। अब आवश्यकता थी राष्ट्रधर्म का सच्चा अर्थ समझने वाले संपादक की।
          अटल बिहारी वाजपेयी में राजनीतिक समझ, साहित्यिक प्रतिभा और लेखन की प्रभावी कला थी। उनकी ये विशेषताएं एक न एक दिन उन्हें सफलता के उच्चतम शिखर तक पहुंचाने वाली थीं। अटल बिहारी यदि चाहते तो वे तत्काल सफलता प्राप्त करने का कोई छोटा रास्ता भी चुन सकते थे किन्तु वे किसी भी ‘शाॅर्टकट’ में विश्वास नहीं रखते थे। उनका उस समय भी मानना था कि ‘‘जो श्रम करके प्राप्त किया जाए, वही सुफलदायी होता है और स्थायी रहता है।’’ कर्म के प्रति आस्था रखने वाले अटल बिहारी ने श्रम का मार्ग चुना। वे जनसेवक बनना चाहते थे। दिखावे के जनसेवक नहीं, वरन् सच्चे जनसेवक। वे जनता के सहभागी बन कर काम करना चाहते थे, जनता से दूर रह कर नहीं। उनकी यह अभिलाषा उनके भाषणों और लेखों में मुखर होती रहती। अतः जब पं. दीनदयाल उपाध्याय को एक पत्रिका प्रकाशित करने का विचार आया तो प्रश्न था कि उस पत्रिका का संपादक किसे बनाया जाए? क्योंकि पं. दीनदयाल स्वयं संपादन का भार ग्रहण नहीं करना चाहते थे। ऐसी स्थिति में उन्हें सबसे पहला नाम अटल बिहारी का ही सूझा।
सन् 1946 में स्वतंत्रता संग्राम अपनी चरम स्थिति पर जा पहुंचा था। सन् 1947 के आरम्भिक महीनों में अंग्रेज सरकार को भी समझ में आ गया था कि अब उनके भारत से जाने का समय आ गया है। 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हो गया किन्तु इससे पहले देश के बंटवारे का दंश देश की आत्मा को घायल कर चुका था।
बंटवारे से उपजा अविश्वास का वातावरण फन फैलाए था। ऐसे में सौहार्द स्थापित किया जाना आवश्यक था। इसी विकट समय सभी दुरूह प्रश्नों के उत्तर जन-जन तक पहुंचाने के लिए पं. दीनदयाल उपाध्याय ने समाचारपत्र को माध्यम बनाने का निश्चय किया और सन् 1947 में पं. दीनदयाल उपाध्याय ने ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड’ की स्थापना की थी जिसके अंतर्गत क्रमशः स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित हुए।
‘राष्ट्रधर्म’ का प्रकाशन आरम्भ करने से पूर्व आवश्यकता थी एक अत्यंत योग्य संपादक की, जो पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को भली-भांति समझते हुए पत्रिका को सही स्वरूप प्रदान कर सके। चूंकि दीनदयाल उपाध्याय स्वयं संपादक पद पर रह कर बंधन स्वीकार नहीं करना चाहते थे, अतः उन्होंने यह महत्त्वपूर्ण दायित्व अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपने का निर्णय किया। उपाध्याय जी ने अटल बिहारी को लखनऊ बुला दिया। अटल बिहारी ने भी ‘राष्ट्रधर्म’ के संपादन का भार सहर्ष स्वीकार कर लिया।  

राजधानी लखनऊ के राजेंद्र नगर स्थित आरएसएस मुख्यालय के ठीक बगल में राष्ट्रधर्म का काम शुरू हुआ था। सन 1947 में अटल बिहारी वाजपेयी ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के पहले संपादक बने। देश स्वतंत्र होने के बाद राष्ट्रवाद की अलख जगाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना के अनुसार प्रकाशित राष्ट्रधर्म पत्रिका में लेखन और फिर उसकी छपाई का काम शुरू हुआ था। उस दौर में ट्रेडइल और विक्टोरिया फ्रंट जैसी छोटी मशीनों में पत्रिका और अखबारों की छपाई का काम होता था। धीरे-धीरे करके यह काम अटल जी के नेतृत्व में आगे बढ़ा और उनके नेतृत्व में लोगों को राष्ट्रवाद के विचार मिलने शुरू हो गए। राष्ट्रधर्म में लेखन और उसके वितरण का काम अटल बिहारी वाजपेयी खुद करते थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ को अपने धर्म की भांति सम्हाला। वे समाचार लिखते थे, लेख लिखते थे, संपादकीय लिखते थे और छपने के बाद उसे हर व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए लखनऊ की गलियों में साइकिल से भी राष्ट्रधर्म बांटने का काम भी किया करते थे। उनकी इस विशेषता को पहचानते हुए ही दीनदयान उपाध्याय ने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के लिए जब संपादक के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी को चुना उस दौरान मनोहर आठवले ने उनसे पूछा कि ‘‘आप राष्ट्रधर्म के लिए संपादक ढूंढ रहे थे, कोई मिला कि नहीं?’’
इस पर दीनदयाल उपाध्याय ने संतोष भरे स्वर में उत्तर दिया कि ‘‘मैंने ‘राष्ट्रधर्म’ के लिए उसे चुन लिया है जिसे राष्ट्रधर्म की समझ है।’’
फिर जैसे ही दीनदयाल उपाध्याय ने अटल बिहारी का नाम लिया तो मनोहर आठवले के मुख से निकला,‘‘उत्तम चयन!’’
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ और 31 अगस्त 1947 को राष्ट्रधर्म का पहला अंक निकला. स्वतंत्रता प्राप्ति के ठीक 16वें दिन राष्ट्रधर्म का पहला अंक निकला था अतः उसे विशिष्ट होना ही था। अटल जी ने अपनी कविता ‘‘हिंदू तन मन हिंदू जीवन, हिन्दू रग-रग, हिन्दू मेरा परिचय’’ को राजधर्म के प्रथम अंक में प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित किया। कविता के प्रथम दो बंद थे-
हिन्दू तनदृमन, हिन्दू जीवन, रगदृरग हिन्दू मेरा परिचय!
मैं शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षारदृक्षार।
डमरू की वह प्रलयदृध्वनि हूँ, जिसमे नचता भीषण संहार।
रणचंडी की अतृप्त प्यास, मै दुर्गा का उन्मत्त हास।
मै यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुंआधार।
फिर अंतरतम की ज्वाला से जगती मे आग लगा दूं मैं।
यदि धधक उठे जल, थल, अंबर, जड चेतन तो कैसा विस्मय?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

मैने दिखलाया मुक्तिमार्ग, मैने सिखलाया ब्रह्मज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर्णभ मे घहर-घहर, सागर के जल मे छहर-छहर।
इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सोराभ्मय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

तथा, कविता के अंतिम दो बंद थे -
होकर स्वतन्त्र मैने कब चाहा है कर लूँ सब को गुलाम?
मैने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल-राम के नामों पर कब मैने अत्याचार किया?
कब दुनिया को हिन्दू करने घर-घर मे नरसंहार किया?
कोई बतलाए काबुल मे जाकर कितनी मस्जिद तोडी?
भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

मै एक बिन्दु परिपूर्ण सिन्धु है यह मेरा हिन्दु समाज।
मेरा इसका संबन्ध अमर, मैं व्यक्ति और यह है समाज।
इससे मैने पाया तनदृमन, इससे मैने पाया जीवन।
मेरा तो बस कर्तव्य यही, कर दू सब कुछ इसके अर्पण।
मै तो समाज की थाति हूँ, मै तो समाज का हूं सेवक।
मै तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

यद्यपि यह प्रथम अंक निकालना भी कोई आसान काम नहीं था। पहले अंक की 3500, दूसरे अंक की आठ हजार और तीसरे अंक की 12000 प्रतियां निकली थीं। पत्रिका लोकप्रिय हुई, प्रसार बढ़ा, पाठक बढ़े किन्तु इसी के साथ काम भी बढ़ गया। अटल जी को अपने ही हाथ से कंपोजिंग करना रहता था और राष्ट्रधर्म के बंडल साइकिल पर लेकर उनको बांटने के लिए जाना पड़ता था। इतनी विषम परिस्थिति में अटल जी काम करते थे। किन्तु उनकी इसी जीवटता के कारण इस युवा संपादक की पहचान पूरे देश में स्थापित हो गई थी।
अटल बिहारी के संपादन में ‘राष्ट्रधर्म’ ने शीघ्र ही लोकप्रियता प्राप्त कर ली। उनके संपादकीय लेख लोग रुचि से पढ़ते। समाचारपत्र की प्रसार संख्या और प्रशंसकों की संख्या लगातार बढ़ने लगी। पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी, अमृतलाल नागर, महादेवी वर्मा एवं डाॅ. रामकुमार वर्मा भी अटल बिहारी के संपादकीय लेखों के प्रशंसक थे। ‘राष्ट्रधर्म’ का पहला अंक 31 अगस्त, 1947 को प्रकाशित हुआ। पाठकों द्वारा इसका भरपूर स्वागत हुआ। राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड ने आगे चल कर न केवल अटल बिहारी वाजपेयी वरन् वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चन्द्र मिश्र तथा राजीवलोचन अग्निहोत्री जैसे महानुभावों को पत्रकारिता के क्षेत्र में स्थापित किया। इसी के साथ ‘राष्ट्रधर्म’ का वह उद्देश्य भी पूरा हुआ जिसके लिए इसका प्रकाशन आरम्भ किया गया था। उद्देश्य था राष्ट्रवासियों के मन में उत्साह संचार करना एवं नवीन लक्ष्यों की ओर ध्यानआकर्षित करना ताकि एक सृदुढ़ स्वतंत्र भारत आकार ले सके।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 13.08.2025 को प्रकाशित)  
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Tuesday, August 12, 2025

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली माटी की सोंधी महक में रची-बसी काव्य रचनाओं के स्वर | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

          समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह

 'आचरण' में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा -
बुंदेली माटी की सोंधी महक में रची-बसी काव्य रचनाओं के स्वर
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - एक बांसुरी कितने राग
कवि - पद्मश्री डाॅ. अवध किशोर जड़िया
प्रकाशक     - शशिभूषण जड़िया, विनायक जड़िया, हरपालपुर, छतरपुर, म.प्र.- 471111
मूल्य        - 200/-
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     बुंदेलखंड की जिस भूमि पर ईसुरी और पद्माकर जैसे कवि हुए हों वहां की माटी के लिए यह कहना आवश्यक नहीं है कि यह साहित्य के लिए अत्यंत उर्वरा एवं भावसिक्त भूमि है। जिस प्रकार ईसुरी ने ‘फाग’ लिख कर प्रेम के सर्वस्व को व्यक्त कर दिया वहीं जीवन के यथार्थ दर्शन को भी वाणी दी। उसी प्रकार कवि पद्मश्री डाॅ. अवधकिशोर जड़िया ने अपने गीतों के माध्यम से प्रेम, दर्शन एवं जीवन की कठोरता को इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि जहां उनके कुछ गीत हरिवंश राय बच्चन के करीब ठहरते हैं तो कहीं ईसुरी के करीब। वहीं कुछ गीत आधुनिक अति यर्थाथवादी काव्यधारा को प्रतिम्बित करते हैं। इन सब के होते हुए भी उनकी कहन की शैली में एक बुंदेली ठसक एवं माधुर्य है, जो बुंदेली काव्यभूमि की विशेषता है।
‘‘एक बांसुरी कितने राग’’ डाॅ. अवधकिशोर जड़िया का इसी वर्ष प्रकाशित काव्य संग्रह है जिसमें कुल 58 रचनाएं हैं। इसमें भजन, प्रेमगीत, यथार्थपरक गीत तथा कुछ दोहे भी हैं। इस संग्रह की रचनाओं एवं प्रकाशन के संबंध में डाॅ जड़िया ने ‘‘अपनी बात’’ में लिखा है-‘‘वर्ष 2009 से वर्ष 2024 की कालावधि में मेरे जीवन में घटित घटनाओं और घटते उत्साह के कारण ये कवितायें पुस्तक का आकार न ले सकीं। मेरे पुत्र चि. शशिभूषण जड़िया की यह अभिलाषा थी कि अब जितनी भी शेष रचनाएं हैं, सभी एक पुस्तक के रुप में प्रकाशित हो और काव्य की रस-सत्ता सभी के सम्मुख आ जाए यह अत्यन्त आवश्यक है। मैं भी चाहता था कि मेरा सम्पूर्ण सृजन जब आप सबने देखा सुना, तो यह शेष रचनायें भी आपके दृष्टिपथ से आकलन प्राप्त करे।’’
अपनी छांदासिक रचनाओं के बल पर दीर्घकाल तक मंचों पर अपनी धाक जमाए रहे डाॅ अवध किशोर जड़िया विभिन्न आयोजनों में आज भी अपनी रचनाओं के लिए सम्मान पाते हैं। डाॅ. जड़िया के छंद, गीत, दोहे दिल-दिमाग को देर तक सम्मोहित किए रहते हैं। इस संग्रह की कविताओं में भी कुछ कविताएं ऐसी हैं जो उन्हें पढ़ने वाले के साथ देर तक बतियाती रहेंगी। यद्यपि संग्रह की पहली कविता में वे बड़ी सादगी से अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-   
हम कवि बुंदेली वानी के
झांसी की रानी के। हम कवि बुन्देली.....
छत्रसाल घरती के हीरा,
पन्ना के पानी के। हम कवि बुन्देली.....
‘‘पद्माकर’’ के कीर्ति केतु हम,
होरी हुरयानी के। हम कवि बुन्देली.....
फिर वे चौकड़िया छंद में ओरछा के रामराजा की स्तुति करते हैं। यही तो बुंदेली माटी का कमाल है कि कवि अपनी भावयात्रा में कितनी भी दूर क्यों न निकल जाए किन्तु वह अपनी यात्रा का आरंभ अपने पूज्य एवं लोकदेवता के स्मरण के साथ ही करता है। इसीलिए ‘‘ओरछेश रामराजा सरकार’’ गीत में डाॅ. जड़िया लिखते हैं-
का कएं धनुष बान बारे की, जग मग उजियारे की
छवि उनकी उनकी देहरी की, आंगन की द्वारे की
धरा धाम ओरछा पुण्य, सलिला जल उल्छारे की
रक्षा करत देत भिक्षा, इच्छा लखि मंगनारे की
का कएं धनुष बान बारे की।।
इसके उपरांत कवि ने अपनी मूल धारा को ग्रहण किया है औ वे ‘‘एक बांसुरी पर’’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
कैसे कैसे राग बजाये एक बांसुरी पर।
तुमने सातों स्वर आजमाये एक बांसुरी पर।।
फूंक भरी उगलियां चली, या कभी रही रीती।
तुम्हें नहीं मालूम बांसुरी पर क्या क्या बीती ।।
यश अपयश के साये छाये एक बांसुरी पर।
    बुंदेलखंड ईसुरी, प्रियाराम, गंगाधर व्यास आदि ने श्रेष्ठ चौकड़िया छंद लिखे। अतः चौकड़िया छंदों को अपनाने वाले डाॅ. जड़िया ने जब अपने कवित्त में ईसुरी को याद किया तो उन्होंने चौकड़िया छंद को ही अपना माध्यम बनाया। ‘‘ईसुरी’’ नाम यह रचना देखिए-
वाणी पुत्र मेड़की वारौ, बड़ो चढ़ो फगवारौ।
हिन्ना कैसी भरत चैकड़ी, ठगत देखवे वारौ।
भीतर ठठत जात चैकड़िया, फटत जात इंदियारौ।
बुंदेली की शब्द सम्पदा, कौ सिरमौर सितारौ।
   मैंने आरम्भ में ही संकेत दिया था कि डाॅ अवध किशोर जड़िया की कुछ रचनाएं ‘‘बच्चन’’ के समकक्ष ठहरती हैं। गीत ‘‘जिस दिन तुम रहते हो’’ के रूप में बानगी देखिए-
जिस दिन तुम रहते हो, वह दिन उत्सव होता है।
पीते तो पानी है, लेकिन आसव होता है ।।
आशायें गर्वित हो जातीं, क्षितिज रंग शाला ।
बाहु वलय में मलय गंध, आंखों में मधुशाला ।।
मुदित देह की हलचल में, हर अवयव होता है।
पीते तो पानी है लेकिन, आसव होता है ।।
     रूमानियत पर डाॅ जड़िया की गहरी पकड़ है। वे बड़ी केामलता से एवं शिष्टता से भावों को पूरी रूमानियत के साथ व्यक्त कर देने में महारत रखते हैं। ‘‘थोडी देर’’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
चलो बैठ कर हम तुम, कुछ बतियांएं थोडी देर।
बतरस के वर्षण की, करें कृपायें थोड़ी देर ।।
मन की गांठ खुलेगी धन का लगा देर होगा।
सुनते ही सुनते गरीब-मन, धन-कुबेर होगा।
भंगिमाएं आंखों में सब कह जाएं थोड़ी देर।
     संग्रह में एक अलग ही तासीर की एक रचना है जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को उसके अंतर्मन की गहराइयों तक छू जाएगी। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि यह रचना अपने आप में अद्वितीय है। इसमें राग भी है, यथार्थ भी है और जीवन का वह पड़ाव है जहां एक व्यक्ति की संवेदनाएं दूसरे व्यक्ति की संवेदनाओं की मोहताज़ हो जाती हैं। इतना ही नहीं, तब दूसरे व्यक्ति की संवेदनाएं औषधि से कहीं बढ़ कर साबित होती है। शीर्षक है - ‘‘आज सुबह से’’।
आज सुबह से रुलाई आई।
सामने तेरी दवाई आई।।
तूने बोला था, अब तुम खा लेना,
आज खाने की भी घड़ी आई।
आज सुबह से रुलाई आई ।।
तुम्हारी प्रीति छटपटा के उठी,
शहद की शीशी उठाकर लाई।
आज सुबह से रुलाई आई।।
जहां तक यथार्थ की बात है तो कवि का ये एक दोहा सटीक उदाहरण प्रस्तुत करता है-
साठ बरस का डोकरा, यहाँ पड़ा बिन हेत ।
उधर जानवर चने का, चरे जा रहे खेत ।।
    अब बात आती है डाॅ जड़िया के अद्यतन परिवेश की रचनाओं की। इनमें भी उनकी रचनात्मक विशेषताएं स्पष्ट देखी जा सकती हैं। इस संग्रह में उनकी एक रचना है ‘‘हम सिलेन्डर गैस के हैं (एलपीजी)’’। इसमें उन्होंने मानवीय प्रकृति की तुलना गैस के सिलेंडर से की है-
हम सिलेन्डर गैस के हैं सच हमीं ज्वालामुखी हैं।
खो दिया है स्वत्व हमने, उसी कारण से दुखी हैं।।
वर्ना हम उर्जा, भरे घनपिण्ड हैं -ऊर्ध्वगामी
अगर कुछ संकल्प की होते हमारे,
तो अलग होते नजारे ।
  पद्मश्री डाॅ अवध किशोर जड़िया बुंदेली माटी के गौरवशाली कवि हैं और उन्होंने अपने कविधर्म को बखूबी निभाया है। मध्यप्रदेश के हरपालपुर निवासी पेशे से आयुर्वेद चिकित्सा अधिकारी रहे डाॅ. जड़िया के लिए उनके समकक्ष कुछ विद्वान यह कहते रहे हैं कि ‘‘डाॅ जड़िया मरीज के शरीर का ईलाज आयुर्वेद के रस-रसायन से करते हैं, तो मन का ईलाज अपनी कविताओं के रस से किया करते हैं।’’ बहरहाल, डाॅ जड़िया के इस काव्य संग्रह ‘‘एक बांसुरी कितने राग’’ एक उम्दा काव्यकृति है। निश्चितरूप से यह पाठकों को पसंद आएगा। बस, एक चीज खटकती है, वह है मुद्रण की अनेक त्रुटियां जो खीर में ककंड़-सी किरकिराहट पैदा कर देती हैं। अगले संस्करण में इस ओर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
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(12.08.2025 )
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काव्य संग्रह  - एक बांसुरी कितने राग
कवि - पद्मश्री डाॅ. अवध किशोर जड़िया

Saturday, August 9, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | राखी के त्योहार सो दूसरो नईं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

  
पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में

टॉपिक एक्सपर्ट
राखी के त्योहार सो दूसरो नईं
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

