Saturday, September 6, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | गणपति औ दसलक्षणों से जो सीखो, बा याद राखियो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

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टॉपिक एक्सपर्ट
गणपति औ दसलक्षणों से जो सीखो, बा याद राखियो
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

     दस दिनां गणपति जू पधारे रये औ दस दिनां दसलक्षण पर्ब चलत रये। दोई के कारन पूरे सहर में धूम मची रई। खीबईं चैल-पैल रई। अपन ने एंज्वाय बी करो औ भौत कछू सीखो सोई। जैसे के गणपति के पंडाल में सब सबई के लाने खुले रये, चाय बे कोऊ जात धरम के होऐं। सो ऐसई अब गणपति जू के अपने घरे जाबे के बाद हमें हिलमिल के रैने है औ पंडाल घांई अपने सहर खों साफ-सुथरो राखने है। ऐसई दसलक्षणा से हमने सीखो के क्षमा राखो चाइए। विनम्रता औ सरलता से रओ चाइए। सबई संतोष सोई राखो चाइए। सच बोलबे से कभऊं डरो नईं ने जाए, काए से के झूठ बोले से काला कौव्वा काटत आए। तनक सहूरी से रओ, दान धरम करो, फालतू की जोड़ा-जाड़ी ने करो, जेई सब तो दसलक्षण आए। बस, इत्ती सी तो बात आए के जो हम कायदे से रयें, हिलमिल के रयें तो चाए हमाए गणपति जू होंए, चाए हमाए तीर्थंकर होंए हमपे किरपा राखहें। सो कैबे को मतलब जे इए के जे दोई त्योहार निपट गए तो हमें पल्ली ओढ़ के नईं सो जाने, जो खछू इन दोई त्योहारन से सीखो ऊको याद रखने है। ऐसो नईं के उन भैया जू घांई के बे दस दिनां रोजीना रामकथा सुनबे जात रये औ ग्यारमें दिनां कोनऊं ने उनसे पूछी के राम कोन औ सीता कोन? सो कैन लगे के कोनऊं होंए, अब का करने, अब तो कथा बढ़ा गई। सो अपन खों ऐसो नईं करने। काए से के जब बड़े सुदरहें तो बच्चा हरें सुदरे रैहें।
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Friday, September 5, 2025

शून्यकाल | श्री राम के प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ थे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | श्री राम के प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ थे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल | श्री राम के प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ थे
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                 
       यह माना जाता है कि ईश्वर सर्वज्ञता होता है ईश्वर ही नियंता होता है और ईश्वर ही ज्ञान की संरचना करता है किंतु वही ईश्वर जब मनुष्य के रूप में अवतार लेता है तो उसे भी शिक्षक अर्थात गुरु की आवश्यकता होती है। मनुष्य जीवन को सुचारू रूप से निर्धारित करने के लिए तथा कर्तव्यों को भली भांति संपादित करने के लिए जी शिक्षा की आवश्यकता होती है वह एक गुरु ही दे सकता है इसीलिए जब भगवान विष्णु ने श्री राम के रूप में अवतार लिया तो उन्हें भी गुरुओं की आवश्यकता पड़ी उनके प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ।

      कौन थे ऋषि वशिष्ठ जो रामलाल के प्रथम शिक्षक बने ? ऋषि वशिष्ठ वैदिक काल के सबसे प्रसिद्ध राजगुरु थे, भगवान राम के गुरु बने, और योग-वशिष्ठ नामक ग्रंथ में उनके विचारों का संकलन है। उनकी पत्नी अरुंधति थीं और उन्हें आकाश के सप्तर्षि तारामंडल में एक स्थान पर माना जाता है। ऋषि वशिष्ठ महान सप्तऋषियों में से एक हैं। महर्षि वशिष्ठ सातवें और अंतिम ऋषि थे। वे श्री राम के गुरु भी थे और सूर्यवंश के राजपुरोहित भी थे। उन्हें ब्रह्माजी का मानस पुत्र भी कहा जाता है। उनके पास कामधेनु गाय और नंदिनी नाम की बेटी थी। ये दोनों ही मायावी थी। कामधेनु और नंदिनी उन्हें सब कुछ दे सकती थी। महर्षि वशिष्ठ की पत्नी का नाम अरुंधती था।
       ऋषि वशिष्ठ शांति प्रिय, महान और परमज्ञानी थे। ऋषि वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे गुरुकुल की स्थापना की थी. गुरुकुल में हजारों राजकुमार और अन्य सामान्य छात्र गुरु वशिष्ठ से शिक्षा लेते थे। यहाँ पर महर्षि वशिष्ठ और उनकी पत्नी अरुंधती विद्यार्थियों को शिक्षा देते थे। विद्यार्थी गुरुकुल में ही रहते थे। ऋषि वशिष्ठ गुरुकुल के प्रधानाचार्य थे। गुरुकुल में वे शिष्यों को 20 से अधिक कलाओं का ज्ञान देते थे। ऋषि वशिष्ठ के पास पूरे ब्रह्माण्ड और भगवानों से जुड़ा सारा ज्ञान था। वशिष्ठ ब्रह्मा के मानस पुत्र थे । वे त्रिकालदर्शी ऋषि और परम ज्ञानी थे। विश्वामित्र ने उनके 100 पुत्रों का वध कर दिया था, फिर भी उन्होंने विश्वामित्र को क्षमा कर दिया। सूर्यवंशी राजा उनकी अनुमति के बिना कोई भी धार्मिक कार्य नहीं करते थे। त्रेता के अंत में वे ब्रह्मलोक चले गए थे। माना जाता है कि वशिष्ठ आकाश में चमकते सात तारों के समूह में एक पंक्ति में एक स्थान पर स्थित हैं।
महाऋषि वशिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों की विभिन्न कथाओं में अनेक रूपों में मिलता है। कहीं उन्हें ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, कहीं अग्रीय पुत्र, तो कहीं मित्रावरुण का पुत्र कहा गया है। एक अन्य कथा के अनुसार महर्षि वशिष्ठ के दीर्घकालीन अस्तित्व के संदर्भ में पौराणिक साहित्य के विद्वानों का एक मत यह भी है कि ब्रह्मा के पुत्र ऋषि वशिष्ठ के नाम पर उनके वंशजों को भी "वशिष्ठ" कहा जाना चाहिए। इस प्रकार 'वशिष्ठ' केवल एक व्यक्ति न होकर एक पद बन गए और विभिन्न युगों में अनेक प्रसिद्ध वशिष्ठ हुए। वशिष्ठ की दो पत्नियाँ थीं। एक ऋषि कर्दम की पुत्री "अरुंधति" और दूसरी प्रजापति दक्ष की पुत्री "ऊर्जा"।
     आदि वशिष्ठ भगवान शिव के साढू थे, जिन्होंने दक्ष की एक अन्य पुत्री, देवी सती से विवाह किया था। इस आद्य वशिष्ठ के बाद, दूसरे इक्ष्वाकुचंशी राजा त्रिशंक के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ देवराज कहा गया। तीसरे कार्तवीर्य सहस्रबाहु के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अपव कहा गया। चौथे अयोध्या के राजा बाहु के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) कहा गया। सौदास या सुदास (कल्मषपाद) के काल में एक पाँचवें राजा हुए, जिनका नाम वशिष्ठ श्रेष्ठभज था।
       छठे वशिष्ठ राजा दिलीप के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था। इसके बाद सातवें वशिष्ठ भगवान राम के काल में हुए, जिन्हें महर्षि वशिष्ठ कहा जाता था, और आठवें वशिष्ठ महाभारत काल में हुए, जिनके पुत्र का नाम "शक्ति" था। इनके अलावा, वशिष्ठ मैत्रावरुण, वशिष्ठ शक्ति और वशिष्ठ सुवर्चस सहित कुल 12 वशिष्ठों का उल्लेख पुराणों में मिलता है। वशिष्ठ के बारे में संपूर्ण जानकारी वायु, ब्रह्मांड और लिंग पुराण में मिलती है, जबकि वशिष्ठ वंश के ऋषियों और गोत्रकारों के नाम मत्स्य पुराण में दर्ज हैं।
      पौराणिक संदर्भों के अनुसार, ब्रह्मा के आदेश पर ऋषि वशिष्ठ ने सूर्यवंशी राजाओं का पुरोहिताई स्वीकार किया था । वे पहले इससे सहमत नहीं थे और राजाओं के पुरोहिताई को तपस्या के अतिरिक्त एक निन्दनीय कार्य मानते थे। परन्तु ब्रह्मा द्वारा यह बताए जाने पर कि इसी वंश में आगे चलकर श्रीराम अवतार लेंगे, ऋषि वशिष्ठ ने पुरोहिताई स्वीकार कर ली।
     आदि वशिष्ठ भगवान शिव के साढू थे, जिन्होंने दक्ष की एक अन्य पुत्री, देवी सती से विवाह किया था। इस आद्य वशिष्ठ के बाद, दूसरे इक्ष्वाकुचंशी राजा त्रिशंक के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ देवराज कहा गया। तीसरे कार्तवीर्य सहस्रबाहु के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अपव कहा गया। चौथे अयोध्या के राजा बाहु के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) कहा गया। सौदास या सुदास (कल्मषपाद) के काल में एक पाँचवें राजा हुए, जिनका नाम वशिष्ठ श्रेष्ठभज था।
       छठे वशिष्ठ राजा दिलीप के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था। इसके बाद सातवें वशिष्ठ भगवान राम के काल में हुए, जिन्हें महर्षि वशिष्ठ कहा जाता था, और आठवें वशिष्ठ महाभारत काल में हुए, जिनके पुत्र का नाम "शक्ति" था। इनके अलावा, वशिष्ठ मैत्रावरुण, वशिष्ठ शक्ति और वशिष्ठ सुवर्चस सहित कुल 12 वशिष्ठों का उल्लेख पुराणों में मिलता है। वशिष्ठ के बारे में संपूर्ण जानकारी वायु, ब्रह्मांड और लिंग पुराण में मिलती है, जबकि वशिष्ठ वंश के ऋषियों और गोत्रकारों के नाम मत्स्य पुराण में दर्ज हैं।
         वशिष्ठ से किसी निश्चित व्यक्ति को समझना संभव नहीं है, लेकिन एक ऐतिहासिक वशिष्ठ अवश्य थे, जिनका स्पष्ट बोध ऋग्वेद के सातवें मंडल के सूक्त से होता है, जिसमें उन्होंने दस राजाओं के विरुद्ध सुदास की सहायता की थी। इन विलक्षण वशिष्ठ के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक महर्षि विश्वामित्र के साथ उनकी प्रतिद्वंद्विता है। ऋग्वेद में इन दोनों ऋषियों के बीच संघर्ष का विवरण नहीं मिलता, लेकिन वशिष्ठ के पुत्र "शक्ति" और विश्वामित्र के बीच शत्रुता के प्रमाण यहाँ मिलते हैं।
विश्वामित्र ने वाणी में विशेष निपुणता प्राप्त कर सुदास के सेवकों द्वारा "शक्ति" का वध करवाया। इस घटना का संक्षिप्त उल्लेख तैत्तिरीय संहिता में मिलता है। पमविषा ब्राह्मण में वशिष्ठ के पुत्र की मृत्यु और सौदास पर विश्वामित्र की विजय का भी उल्लेख है। वैदिक साहित्य के ऋषि के रूप में वशिष्ठ के अनेक उद्धरण सूत्र, रामायण और महाभारत में मिलते हैं, जिनमें ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र के संघर्ष का वर्णन है।
           किंवदंतियों के अनुसार, जब विश्वामित्र राजा थे, एक बार वे वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे और कामधेनु गाय पाकर प्रसन्न हुए। इसी गाय के लोभ में उनका वशिष्ठ ऋषि से युद्ध हुआ और विश्वामित्र ब्रह्मबल को बाहुबल से अधिक सामर्थ्यवान मानकर तपस्वी बन गए। वैदिक काल का यह संघर्ष रामायण काल ​​में मित्रता में बदल गया। रामकथा में, जब विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के लिए राम और लक्ष्मण को मांगने दशरथ के पास आए, तो वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने पुत्रों को उनके साथ भेज दिया।
 "योग वशिष्ठ" में श्रीराम और ऋषि वशिष्ठ के बीच वह संवाद मिलता है। जिसमें कुछ अनमोल शिक्षाएं हैं। संक्षेप में वे शिक्षाएं इस प्रकार हैं कि जब अहंकार नहीं होता, तो दुःख नहीं होता। इन्द्रियों के धोखे के बारे में पूरी तरह से जानते हुए भी, उनके अनुचर बने रहना मूर्खता है।  जिस प्रकार आंखें होते हुए भी अंधेरे में अपने चरण देखने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है। उसी तरह, अगर आपके पास पर्याप्त ज्ञान भी है, तो भी आपको सही रास्ता देखने के लिए ईश्वर के प्रति समर्पण की आवश्यकता होती है। केवल अज्ञानी ही सोचते हैं कि वे अलग हैं। अभिमान, अहंकार, दुष्टता और कुटिलता का त्याग करना चाहिए। आत्मज्ञान ही वह अग्नि है जो कामना रूपी सूखी घास को जला देती है। इसे ही समाधि कहते हैं, न कि केवल वाणी का त्याग।
       श्री राम और गुरु वशिष्ठ का संवाद यह बताता है कि जीवन को किस तरह से जीना चाहिए। जीवन की आरंभिक अवस्था में श्री राम गुरु वशिष्ठ से शिक्षा प्राप्त करके अपने पूर्ण जीवन को सही दिशा में निर्धारित कर सके। श्री राम ने 12 वर्ष की उम्र तक गुरु वशिष्ट से शिक्षा प्राप्त की थी जिसमें वैदिक शास्त्रों और दर्शन का अध्ययन शामिल था। यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि गुरुकुल प्रणाली आज की शिक्षा प्रणाली से एकदम भिन्न थी। प्राचीन भारतीय गुरुकुल प्रणाली सिर्फ़ अकादमिक शिक्षा के लिए जगह से कहीं ज़्यादा थी - यह जीवन शिक्षा की एक पवित्र, गहन यात्रा थी। सादगी और प्रकृति में निहित, युवा छात्र या शिष्य वे अपने गुरु के साथ, अक्सर शांत वन आश्रमों में, सांसारिक विकर्षणों से दूर रहते थे। शिक्षा की इस अनूठी पद्धति ने गुरु और शिष्य के बीच एक व्यक्तिगत बंधन को बढ़ावा दिया, जहाँ अनुशासित जीवन, अवलोकन और मार्गदर्शन के माध्यम से ज्ञान का संचार किया जाता था।
        वर्तमान स्कूली शिक्षा के विपरीत, गुरुकुल में बौद्धिक विकास के साथ-साथ चरित्र निर्माण, विनम्रता और आध्यात्मिक आधार पर भी जोर दिया जाता था। ब्रह्मचारी, शास्त्रों, दर्शन, मार्शल आर्ट, गणित, संगीत और नैतिकता का अध्ययन किया, साथ ही संयम, सहानुभूति और शक्ति जैसे मूल्यों को अपनाया। यह केवल आजीविका कमाने के बारे में नहीं था - यह एक धार्मिक और संतुलित जीवन जीने के बारे में था। वस्तुतः यह माना जाता है कि ईश्वर सर्वज्ञता होता है ईश्वर ही नियंता होता है और ईश्वर ही ज्ञान की संरचना करता है किंतु वही ईश्वर जब मनुष्य के रूप में अवतार लेता है तो उसे भी शिक्षक अर्थात गुरु की आवश्यकता होती है। मनुष्य जीवन को सुचारू रूप से निर्धारित करने के लिए तथा कर्तव्यों को भली भांति संपादित करने के लिए जी शिक्षा की आवश्यकता होती है वह एक गुरु ही दे सकता है इसीलिए जब भगवान विष्णु ने श्री राम के रूप में अवतार लिया तो उन्हें भी गुरुओं की आवश्यकता पड़ी उनके प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ।    
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Thursday, September 4, 2025

बतकाव बिन्ना की | गणेश जू ने मताई के लाने अपनों मूंड़ कटवा लओ रओ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

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बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
गणेश जू ने मताई के लाने अपनों मूंड़ कटवा लओ रओ
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
     
        ‘‘देख तो बिन्ना, कैसे-कैसे दिन आ गए!’’ भैयाजी बोले।
‘‘काए का हो गओ भैयाजी?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘देख नईं रईं के का मचो आए!’’ भैयाजी बोले।
‘‘का मचो? अच्छो-भलो गणेशजू को उत्सव मन रओ। जगां-जगां झाकियां सजीें। कित्तो नोनो लग रओ। बाकी जा सोच के अब दुख होन लगत आए के चतुरदशी के बाद जा सब नईं रैने।’’ मैंने कई।
‘‘हम झांकियन की बात नईं कर रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘फेर काए की कै रए?’’ मैंने पूछी।
‘‘बा तुमने पढ़ी-सुनी हुइए के अपने परधानमंत्री जू की मताई के लाने कोऊ ने कछू उल्टो-पुल्टो बोल दओ। बा बी ऐसी मताई जो अब सुरग सिधार गईं आएं। कित्ती बुरई बात आए न!’’ भैयाजी बोले।
‘‘सई कै रए भैयाजी, भौतई बुरी आए जा बात। मताई कोऊ की होए, ऊके बारे में बुरौ नईं बोलो जाओ चाइए। 
‘‘अरे बिन्ना! तनक सोचो के जे गणेशजू के दिन चल रए औ ऐसे टेम पे मताई के लाने बुरौ बोलो गओ। जब के खुद गणेशजू ने अपनी मताई के लाने अपनो मूंड़ कटा डारो हतो।’’ भौजी बोल परीं।
‘‘का कैबो चा रईं तुम?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हम जे कै रए के तुमें बा किसां तो याद हुइए के पार्वती मैया जू खों नहाबे के लाने गुसलखाने में जाने रओ। उते कोऊ हतो ने, के जोन खों कैतीं के कोनऊं खों भीतरे ने आन दइयो। सो अब का करो जाए? जा सोचत-सोचत बे हल्दी, चंदन औ दूद को उबटन लगान लगीं। उबटन छुड़ाबे में जो मसाला निकरो सो ऊसे उन्ने एक पुतरा बना दओ। पुतरा देख के उने सूझी के जो ई पुतरा में जान डार दई जाए तो जेई इते पहरेदारी कर लैहे। सो उन्ने ऊ पुतरा में जान डार दई। जैसेई पुतरा में जान परी सो बा पुतरा बोल उठो के मताई पाय लागूं! हमाए लाने का हुकुम आए, बोलो। जा सुन के पार्वती बोलीं के तुमाओ काम तो हम बतेहे ही, मनो पैले जे बताओ के तुमने हमें मताई काए बुलाओ। सो बा पुतरा कैन लगो के आपने हमें बनाओ, हममें प्रान डारे, सो आप हमाई जननी भईं, मताई भईं! सो, अब हम मताई खों मताई ने कएं तो का कएं? जा सुन के पार्वती मैया इत्ती खुस भईं के उन्ने बा पुतरा बालक खों अपने गले से लगा लओ। औ बोलीं के बेटा तुम सई कै रए, तुम हमाए बेटा आओ। आज से तुमें गणेश के नांव से जानो जैहे। जा सुन के गणेशजू बोले के अम्मा बताओ के मोए का करने है? सो, पार्वती जू ने गणेश से कई के काम इत्तो सो आए के हम जा रए नहाबे के लाने, सो तुम इते दरवाजा पे ठाढ़े हो जाओ औ कोनऊं खों महल में पिड़न ने दइयो। चाए कोऊ होए। जा सुन के गणेश जू ने कई हऔ! सो, पार्वती मैया चली गईं नहाबे के लाने औ गणेश जू पहरा देन लगे।
कछू देर में महादेव जू आ टपके। बे महल में भीतरे पिड़न लगे सो गणेश जू ने उने रोको। महादेव जू ने पूछो के तुम को आ? तो गणेश जू ने बता दओ के हम पार्वती मैया के पूत आएं। हमाई मताई ने कई आए के कोऊ खों हम भीतरे पिड़न ने दें, सो आप भीतरे नईं जा सकत। जा सुन के महादेव जू पैले तो सोच में पर गए के जो जे पार्वती को मोड़ा आए, मनो हमाओ मोड़ा कहानो, औ हमें पतो नईं के जो हमाओ मोड़ा ठैरो? जो का मजाक आए? जो कोऊ बदमास हुइए। ऐसी उन्ने सोची औ बोले के तुम हमें जानत नइयां, जे हमाओ महल आए औ जोन खों तुम अपनी मताई कै रए बा हमाई लुगाई आए। ईपे गणेश जू बोले के चलो हमने मान लओ के तुम हमाए बापराम आओ, मगर हमाई मताई ने कई आए के चाए कोऊ आए ऊको भीतरे पिड़न ने दइयो। सो हम तो आपखों भीतरे ने पिड़न दैहें। 
जा सुन के महादेव जू खों भौतई गुस्सा आओ औ उन्ने गुस्सा में आ के कओ के ज्यादा मों ने चलाओ। फालतू की पकर-पकर करी तो हम तुमाओ मूंड़ काट दैहें। जा सुन के गणेश जू सोई ताव खात भए बोले के सो काट देओ न मूंड़। जे धमकियन से हम डरात नइयां। हम तो बेई करहें जो हमाई मताई ने हमसे कई आए। फेर का हती महादेव जू ने फरसा चलाओ औ गणेश जू को मूंड़ काट दओ। उनको मूंड़ को जाने कां फिका गओ। धड़ उतई छटपटात सो डरो रओ। इत्ते में पार्वती मैया सपर-खोेर के बायरे आईं। उन्ने देखी के महादेव जू खून से सनो फरसा ले के ठाड़े औ गणेश जू को धड़ उते डरो, पर मूंड़ नदारत आए। जा देख के मैया चिल्या परीं। बे महादेव जू से बोलीं के जा तुमने का करी? अपने मोड़ा को मूंड़ काट दओ? हमाओ इत्तो नोनो मोड़ा। हाय! फेर उन्ने महादेव जू खों गणेश जू के पैदा होबे की किसां सुनाई औ बोलीं के अब तुम अभईं के अभईं ईको फेर के जिन्दा करो ने तो हम अपने प्रान त्याग देबी। जा सुन के महादेव जू घबड़ा गए। उन्ने गणेश जू को मूंड़ ढूंढो के ऊको फेर के जोड़ो जा सके, लेकन मूंड़ ने मिलो तब उन्ने तुरतईं मरे हाथी के बच्चा को मूंड़ काट लओ औ ऊको गणेशजू के धड़ से जोड़ के मंतर पढ़ो। गणेश जू फेर के जी उठे। बाकी अब उनको मूंड़ सूंड़ वारे हाथी को हतो। गणेश जू ने महादेव जू खों परनाम करो और बोले के अब के आपने हमें प्रान दए सो आप हमाए पिता भए। जा सुन के महादेव जू बड़े खुस भए। पार्वती मैया ने तो गणेश जू खों अपने सीने से लगा लओ। काए से के मोड़ा-मोड़ी दिखात में कैसे बी होंए, मताई के लाने सबईं प्यारे होत आएं। पार्वती मैया बोलीं के तुमें हमाओ सबसे प्यारो बेटा मानो जैहे औ तुमाओ नांव सबरे देवताओं से पैले लओ जैहे।
अब तुमई ओरें बताओ के जोन गणेश जू ने अपनी मताई को मान राखबे के लाने अपनो मूंड़ कटा दओ, उनई के रैत भए एक मताई खों बुरौ-बुरौ कओ गओ, जा कित्ती बुरी बात आए।’’ भौजी ने गणेशजू की पूरी किसां सुना के कई।
‘‘जे आजकाल की राजनीति में जो ने होए सो कम आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो ऐसी-कैसी राजनीति? का ई के पैले राजनीति ने हती? के जो आज ई टाईप से बाप-मताई की एक कर के ईको राजनीति कै रए?’’ भौजी बमकत भईं बोलीं।
‘‘सई कै रईं। जेई तो हम बिन्ना से कै रए हते के देखों कोन टाईप को गिलावो मचो आए, सबई एक-दूसरे पे गिलावो उछारत-उछारत बाप-मताई लौं पौच गए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बाकी भैयाजी, जित्ती बुरई बतकाव आजकाल राजनीति में चल रई, उत्ती पैले कभऊं नईं रई। हमाई अम्मा बताऊत तीं के बाबू जगजीवन राम औ इंदिरा जू के बीच बरहमेस घमासान छिड़ी रैत्ती, मनो दोई ने एक-दूसरे के लाने कभऊं कोनऊं ऐसी भद्दी बातें ने कईं। ई के कछू बाद की राजनीति तो हमने खुदई देखी, पर अब तो राजनीति को राजनीति कहबे में सरम आऊत आए। जे राजनीति नोंईं कुंजड़याऊ से बी गओ बीतो आए।’’ मैंने कई।   
फेर हम तीनों जने कुल्ल देर जेई सब पे अपनो खून जलाऊत रए।       
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के तनक सो राजनीतिक फायदा के लाने कोऊ के मताई-बाप पे गिलाबो उछारबो अपराध आए के नईं?  
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Wednesday, September 3, 2025

चर्चा प्लस | राजनीति को इतना भी न गिराएं कि मां अपमानित हो | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

दैनिक, सागर दिनकर में 03.09.2025 को प्रकाशित  
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चर्चा प्लस 
राजनीति को इतना भी न गिराएं कि मां अपमानित हो
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  
                                                             