        राखी को त्योहार एक ऐसो त्योहार आए जीमें बहनें दुनिया के चाए कोनऊं कोना में रयें, मनो अपने भैया को राखी बांधबो नईं भूलतीं, काए से के जेई तो एक बड़ो त्योहार आए भैया बहन को। औ जे अपने इते भौतई पुराने जमाना से मनाओ जा रओ। महाभारत के टेम पे जब दुस्सासन  द्रौपदी की धुतिया खेचन लगो तो द्रौपदी  ‘भैया बचाओ’ कै के कृष्ण जू खों पुकारन लगीं। द्रोपदी की पुकार सुन के कृष्ण जू आए औ उन्ने द्रोपदी की मदद करी। ईके बाद द्रौपदी ने अपनी धुतिया की किनारी फाड़ के कृष्ण जू की कलाई पे बांध दई। औ बोलीं के जे रच्छासूत्र आए, अब आपको हमाई रच्छा बरहमेस करनी पड़हे।    ईपे कृष्ण जू ने कई के काय नईं करबी रच्छा, तुम हमाई बहन आओ। बस, ओई दिनां से भैया बहन को जो त्योहार चल पड़ो।
    जो इत्तो अच्छो त्योहार आए के हुमायूं ने सोई ईको मोल समझो। एक हतीं रानी कर्णावती। बे चित्तौड़ की रानी हतीं। जब गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण करो तो रानी कर्णावती ने हुमायूं खों राखी भेजी औ एक बहन की मदद करबे के लाने पुकार लगाई। हुमायूं ने सोई राखी को मोल समझो औ कर्णावती की मदद करी।  और दूजे  त्योहारन पे भलेई तनक फरक पड़ो जा रओ पर राखी को त्योहार आज लौं ऊंसईं आए। बहनें अपने भैया हरों  खों की पूजा औ तिलक करके राखी बांधत हैं औ भैया बहनों खों कछू नेंग देत हैं। मनो ईमें सबसे बड़ों नेग होत आए बहन की रच्छा के बचन को। भले डिजिटल राखी को समै आ गओ पर आज बी राखी बांधी जात है औ रच्छा के बचन दए जात हैं। सो, सबई जनों खों हैप्पी राखी!
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, August 8, 2025

शून्यकाल | भाल्लुक राज जामवंत थे सत्य अथवा मिथक पात्र? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | भाल्लुक राज जामवंत थे सत्य अथवा मिथक पात्र? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम 
शून्यकाल
भाल्लुक राज जामवंत थे सत्य अथवा मिथक पात्र?
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                                         रामकथा में जामवंत भालुओं के राजा हैं। वाल्मीकि के अनुसार जामवंत अत्यंत अनुभवी और बुद्धिमान थे। उन्हें राज्य संचालन का अच्छा ज्ञान था। वे सुग्रीव के सलाहकारों में से एक थे। जामवंत ने राजा सुग्रीव को सलाह दी कि वे हनुमान को श्रीराम और लक्ष्मण की पहचान करने के लिए भेजें, ताकि पता चल सके कि वे कौन हैं और उनका उद्देश्य क्या है? जामवंत ने श्रीराम को सीता को खोजने और उनके अपहरणकर्ता रावण से युद्ध करने में सहायता की थी। उन्होंने हनुमान को उनकी अपार क्षमताओं का करा कर उन्हें सीता की खोज के लिए समुद्र पार जाने के लिए प्रोत्साहित किया था। क्या एक भालू यह सब कर सकता था? जामवंत को भाल्लुक क्यों कहा गया? क्या वे एक मिथक समान वन्य पशु थे अथवा वास्तविक प्राणी थे? 

जामवंत कह सुनु रघुराया। 
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। 
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।
 -भावार्थ है कि जामवंत ने श्रीराम से कहा कि ‘‘हे रघुनाथजी! सुनिए। हे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं, उसे सदा कल्याण और निरंतर कुशल है। देवता, मनुष्य और मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते हैं।’’

जामवंत, परशुराम और हनुमान तीनों रामकथा के ऐसे पात्र हैं जो दो युगों तक उपस्थित रहे अर्थात रामायाण काल में भी और महाभारत काल में भी। राम और कृष्ण दोनों के समय जामवंत के होने का उल्लेख मिलता है। जामवंत के जन्म की कथा है कि जब ब्रह्मा विष्णु की नाभि से कमल पर विराजमान थे, तब उन्होंने ध्यान किया और जम्हाई ली, जिससे एक रीछ का जन्म हुआ, जो आगे चलकर जामवंत कहलाया। यह भी मान्यता है कि जम्बूद्वीप पर पैदा हुए थे इसलिए उनका नाम जामवंत पड़ा। 

प्रश्न यह है कि क्या जामवंत सचमुच रीछ या भाल्लुक थे? यदि ऐसा था तो वे श्रीराम तथा वानरों से संवाद कैसे कर सकते थे? एक पालतू पशु बन कर श्रीराम के प्रति अपनी स्वामीभक्ति तो प्रदर्शित कर सकते थे किन्तु वानर अंगद, सुग्रीव एवं हनुमान से वार्तालाप कैसे कर सकते थे? एक भालू और वानरों के बीच संवाद का होना भला कैसे संभव है? जामवंत  जिन्हें रामायण में तथा अन्य रामकथाओं में भाल्लुक राज कहा गया है, उनका उल्लेख हनुमान को लंका भेजने के लिए उनकी शक्ति का स्मरण कराते एवं समझाते हुए है।  

वाल्मीकि ‘‘रामायण’’ के किष्किन्धा काण्ड के सर्ग 65 में रोचक वार्तालाप है जिसमें अंगद, जामवंत आदि की अन्य वानरों एवं भाल्लुकों से लंका जाने के संबंध में चर्चा हो रही है। सौ योजन, यानी हजार मील चैड़ा समुद्र देखकर वानर व्याकुल हो जाते हैं, क्योंकि कोई भी उसे लांघ नहीं सकता। हर महत्वपूर्ण वानर कहता है कि उसकी क्षमता उससे कम है। अंगद फिर से निराश हो जाते हैं क्योंकि उनके भावी राजत्व के नाम पर न तो कोई आगे आ रहा है और न ही उन्हें जाने दिया जा रहा है। लेकिन जाम्बवन्त उन्हें शांत करते हैं और हनुमान को समुद्र लांघने के कार्य के लिए प्रोत्साहित और उत्साहित करते हैं। तब अंगद के वचन सुनकर उन श्रेष्ठ वानरों, अर्थात् गज, गवाक्ष, गवय, शरभ, गंधमादन, मैन्द, द्विविद, सुशेषण, आदि ने अपनी-अपनी बारी के अनुसार समुद्र लांघने की अपनी-अपनी क्षमताओं के बारे में बताया।

इस विषय में गज ने कहा, ‘‘मैं दस योजन तक उड़ सकता हूं।’’ 
गवाक्ष ने कहा, ‘‘मैं बीस योजन तक जा सकता हूं।’’
शरभ ने कहा, ‘‘हे योजन-कूदने वालों, मैं सचमुच तीस योजन तक जा सकता हूं।’’ उसने आगे कहा कि, ‘‘और अतिआवश्यक होने पर मैं निस्संदेह चालीस योजन तक जा सकता हूं।’’ 
गंधमादन ने कहा, ‘‘मैं निस्संदेह पचास योजन तक जा सकता हूं।’’ 
वानर मैंदा ने कहा, ‘‘मैं केवल साठ योजन तक कूदने का साहस कर सकता हू।’’ 
महातेजस्वी द्विविद ने कहा कि, ‘‘मैं निस्संदेह सत्तर योजन तक जा सकता हूं।’’ 
शुषेण ने कहा, ‘‘मैं अस्सी योजन कूदने का वचन देता हू।’’
तब जामवंत ने वानरों को फटकारा कि ‘‘तुम सबके पास कूदने की योग्यता की कमी नहीं है, बल्कि यह तुम्हारा रावण का भय है जो तुम्हें रोक रहा है।’’ 
इस पर अंगद ने कहा कि ‘‘मैं इस सौ योजन चैड़े समुद्र को पार कर सकता हूँ, लेकिन मैं वापस आ पाऊंगा या नहीं, यह अनिश्चित है।’’ 

तब जामवंत ने अंगद से कहा कि, ‘‘हे अंगद, वानरों और भालुओं में श्रेष्ठ, मैं तुम्हारी पारगम्यता के बारे में जानता हूं। सौ ही क्यों, यदि आवश्यकता हो तो तुम एक लाख योजन तक जाकर वापस आ सकते हो। लेकिन तुम्हें भेजने का हमारा यह तरीका असंवैधानिक है। हे अंगद, किसी भी तरह से स्वामी समनुदेशक समनुदेशिती नहीं हो सकता, इसलिए हे श्रेष्ठ योजन-कूदने वाले, ये सभी लोग तुम्हारे द्वारा समनुदेशित हैं। तुम हमारे स्वामी के रूप में स्थापित हो और हमें तुम्हारा रक्षक बनना है। हे शत्रु-अधीनस्थ, वास्तव में आप ही इस अभियान के आधार स्तंभ हैं, अतः हे प्रिय अंगद, आपको सदैव उसी प्रकार सुरक्षित रखा जाना चाहिए जैसे किसी भी चीज की रक्षा की आवश्यकता होती है। हे सत्य-वीर अंगद, आप इस कार्य के निमित्त हैं और चूंकि आपमें बुद्धिमत्ता और साहस है, हे शत्रु-प्रज्वलित करने वाले, आप सीता की खोज के इस कार्य के आधारशिला हैं। हमारे लिए आप स्वयं भी पूजनीय हैं, और आदरणीय बाली के पुत्र होने के नाते भी पूजनीय हैं। और हे श्रेष्ठ वानर, आपकी शरण में आकर हम अपने कार्य के उद्देश्य को प्राप्त करने में समर्थ हैं।’’ ऐसा जामवंत ने अंगद से कहा।
‘‘यदि मैं लंका नहीं जा रहा हूँ, और न ही कोई अन्य वानर जा रहा है, तो हमें एक बार फिर आत्मदाह करना होगा, है न! उस दृढ़निश्चयी वानरराज सुग्रीव की आज्ञा का पालन किए बिना किष्किंधा जाने पर मुझे अपने प्राणों की कोई सुरक्षा नहीं दिखाई देती सुग्रीव एक ऐसे राजा हैं जो या तो क्षमा या क्रोध का अत्यधिक प्रदर्शन करते हैं और उनकी आज्ञा का उल्लंघन करके हमारा किष्किंधा जाना, अपने ही विनाश में प्रवेश करने के समान है। यह इसी प्रकार होगा, क्योंकि हमारे किष्किंधा लौटने का कोई अन्य परिणाम नहीं है, अतः आपके लिए यह उचित होगा कि आप गहराई से सोचें, क्योंकि आप इसके परिणामों की कल्पना कर सकते हैं।’’ अंगद ने जामवंत से कहा।
‘‘हे वीर अंगद, तुम्हारा यह कार्य तनिक भी विफल नहीं होगा। जो सीता की खोज के इस कार्य में सफल होगा, मैं उसे प्रेरित करूंगा।’’ जामवंत ने अंगद को विश्वास दिलाया। इसके बाद जामवंत तथा उसके बाद अंगद ने लंका जाने के लिए हनुमान से अनुरोध किया।