     हर प्राणी अपनी मां की कोख से ही जन्म लेता है। पिता की पहचान पर एक बार संशय हो सकता है किन्तु मां की पहचान सुनिश्चित रहती है। फिर हम एक मातृदेश के नागरिक हैं। हमारी सभ्यता एवं संस्कृति इस बात की कभी अनुमति नहीं देती है कि मां का अपमान किया जाए। पुत्र प्रेम में स्वार्थी बनी मां कैकयी को भी श्रीराम ने मान दिया था तथा राजसत्ता के अवसर को त्याग कर उनकी इच्छानुसार चौदह वर्ष के वनवास में चले गए थे। महाभारत काल में कर्ण ने मां कुंती के अपराध को जानते हुए भी उनके पांच पुत्रों के जीवन का वचन दिया था। अब इतनी गिरावट क्यों आती जा रही है कि राजनीति के मैदान में एक मां को अपशब्द कहे जा रहे हैं?  
नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः। 
नास्ति मातृसमं त्राणं, नास्ति मातृसमा प्रपा।। 
अर्थात मां के समान कोई छाया नहीं, मां के समान कोई आश्रय नहीं, मां के समान कोई रक्षा नहीं और मां के समान कोई जीवन देने वाला नहीं है। 
ऐसी मां के प्रति राजनीतिक लाभ के लिए अपशब्द बोला जाना हमारे सांस्कृतिक पतन का परिचायक है। प्रश्न यह नहीं है कि किस पक्ष ने किस पक्ष को निशाना बनाया, प्रश्न यह है कि एक बेटे ने एक मां को अपशब्द कहने का साहस कैसे किया? मां सबकी एक समान होती है। वह अपनी संतान के प्रति अपना सर्वस्व निछावर कर देती है। नौ माह गर्भ में पालित-पोषित करने के उपरांत अपने प्राणों को दांव पर लगा कर शिशु को जन्म देती है। रात-रात भर जाग कर शिशु का पालन करती है। शिशु की गंदगी भी प्रसन्नतापूर्वक साफ करती है। वह अपनी संतान को अच्छे संस्कार देती है। हर मां यही करती है, चाहे मित्र की मां हो या शत्रु की मां। इसीलिए मां के प्रति अपशब्द कहे जाने का अधिकार किसी को नहीं है। किन्तु कहीं न कहीं जाने अनजाने राजनीतिक स्वार्थ को उस सीमा तक पहुंचा दिया है जहां सभ्यवर्ग और मां-बहन की गाली देने वाले ‘टपोरी’ वर्ग में अंतर मिटता जा रहा है। 

‘‘माता गुरुतरा भूमेः।’’ 
- अर्थात माता इस पृथ्वी से भी कहीं अधिक भारी और श्रेष्ठ होती है।
ऐसी मां के प्रति हल्के शब्द कैसे कहे जा सकते हैं? लेकिन समाज का एक बड़ा तबका अपनी दादागिरी जताने के लिए मां-बहन की गाली देता है। ऐसी गालियां जिन्हें सुन कर कान के पर्दे झनझना जाते हैं लेकिन अनेक औरतें प्रति दिन अपने शराबी पतियों के हाथों पिटती हुईं मां-बहन की गालियां सुनती हैं। उनके बच्चे भी अपने पिता का अनुकरण करते हुए उन गालियों को कंठस्थ कर लेते हैं, दोहराते हैं जबकि उन्हें उन गालियों का अर्थ भी पता नहीं होता है। हम अपने समाज से उन गालियों को तो नहीं मिटा पाए हैं लेकिन उन गालियों के एक नए संस्करण को विस्तार दे दिया जो राजनीतिक हलके में कुछ समय पहले से चलन में आ चुका है। जब कोई बुराई चलन में शामिल होती है तो उसे और अधिक विकृत होते देर नहीं लगती है। इसका उदाहरण प्रधानमंत्री की दिवंगत मां के लिए कहे गए अपशब्द के रूप में सामने आया है। यह आपत्तिजनक है। इसलिए नहीं कि यह प्रधानमंत्री की मां के लिए कहे गए अपितु इसलिए कि एक मां के लिए कहे गए। मां चाहे किसी की भी हो, वह जीवित हो या दिवंगत, उसका सम्मान यथावत एवं यथोचित ही रहना चाहिए। 

हम उस देश के नागरिक हैं जिसे मातृदेश कहा जाता है। अतः जब एक मां को गाली दी जाती है तो वह देश को भी गाली देने के समान है। मां किसकी है यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि जिसे अपशब्द कहे गए वह एक मां (दिवंगत ही सही) है। यूं भी माना जाता है कि मां कभी मरती नहीं है। वह दैहिक रूप से भले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए किन्तु उसका अंश रक्त और मज्जा के रूप में उसकी संतानों में सदैव रहता है। उसका आशीष सदा संतानों के सिर पर रहता है। फिर हम तो उस देश के नागरिक हैं जहां श्रीराम जैसे पुत्र हुए। माता कैकयी ने अपने पुत्र भरत को लाभ पहुंचाने के स्वार्थ में पड़ कर राजा दशरथ के द्वारा श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास दिला दिया। श्रीराम चाहते तो सबसे बड़े पुत्र होने के नाते राजगद्दी पर अपने अधिकार का दावा करते हुए वनवास में जाने से मना कर सकते थे। किन्तु उन्होंने पिता के वचन और सौतेली माता की इच्छा को शिरोधार्य माना और चौदह वर्ष के वनवास पर सहर्ष चले गए।
स्त्री की अवमानना का सबसे धृणित उदाहरण जिस महाभारतकाल में मिलता है, भरी सभा में द्रौपदी के चीरहरण के रूप में, उस काल में भी माता का अपमान नहीं किया गया। माता कुंती की आज्ञा मानते हुए द्रौपदी ने पांच भाइयों की पत्नी बनना स्वीकार किया। वही कुंती माता जब अपने त्यागे गए पुत्र कर्ण के पास अर्जुन के प्राणों की भिक्षा मांगने पहुंचती हैं तो कर्ण सब कुछ जाने हुए भी कि मां के एक कमजोर निर्णय ने उसे आजीवन सूतपुत्र बन कर जीने को विवश किया, मां को निराश नहीं करता है। वह यही कहता है कि मां आपके पांच पुत्र जीवित रहेंगे, यह मैं आपको वचन देता हूंै।’’ वह जानता था कि उसके और अर्जुन के बीच युद्ध अवश्यमभावी है अतः उसमें और अर्जुन दोनों में से जो जीवित रहेगा वह मां के पांच पुत्रों की संख्या को बनाए रखेगा। कर्ण ने भी माता कुंती को अपशब्द नहीं कहा था।  
  
28 अगस्त, 2025 को भाजपा ने बिहार में विपक्षी दलों की ‘‘वोटर अधिकार यात्रा’’ को लेकर को निशाना साधते हुए उनपर गंभीर आरोप लगाए। पार्टी ने दावा किया कि बिहार चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी स्वर्गीया मां हीराबेन मोदी के खिलाफ बेहद अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया गया। कार्यक्रम में कांग्रेस नेता राहुल गांधी और आरजेडी प्रमुख तेजस्वी यादव के पोस्टर लगे थे। भाजपा ने सोशल मीडिया ‘‘एक्स’’ पर पोस्ट करते हुए विपक्षी नेताओं पर राजनीति में निम्न स्तर पर गिरने का आरोप लगाया। भाजपा ने कहा, राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की यात्रा के मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वर्गीय मां के लिए बेहद अभद्र भाषा का प्रयोग किया गया। भाजपा ने यह भी कहा कि राजनीति में ऐसी अभद्रता पहले कभी नहीं देखी गई। यह यात्रा अपमान, घृणा और स्तरहीनता की सारी हदें पार कर चुकी है।
भाजपा ने ‘‘एक्स’’ में पोस्ट में आगे लिखा, ‘‘तेजस्वी और राहुल ने पहले बिहार के लोगों का अपमान करने वाले स्टालिन और रेवंत रेड्डी जैसे नेताओं को अपनी यात्रा में बुलाकर बिहारवासियों को अपमानित कराया। अब उनकी हताशा की स्थिति यह है कि वे प्रधानमंत्री मोदी की स्वर्गीय मां को गाली दिलवा रहे हैं।’’
यह विवाद तब शुरू हुआ, जब कांग्रेस के एक स्थानीय नेता नौशाद के नेतृत्व में कांग्रेस और आरजेडी कार्यकर्ताओं ने पीएम मोदी के खिलाफ अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया और पार्टी के झंडे लहराए। हालांकि कांग्रेस ने वीडियो और अभद्र भाषा के आरोपों से खुद को अलग कर लिया था। किन्तु भाजपा नेता सैयद शाहनवाज हुसैन ने कहा, ‘‘राहुल गांधी की यात्रा विफल हो रही है, इसलिए इसके लिए उन्होंने कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों को फोन करना शुरू कर दिया है। तेलंगाना के सीएम रेवंत रेड्डी और तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन ने बिहारियों को गाली दी थी तो उन्हें फोन करके वह बिहार के लोगों को क्या संदेश देना चाहते हैं?’’
इसके बाद एक कदम और आगे बढ़ कर प्रधानमंत्री की दिवंगत मां को अपशब्द कहे गए। इस घटना ने सभी को विचलित कर दिया है। यदि चुनाव विशेषज्ञों का मानें तो इस घटना का चुनाव के परिणामों पर सीधा असर पड़ेगा। इससे उपजी सहानुभूति की लहर विपक्ष को डुबो सकती है। 
इस घटना पर सभी नैतिक मूल्यों की दुहाई दे रहे हैं लेकिन यह भूलने की बात नहीं है कि इसकी शुरुआत पिछले कुछ वर्षों में हो चुकी है। मां चाहे देशी हो या विदेशी, उसकी संतान चाहे योग्य हो या अयोग्य, उसके प्रति भी निरादर का भाव नहीं होना चाहिए। जोकि पिछले कुछ वर्षों में बार-बार छलक कर बाहर आया है। यह सच है कि पलटवार में सीमाएं लांघी गई हैं और किसी भी मां के मातृत्व पर अपशब्द नहीं कहे जाने चाहिए। पुलिस सक्रिय है। जांच जारी है। जांच में परिणाम जो भी सामने आए किन्तु यह तो तय करना ही होगा कि राजनीतिक लाभ की बिसात पर मां की गरिमा को दांव पर नहीं लगाया जाना चाहिए। इस प्रकार के आचरण से कोई एक प्रदेश मात्र नहीं, वरन पूरा देश, पूरा समाज एवं पूरी संस्कृति लांछित होती है। जब एक प्रधानमंत्री की दिवंगत मां को सार्वजनिक स्थान पर अपशब्द कहा जा सकता है तो आम नागरिक की मां की प्रतिष्ठा को कहां तक सुरक्षित माना जाए? राजनीति की ओर से ऐसी मिसालें स्थापित किया जाना सर्वथा अनुचित है। भारतीय राजनीति से इस प्रकार के आचरण को विलोपित किए जाने पर गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है।
यह स्मरण रखना आवश्यक है कि -
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत।
 - अर्थात माता का स्थान सभी तीर्थों से भी ऊपर होता है और पिता का स्थान सभी देवताओं के भी ऊपर होता है इसीलिए हर मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता का सदा सम्मान करे। 
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Tuesday, September 2, 2025

पुस्तक समीक्षा | गोपी गीता : उद्धव प्रसंग पर भक्तिरस का सुंदर प्रवाह | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


 'आचरण' में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा 


पुस्तक समीक्षा
गोपी गीता : उद्धव प्रसंग पर भक्तिरस का सुंदर प्रवाह
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - गोपी गीता
कवि        - डाॅ. अवध किशोर जड़िया
प्रकाशक     - शशिभूषण जड़िया, विनायक जड़िया, हरपालपुर, छतरपुर, म.प्र.- 471111
मूल्य        - 80/
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     कृष्ण कथा के सबसे महत्वपूर्ण प्रसंगों में से एक है उद्धव प्रसंग। कृष्ण गोपियों को छोड़ कर जा चुके हैं किन्तु उन्हें गोपियों की विरह वेदना का अहसास है। कृष्ण अपने मित्र उद्धव से कहते हैं कि आप जाइए और गोपियों को समझाइए। उद्धव को पहलेे यह बात विचित्र लगती है। वे सोचते हैं कि यह वियोग का दुख कोई स्थाई दुख नहीं है, कुछ दिन में ही गोपियां कृष्ण को भूल कर अपने जीवन में व्यवस्थित हो जाएंगी। किन्तु कृष्ण के निवेदन करने पर वे गोपियों से मिलने जाने को तैयार हो जाते हैं। गोपियों से मिलने के बाद ही उन्हें प्रेम के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो पाता है। इस प्रसंग का स्मरण करते ही सबसे पहले कवि सूरदास की ये पंक्तियां याद आ जाती हैं जिनमें गोपियां उद्धव से कहती हैं कि -
ऊधौ मन ना भये दस-बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस।।
अर्थात हे उद्धव तुम्हारी ज्ञान की बातें सुनने और मानने के लिए अब हमारे पास दूसरा मन नहीं है, एक मन था जो श्याम के साथ चला गया है। अब दूसरे ईश्वर को मानने के लिए दूसरा मन कहां से लाएं?
इसी उद्धव प्रसंग को बुंदेलखंड के पद्मश्री सम्मानित कवि डाॅ. अवधकिशोेर जड़िया ने ‘‘गोपी गीता’’ के नाम से पुस्तक के रूप में अपनी शैली में लिखा है। कुल 112 पृष्ठ की यह पुस्तक वस्तुतः एक खंडकाव्य है जिसमें उद्धव प्रसंग को वर्णित किया गया है। कवि ने से ‘‘ऊधव शतक’’ कहा है। इस खंडकाव्य के आरंभिक पन्नों में सर्वप्रथम डॉ. सुरेश पराग द्वारा इस पुस्तक के कलेवर के संबंध में विस्तृत विचार हैं। वे ‘‘गोपी गीता: पढ़ने से पहले’’ शीर्षक के अंतर्गत लिखते हैं कि -‘‘गोपी गीता में गोपियाँ अपनी धुन से अपने उपास्य में ब्रह्मानंद प्राप्त करती है तो ऊधव भी अपनी योग साधना के द्वारा उसी ब्रह्मानंद में अवस्थित रहते हैं. दोनों ही परिस्थितियाँ सच्ची लगन के चलते सिद्ध और सत्य है, किन्तु जब दोनों एक दूसरे के साधनों का परीक्षण करना चाहते हैं, तब विसंगति की स्थिति निर्मित हो जाती है।’’ डाॅ. सुरेश पराग चाहते हैं कि इस संग्रह के पदों को पढ़ने से पूर्व पाठक भारतीय वांग्मय में षट्दर्शन को समझें और फिर डाॅ. जड़िया लिखित पदों का आनन्द लें।
आशीष वचन के रूप में हरपालपुर के मनीषी शिवरतन दिहुलिया ‘शारदेय’ ने ‘‘‘किशोर’ कवि की काव्य कला के प्रति हृदयोद्गार’’ को कुछ इन शब्दों में प्रकट किया है-‘‘दिव्य नव्य भाव भव्य झंकृत अलंकृत हैं, /छन्द ज्यों गयन्द मत्त गति में मरोर के, /श्लेष अनुप्रास रस सरस विलास युत यमक चमक चंचला के चित्तचोर के,/गूढ़ता गढ़े हैं मणिजड़िया जड़े हैं नग शारदा श्रृंगार अंग अंग पोर पोर के,/ वित्त से विशाल नित्य नूतन अमल शुचि चित्त हर कवित्त हैं, अवध किशोर के।’’
पी.डी. मिश्र, अपर पंजीयक सहकारिता ने ‘‘गोपी-गीता’’ को ‘‘विश्व कोष का नया संस्करण’’ कहा है। वे लिखते हैं कि-‘‘डॉ. जड़िया ‘सरस’ के एक सौ ग्यारह छंदों की नव गोपी-गीता पढ़ने से पहले यही प्रश्न उठेगा कि सूर और रत्नाकर के शिखरों का आज की जोड़-तोड़ वाली भाषा का भला कोई कवि तोड़ कर सकता है। अर्थात् ऐसी सारी चेष्टाओं वाले कवि के प्रति यही धारणा स्वभावतः बनेगी कि ‘चहतवारि पर भीत उठावा।’ किन्तु इसे पढ़कर कवि के साहस और क्षमता की दाद दिए बिना कोई रह ही नहीं सकता।’’
जहां तक स्वयं कवि अवधकिशोर जड़िया का प्रश्न है तो उन्होंनेे ‘‘गोपी गीता’’ के जन्म के संबंध में रोचक प्रसंग उद्धृत किया है। वे अपने प्राक्कथन में लिखते हैं-‘‘गोपी गीता (ऊघव शतक) की रचना उस समय हुई जब मुझे मंचीय कवि सम्मेलनों में जाते-जाते लगभग सात-आठ वर्ष हो चुके थे, मंचों पर यह मेरा उल्लेखनीय कालखण्ड भी था। उसी दौरान दिल्ली की कवयित्री सुश्री नूतन कपूर जी दो-चार ऊधव के छंद पढ़ा करती थीं, काफी उत्कृष्ट छंद हुआ करते थे, परन्तु मेरी बुंदेली संस्कृति के अन्तर्मन ने उन छंदों में भाषा के स्तर पर असुविधा महसूस की और अतिरिक्त शब्द शालीनता की अपेक्षा कर ली, फलतः प्रतिस्पर्धा में उन दिनों मैंने भी दो चार ऊघव प्रसंग के छंद घनाक्षरी में ही लिखे, समय चलता रहा और फिर अन्य परिप्रेक्ष्यों को छोड़ते हुए मैंने स्वतंत्र रूप से ऊधव प्रसंग का प्रयास किया।’’ वे आगे लिखते हैं कि ‘‘मैं पूर्व से ही महाकवि पं. जगन्नाथ प्रसाद ‘रत्नाकर’ के ऊघव शतक से काफी प्रभावित रहा, उनके यमक, श्लेष और रूपकों की चमत्कार चारुता मुझे प्रायः आनंदित करती रहती थी, इस हेतु अब मैंने इन छंदों की रचना प्रक्रिया के मध्य यह भी प्रयास किया कि महाकवि के अनुचर के रूप में रहूं और यह भी सावधानी रखी कि उनका कोई भी यमकीय या श्लेषीय शब्द मेरे द्वारा पुनरावृत न हो जावें।’’
डाॅ. अवध किशोर जड़िया अपने इस उद्देश्य में सफल रहे हैं कि रत्नाकर अथवा सूरदास के उद्धव प्रसंग से इतर उद्धव प्रसंग लिखा जाए। कवि ने इस प्रसंग को प्रभु वंदना से आरंभ किया है-
सिद्ध मुनि सेवि देवि दीजिए अमृत बुंद,
सुत पै पसीजिएगा और लीजिए सरण।
करण गुहार गहि, करन सँवारौ काव्य,
बरन बरन छवि-धारि प्रगटै बरण।
ऐसे मनहरण समस्त दुःख के हरण,
करन अनंत सुख चारु कंज से चरण।
राधा मातु-मंगला से विनती यही है बस,
मंगलाचरण हेतु धरें मंगला चरण।
इस मंगलाचरण के बाद कवि मूल प्रसंग पर आए हैं। यह प्रसंग वहां से आरम्भ होता है जब श्रीकृष्ण अपने सखा उद्धव से निवेदन करते हैं कि वे जा कर गोपियों को समझाएं। तब प्रेम के वास्तविक मर्म को न जानने वाले उद्धव कृष्ण को समझाने लगते हैं कि आप पुरानी बातें भूल कर राजधर्म पर ध्यान दीजिए। आप सुविज्ञ हैं अतः आपको इस प्रकार गोपियों की चिंता करना शोभा नहीं देता है-
ए हो मित्र कृष्ण, आप मथुरा अधीश बने
शोभा नहीं देता अब गोपियों का रंग-संग।
राजोचित सकल कलाप आप कीजिएगा,
मन से निकाल दीजिए अतीत के प्रसंग।
किन्तु श्रीकृष्ण हठ करते हैं कि उनके निवेदन का मान रखते हुए कम से कम एक बार उन्हें गोपियों के पास जाना चाहिए और उन्हें मेरा संदेश देते हुए अपनी ओर से समझाना चाहिए। अंततः उद्धव श्रीकृष्ण का निवेदन मान लेेते हैं और ब्रज के लिए चल पड़ते हैं। कवि ने ‘‘ऊधव प्रस्थान’’ प्रसंग के अंतर्गत लिखा है-
पीत, रक्त रंग के वितान फैलने लगे हैं,
व्योम में, विराम करने को रवि जा रहे।
केश बिखराने लगी साँवली सलौनी साँझ
गोकुल के जीव लौटि गोकुल को आरहे।
उद्धव ब्रज पहुंचते हैं तथा सभी गोपियों से मिलने की अभिलाषा प्रकट करते हैं। इस पर गोपियां भी आपस में कानाफूसी करती हैं कि ये कौन हैं? क्यों आए है? कह तो रहे हैं कि इन्हें हमारी कुशलक्षेम जानने के लिए कृष्ण ने भेजा है। यह कैसा मजाक है? क्या सूर्य के बिना प्रभात हो सकता है जो हम कृष्ण के बिना कुशल होंगी?  ‘‘गोपियों की अंतरंग वार्ता’’ के रूप में कवि डाॅ. जड़िया ने लिखा है-
पाती एक ल्याये औ प्रबोधन को आये,
कारे कृष्ण के पठाये या में दीखत है घात जू।
हो गई है रात जू, बनै न कछू कात जू,
परै पतौ न बात जू, बिना भये प्रभात जू।
तभी उद्धव गोपियों से कहते हैं कि क्े कृष्ण का पत्र लाए हैं उन लोगों के लिए-
कृष्ण का संदेश पढ़ लीजिएगा आप सब,
राजनी पूरी गहराई से लगा के मन सखियो ।
उद्धव पत्र भी सौंपते हैं और गोपियों को ज्ञानमार्ग की शिक्षा भी देते हैं। इस पर गोपियां कहती हैं-
प्रेम की प्रपुष्ट इष्ट-पूर्ण तृप्तियों से पूर्ण,
कैसे आपका गरिष्ट ज्ञान ये पचायें हम।
चारों ओर वरण किया सनेह आवरण
कैसे अपने को महामोद से लचायें हम ।
संग्रह में पूरा विवरण है कृष्ण और उद्धव तथा गोपियों और उद्धव के संवाद का। अंत में कवि ने उस प्रभाव का भी वर्णन किया है जिसमें प्रेममार्ग ज्ञानमार्ग पर भारी पड़ता है-
नेह के नगर को प्रणाम् प्रगटाने लगे,
खुद ऊधौ प्रेम के तराने गाने लगे हैं।
कवि अवध किशोर जड़िया ने भाषा के स्तर को सहज, सरल एवं बोधगम्य रखा है। श्लेष और यमक अलंकारों का बहुतायत प्रयोग है। उपमा, रूपक, वक्रोक्ति, व्यंग्योक्ति, संदेह, विरोधाभास तथा अनुप्रासालंकार में वृत्त, छेका, लाटानुप्रास का भी प्रयोग किया गया है। साथ ही, हिन्दी के साथ उर्दू, फारसी, बुंदेली और ब्रजभाषा के शब्दों का भी उपयोग किया है। शब्दालंकार एवं अर्थालंकार का प्रयोग करते हुए कवि ने पदों की गेयता को साधा है। डाॅ जड़िया का यह खंड काव्य आधुनिक भाषा-विन्यास में उद्धव प्रसंग की एक सुंदर एवं भक्तिमय प्रस्तुति है जो लगभग सभी पाठकों के लिए रुचिकर है।
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(02.09.2025 )
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Sunday, August 31, 2025

डॉ (सुश्री) शरद सिंह "कस्बाई साइमन" उपन्यास कन्नड़ पत्रिका "सुधा" में धारावाहिक - 6


कन्नड़ की लोकप्रिय, प्रतिष्ठित एवं बहुप्रसारित साप्ताहिक पत्रिका "सुधा" में धारावाहिक प्रकाशित हो रहे मेरे उपन्यास "कस्बाई सिमोन" की आज प्रकाशित 6 वीं कड़ी प्रस्तुत है.
Hearty Thanks "Sudha" Kannada Magazine  🚩🙏🚩
आभार विद्वान अनुवादक डी.एन. श्रीनाथ जी 🌹🙏🌹

Presenting the 6th episode of my novel "Kasbai Simon" published today, which is being serialized in the popular, reputed and widely circulated Kannada weekly magazine "Sudha".