जामवंत का उल्लेख रामकथा में ही नहीं अपितु उसके अगले युग की कृष्णकथा में भी है। महाभारत में उल्लेख है कि जामवंत ने एक सिंह का वध किया था, जिसने प्रसेन से स्यमंतक नामक मणि प्राप्त की थी। कृष्ण को मणि के लिए प्रसेन की हत्या का संदेह था, इसलिए उन्होंने प्रसेन का पीछा किया। उन्हें पता चला कि प्रसेन को एक शेर ने नहीं बल्कि एक भालू ने मार डाला था। वह भालू जामवंत था। कृष्ण ने जामवंत का पीछा उसकी गुफा तक किया और युद्ध शुरू हो गया। भागवत पुराण के अनुसार कृष्ण और जामवंत के बीच युद्ध 27-28 दिनों और विष्णु पुराण के अनुसार 21 दिनों तक चले इस युद्ध में जामवंत थकने लगे। जामवंत ने समर्पण कर दिया। उसने कृष्ण को मणि दी और अपनी पुत्री जामवंती का विाह भी उनसे कर दिया। कृष्ण और जामवंती का एक चंचल पुत्र था जिसका नाम साम्ब था, जो लोगों को परेशान करता रहता था। एक बार उसने गर्भवती स्त्री का वेश धारण किया और अपने चचेरे भाइयों के साथ मिलकर कुछ ऋषियों को मूर्ख बनाने की कोशिश की। जिसके परिणामस्वरूप एक श्राप मिला जिससे यादवों का विनाश हो गया। 

इन सारी कथाओं एवे संदर्भों से यही सिद्ध होता है कि जामवंत मिथक पात्र नहीं अपितु वास्तविक पात्र थे। वे भाल्लुक नहीं बल्कि ऐसे वनवासी मनुष्यों के समुदाय के थे जो भाल्लुकों का मुखौटा धारण करते थे। ठीक वैसे ही जैसे वानर समुदाय के लोग वानरों का मुखौटा लगाते थे। वस्तुतः यह उनके अपने कबीलों की विशिष्ट पहचान थी। वे सभी वीर योद्ध एवं अत्यंत विचारशील, प्रतिभावान मनुष्य थे। वनक्षेत्र में रहने के कारण अपनी पहचान भी उन्होंने वन्य पशुओं से चुनीं।  ‘‘रामायण’’ के किष्किन्धा काण्ड के सर्ग 65 के उपरोक्त वार्तालाप से भी स्पष्ट होता है कि उन वन-कबीलों के बीच सभाएं एवं मंत्राणाएं हुआ करती थीं। जिस प्रकार असुर समुदाय, वानर समुदाय मनुष्य था उसी प्रकार भाल्लुक समुदाय भी मनुष्य था जिसके राजा जामवंत थे।
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Thursday, August 7, 2025

बतकाव बिन्ना की | ऐसी भक्ती कोन काम की? | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
ऐसी भक्ती कोन काम की?
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
      ‘काए भैयाजी, हमने सुनी रई के आप औ भौजी उते सिहोर जाबे वारे हते, रुद्राक्ष लेबे के लाने। मनो आप ओरें अच्छे नईं गए। उते तो देखों कैसी गदर मची। मुतके तो निपट गए औ मुतके हात-गोड़े तुड़ा के आड़े डरे।’’ मैंने भैयाजी से कई। काए से के मैंने संकारे जा खबर पढ़ी रई के उते सिहोर में कथावाचक प्रदीप मिश्रा जू रुद्राक्ष बांटबे वारे हते, सो उते भारी भीर मची औ ओई में को जाने कैसे भगदड़ सी मच गई। अब उते भीर में को काऊ खों देख रओ। एक-दूसरे खों धकियात भए भगन लगे। पुलिस वारे सोई मारे गए।
‘‘हऔ बिन्ना, बा तो बड़ी बुरी खबर आए। बाकी हम ओरों को कोनऊं प्लान ने हतो उते जाबे को, बा तो तुमाई भौजी की फुआ लगी हतीं के अब तो घूंटा दुखन लगे। सो चलबे-फिरबे के जोग ने बचें ऊके पैले हमें एक दारे कुबेरेश्वर धाम लेवा ले चलो। फेर उने कऊं से पता पर गई के उते रुद्राक्ष बांटे जाने हैं, सो बे औरईं पगलया गईं। बाकी हम ओरन को तनकऊ मन ने रओ, सो हम ओरन ने मना कर दओ रओ। ऊ दिनां उने बुरौ तो लगो मनो आज बे जा सोच के खुस हो रई हुइएं के चलो ने गए सो बच गए। अब आंगू बे कभऊ ने कैहें उते चलबे की।’’ भैया जी ने कई।
‘‘जे ने सोचो आप भैयाजी! जे जो ई टाईप के प्रानी होत आएं न, बे कुत्ता की पूंछ घांई होत आएं। का पैले कभऊं ऐसी भीर में भगदड़ ने भई? इन्हई की सभा में पैले बी भगदड़ चुकी। औ ई टाईप के मौका पे भीर परतई आए, जां कछु बंटबे वारो होए। अपन ओरन खों मुफत की चीजें ऊंसई खींब पुसात आएं। एक जांगा तो चुनाव टेम पे मुफत की साड़ियां बंट रई हतीं, वां इत्ती भीर परी के भगदड़ में उते बी मुतके निपट गए रए। फेर भी ऐसे मानुष मानत कां आएं? बे भीर बढाबे में कोन डरात आएं। जो आप सोच रए के फुआ जू अगली दार जिद ने करहें, सो जे आप भूल जाओ। बे एक का सौ दार जिद करहें।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई में, का कओ जाए इन ओरन खों। अरे, घूमबे जाने, दरसन करने जाने तो ऊ टेम पे जाओ जबें भीर होबे वारी ने होए। महूरत से आगे-पीछे जाबे से का पंडज्जी बदल जाहें के बा जांगा बदल जाहे?’’ भैयाजी बोले।
‘‘सई कै रए आप भैयाजी! बाकी आज संकारे से अखबार में एक तो जा सिहोर वारी भगदड़ की खबर छपी रई, के एक बा उते उत्तराखंड में बादर फटबे से 34 सेकंड में पूरो गांव मिटबे की खबर हती। दोई डराबे वारी खबर। मनो देखी जाए तो दोई में अपनई ओरन की गलती आए।’’ मैंने कई।
‘‘अपन ओरन की गलती? काए? अपन ओरें तो कऊं गए नईं फेर अपनो का दोस?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अपन ओरन से मोरो मतलब, अपन मानुषों से आए। जो पतो आए के इत्ती भीर परहे, उते जाबे की का जरूरत? जैसे आप अबे कै रए हते के आंगू-पीछू कभऊं जाओ जा सकत आए, मनो नईं जाबी तो ओई टेम पे। अब कओ के पंडज्जी को दोस तो इतोई आए के उने अब बांटा-बूंटी को चक्कर छोर दओ चाइए। काए से पगलात पब्लिक आए औ पाप लगत आ पंडज्जी खों। सो ऐसो काम काए खों करो जाए? आपई कओ के मैंने सई कई के नईं?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘बिलकुल सई कई। फालतू-फोकट में पंडज्जी को नांव उछलत फिर रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ऐसई तो सल्ल उते उत्तराखड में आए। अब कछू सयाने मान रए के जे जो उते बदरा फटे बे उतई टिहरी बांध के बने भए हते। मनो बा बात ने बी मानी जाए तो जे तो सई आए के उते पेड़ कटत जा रए। जबके बे पेड़ई तो आएं जो पहाड़न खों थामें रैत आएं। बे बेचारे एक हते सुंदरलाल बहुगुणा जू। उन्ने चिपको आंदोलन चलाओ के पेंड़ ने कटें, इत्तो बड़ो बांध उते ने बने, पर काए खों , उनकी कोनऊं ने े सुनी। उल्टे उने बदनाम सोई करो गओ। अब आज भगत रए सबरे।’’ मैंने कई।
‘‘औ का! अपने इते बी तो जेई दसा आए के सड़के चैड़ीं करबे खों पेड़े काट दए गए। उते बक्सवाहा के जंगलन पे आंखें गड़ाए सबरे बैठेंई आएं। जो पेड़ ने रैहें तो कंकरा, मिट्टी कोन के भरोसे टिकहें? पेड़ की जड़ेंई तो आएं जिनके भरोसे पूरे पहाड़ ठाडें रैत आएं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सई बात भैयाजी! पेड़ कटे की बात से मोए याद आई के अबई कछू दिना पैले एक जने ने उते शिमला की फोटुएं अपने सोसल मीडिया पे डारी हतीं। वे बड़े लेखक आएं। उतई शिमला में रैत आएं। हरनोट जू नांव आए उनको। उन्ने बे पेंड़न की फोटुएं डारी हतीं जोन सड़क बनाबे औ चैड़ी करबे के टेम पे काटे सो नई गए, पर उनकी आधी जड़े निपटा दई गईं। अब आपई सोचो के जिते पहाड़ धसकबे को डर बनो रैत होए उते आधी जड़न वारे पेड़ कां लौं टिके रैहें? बे औ खतरा घांईं हो गए। बे कभऊं बी रोड पे गिर सकत आएं। कोनऊं उनकी चपेट में आ जाए तो ऊको तो हो गओ राम नाम सत्त। औ हुसियारी देखों आप के, कैबे खों उन्ने पेड़ नईं काटे, जबके नैंचे से पेड़न की आधी जड़े काट दईं। अब बे तो लेखक आएं तो उने जा सब देख के पीरा पौंची, ने तो उते से गुजरबे वारे सबई जने तो देखत हुइएं पर को बोल रओ? सो जे दसा आए उते। ऐसे में बदरा ने फटहें, पहाड़ ने धसकहें, गांव ने मिटहें तो औ का हुइए?’’मैंने कई। 
ई समै पे कोनऊं काऊ की नई सुन रओ। जो सुन रओ होतो जे इत्तो बुरऔ हाल काए खों रैतो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ भैयाजी! जे स्वारथ की दुनिया आए। अपनो घर भर जाए, चाए दुनिया जाए चूला में। अबे बी कोऊ कोनऊं खों ने समझाहे के भैया-बैन हरों जो कऊं भीर परपे वारी होय तो उते ने जइयो। अरे ऐसी कैसी भक्ति आए जे? आप सो गए उते, औ जो उते भगदड़ मची औ ऊमें आप निपट सो कोनऊं बात नोंईं, काए से के आप तो ई दुनिया से बढ़ा गए, मनो जोन जे जो आपके सगेवारे इते रै गए बे रोहें जनम भर। पछताओ उन्हें हुइए के हमने उन ओरन खों जाबे से रोको काए नईं। बच्चा, बूढ़ा, ज्वान सबई तो मरत आएं ऐसी भगदड़ में। जो पांछू रैए जाते आएं बे रोत रैत आएं।’’ मैंने कई।
‘‘औ का बिन्ना। रई धरम की बात सो रैदास जू ने सई कई आए के ‘‘जो मन होए चंगा, तो कठौती में गंगा।’’ भैयाजी बोले।
‘‘आपखों ईकी किसां पतो?’’ मैंने भैयाजी से पूछीं।
‘‘कैसी किसां?’’
‘‘जे कहनात की।’’
‘‘का किसां आए?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘बड़ी मजे की किसां आए। का भओ के एक दिनां रैदासजू अपने काम में लगे हते। उन्ने एक जने खों उनको जूता बना के देबे को वादा करो रओ, सो उनको मूंड़ उठाबे की फुरसत ने हती। तभईं उनके चिनारी के एक पंडज्जी उते से गुजरे सो उन्ने रैदास जू से कई के हम गंगा में सपरबे खों जा रए, तुम बी चलो। रैदासजू ने कई के बे नईं जा सकत। उनके पास टेम नइयां। उने काम पूरो कर के देने आए। सो पंडज्जी बोले के सो कोई नईं, कछू चढ़ौती भेज देओ, हम तुमाई तरफी से गंगा मैया खों दे देबी। अब उते रैदास जू के जूता बनाबे के ठिया पे चढ़ौती के लाने का धरो रओ? सो उन्ने अपने खींसा टटोले औ ऊंमे से सुपारी निकार के पंडज्जी खों दे दईं के जेई चढ़ा दइयो। पंडज्जी गंगा के लिंगे पौंचे। उते उन्ने सपरो-खोरों औ फेर रैदासजू की सुपारी गंगा मैया खों चढ़ा दई। मनो जे का? तुरतईं गंगा मइयां निकरीं औ उन्ने पंडज्जी खों एक सोने को कंगन दे दओ। पंडज्जी ने सोने को कंगन देखों तो उने लालच आ गओ। उन्ने सोची के जे जो कंगन बे रानीजू के लाने राजासाब खों भेंट कर दैहे तो मुतको इनाम मिलहे। ऐसे बेंचबे जाबी तो कओ कोऊ सोचे के जो चोरी को आए। 
सो पंडज्जी कंगन ले के राजासाब के दरबार पौंचे। उन्ने राजासाब खों कंगन भेंट करो औ राजा साब ने रानीजू खों बा कंगन दे दओ। रानीजू ने देखों तो बे मचल गईं के हमें ईकी जोड़ी लान देओ। अब फंस गए पंडज्जी। अब ऊकी जोड़ी कां धरी? गंगा मैया ने तो एकई कंगन उने दओ रओ। सो, पंडज्जी घबड़ाने से भगत-भगत रैदास जू के पास पौंचे औ उने पूरी बात बताई। रैदासजू कछू ने बोले। उन्ने अपने जूता बनाबे में काम आने वारो काठ को पानी बारे कटोरा मने कठौती में अपनो हात डारो, आंखें मींच के गंगा मैंया खों याद करो। फेर जो उन्ने कठौती से हात बायरे निकारो तो उनके हात में ऊंसईं एक कंगन निकर आओ। रैदासजू ने बा कंगन पंडज्जी खों दे दओ। पंडज्जी ने पूछो के जे कैसे भओ? सो रैदासजू ने इत्तोई कओ के ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। मने जो सच्चे मन से भगवान जू खों याद करो जाए तो बे कऊं बी मिल सकत आएं, ऊके लाने कऊं जाबे की जरूरत नोंई। सो जे हती ई कहनात की किसां।’’मैंने कई। 
सो, भैया औ बैन हरों रैदासजू की जेई किसां खों जानो औ समझो, औ उते ने जाओ जिते भगदड़ मच सकत होए। काए से के जान आए तो जहान आए। ऐसी भक्ति ने करो के जान के लाले पड़ जाएं।  
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के रैदास जू ने सई कई के नईं?।    
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Wednesday, August 6, 2025