Hearty Thanks "Sudha" Kannada Magazine 🚩🙏🚩
Thanks to the learned translator D.N. Srinath ji 🌹🙏🌹


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Saturday, August 30, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | इते ने गड्ढा से बचो जा सकत, ने खम्बा से | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम



टॉपिक एक्सपर्ट
इते ने गड्ढा से बचो जा सकत, ने खम्बा से
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
(पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में)
 
गणपति पधार चुके हैं, सो फेस्टिवल को माहौल चल रओ आए। सो, ऐसे में तनक चुटकुला-मुटकुला याद करो जा सकत है। सो, हम बा चुटकुला सुना रए जोन को अनुभव आजकाल सबई जने कर रए। चलो, आप ओरें सोई सुनो जा चुटकुला। कि भओ का के एक रए बब्बा जू। उनें हार्ट अटैक आओ औ बे ढरक गए। उनके मोड़ा हरें जा सोच के खुस भए के अब उने जायदाद मिल जाहे। बे बब्बा की ठठरी ले के निकरे। संगे ‘राम नाम सत्त’ बोलत जा रए ते। इत्ते में पड़ो एक गड्ढा। मोड़ा हरें रपटे सो ठठरी गिर परी। बब्बा को लगो झटका औ बे उठ बैठे। मोड़ा हरें दुखी हो के उने घरे लौटा लाए। समै देखो के चार दिनां बाद बब्बा फेर के ढरक गए। मोड़ा हरें फेर के उनकी ठठरी ले के निकरे। रोड पे गड़ो तो बिजली को खम्बा जोन की शिफ्टिंग ने करी गई ती। ई दार बे ओरें खम्बा से भिड़ गए। फेर के बब्बा को झटका लगो औ बे फेर के जी उठे। मोड़ा हरें फेर उने घरे ले आए। 
कछू दिनां में बब्बा फेर ढरक गए। अबकी जो मोड़ा हरें उनकी ठठरी ले के निकरे तो ई दार बे ‘राम नाम सत्त’ की जांगा बोलत जा रए ते “गड्ढा, खम्बा बचा के!”  काए से के मोड़ा हरें ने चाउत्ते के बब्बा खों फेर के घरे ले जाने परे। अब बे ओरें कां लौं बचा पाए जे तो बेई जानें।  बाकी अपन ओरें तो ने गड्ढा से बच पा रये, ने खम्बा से बच पा रये। अब परसासन कछू कर सके तो करे, ने तो गड्ढा, खम्बा सो भाग में लिखोई आए।
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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पत्रिका पुलिस अवार्ड 2025 सागर में डॉ. (सुश्री) शरद सिंह का काव्यपाठ, 29.08.2025


कल 29.08.2025 को "राजस्थान पत्रिका" के सागर संस्करण "पत्रिका" द्वारा विश्वविद्यालय के अभिमंच सभागार में " पत्रिका पुलिस अवार्ड 2025 का आयोजन किया गया जिसमें मुख्य अतिथि थे विधानसभा अध्यक्ष श्री नरेंद्र सिंह तोमर। इस गरिमामय आयोजन में सागर संभाग के विशिष्ट कार्य करने वाले पुलिस कर्मियों को सम्मानित किया गया। इस अवसर पर मैं भी अपनी एक कविता प्रस्तुत की जो कर्मनिष्ठ पुलिस कर्मियों को समर्पित है।
       मुझे इस कार्यक्रम में आमंत्रित करने तथा काव्य पाठ का अवसर प्रदान करने के लिए मैं पत्रिका परिवार तथा प्रिय रेशु जैन की हार्दिक आभारी हूं 🚩🙏🚩
      इस आयोजन पूर्व मंत्री भाई गोपाल भार्गव जी, खुरई विधायक भाई भूपेंद्र सिंह जी, जिला पंचायत अध्यक्ष भाई हीरा सिंह राजपूत जी, देवरी विधायक भाई बृज बिहारी पटेरिया जी  तथा एसवीएन विश्वविद्यालय के कुलपति भाई अनिल तिवारी की उल्लेखनीय उपस्थिति भी रही।


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Friday, August 29, 2025

शून्यकाल | गणपति के हैं नाम अनेक पर काम एक : जनकल्याण | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | गणपति के हैं नाम अनेक पर काम एक : जनकल्याण | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल
गणपति के हैं नाम अनेक पर काम एक : जनकल्याण
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                 
    जब हम किसी दुखी, पीड़ित व्यक्ति को देखते हैं तो उसकी सहायता करने की इच्छा हमारे मन में जागती है। फिर दूसरे ही पल हमें अपने सीमित सामथ्र्य याद आ जाता है और हम ठिठक जाते हैं। यह सच है कि आज के उपभोक्तावादी दौर में बहुसंख्यक व्यक्तियों के पास बहुत अधिक सहायता करने की क्षमता नहीं रहती है। किन्तु, श्रीगणेश यही तो सिखाते हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कैसे दिखते हैं या हमारी क्षमताएं कितनी हैं, यदि हमारे मन में दृढ़इच्छा है तो हम किसी न किसी रूप में एक दुखी-पीड़ित की मदद कर सकते हैं। तभी तो श्रीगणेश के अनेक नाम हैं किन्तु काम एक ही है-जनकल्याण।

हिन्दू संस्कृति में श्रीगणेश एकमात्र ऐसे देवता है जिनका मुख हाथी का तथा शेष शरीर मनुष्यों अथवा देवताओं जैसा है। अलौकिक शक्ति के धनी होते हुए भी श्रीगणेश में समस्त गजतत्व मौजूद हैं। सृष्टि की योग्य कृति मानव तथा वन्य समुदाय की सर्वश्रेष्ठ रचना गज के सम्मिश्रण वाले श्री गणेश की शक्तियों का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। पौराणिक कथा के अनुसार गणेश जी ने ही महाभारत को अबाधगति से लिपिबद्ध किया था।
गजाननं भूतगणादि सेवितं, कपित्थ जम्बूफलसार भक्षितं।
उमासुतं शोक विनाशकारणं, नमामि विघ्नेश्वर पादपंकजं।।

श्रीगणेश के एक नहीं अपितु 108 नाम हैं। प्रत्येक नाम का अपना एक अलग महत्व है।
*श्रीगणेश के 108 नाम* 
अखुरथ- जिनके पास रथ के रूप में एक चूहा है, अलमपता- सदा सनातन भगवान, अमितःअतुलनीय प्रभु, अनंतचिद्रुपमयं- अनंत और चेतना-व्यक्तित्व, अवनीश- पूरी दुनिया के भगवान, अविघ्न- सभी बाधाओं को दूर करने वाला, बालगणपति- प्रिय और प्यारा बच्चा, भालचंद्र- चंद्रमा-कलक वाले भगवान, भीम- विशाल और विशाल, भूपति- देवताओं के स्वामी, भुवनपति - जगत के स्वामी, बुद्धिनाथ- ज्ञान के देवता, बुद्धिप्रिया- ज्ञान और बुद्धि को प्यार करने वाले भगवान, बुद्धिविधता- ज्ञान और बुद्धि के देवता, चतुर्भुज- चतुर्भुज भगवान, देवदेव- भगवानों के भगवान, देवंतकनशकारिन- राक्षसों का नाश करने वाले, देवव्रत- वह जो सभी तपस्या स्वीकार करता है, देवेंद्रशिका- सभी देवताओं के रक्षक, धार्मिक- वह जो धार्मिकता को बनाए रखता है, धूम्रवर्ण- धूम्र वर्ण वाले भगवान, दुर्जा- अजेय भगवान, द्वैमतुर- जिसकी दो माताएं हों, एकाक्षर - एक अक्षर से आवाहन करने वाला, एकदंत- एकल-दांत वाले भगवान, एकादृष्टा- एकाग्र भगवान, ईशानपुत्र- भगवान शिव के पुत्र, गदाधर - गदा धारण करने वाले, गजकर्ण - हाथी के कान वाले, गजानन- हाथी के चेहरे वाले भगवान, गजाननेति- हाथी के मुख वाले भगवान, गजवक्र- सूंड हुक की तरह मुड़ी हुई, गणधक्ष्य- सभी गणों (समूहों) के भगवान, गणध्यक्षिना- सभी गणों (समूहों) के नेता, गणपति- सभी गणों (समूहों) के भगवान, गौरीसुता- देवी गौरी के पुत्र, गुनिना- सभी गुणों के स्वामी, हरिद्रा- वह जो सुनहरे रंग का हो, हेरम्बा- मां का प्रिय पुत्र, कपिला- पीले-भूरे रंग के भगवान, कवीशा- कवियों के गुरु, कृति- संगीत के भगवान, क्षिप्रा- जिसे प्रसन्न करना आसान हो, लम्बकर्ण- लंबे कान वाले भगवान, लंबोदर- पेट वाले भगवान, महाबला- अत्यंत बलवान प्रभु, महागणपति- सर्वशक्तिमान और सर्वोच्च भगवान, महेश्वरम- ब्रह्मांड के भगवान, मंगलमूर्ति- सर्व शुभकर्ता, मनोमय - हृदय को जीतने वाले, मृत्युंजय- मृत्यु को जीतने वाले, मुंडकरम- सुख का धाम, मुक्तिदया- शाश्वत आनंद का दाता, मुसिकवाहन- जिसका वाहन चूहा है, नादप्रतितिष्ठः जिसकी संगीत से पूजा की जाती है, नमस्थेतु- सभी बुराइयों और दोषों और पापों का विजेता, नंदना- भगवान शिव के पुत्र, निदेश्वरम- धन और खजाने के दाता, पार्वतीनंदन- देवी पार्वती के पुत्र, पीताम्बरा - पीले वस्त्र धारण करने वाले, प्रमोदा- सुख के सभी निवासों के भगवान, प्रथमेश्वर- सभी देवताओं में सबसे पहले, पुरुष- सर्वशक्तिमान व्यक्तित्व, रक्ता- जिसका शरीर लाल रंग का हो, रुद्रप्रिया- भगवान शिव की प्रिय, सर्वदेवतामन- सभी दिव्य प्रसादों को स्वीकार करने वाला, सर्वसिद्धान्त- कौशल और ज्ञान के दाता, सर्वात्मान- ब्रह्मांड के रक्षक, शाम्भवी- पार्वती के पुत्र, शशिवर्णम- जिसका रंग चंद्रमा जैसा है, शूपर्णकर्ण- बड़े कान वाले भगवान, शुबनः सर्व मंगलमय प्रभु, शुभगुणकानन- वह जो सभी गुणों का स्वामी है, श्वेता- वह जो सफेद रंग की तरह पवित्र हो, सिद्धिधाता- सफलता और सिद्धियों के दाता, सिद्धिप्रिया- वह जो इच्छाओं और इच्छाओं को पूरा करती है, सिद्धिविनायक- सफलता के दाता, स्कंदपुर्वजा- स्कंद (भगवान मुरुगन) के बड़े भाई, सुमुख- जिसका मुख प्रसन्न है, सुरेश्वरम- सभी प्रभुओं के भगवान, स्वरूप - सौंदर्य के प्रेमी, तरुण- अजेय भगवान, उद्दंड- बुराइयों और दोषों की दासता, उमापुत्र- देवी उमा (पार्वती) के पुत्र, वक्रतुंड - घुमावदार सूंड वाले भगवान, वरगणपति - वरदानों के दाता, वरप्रदा- इच्छाओं और इच्छाओं का दाता, वरदविनायक - सफलता प्रदान करने वाले, वीरगणपति- वीर प्रभु, विद्यावारिधि- ज्ञान और बुद्धि के देवता, विघ्नहर्ता- विघ्नों का नाश करने वाले, विघ्नराज- सभी बाधाओं के भगवान, विघ्नस्वरूप- विघ्नों का रूप धारण करने वाले, विकट- विशाल और राक्षसी, विनायक- सभी लोगों के भगवान, विश्वमुख- ब्रह्मांड के स्वामी, विश्वराज- ब्रह्मांड के राजा, यज्ञकाय- सभी यज्ञों को स्वीकार करने वाले, यशस्करम- यश और कीर्ति के दाता, योगधिपा- ध्यान और योग के भगवान, योगक्षेमकारा- अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि के दाता, योगिन- योग का अभ्यास करने वाला, युज- जो संघ का स्वामी है, कुमारा- हमेशा युवा भगवान, एकादृष्टा- एकाग्र भगवान, कृपालु- दयालु भगवान। श्रीगणेश के ये 108 नाम हैं, जिनका जाप किया जाता है।
श्रीगणेश के कुछ नामों की रोचक कथाएं भी देख ली जाएं। यही तो हमारी पौराणिक विरासत हैं-
*एकदंत की कथा*
श्रीगणेश के एकदंत होने की कई कथाएं मिलती हैं जिनमें एक इस प्रकार है कि एक बार विष्णु के अवतार परशुराम शिव से मिलने कैलाश पर्वत पर आए। उस समय शिव ध्यानावस्थित थे तथा वे कोई व्यवधान नहीं चाहते थे। शिवपुत्र गणेश ने परशुराम को रोक दिया और मिलने की अनुमति नही दी। इस बात पर परशुराम क्रोधित हो उठे और उन्होंने श्री गणेश को युद्ध के लिए चुनौती दे दी। श्रीगणेश ने चुनौती स्वीकार कर ली। दोनों के बीच घनघोर युद्ध हुआ। इसी युद्ध में परशुरामजी के फरसे से उनका एक दांत टूट गया।
*लंबोदर*
समुद्रमंथन के समय भगवान विष्णु ने जब मोहिनी रूप धरा तो शिव उन पर मोहित हो गए। भावावेश में उनका स्खलन हो गया, जिससे एक काले रंग के दैत्य की उत्पत्ति हुई। इस दैत्य का नाम क्रोधासुर था। क्रोधासुर ने सूर्य की उपासना करके उनसे ब्रह्मांड विजय का वरदान ले लिया। क्रोधासुर के इस वरदान के कारण सारे देवता भयभीत हो गए। वो युद्ध करने निकल पड़ा। तब गणपति ने लंबोदर रूप धरकर उसे रोक लिया। क्रोधासुर को समझाया और उसे ये आभास दिलाया कि वो संसार में कभी अजेय योद्धा नहीं हो सकता। क्रोधासुर ने अपना विजयी अभियान रोक दिया और सब छोड़कर पाताल लोक में चला गया।
*विकट*
भगवान विष्णु ने जलंधर के विनाश के लिए उसकी पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया। उससे एक दैत्य उत्पन्न हुआ, उसका नाम था कामासुर। कामासुर ने शिव की आराधना करके त्रिलोक विजय का वरदान पा लिया। इसके बाद उसने अन्य दैत्यों की तरह ही देवताओं पर अत्याचार करने शुरू कर दिए। तब सारे देवताओं ने भगवान गणेश का ध्यान किया। तब भगवान गणपति ने विकट रूप में अवतार लिया। विकट रूप में भगवान मोर पर विराजित होकर अवतरित हुए। उन्होंने देवताओं को अभय वरदान देकर कामासुर को पराजित किया।
*विघ्नराज*
एक बार पार्वती अपनी सखियों के साथ बातचीत के दौरान जोर से हंस पड़ीं। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई। पार्वती ने उसका नाम मम (ममता) रख दिया। वह माता पार्वती से मिलने के बाद वन में तप के लिए चला गया। वहीं उसकी भेंट शम्बरासुर से हुई। शम्बरासुर ने उसे कई आसुरी शक्तियां सीखा दीं। उसने मम को गणेश की उपासना करने को कहा। मम ने गणपति को प्रसन्न कर ब्रह्मांड का राज मांग लिया। शम्बर ने उसका विवाह अपनी पुत्री मोहिनी के साथ कर दिया। शुक्राचार्य ने मम के तप के बारे में सुना तो उसे दैत्यराज के पद पर विभूषित कर दिया। ममासुर ने भी अत्याचार शुरू कर दिए तब गणेश विघ्नराज के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने ममासुर का मान मर्दन कर उसके अत्याचार से सभी को मुक्त कराया।
*धूम्रवर्ण*
एक बार भगवान ब्रह्मा ने सूर्यदेव को कर्म राज्य का स्वामी नियुक्त कर दिया। राजा बनते ही सूर्य को अभिमान हो गया। तभी उन्हें छींक आई और उस छींक से एक दैत्य की उत्पत्ति हुई। उसका नाम था अहम। अहम शुक्राचार्य के पास गया और उन्हें गुरु बना लिया। वह अहम से अहंतासुर हो गया। उसने श्री गणेश को तप से प्रसन्न करके वरदान प्राप्त कर लिया और अत्याचार बन बैठा। तब गणेश ने धूम्रवर्ण के रूप में अवतार लिया। उनका वर्ण धुंए जैसा था। वे विकराल थे। उनके हाथ में भीषण पाश था जिससे बहुत ज्वालाएं निकलती थीं। धूम्रवर्ण ने अहंतासुर को युद्ध में हराकर जनकल्याण किया।
            श्रीगणेश अन्य देवताओं की भांति शारीरिक दृष्टि से सुंदर नहीं हैं किन्तु उनकी अपरिमित बुद्धि के कारण उन्हें प्रथमपूज्य देवता का पद प्राप्त है। यही वह बात है जिसे हम मनुष्यों को सीखना चाहिए कि जाति, धर्म, आकार, प्रकार, सुंदरता, असुंदरता का कोई अर्थ नहीं है, यदि किसी चीज का अर्थ है तो वह है जनकल्याण। यही तो सत्य मौजूद है श्रीगणेश के स्वरूप में।    
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Thursday, August 28, 2025