चर्चा प्लस | कितना जानते हैं हम अपनी नदियों के बारे में | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस           
कितना जानते हैं हम अपनी नदियों के बारे में
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
       गंगा पापों नाश करती है, यमुना भूमि की प्यास बुझाती है, सरस्वती भूमिगत हो कर लुप्त हो चुकी है। लगभग इतना ही जानते हैं हम नदियों के बारे में। अधिक से अधिक नदियों के उद्गम और समापन के बारे में जानकारी रखते हैं और स्वयं को नदी के ज्ञाता मानने की भूल करने लगते हैं। यदि हम नदियों के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर लें तो उन्हें क्षति पहुंचाने के बारे में कभी नहीं सोचेंगे। नदियों की विस्तृत जानकारी के लिए कठिन लगने वाले वैज्ञानिक ग्रंथों की नहीं अपितु मात्र वेदों के पठन की आवश्यकता है। आजकल तो वेद अर्थ, भावार्थ एवं टीका सहित भी उपलब्ध हैं। उन्हें पढ़ने के बाद समझ में आता है कि अपने पूर्वजों की तुलना में तो नदियों के बारे में हमारा ज्ञान न्यूनतम हैं।  
          इतना तो हम सभी जानते हैं कि नदियां जल का वे सतत स्रोत हैं जिसका जल समुद्र की तरह खारा नहीं वरन मीठा है। इसी लिए हमारे पूर्वजों ने अपनी बस्तियां बसाने के लिए नदियों की निकटता को चुना। नदियों के किनारे ही महान संस्कृतियों ने जन्म लिया और विकास किया। हमारे पूर्वज परम ज्ञानी थे। वे अपनी स्मृतियों को सहेज कर अरने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाने की कला में निपुण थे। यहां तक कि प्रागैतिहासिक कालीन पूर्वजों ने गुफा भित्तियों एवं चट्टानों पर चित्रों के रूप में अपने जीवन के अनुभवों एवं कल्पनाओं को अंकित किया। वह भी उन पदार्थों से जो समय की सीमाओं को पार करते हुए आज भी हमारे लिए उपलब्ध हैं। उनके बाद के पूर्वजों ने लेखन कला का आविष्कार किया और ताड़पत्रों, भुर्जपत्रों, तथा कालान्तर में ताम्रपत्रों में अपने अनुभवों को सहेजा। उन सभी बातों को लिपिबद्ध किया जो आने वाली पीढ़ी के लिए जानना आवश्यक थीं। स्मरण रहे कि हमारे पूर्वजों ने जिस प्रकृति से जीवन पाया था, उसका महत्व वे समझते थे। इसीलिए उन्होंने पंचतत्वों की व्याख्या की जिसमें जल भी एक तत्व है। उनके लिए जल का स्थाई स्रोत नदी। प्राकृतिक कूप हर जगह नहीं थे। कूपों का निर्माण प्रकृतिक कूपों को देख कर ही हमारे पूर्वजों ने सीखा। किन्तु नदी का निर्माण संभव नहीं था। यदि संभव था तो नदी का संरक्षण। वे इस बात को भली-भांति जानते थे। यद्यपि उस समय प्राकृतिक स्थिति आज से भिन्न थी। वन और वर्षा की बहुलता थी फिर भी ग्रीष्मकाल में उन्होंने नदियों के जल को कम होते और सिकुड़ते देखा होगा। इस बात की कल्पना की होगी कि यदि हम नदियों के जल का संरक्षण नहीं करेंगे तो एक समय ऐसा आएगा जब नदी-जल की उपलब्धता कम से कम उस स्थान पर नहीं रहेगी जहां मनुष्यों का निवास है। इसलिए पौराणिक ग्रंथों में नदियों महिमा का वर्णन किया गया है जिससे नदियों के महत्व को सभी समझें और उनके संरक्षण का ध्यान रखें। 

       ऋग्वेद के तीसरे मण्डल का 33 वें सूक्त में विश्वामित्र नदी संवाद के रूप में कुल मंत्र 13 हैं। भरतवंशी विश्वामित्र सुदास से पौरोहित्य कर्म का धन लेकर अपने गन्तव्य मार्ग के लिए जाने लगा तो अन्य लोग भी उसका अनुकरण करने लग जाते हैं। रास्ते में नदियों में बाढ़ आ जाने के कारण उन्हें पार करना मुश्किल था। 13 मन्त्रों में विश्वामित्र द्वारा शुतुद्री और विपाट् नदियों से मार्ग देने के लिए प्रार्थना की गई है ।

      ऋग्वेद संहिता में कुल दस मण्डल हैं। दशम मण्डल सबसे अर्वाचीन है। इसमें 191 सूक्त हैं। त्रित, विमद, इन्द्र, श्रद्धा, कामायनी, इन्द्राणी, शची आदि इसके मुख्य ऋषि हैं। ऋग्वेद के दशम मंडल में नदी सूक्त है, जिसमें कुल 75 सूक्त हैं जो नदियों को समर्पित है। यह सूक्त भारत की नदियों की महिमा का वर्णन करता है और उन्हें मां के समान पूज्य माना गया है। इसमें 21 नदियों का उल्लेख है, जिनमें सिंधु, यमुना, गंगा, सरस्वती, और गोमल जैसी प्रमुख नदियां शामिल हैं।
प्र तेंरदद्वरूणो यातवे पथः सिन्धो यद्वाजौ अभ्यद्रवस्त्वं।
भूम्या अधिं प्रवता यासि सानुना यदेषामग्र जगतमिरज्यसि।।
- अर्थात अति बहाव वाली नदी के बहने के लिए आदित्य ने मार्ग बना रखा है जिससे वह अन्न आदि को लक्ष्य में रखकर बहती है। भूमि के उन्नत मार्ग से यह बहती है। जिस उन्नत मार्ग से यह बहती है वह प्राणियों को प्रत्यक्ष दिखाई देता है और नदी का प्रभाव प्रत्यक्ष दिखता है।

     नदी के वेग के संबंध में सुंदर वर्णन है कि किस प्रकार वेगवती नदी ऐसी गर्जना के साथ बहती है कि उसकी ध्वनि आकाश तक गूंजती है-
दिवि स्वनो यतते भूम्योपर्यनन्तं शुष्म मुर्दियर्ति भानुना।
अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टयः सिन्धुर्यदेतिं वृषभो न रोरूयत्।।
- अर्थात जब यह वेग वाली नदी गर्जना की तरह शब्द करती हुई बहती है तब मेघ से होने वाली वृष्टि के समान शब्द होता है। इसके बहाव का शब्द पृथ्वी पर होता हुआ आकाश में पहुंचता है। सूर्य की किरणों से इसकी उर्मियां युक्त होती हैं और यह नदी अपने वेग को और भी बढ़ा लेती है।

    एक सूक्त में वर्णन है जिसमें उसे उन नदियों की माता की भांति कहा गया है जो सिंधु से आ कर मिलती हैं। साथ ही बाढ़ की स्थित में किनारों को तोड़ती हुई नदी की तुलना युद्ध में निकले हुए प्रतापी राजा से करते हुए इसे अन्य छोटी नदियां की नेतृत्वकर्ता बताया गया है -
अभि त्वां सिन्धो शिशुमिन्न मातरो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः।
राजेव युध्वां नयसि त्वमित्सिचै यदासामग्रं प्रवतामिनक्षसि।।
- अर्थात जिस प्रकार माताएं शिशुओं को मिलती हैं और जिस प्रकार दूध से भरी हुई नवप्रसूता गाय आती है, उसी प्रकार शब्द करती हुई दूसरी नदियां सिंधु में मिलती हैं। युद्ध करने वाले राजा के समान यह जब इसमें मिली नदियों से आगे रहती है और बाढ़ आती है तो तटों को भी बहाती है।

एक सूक्त में कई बड़ी नदियों के नाम हैं तथा उनकी विशेषताओं का संक्षिप्त विवरण है-
इमं में गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमै सचता परूष्ण्या।
असिवक्न्या मरूद्वृधे वितस्तयार्जीकीये श्रणुह्या सुषोमया।।
- भवार्थ है कि मेरे इस प्रशंसा वचन को ये नदियां सब प्रकार से सेवित कराती हैं, सुनवाती हैं। गंगा अति वेगवती नदी है, यमुना मिलकर उसे अधिक जल वाली नदी बना देती है। सरस्वति अधिक जल वाली नदी है। शुतुद्रि शीघ्र बहने वाली नदी है तथा परूष्ण्या पर्व वाली कुटिल गामिनी नदी है। असिवन्या जो नीले पानी वाली है, मरुद्वधे मरूतों से बढ़ने वाली, वितस्तया विस्तार वाली नदी, आर्जिकीये सीधे बहने वाली नदी, सुषोमया यानी जिसके किनारे पर सोमलता आदि हों। 
जहां नदी हों वहां उद्योग-धंधे भी बढ़ते हैं।

स्वश्वा सिन्धु सुरथा सुवासा हिरण्ययी सुकृता वाजिनीवती।
ऊर्णावती युवतिः सीलमावत्युताधि  वस्ते  सुभगा  मधुवृधं।।
- भावार्थ ऐसी स्पंदनशील नदी के किनारे के प्रदेशों में घोड़े, रथ निर्माण, वस्त्रोपादन, स्वर्ण आदि धातुओं की खानें, ऊन की पैदावार, औषधियां आदि अधिकतर होती हैं।
नदीस्तुति सूक्त (संस्कृतर: नदीस्तुति सूक्तम्य आईएएसटीरू नदीस्तुति सूक्तम्), ऋग्वेद के 10वें मंडल1, का 75वां भजन (सूक्त) है। वैदिक सभ्यता के भूगोल के पुनर्निर्माण के लिए नदीस्तुति सूक्त महत्वपूर्ण है। सिंधु (सिंधु) को सबसे शक्तिशाली नदियों के रूप में संबोधित किया गया है और श्लोक 1, 2, 7, 8 और 9 में विशेष रूप से संबोधित किया गया है। श्लोक 5 में, ऋषि ने दस नदियों की गणना की है, जो गंगा से शुरू होकर पश्चिम की ओर बढ़ती हैं- ‘‘हे गंगा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री (सतलुज), परुष्णी (इरावती, रवि), मेरी स्तुति का अनुसरण करो! हे असिक्नी (चिनाब) मरुदवृध, वितस्ता (झेलम), अर्जिकिया (हरो) और सुशोमा (सोहन) के साथ, सुनो!’’
इन नदियों में गंगा, यमुना,सरस्वती, सुतुद्री,पारुस्नी,असिक्नी,मरुद्वृद्ध,वितस्ता,अरजीकिया तथा सुसोमा है। श्लोक 6 में उत्तर-पश्चिमी नदियों (अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान से होकर बहने वाली सिंधु नदी की सहायक नदियां) को जोड़ा गया है- ‘‘इस यात्रा में सबसे पहले तुम त्रिष्टमा से, सुशर्तु, रसा और श्वेती से, कुभा (कोफेन, काबुल नदी) से गोमोती (गोमल) तक, मेहतनु से क्रुमु (कुरुम) तक, जिनके साथ तुम आगे बढ़ रहे हो।’’ इसके आगे कहा गया है कि ‘‘पहले त्रिष्टमा के साथ मिलकर प्रवाहित हो, सुशर्तु और रस के साथ, और इस श्वेता (तुम प्रवाहित हो), हे सिंधु (सिंधु), कुभा (काबुल नदी) के साथ गोमती (गोमल) तक, मेहतनु के साथ क्रुमु (कुर्रम) तक, जिनके साथ तुम एक ही रथ पर सवार होकर दौड़ती हो।’’

ऋग्वेद (एकहा गया है कि पृथ्वी में प्रारम्भ से जल था। कहा जाता है कि जीवन का आरम्भ जल में हुआ।  ‘‘शिवा नः सन्तु वार्षिकी’’ वृष्टि से प्राप्त जल हमारा कल्याण करने वाला हो। ऋग्वेद में जल चक्र  अर्थात हाइड्रोलॉजिकल साइकिल का संकेत भी दिया गया है। ‘‘इन्द्रोदीर्घाय चक्षस आ सूर्य रोहयत्दिवि, विगोभिरद्रि मैरयत’’ अर्थात प्रभु ने सूर्य उत्पन्न किया, जिससे पूरा संसार प्रकाशमान हो। इसी प्रकार सूर्य के ताप से जल वाष्प बनकर ऊपर मेघों में परिवर्तित होकर फिर पृथ्वी पर वर्षा के रूप में आता है।

यजुर्वेद में समुद्र से मेघ, मेघ से पृथ्वी और फिर विभिन्न सरिताओं में जल से बहाव और फिर समुद्र में उसके संचयन एवं वाष्प का वर्णन है। सामवेद में भी सूर्य एवं वायु द्वारा जलवाष्प के रूप मेें मेघ बनाता है जो वर्षा के रूप में मेघ बनाता है और वर्षा के रूप में पृथ्वी पर आता है। मानसून का वर्णन यजुर्वेद संहिता में सल्लिवात के रूप में आता है। वेदों से बाद के ग्रन्थ ‘मार्कण्डेय’ पुराण में उल्लेख है कि पृथ्वी पर प्राप्त होने वाला सभी जल सतही अथवा भूजल का स्रोत, सागर है और पृथ्वी तल का सभी जल अन्ततः महासागरों में पहुंचकर ही विलीन हो जाता है। अतः यदि हम नदियों को नष्ट करते हैं तो सूर्या के द्वारा निर्मित कृति को नष्ट करते हैं, ऐसे में सूर्य का प्रकोप बढ़ना स्वाभाविक है। इसे आज की वैज्ञानिक भाषा में ग्लसेबल वार्मिंग कह सकते हैं। दुखद पक्ष यह है कि वैज्ञानिक विकास के साथ जो आधुनिकता की अंधी दौड़ आई उसमें हमने तथ्यपरक पौराणिक ज्ञान को भी ठुकरा दिया। जबकि इसी ज्ञान को नासा आदि विदेशी अनुसंधान केन्द्रों ने अपना कर तथा भारतीय विद्वानों से ही उसे डी-कोड करा कर लाभ उठाया है।
यदि हमें अपने नदियों के बारे में जानना है तो ज्ञान की दृष्टि से वेदों को गहराई से पढ़ना होगा। यह मानना संकुचित दृष्टिकोण है कि वेद मात्र धार्मिक ग्रंथ हैं, वस्तुतः वेद जीवन को सही ढंग से जीने का तरीका सिखाने वाले ग्रंथ हैं अर्थात् प्रकृति का सम्मान करते हुए मनुष्यता का जीवन जीने की कला खिाते हैं वेद। अतः यदि नदियों को विस्तार से जानना है तो वैदिक ज्ञान की यात्रा भी आवश्यक है।   
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(दैनिक, सागर दिनकर में 06.08.2025 को प्रकाशित)  
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Tuesday, August 5, 2025