बतकाव बिन्ना की | परकम्मा करबे की शुरुआत करी ती गणेश जू ने | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
परकम्मा करबे की शुरुआत करी ती गणेश जू ने 
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
     
‘‘काए भौजी, घूम आईं बृंदाबन?’’ मैंने भौजी से पूछी। 
भौजी चार दिनां के लाने मथुरा बृंदाबन खों गई रईं। काए से उनकी बुआ सास मैहर से आईं रईं। बे बृंदाबन जान वारी हतीं सो भौजी को सोई उनके संगे प्लान बन गओ रओ। 
‘‘हऔ बिन्ना! घूम आए कान्हा की नगरी।’’ भौजी खुस होत भईं बोलीं।
‘‘औ आपकी बुआ सास नईं दिखा रईं? का बे उतई रै गईं?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे नईं बे तो उते से बनारस खों निकर गईं। हमसे सोई चलबे की कै रई हतीं, पर हमाए तो उतई गोड़े दुखा गए। ईसे ज्यादा हम नईं चल सकत्ते।’’ भौजी अपने घूंटा पे हात देत भईं बोलीं।
‘‘सो कोन आपखों पैदल जाने रओ? रेल से, ने तो बस से, ने तो कोनऊं टैक्सी में जातीं। सो, हो आने रओ।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘जा बात तुमाई सई आए के बृंदाबन से बनारस लौं हमें निंगत नईं जाने रओ पर बृंदाबन में पांच कोसी परकम्मा कर के तो हमाए गोड़े दुखन लगे हते। आज लौं दुख रए।’’ भौजी फेर के अपनों घूंटा दबात भईं बोलीं।
‘‘आप ने करी पांच कोसी परकम्मा? पांच कोसी मने 15 किलोमीटर निंगो आपने?’’ मोए भौतई अचरज भओ।
‘‘हऔ बिन्ना! ऊ टेम पे सब के संगे कोन पता परो के कित्तो निंग लओ, मनो परकम्मा के बाद रात को खूबई गोड़ दुखे हमाए तो। इत्ते चलबे की अब आदत नईं रई हमाई तो। जेई लाने हमने उनके संगे बनारस जाबे खों मना कर दओ। का पता उते बी बे कोनऊं परकम्मा करान लगें। बाकी आओ बड़ो मजो। परकम्मा करत टेम बिलकुल पतो नई परो। उते तो मुतकी भीड़ रैत आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कै रईं भौजी। अभईं पिछली नौरातें मैं ज्वालादेवी के दरसन के लाने गई रई। उते की छिड़ियंा देख के मोए लगो के मैं चढ़ पैहों के नईं? फेर जब चढ़न लगी तो पतई नई परी के कबे चढ़ गई। अच्छी ऊंची पहड़िया पे बिराजी हैं बे तो।’’ मैंने सोई कई।
‘‘बिन्ना उते हमें कोऊ ने बताओ के जे जो परकम्मा करबे की प्रथा आए जे बृंदाबन की पांच कोसी परकम्मा से शुरू भई रई।’’ भौजी बोलीं।
‘‘जोन ने बताई बा झूठी बताई। होत का आए के अपनी जांगा खों बढ़ा-चढ़ा के बताबे के लाने कछू बी बोल दओ जात आए।’’ मैंने कई।
‘‘सो तुमें कैसे पतो के बा ने झूठी कई?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘हमें ऐसे पतो के ई बारे में पुराण में किसां मिलत आए।’’ मैंने कई।
‘‘कैसी किसां?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘आप पैले जे बताओ के पैले गणेशजू भए के पैले कान्हा भए?’’ मैंने भौजी से पूछो।
‘‘गणेशजू पैले भए। बे तो देवता आएं। मनो कान्हा सोई देवता आएं पर बे बिष्णु जी के अवतार रए।’’ भौजी ने कई।
‘‘बस, सो परकम्मा की शुरुआत भई गणेशजू से। औ वा बी महादेव और पार्वती जू के घरे से, सो, जा बृंदाबन से शुरू भई नईं हो सकत। मनो ओई टाईप से सब जांगा कोसी परकम्मा को चलन चल गओ। आप खों तो पतई हुइए के उतईं ब्रज में चैरासी कोस की परकम्मा होत आए जीमें 252 किलोमीटर चलने परत आए। जीमें बरसाना, नंदगांव, मथुरा, बृंदाबन गोवर्द्धन, राधाकुंड बगैरा सबई आ जात आएं।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘हऔ, बा तो हमें पतो , बाकी गणेशजू जी की का किसां आए?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘अरे ने पूछो आप, बड़ी मजेदार किसां आए। का भओ के एक दार नारद जू ने सुरसुरी छोड़ दई के इत्ते लौं देवी-देवता आएं के उते धरती पे मानुस हरें समझ ने पात आएं के कोन को नांव पैले लओ जाए। नारद जू को इत्तो कैनो तो के देवता हरें झगड़न लगे के हमाओ नांव पैले लओ जानो चाइए, हमाओ नांव पैले लओ जानो चाइए। जे झगड़ा मिटाबे के लाने महादेवजू ने कई के ऐसो करो के सबरे देवता जे ब्रह्मांड के चक्कर लगा लेओ। जोन सबसे पैले परकम्मा पूरो करहे ओई को पैले पूजो जाहे। ओई को नांव पैले लओ जाहे। सब देवता ईके लाने राजी हो गए। उतई गणेशजू के भैया कार्तिकेय सोई ढ़ाड़े हते। उन्ने सोची के जेई टेम सबसे बढ़िया आए। जो हम ई टेम पे गणेश खों हरा देवें तो हमाओ नांव ईसे पैले लओ जाहे। सो कार्तिकेय ने गणेशजू खों चैलेंज करी। गणेशजू ने चैलेंज मान लओ। सबरे अपने-अपने वाहन पे सवार हो के निकर परे। कार्तिकेय को वाहन हतो मोर, जबके गणेश जू को वाहन चोखरवा। अब जे तो तै रओ के मोर चोखरवा से पैले परकम्मा पूरो कर लैहे।
सब रे देवता औ कार्तिकेय परकम्मा के लाने निकर परे। सब में लग गई रेस। मनो गणेजू तो हते बुद्धि के देवता। उन्ने चतुराई से काम लओ औ अपने मताई-बाप मने महादेव जू और पार्वती जू की परकम्मा कर के ठाड़े हो गए। पार्वती जू ने जा देखो तो बे गणेश जू से पूछ बैठीं के तुम परकम्मा पे काए नईं गए? ईपे गणेशजू ने कई के हमने तो परकम्मा पूरो कर लओ। जा सुन के महादेव जू ने कई के तुम झूठीं काए बोल रए? तुम तो इतई हमाई परकम्मा ले के ठाड़े हो गए, तुम ब्रह्मांड की परकम्मा करबे कां गए? तब गणेश जू ने कई के पिताजी हम झूठ नईं बोल रए। माता-पिता में पूरो ब्रह्मांड समाओ रैत आए, सो हमने आप दोई की परकम्मा कर के पूरे ब्राह्मांड की परकम्मा कर लई। ईमें झूठ का आए? जो सुन के नारद जू मुस्क्यान लगे औ बोले, बिलकुल सई कई। हमें आप से जेई उमींद रई। आपई हो जोन को नांव सबसे पैले लओ जाओ चाइए औ आपई की पूजा सबसे पैले करी जानी चाइए। नारद जूं की बात सुन के महादेव जू सोई मंद-मंद मुस्क्यान लगे। काए से के बे तो पैलई समझ गए रए के नारद जू ने जा सुरसुरी काय के लाने छोड़ी रई। बे समझ गए रए के नारद जू सबसे बुद्धिमान देवता चुनो चात आएं जोन को नाव ले के मानुस हरें अपनो काम बिना कोनऊं बाधा के पूरो कर सकें। 
इत्ते में कार्तिकेय औ बाकी देवता हरें सोई ब्राह्मांड की परकम्मा कर के लौट आए। सबने कई के अब बताओं के हममें से कोन जीतो? नारद जू ने बता दओ के गणेशजू जीते। जा सुने के कार्तिकेय खों खूबई गुस्सा आओ। बे झगड़न लगे। तब महादेव जू ने उने पूरी किसां बताई और गणेशजू की बुद्धिमानी बताई। तब कार्तिकेय सोई मान गए के सबसे पैले नांव जिनको लओ जा सकत आए बे गणेशजू के अलावा औ कोई होई नईं सकत। फेर ब्रह्माजू बोले के सबसे पैली सई परकम्मा गणेशजू ने करी सो अब जेई समै से परकम्मा करे की प्रथा शुरू भई कहानी। 
सो जे रई गणेशजू की परकम्मा की किसां जो सबसे पैली परकम्मा हती। काए से है का के चाए कोनऊं तीरथ कर आओ मनो सई पुन्न तभई मिलत आए जब मताई-बाप खों खुस राखों औ उनकी सेवा करो। एक तो अपने धरती वारे मताई-बाप रैतईं आएं औ देखों जाए तो सबरे देवी-देवता हरें सोई अपने मताई-बाप ठैरे सो उनकी परकम्मा करी जात आए। जोन से जितनी कोस बने।’’ मैंने भौजी खों पूरी किसां सुना डारी।
‘‘जा किसां हमें ने पता रई। जे तो सई में बड़ी मजेदार आए औ नोनी आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘मनो आजकाल तो मताई बाप औ भगवान को मतलबई बदल गओ आए।’’ भैयाजी बोल परे, जो उतईं खटिया पे परे-परे ऊंघ रए हते।
‘‘का मतलब आपको?’’ मैंने पूछी।
‘‘देख नईं रईं। राजनीति वारन के लाने उनको आका मताई-बाप, भगवान सब कछू होत आए। औ कऊं पार्टी ढरक गई तो आका मने भगवान सोई बदल जात आएं। जोन कुर्सी पे बिराजे, बेई भगवान औ बेई मताई-बाप।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे, ऐसों की का कओ भैयाजी, बे तो अगरबत्ती की जांगा बिड़ी खोंस आएं औ कएं के हम अगरबत्ती जला आए। ऐसे लोगन को कोनऊं धरम नईं होत। बे धरम के नांव को भलई खा लेबें, मनो धरम-करम कोन जानत आएं। जेई लाने तो हर बरस गणेशजू पधारत आएं के सबई खों कछू बुद्धि दे दओ जाए। कछू बुद्धि ले लेत आएं औ कछू खाली चंदा खा के अफर जात आएं।’’ मैंने हंस के कई।
भैयाजू सोई हंसन लगे। फेर बे बृंदाबन को अपनो अनुभव सुनान लगे।               
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के बुद्धि के देवता गणेशजू सोई चात आएं के पैले मताई-बाप की सेवा करो, काए से उनकी सेवा करे से भगवानजू खुदई प्रसन्न हो जात आएं। सो बोलो, गणपति बप्पा की जै!!! 
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     गणपति बप्पा मोरया
     फोटो : डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Wednesday, August 27, 2025

बुंदेली बोल : अब बुंदेली बोले में कोऊ नईं सरमात - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह, गेस्ट राईटर

"पत्रिका" परिवार को स्थापना दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं🌹🙏🌹


"राजस्थान पत्रिका" के मध्य प्रदेश संस्करण "पत्रिका" समाचार पत्र के सागर संस्करण ने स्थापना दिवस पर विशेषांक प्रकाशित किया है जिसमें "गेस्ट राइटर" के रूप में बुंदेली की वर्तमान स्थिति पर हैं मेरे विचार ....