पुस्तक समीक्षा | वर्तमान को खंगालती विचारोत्तेजक ग़ज़लों का पठनीय संग्रह | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 05.08.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा
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पुस्तक समीक्षा
वर्तमान को खंगालती विचारोत्तेजक ग़ज़लों का पठनीय संग्रह
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह 
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ग़ज़ल संग्रह - पैमाने नये आये
कवि        - अशोक कुमार ‘‘नीरद’’
प्रकाशक     - लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, 4637/20, शॉप नं.-एफ 5, प्रथम तल, हरि सदन, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
मूल्य        - 375/-
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     18 नवम्बर, 2004 को ‘‘शब्दम’’ के स्थापना दिवस के दूसरे दिन प्रो. नन्दलाल पाठक की अध्यक्षता में एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया था। उस विचार गोष्ठी में डाॅ शिवओम ‘‘अम्बर’’ ने कहा था कि ‘‘सामान्यतः यह समझा जाता रहा है कि ग़ज़ल उर्दू से हिन्दी में आई किन्तु साहित्यिक इतिहास का सजग अध्ययन इस धारणा का प्रत्याख्यान कर देता है। वस्तुतः खड़ी बोली हिन्दी का काव्य इतिहास अमीर खुसरो की अभिव्यक्तियों के साथ प्रारम्भ होता है। लगभग सभी मान्य आलोचकों ने अमीर खुसरो को हिन्दी का प्रथम गजलगो घोषित किया है।’’
     2016 में 22 मई कोे ‘‘जनसत्ता’’ में ज्ञानप्रकाश विवेक एक लेख प्रकाशित हुआ था ‘‘साहित्य : हिंदी गजल और आलोचकीय बेरुखी’’। उसमें ज्ञानप्रकाश विवेक ने जो लिखा था उसका यह अंश अत्यंत महत्वपूर्ण है-‘‘उर्दू में गजल शायरी की केंद्रीय विधा है। मगर वही गजल जब हिंदी (देवनागरी लिपि) में आती है तो हाशिए की विधा बन कर रह जाती है। हिंदी काव्य-जगत में कवि जितने आत्मसम्मान और रुतबे के साथ चर्चा में रहते हैं, पत्र-पत्रिकाओं के कई-कई पृष्ठों में एक साथ छपते हैं, वह माहौल हिंदी गजलकारों को कभी हासिल नहीं हुआ। वहां हिंदी गजलकारों का न रुतबा है, न हैसियत! उनकी गजलों का प्रायः फिलर के रूप में छपना, औकात का अहसास कराता है। औकात और हैसियत का खेल हिंदी काव्य में अनायास या संयोगवश नहीं हुआ। ऐसा जानबूझ कर नामवर आलोचकों (और कुलीन कवियों) द्वारा किया जाता रहा। हिंदी कविता चर्चा के केंद्र में रही, पर हिंदी गजल हाशिए पर तड़पती रही। नतीजा क्या निकला? हिंदी गजल हाशिए की विधा और हिंदी कविता पाठक-विहीन विधा।’’ 

इस प्रकार समय-समय पर हिन्दी ग़ज़ल पर सार्थक चर्चाएं होती रही हैं। ग़ज़लकार अशोक कुमार ‘नीरद’ ने हाल ही में प्रकाशित अपने ग़़ज़ल संग्रह में हिन्दी ग़ज़ल की आलोचना की दशा को अपने आत्मकथ्य में रेखांकित किया है। ‘‘मेरी अपनी बात’’ में अशोक कुमार ‘नीरद’’ ने दो टूक शब्दों में अपनी चिंता व्यक्त की है-‘‘ आज हिंदी गजलों के नाम से धड़ल्ले से रचनाएं छप रही है लेकिन उनमें से कितनी कृतियों को हम हिंदी गजलों की श्रेणी में रख सकते हैं? क्या इनकी कहन, स्वभाव व मुहावरा हिंदी का है? क्या इनमें गजल के पिंगल का अनुपालन हो रहा है? क्या इनमें पढ़ते ही पाठकों के हृदयों में उतरने का कौशल है? इन्हीं बातों को लेकर मैंने अपना उपरोक्त शेश्र उद्धृत किया है। आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि अधिकांश गजलकार गजल विधा के व्याकरण और गजलीयत को समझे बिना ही गजल के महारथी कहलाना चाहते हैं। गजल क्यों कह रहे हैं? क्या उनकी कहन आज के जीवन की परतें खोलने में समर्थ है? क्या उनमें हृदय को झकझोरने की क्षमता है? हिंदी गजल अपनी आधी सदी की यात्रा तय कर चुकी है लेकिन उपरोक्त प्रश्न लगभग अनुत्तरित ही है। जिसे देखो वो छोटे रास्ते से बड़ी उपलब्धि के फेर में है। जो गजलकार अधिक छपने लग जाते हैं, थोड़े चर्चित क्या हो जाते हैं वो अपने आप को गजल का स्कूल समझ बैठते हैं। वे इतने आत्ममुग्ध हैं कि अपने अहं से ऊपर उठकर कम चर्चित लोगों की अच्छी-से-अच्छी गजलों को पढ़कर उनको सराहना अपनी मानहानि समझते हैं। हिंदी गजल का यह दुर्भाग्य है कि उसे अब तक भी मर्मज्ञ एवं सही आलोचक नहीं मिले जो गजलकारों को आईना दिखला सकें, उनका मार्गदर्शन कर सकें। जब तक किसी विधा की सम्यक आलोचना नहीं होती तक तब वह विधा परिष्कृत होकर पल्लवित, समादृत और स्थापित नहीं हो सकती। आज जो तथाकथित आलोचक हिंदी गजल की आलोचना पर काम कर रहे हैं उनमें से अधिकांश घोर व्यवसायी हैं जो पत्रम-पुष्पम मिलने पर किसी भी गजलकार को आसमान में चढ़ा देने में तनिक भी संकोच नहीं करते।’’

        अशोक कुमार ‘नीरद’ की चिन्ता स्वाभाविक है किन्तु उन्होंने उन्होंने जिन बिन्दुओं को सामने रखा है वे साहित्य की लगभग हर विधा की आलोचना पर सटीक बैठते हैं। फिर भी ताली दोनों हाथों से बजती है। यदि आलोचक अपने प्रिय किन्तु कमजोर साहित्यकार को स्थापना देने का अपराध कर रहे हैं तो रचनाकार भी स्थापना पाने के लिए हर हथकंडे अपना रहे हैं। यदि किसी आलोचक ने खामी निकाल दी तो समझिए कि उससे रचनाकार की जानी दुश्मनी तय है। ऐसे में दो ही विकल्प बचते हैं कि आलोचक रचनाकार की दुश्मनी की परवाह न करे तथा रचनाओं के प्रसंग में निष्पक्ष रहे तथा दूसरा विकल्प ये कि रचनाकार स्वयं की रचनाधर्मिता का निष्पक्ष आकलन होने दे। किन्तु वर्तमान में सोशल मीडिया के समूहों द्वारा बांटे जाने वाले मुक्तहस्त आॅनलाईन-प्रमाणपत्रों ने आलोचना को ही हाशिए पर धकेल दिया है। वातावरण कुछ ऐसा निर्मित हो गया है कि एक साहित्यकार दूसरे की रचना पर को तो कठोर आलोचना से गुज़रता हुआ देख कर गदगद होता है किन्तु अपनी रचनाओं की कठोर आलोचना होने पर आगबबूला हो उठता है। अतः अशोक कुमार ‘नीरद’ की चिन्ता निरर्थक नहीं है। यह चिन्ता होना ही चाहिए और साहित्य की हर विधा के लिए होना चाहिए।

   अब बात कवि ‘‘नीरद’’ के इस संग्रह की ग़ज़लों की। ‘‘अलग रंग और छवि के गजलकार की गजलें’’ शीर्षक से ‘नरद’ की ग़ज़लों पर कमलेश भट्ट कमल ने अपने भूमिकात्मक आलेख में लिखा है-‘‘नीरद जी की गजलों में भाविक स्तर से लेकर रचनात्मक स्तर पर गजल का एक खास किस्म का रचाव अनुभव होता है। इस संदर्भ में वे दूसरे कई रचनाकारों से अलग हैं। भाषा पर हिंदी गीतों का प्रभाव उनकी गजलों में एक ख़ास तरह की प्रभावोत्पादकता का कारण बना है, जिसे उनकी गजलों को पढ़कर ही जाना जा सकता है।’’

     संग्रह के ब्लर्ब पर डॉ. अनिल गौड़ की टिप्पणी है कि ‘‘नीरद जी का एक बड़ा योगदान उनके बहरों के चयन में भी है। वे छोटी बहरों में बड़ी बात कहने के लिए संकल्पित हैं और उसके लिए अनेकानेक काव्यात्मक प्रयोग करते रहते हैं। उनकी छोटी बहरों में अधिक कहने की प्रवृत्ति ने वाक्य में क्रियाओं की संक्षिप्ति का प्रयोग किया है इससे उनकी गजलों में कथन की गति क्षिप्र हुई है।’’

21 नवंबर 1945 को बुरहानपुर में जन्मे, सागर विश्वविद्यालय में पढ़े तथा वर्तमान में मुंबई निवासी अशोक कुमार ‘नीरद’ के नवीनतम प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह ‘‘पैमाने नये आये’’ से पूर्व उनके चार ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस पांचवें संग्रह में कुल 101 ग़ज़लें हैं। ‘नीरद’ की ग़ज़लों में आम आदमी का स्वर सुनाई देता है। वे समाज, राजनीति तथा भावनाओं आई गिरावट पर चिन्ता व्यक्त करते हैं तथा उनके कारणों की तह तक उतरते हैं। वे अपनी ग़ज़लों में सतही बातें नहीं करते अपितु गंभीरता से चिंतन कर के अपने अनुभवों को भी टटोलते हुए अर्थात व्यष्टि और समष्टि को साझा करते हुए वर्तमान स्थितियों को खंगालते है। ‘नीरद’ के सरोकार बहुआयामी हैं। एक बानगी देखिए-
हर तरफ परजीवियों की बस्तियाँ आबाद हैं 
मूल से मशहूर  ज्यादा  हो गये अनुवाद हैं
अब किसी के दर्द से होते कहाँ संवाद हैं 
जो मिले करते मिले बस अपनी ही फरियाद हैं

समय की नब्ज़ पर कवि की उंगली है। वह परिस्थितियों के रक्त का उतार-चढ़ाव बखूबी भांप रहा है। कथनी और करनी के अंतर ने ही आम आदमी के जीवन को दुरुह बना दिया है-
एक झूठी आस का बिरवा हरा-भर देखते हैं 
फेर में अच्छे दिनों के घर लुटा-भर देखते हैं
देखना जो चाहते हम वो ही आँखों से है ओझल 
देखने को बाग की उजड़ी दशा-भर देखते हैं

इसलिए कवि ‘नीरद’ शोषकों को आगाह करते हैं कि आज जो जैसा है, वह वैसा हमेशा नहीं रहेगा। समय का पहिया हमेशा घूमता रहता है अतः उन्हें अपनी तानाशाही की प्रवृति को छोड़ देना चाहिए-
आज जो है कल विगत हो जायेगा 
धुंध में इतिहास की खो जायेगा
मन उमंगों का जो अनुयायी रहा 
बीज सुख के दुख स्वयं बो जायेगा

इस संग्रह में एक बहुत छोटे बहर की बड़ी गंभीर किन्तुू प्यारी-सी ग़ज़ल है जिसमें कवि ने कम स कम शब्दो का प्रयाग करते हुए तमाम जीवन दर्शन का निचोड़ प्रस्तुत कर दिया है-
सपना अपना।
कोरा सपना।
बीते कल को 
व्यर्थ कलपना।
मैंने   सीखा 
बस श्रम जपना।
इस संदर्भ में उनकी एक आशावादी ग़ज़ल के ये शेर भी उल्लेखनीय हैं-
रात ढलेगी सूरज भी निकलेगा मीत निराशा छोड़ 
फिर आशा का गूंज उठेगा मोहक गीत निराशा छोड़
जीवन के आयामों का तू मंथन करना जारी रख 
माखन निकलेगा मनचीता होगी जीत निराशा छोड़

वस्तुतः अशोक कुमार ‘नीरद’ की ग़ज़लों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी ग़ज़लों में आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया है जिससे यह हर प्रकार के पाठकों के मन को छूने में सक्षम हैं। फिर उन्होंने अपनी ग़ज़लों में वही बातें लिखी हैं जो आम आदमी की बातें हैं, जिसे आम आदमी कहना चाहता है किन्तु कह नहीं पाता है। अतः हर पाठक को ये ग़ज़लें अपनी-सी लगेंगी। हिन्दी साहित्य जगत में यह संग्रह ‘‘पैमाने नये आये’’ स्वागत किए जाने योग्य है। 
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Sunday, August 3, 2025

प्रलेस सागर की प्रेमचंद जयंती समारोह में डॉ (सुश्री) शरद सिंह का आलेखवाचन एवं काव्यपाठ

03.08.2025 को प्रगतिशील लेखक संघ सागर द्वारा फुसकेले निवास में प्रेमचंद जयंती का आयोजन किया गया। इस समारोह में डॉ गजाधर सागर की अध्यक्षता तथा हरगोविंद विश्व जी के मुख्य आतिथ्य में मैथिलीशरण गुप्त जी का भी स्मरण किया गया। डॉ सतीश पांडे के कुशल संचालन में आयोजित इस आयोजन के प्रथम सत्र में मैंने अपना आलेख "समाजशास्त्री कथाकार प्रेमचंद" का वाचन किया तथा द्वितीय सत्र में प्रेमचंद के कथापात्रों एवं रचनाओं पर आधारित एक ग़ज़ल का पाठ किया।
   प्रथम सत्र में मेरे सहित सर्वश्री एमके खरे, कैलाश तिवारी विकल, पैट्रिस फुसकेले, ने अपने आलेख पढ़े तथा सर्वश्री टीकाराम त्रिपाठी, डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया, अनिल जैन तथा लक्ष्मी नारायण चौरसिया जी ने कथा सम्राट प्रेमचंद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर अपने विचार व्यक्त किए।   
           द्वितीय सत्र में श्रीमती नमृता फुसकेले, श्रीमती निरंजन जैन, श्रीमती ममता भूरिया, श्री मुकेश तिवारी, डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया, श्री वीरेंद्र प्रधान पुष्पेंद्र दुबे, डॉ गजाधर सागर, श्री हरगोविंद विश्व आदि कवियों ने अपनी काव्य रचनाओं का पाठ किया।
      आयोजन में शहर के साहित्यकार बड़ी संख्या में उपस्थित हुए। 
(03.08.2025)
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Saturday, August 2, 2025

पं. रविशंकर शुक्ल पर गर्व था सरदार पटेल को - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

आज स्व. पं. रविशंकर शुक्ल जी के जन्मदिवस पर "नवदुनिया" की विशेष प्रस्तुति में मेरे विचार...

गर्व था सरदार पटेल को
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह, वरिष्ठ साहित्यकार एवं इतिहासविद

 सागर में जन्मे पंडित रविशंकर शुक्ल उन राष्ट्रवादी नेताओं में से एक थे जिन्होंने रियासतों के विलय करने में सरदार वल्लभभाई पटेल को आगे बढ़कर सहयोग किया।  जुलाई 1946 को शुक्लजी ने साफ कह दिया था कि "कोई भी रियासती सेना आजाद भारत की सेना के विरुद्ध खड़ी नहीं हो सकती। इसे सहन नहीं किया जाएगा।"  शुक्ल जी ने जोखिम उठाते हुए मध्यभारत और बरार में रियासतों के  विलय को संभव बनाया । जिस पर सरदार पटेल ने उनकी प्रशंसा की थी। और उन्हें आजाद भारत का "सच्चा सिपाही" कहा था।
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हार्दिक धन्यवाद "नवदुनिया" 🌹🙏🌹

टॉपिक एक्सपर्ट | सागर की बिटियन खों हल्के में ने लइयो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

 पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में
टॉपिक एक्सपर्ट
सागर की बिटियन खों हल्के में ने लइयो
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
 
         जो कभऊं कोनऊं खों जे खयाल आए के मोड़ियां कछु नईं कर सकत औ ऊ पे सागर की मोड़ियां पढ़बे-लिखबे में भलेई तेज होंए लेकन ताकत वारे काम नईं कर सकत। सो, जबे ऐसी सोच आए सो अपनी सोच बदल लइयो औ सोच बदलबे में कछू परेसानी होए तो अपने सागर की बिटिया आयुषी अग्रवाल खों याद कर लइयो। जे कओ जात आए के पावर वेटलिफ्टिंग मोड़ियन की बस की नोंईं। फेर कोऊ बड़ो सहर होए जां बड़े-बड़े कोच होंए, तो एक दार सोची बी जा सकत आए। पर इते सागर में बिटियन खों को सिखा रओ पावर वेटलिफ्टिंग? मनो जे तो तै कहानो के जो इते की बिटियां एक बेर ठान लेबें तो उने कोनऊं बाधा रोक नईं सकत। आयुषी के बारे में जो जान लैहो तो मान जैहो के हम सांची कै रए।
    पिछले दिनां सागर के सराफा वारे अशोक अग्रवाल जू की बिटिया ने वेटलिफ्टिंग में 425 किलो को वजन उठा के अपनोईं पिछलो 417 किलो वजन को रिकॉर्ड तोड़ दओ । पाॅवर वेटलिफ्टिंग में इंटरनेशनल लेबल पे सागर की कोऊ बिटिया ने पैली बार पदक जीतो आए। 425 किलो कछू चीज कहाउत आए। इते तो कोऊ मोड़ा 125 किलो उठा लेवे तो ऊकी कम्मर में कुसका लग जैहे। बाकी, आयुषी अपने लड़कपने सेई एक हात से गैस को भरो सिलेंडर उठि लेत्तीं। तनक बड़ी भईं तो जिम ज्वाइन करो। उनके एक ट्रेनर बीना में रैत्ते सो बे रोज सुभे बीना जात्तीं औ उते दो घंटा वर्कआउट करत्तीं। औ फेर उते से लौट के अपनी दुकान सम्हारत्तीं। ऐसी बिटिया पे कोऊ बी नाज कर सकत आए। सो, जेई से हम कै रए की सागर की बिटियन खों कभऊं हल्के में ने लइयो। इते आयुषी घांई बिटियां रैत आएं।
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, August 1, 2025

डॉ (सुश्री) शरद सिंह को “स्वर्गीय ठाकुर विश्वनाथ सिंह स्मृति सम्मान”

“स्वर्गीय ठाकुर विश्वनाथ सिंह स्मृति सम्मान” से मुझे सम्मानित किए जाने पर मैं आदरणीय गांधीवादी चिंतक दादा रघु ठाकुर जी तथा तुलसी न्यास की अत्यंत आभारी हूं..🚩🙏🚩
    🚩बिना किसी पूर्व सूचना या पूर्व घोषणा के सम्मानित होने का अपना एक विशेष सुख होता है जो चौंकता भी है ... जब अचानक सम्मान हेतु नाम पुकारा जाता है ... ऐसे पल अनमोल होते हैं... आत्मविश्वास भी पैदा करता है अपने सृजनकर्म के प्रति विद्वतजन के विश्वास की इस प्रकार अनुभूति होने पर…
बस, मन यही कहता है कि "कृतज्ञ हूं!" 🙏

🌹🙏🌹  पूर्व विधायक भाई श्री सुनील जैन जी, दैनिक आचरण की प्रबंध संपादक डॉ निधि जैन जी, श्री आनंद शर्मा जी तथा दादा रघु ठाकुर जी के कर कमलों से सम्मान ग्रहण करना अत्यंत सुखद लगा 🌹😊🌹
 
  🚩 दादा रघु ठाकुर जी तुलसी न्यास के तत्वावधान में प्रतिवर्ष अपने भ्राता स्वर्गीय ठाकुर विश्वनाथ सिंह जी की स्मृति में व्याख्यान का आयोजन करते हैं जिसमें किसी एक विद्वान को व्याख्यान हेतु आमंत्रित किया जाता है। इस वर्ष का विषय था “प्रशासन और सुशासन”। 
   आज होटल क्राउन पैलेस के सभागार में आयोजित व्याख्यान माला के मुख्यवक्ता थे श्री आनंद शर्मा आई.ए.एस (पूर्व आयुक्त), जो पूर्व में सागर संभाग के कमिश्नर भी रह चुके हैं तथा एक अच्छे संस्मरण लेखक हैं। आज उन्होंने अपने अनुभवों को साझा करते हुए सारगर्भित व्याख्यान दिया। कार्यक्रम की अध्यक्षता की दादा रघु ठाकुर जी ने।

   🚩 प्रतिवर्ष होने वाले इस आयोजन की यह विशेषता रहती है कि इसमें नगर के गणमान्य बुद्धिजीवी तो उपस्थित होते ही हैं साथ ही सुदूर ग्रामीण अंचल से भी जागरूक नागरिक सहभागिता करते हैं।
  
   🚩 इस अवसर पर आनंद शर्मा जी ने महाकाल पर लिखी अपनी पुस्तक मुझे भेंट की तथा मैंने उन्हें अपनी बुंदेली ग़ज़लों की पुस्तक “सांची कै रए सुनो, रामधई” भेंट की। साथ ही आदरणीय दादा रघु ठाकुर जी को भी यह पुस्तक मैंने भेंट की।
 
   🚩 आयोजन में भोपाल से पधारी स्नेहिल, आत्मीय स्वभाव की विदुषी कवयित्री एवं लोहिया पुस्तकालय भोपाल की प्रभारी डॉ शिवा श्रीवास्तव जी से सुखद भेंट हुई।
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01.08.2025, 
होटल क्राउन पैलेस सभागार
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