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बुंदेली बोल : अब बुंदेली बोले में कोऊ नईं सरमात
  - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
   (पत्रिका स्थापना दिवस विशेषांक,27.08.2025)

अपनी जे बुंदेली आज ऊ मुकाम पे पौंच गई आए जां ऊको बोलबे वारे को मूंड़ शान से ऊंचो हो जात है। आज बुंदेली बोलबे में कोनऊं खों सरम नईं लगत। औ जे जो बुंदेली के दिन फिरे हैं ईमें फिल्मों औ सोसल मिडिया को बड़ो रोल आए। आप ओरन खों याद हुइए के 1998 में फिलम आई हती “चाईना गेट”, ऊमें अपने गोपालगंज के मुकेश तिवारी ‘जगीरा’ बने हते। ऊ फिलम में छूंछी बुंदेली के डायलॉग तो ने हते लेकन ‘जगीरा’ के सबरे डायलॉग बुंदेली स्टाइल में बोले गए ते। ईंसे बुंदेली की तरफी बॉलीवुड को ध्यान खिंचों। फेर तो औ फिलमें आईं जीमें बुंदेली डायलॉग रखे गए। बाकी बुंदेली को सबसे ज्यादा पापुलर बनाओ पैले टीवी के सीरियलों ने औ फेर रीलन ने। ‘हप्पू सिंह’, ‘टीका’,’मलखान’ के करैक्टरन ने तो मनो बुंदेली खों टॉप पे पौंचा दऔ। फेर कोरोना के जमाना में अपनई इते के हसरई गांव के आशीष उपाध्याय औ बिहारी उपाध्याय ने अपने भैयन के संगे मिलके सोसल मिडिया के लानें बुंदेली में रीलें बनानी सुरूं करीं। जोन ने धूम मचा दईं। इन रीलन की अच्छी बात जे हती के जे पारिवारिक टाईप की राखी गईं। कोऊ बी इनखों देख सकत्तो। कऊं कोऊं अस्लीलता नोंई हती। जेई से जे हिट भईं औ बुंदेली ने जानने वारन ने बी देखी। अब तो मुतकी बुंदेली रीलें बन रईं।
       एक बात बताई जानी जरूरी आए के महाराज छत्रसाल के जमाना में बुंदेली राजभाषा रई। ईके आगे राजा मधुकरशाह बुंदेला, मर्दनसिंह, बखतबली की चिठियां लौं बुंदेली में मिलत आएं। बा तो ने जाने कबे अंग्रेज हरों के फेर में पर के अपनी बुंदेली को गंवईं की बोली मानो जान लगो। मनो अब फेर के बुंदेली खों मान मिलन लगो है। अब बुंदेली बोले में कोऊ नईं सरमात।
       बाकी पत्रिका खों धन्यबाद देने तो सबसे पैले बनत आए के जो एक ऐसो राष्ट्रीय स्तर को अखबार आए जोन ने बुंदेली के लाने “टॉपिक एक्पर्ट” नांव को कॉलम छापबो सुरू करो औ मोरे नोने भाग के मोए ऊको लिखबे को मौका दओ। बुंदेली में साहित्य तो लिखोई जा रओ आए। गजलें-मजलें सोई लिखी जा रईं आएं। जे सब प्रयासन से भओ जे के आज बुंदेली बोली जा रई, देखी जा रई औ पढ़ी जा रई।
सो, बोलो जै बुंदेली!
जै बुंदेलखण्ड!
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गणेश चतुर्थी की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !🚩 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

गणेश चतुर्थी की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !🚩 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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चर्चा प्लस | गणपति बप्पा मोरया ! प्रथमपूज्य देवता हैं श्री गणेश | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

पढ़िए  श्री गणेश प्रथम पूज्य कैसे बनें 🙏
चर्चा प्लस  
गणपति बप्पा मोरया ! प्रथमपूज्य देवता हैं श्री गणेश            
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह   
       हिन्दू पूजाविधि में श्रीगणेश की पूजा से ही हर अनुष्ठान आरम्भ होता है। हिन्दू धर्म में श्रीगणेश को कार्य आरम्भ करने का पर्याय माना गया है। यहां तक कि पत्राचार और बहीखाते में भी कई लोग ‘‘श्रीगणेशायनमः’’ लिख कर ही कुछ भी लिखना आरम्भ करते हैं। किसी भी कार्य को आरम्भ करते हुए कहा भी जाता है कि ‘‘श्रीगणेश किया जाए’’। गणेश को विघ्नविनाशक देवता माना गया है अतः कार्य प्रारम्भ होने के पूर्व यह विध्नहर्ता की प्रार्थना भी आवश्यक है। किन्तु श्रीगणेश ही क्यों प्रथमपूज्य देवता माने गए, जबकि ब्रह्मा, विष्णु और महेश तो स्वयं में सर्वशक्तिमान देवता हैं? तो चलिए देखते हैं उन पौराणिक कथाओं को जो यह बताती हैं कि गणेश प्रथमपूज्य देवता कैसे बने। ये कथाएं वर्तमान जीवन को भी महत्वपूर्ण सबक देती हैं।
      हिन्दू धर्म संस्कृति में हर शुभकार्य एवं पूजाविधि का आरंभ श्रीगणेश पूजा से ही होता है। कुछ लोग कार्य का शुभारंभ करते समय सर्वप्रथम ‘‘श्रीगणेशाय नमः’’ लिखते हैं। यहां तक कि चिट्ठी और महत्वपूर्ण कागजों में लिखते समय भी ‘‘ऊं’’ या ‘‘श्रीगणेश’’ का नाम अंकित करते हैं। क्योंकि यह माना जाता है कि श्रीगणेश के नाम स्मरण मात्र से उनके कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं। शुभकार्यों के आरंभ एवं पूजन के पूर्व श्रीगणेश पूजा ही क्यों की जाती है? इस संबंध में पौराणिक ग्रंथों में विविध कथाएं मिलती है। 
      एक कथा के अनुसार एक बार सभी देवता इंद्र की सभा में बैठे हुए थे। बात पृथ्वीलोक की होने लगी। तब यह प्रश्न उठा कि पृथ्वी पर किस देवता की पूजा सबसे पहले होनी चाहिए? सभी देवता स्वयं को बड़ा बताते हुए दावा करने लगे कि उनकी पूजा सबसे पहले होनी चाहिए। तब देवर्षि नारद ने हस्तक्षेप किया और सलाह दी कि सभी देवता अपने-अपने वाहन से पृथ्वी की परिक्रमा करें। जो देवता सबसे पहले परिक्रमा पूरी कर लेगा, वही पृथ्वी पर प्रथमपूज्य होगा। देवर्षि नारद ने शिव से निणार्यक बनने का आग्रह किया। सभी देव अपने वाहनों पर सवार हो चल पड़े। विष्णु गरुड़ पर, कार्तिकेय मयूर पर, इन्द्र ऐरावत पर सवार हो कर तेजी से निकल पड़े। जबकि श्रीगणेश मूषक पर सवार हुए और अपने पिता शिव और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा की और शांत भाव से उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। माता पार्वती ने गणेश का यह कृत्य देखा तो उनसे पूछा कि ‘‘गणेश यह तुम क्या कर रहे हो? सभी देवता परिक्रमा के लिए निकल पड़े हैं और तुम हमारी परिक्रमा कर के यही खड़े हो? क्या तुम्हें पृथ्वी का प्रथमपूज्य देवता नहीं बनना है?’’
इस पर गणेश जी ने हाथ जोड़ कर उत्तर दिया,‘‘माता! मैंने आप दोनों की परिक्रमा कर के पृथ्वी ही नहीं अपितु पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा कर ली है। माता-पिता में ही पूरा ब्रह्मांड समाया होता है। अब मुझे पृथ्वी की परिक्रमा कर के क्या करना है!’’
पुत्र गणेश का उत्तर सुन कर शिव और पार्वती दोनों प्रसन्न हो गए। वे समझ गए कि उनका यह पुत्र सबसे अधिक बुद्धिमान है और एक सबसे बुद्धिमान देवता की पूजा से ही हर कार्य आरम्भ होना चाहिए। तभी सभी देवताओं में कार्तिकेय सबसे पहले लौटा और उसने गर्व से कहा कि ‘‘पिताश्री! मैं पृथ्वी की परिक्रमा कर के सबसे पहले आया हूं अतः अब पृथ्वीवासी सबसे पहले मेरी पूजा किया करेंगे। मैं ही प्रथमपूज्य देवता हूं।’’  
      तब शिव ने मुस्कुराते हुए कहा कि ‘‘हे पुत्र कार्तिकेय, तुम प्रथम नहीं आए हो! तुमसे पहले तुम्हारा भाई गणेश परिक्रमा कर चुका है। वह भी पृथ्वी की ही नहीं वरन पूरे ब्राम्हांड की। अतः यही प्रथमपूज्य होगा।’’ 
कार्तिकेय को यह सुन कर बहुत गुस्सा आया। उसे लगा कि माता-पिता पक्षपात कर रहे हैं। उसने शिव को उलाहना दिया कि ‘‘आप गणेश को इस लिए विजयी कह रहे हैं न क्योंकि वह आपका प्रिय पुत्र है? वह मोटा है और उसका वाहन छोटा चूहा है, इसलिए आपको उस पर दया आ रही है। यही बात है न?’’
यह सुन कर शिव ने पूर्ववत मुस्कुराते हुए कार्तिकेय को समझाया कि ‘‘नहीं पुत्र कार्तिकेय! मैं कोई पक्षपात नहीं कर रहा हूं। मेरे लिए मेरी सभी संतानें समान रूप से प्रिय हैं। तुम तथा अन्य देवता महर्षि नारद का प्रयोजन नहीं समझे जबकि गणेश ने समझ लिया। गणेश जान गया कि नारद बुद्धि की परीक्षा ले रहे हैं, परिक्रमा की गति की नहीं। अतः उसे बुद्धि से काम लिया और मेरी तथा तुम्हारी मां पार्वती की परिक्रमा करते हुए ब्रह्मांड की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त कर लिया। इस प्रकार उसने प्रतियोगिता भी जीत ली।’’
जब कार्तिकेय ने यह विवरण सुना तो वह लज्जित हो उठा और उसने श्रीगणेश को उनकी विजय पर बधाई दी। तब तक सभी देवता परिक्रमा कर के लौट आए थे। उन्होंने भी सर्व सम्मति से बुद्धि के देवता गणेश को प्रथमपूज्य देवता स्वीकार कर लिया।

दूसरी कथा है जो श्रीगणेश के जन्म से जुड़ी हुई है। एक बार माता पार्वती स्नान करने के लिए स्नानघर में प्रवेश करने वाली थीं। किन्तु वहां आस-पास कोई नहीं था जिसे वे द्वार पर पहरा देने का काम सौंपतीं। वे नहीं चाहती थीं कि जब वे स्नान कर रही हों तो कोई आ कर उनके स्नानकर्म में व्यवधान डाले। तब माता पार्वती को एक उपाय सूझा। उन्होंने अपने शरीर के उबटन से एक बालक की प्रतिमा बनाई और उसमें प्राण फूंक कर उसे जीवित कर दिया। प्राण प्राप्त होते ही बालक ने हाथ जोड़ कर पूछा,‘‘मेरे लिए क्या आज्ञा है माता?’’
‘‘तुम इस महल के द्वार पर पहरा दोगे। जब तक मेरा स्नान पूर्ण न हो जाए तब तक किसी को भी महल में प्रवेश मत करने देना।’’ पार्वती ने आज्ञा दी। वह बालक द्वार पर पहरा देने लगा। 
कुछ देर में भगवान शिव वहां आ पहुंचे। द्वार पर बैठा बालक तो सद्यः जन्मा था अतः शिव अथवा किसी अन्य व्यक्ति के बारे में उसे ज्ञान नहीं था। उसने शिव को महल में प्रवेश करने से रोका। शिव ने उसे सामझाया कि वे इसी महल में रहते हैं और जिस माता की आज्ञा का तुम पालन कर रहे हो वह मेरी अद्र्धांगिनी है।
‘‘तो क्या अर्द्धांगिनी की कोई अपनी इच्छा या प्रतिष्ठा नहीं होती है? यदि वे चाहती हैं कि इस समय महल में कोई प्रवेश न करे, तो उनकी यह इच्छा आप पर भी लागू होती है।’’ उस बालक ने तर्क दिया। यह सुन कर शिव को क्रोध आ गया और उन्होंने क्रोधावेश में बालक का सिर काट दिया। तब तक झगड़े की आवाज सुन कर पार्वती द्वार तक आ पहुंची थीं। उन्होंने उस बालक को सिरविहीन देखा तो दुख और क्रोध से भर उठीं।
‘‘यह आपने क्या किया? आपने मेरे पुत्र का सिर क्यों काटा? मेरा पुत्र आपका भी पुत्र हुआ अतः आपने अपने पुत्र का सिर काट कर आप पुत्रहंता बन गए।’’ पार्वती ने कहा।
‘‘मुझे नहीं मालूम था कि यह हमारा पुत्र है। यह हठ कर रहा था और मुझे महल में प्रवेश नहीं करने दे रहा था इसीलिए मुझे क्रोध आ गया।’’ शिव ने पार्वती को शांत करना चाहा।
‘‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहती हूं! आप मेरे आज्ञाकारी पुत्र को जीवित करिए, अन्यथा मैं भी प्राण त्याग दूंगी।’’ पार्वती ने शिव को चेतावनी दी।
तब शिव ने हाथी के सद्यःमृत बच्चे के सिर को उस बालक के धड़ से जोड़ दिया जिससे वह बालक पुनर्जीवित हो उठा। सूंड़धारी उस बालक को माता पार्वती ने प्रसन्नता से गले लगा लिया। तब भगवान शिव ने उस बालक का नामकरण करते हुए उसे आर्शीवाद दिया कि ‘‘तुम आज से गणेश, गणपति एवं गजानन, गजवदन आदि नामों से जाने जाओगे और तुम बुद्धि के देवता होने के कारण सभी देवताओं से पहले पूजे जाओगे।’’
   यह सुन कर माता पार्वती का क्रोध शांत हो गया तथा उन्होंने अपने पुत्र गणेश को ‘‘श्रीगणेश’’ कह कर संबोधित किया।

तीसरी कथा इस प्रकार है कि एक बार पार्वती के मन में यह इच्छा पैदा हुई कि उनका एक ऐसा पुत्र हो जो समस्त देवताओं में प्रथम पूजन पाए। इन्होंने अपनी इच्छा भगवान शिव को बताई। इस पर शिव ने उन्हें पुष्पक व्रत करने की सलाह दी। पार्वती ने पुष्पक व्रत का अनुष्ठान करने का संकल्प किया और उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए समस्त देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया। शुभ मुहूर्त पर यज्ञ का आरम्भ हुआ। ब्रह्माजी के पुत्र सनतकुमार यज्ञ की पुरोहिताई कर रहे थे। 
यज्ञ पूर्ण होने पर विष्णु ने पार्वती को आशीर्वाद दिया कि जिस प्रकार यह यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हुआ है उसी प्रकार आपकी इच्छानुरूप विध्नविनाशक पुत्र आपको प्राप्त होगा। विष्णु से यह आशीर्वाद पा कर माता पार्वती प्रसन्न हो उठीं। यह देख कर सनतकुमार ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि ‘‘मैं इस यज्ञ का ऋत्विक हूं। पुरोहित हूं। यज्ञ भले ही सफलतापूर्वक संपन्न हो गया है, परंतु शास्त्र-विधि के अनुसार जब तक पुरोहित को उचित दक्षिणा देकर संतुष्ट नहीं किया जाएगा, तब तक यज्ञकर्ता को यज्ञ का फल प्राप्त नहीं होगा।’’
‘‘बताइए आपको दक्षिणा में क्या चाहिए?’’ माता पार्वती ने सनतकुमार से पूछा।
‘‘माता भगवती, मैं आपके पतिदेव शिवजी को दक्षिणा स्वरूप चाहता हूं।’’सनतकुमार ने विचित्र मांग की। 
‘‘ऋत्विक सनतकुमार!, आप एक स्त्री से उसका पति अर्थात् उसका सौभाग्य मांग रहे हैं जो देना मेरे लिए संभव नहीं है। अतः आप कुछ और मांगिए।’’ माता पार्वती ने सनतकुमार की मांग ठुकराते हुए कहा। 
सनतकुमार अपनी मांग पर अड़ गए। पार्वती ने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि यदि मैं आपको अपना पति सौंप दूंगी तो मुझे पुत्र की प्राप्ति कैसे होगी? यज्ञ का फल तो उस स्थिति में भी नहीं मिलेगा। अतः आप हठ छोड़ दें। किन्तु सनत कुमार अपना हठ छोड़ने को तैयार नहीं थे। तब शिव ने पार्वती को समझाया कि ‘‘आप मुझे सनतकुमार को दक्षिणा में दान कर दें और विश्वास रखें कि आपकी इच्छा भी पूर्ण होगी।’’ 
पार्वती सनतकुमार को दक्षिणा में शिव का दान करने ही वाली थीं कि एक दिव्य प्रकाश के रूप में विष्णु प्रकाशित हुए तथा अगले ही पल श्रीकृष्ण का रूप धारण कर के सनतकुमार के सामने आ खड़े हुए। सनतकुमार ने विष्णु के कृष्ण रूप का दर्शन किया और कहा,‘‘मेरी इच्छा पूर्ण हुई अब मुझे दक्षिणा नहीं चाहिए। मैं जानता था कि आपको दान देने से रोकने के लिए विष्णु मेरी इच्छा पूर्ण अवश्य करेंगे।’’
इसके बाद सभी देवता तथा यज्ञकर्ता पार्वती को आशीर्वाद देकर वहां से चले गए। पार्वती अभी अपनी प्रसन्नता से आनन्दित ही हो रही थीं कि एक विप्र याचक वहां आ गया। उसने खाने को कुछ मांगा। पार्वती ने उसे मिष्ठान्न दिए। उतना खा लेने के बाद वह याचक बोला,‘‘मां अभी भूख नहीं मिटी है, थोड़ा और दो!’’
पार्वती ने और मिष्ठान्न दे दिया। इसके बाद याचक खाता जाता और मांगता जाता। पार्वती उसे खिला-खिला कर थक गईं। उन्होंने शिव से कहा कि ‘‘ये न जाने कैसा याचक आया है जिसका पेट ही नहीं भर रहा है। मैं तो खिला-खिला कर थक गई।’’ 
‘‘कहां है वह याचक?’’ कहते हुए शिव याचक को देखने निकले तो वहां कोई नहीं था। पार्वती चकित रह गईं कि अभी तो वह याचक भोजन की मांग कर रहा था और पल भर में कहां चला गया? तब शिव ने पार्वती को उस याचक का रहस्य समझाया कि वह कोई याचक नहीं बल्कि तुम्हारे उदर से जन्म लेने की तैयार कर रहा गणेश है जो जन्म के बाद लंबोदर कहलाएगा और देवताओं में प्रथम भोग पाने वाला प्रथम पूज्य होगा।’’
ये तीनों कथाएं न केवल अयंत रोचक हैं बल्कि यह बताती हैं कि बुद्धि का उपयोग करने वाला ज्ञानी ही प्रथम पूज्य बनता है। इन कथाओं को मात्र धार्मिक भावना से नहीं, वरन ज्ञान भावना से भी समझने का प्रयास करना चाहिए। बुद्धि ही है जो जीवन में सुख, संपदा और सफलता दिलाती है तथा बुद्धि के देवता हैं श्री गणेश इसीलिए तो वे ही प्रथम पूज्य देवता हैं।   
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(दैनिक, सागर दिनकर में 27.08.2025 को प्रकाशित)  
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Tuesday, August 26, 2025

पुस्तक समीक्षा | शब्द-शब्द संवाद करती कविताओं का इन्द्रधनुष | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

'आचरण' में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा 
पुस्तक समीक्षा
शब्द-शब्द संवाद करती कविताओं का इन्द्रधनुष
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - इन्द्रधनुष
कवयित्री     - अनिता निहालानी
प्रकाशक     - विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी-221001
मूल्य        - 100/
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        कविता की प्रकृति ही संवादी होती है। किन्तु कई कविताएं तब मुखर हो कर संवाद नहीं कर पाती हैं, जब उनमें कलापक्ष कुछ अधिक प्रभावी हो जाता है। वस्तुतः वही कविताएं संवाद कर पाती हैं जिनमें भाव पक्ष सरल, सहज और सटीक शब्दों के साथ प्रस्तुत होता है। कवयित्री अनिता निहालानी का कविता संग्रह है ‘‘इन्द्रधनुष’’। जब ‘‘इन्द्रधनुष’’ की कविताओं को मैंने पढ़ा तो मुझे प्रत्येक कविता के हर शब्द मुखर हो कर संवाद करते मिले। जबकि विशेष यह है कि अनिता निहालानी जी से मेरा परिचय मात्र इतना है कि प्रकृति के सुंदर फोटोग्राफ खींच कर वे अपनी फेसबुक वाॅल पर शेयर करती हैं और मुझे वे पसंद आते हैं, मैं उन्हें ‘लाईक’ कर देती हूं। अर्थात मैं उन्हें प्रकृतिप्रेमी छायाचित्रकार के रूप में ही जानती रही जब तक कि मैंने उनका कविता संग्रह नहीं पढ़ा था। एक दिन अचानक मैसेंजर पर उन्होंने अपनी पुस्तकें मुझे भेजने के लिए मेरा पता मांगा। मैंने उन्हें पता दे दिया। क्योंकि यह मेरा पहले भी यह अनुभव रह चुका है कि बिना किसी शोरशराबे के शांतभाव से रचनाकर्म करने वाले रचनाकारों में कई बेहद प्रतिभावान रचनाकार मिले हैं। अनिता निहालानी जी के रूप में भी यही हुआ कि जब मैंने उनकी कविताएं पढ़ीं तो मुझे लगा कि इस कवयित्री के भावों और विचारों में वह गंभीरता है जो कम ही देखने को मिलती है।

प्रकृति से अनिता जी का लगाव तो है ही। इस संदर्भ में उन्होंने अपने कविता संग्रह के ‘‘आमुख’’ में भी लिखा है कि -‘‘प्रकृति का सौंदर्य किसे नहीं लुभाता, अनंत आकाश की नीलिमा, गहरा सागर, बारिश की पहली बूँद पड़ने पर धरा से उठने वाली सोंधी सी महक, पुष्प, पक्षी सभी मानव को आकर्षित करते हैं। यहीं से उसकी खोज शुरू होती है, क्योंकि जब बाहर का सौन्दर्य हर बार उसे भीतर एक सी प्रसन्नता का अनुभव नहीं करा पाता, उसका आनंद उसके ही मन द्वारा बाधित होता है, तब यह बात उसे मन की गहराई में जाने तथा उसे टटोलने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रयास में वह अपने ही मन की शक्तियों से परिचित होता है। अब बाहर की घटनाएँ उसे प्रभावित नहीं कर पातीं। वह स्वयं को कई दुखों से बचा ले जाता है, उसे जैसे एक नई दृष्टि मिल जाती है, एक नया जीवनदर्शन। अब वह अपने आस-पास के समाज पर नजर डालता है, उनका सुख-दुख महसूस कर पाता है। समाज के अनुभवों को बाँटते-बाँटते उसका हृदय विशाल हो जाता है, वह राष्ट्र और विश्व के साथ भी वही अपनापन महसूस करता है। देश और दुनिया के लोगों से जैसे-जैसे उसका सरोकार बढ़ता हुआ सा लगता है, वह अपने भीतर एक नए तत्व प्रेम का अनुभव करता है। उसे विश्व के प्रति अपने अंतर में उठती हुई एकत्व की भावना प्रेम के रूप में विकसित होती दिखाई देती है। प्रेम उसके अस्तित्व में समा जाता है। प्रेम की इस डगर पर एक दिन उसे अव्यक्त की झलक मिलती है, और अब वह उसकी खोज में निकल पड़ता है।’’

देखा जाए तो यह आमुख इस काव्य संग्रह का निचोड़ है, सार है। अनिता निहालानी ने संग्रह की अपनी सभी कविताओं को उनकी विषयवस्तु के अनुरूप सात भागों में विभक्त किया है और सभी भागों के पृथक शीर्षक हैं- प्रकृति, मन, जीवन दर्शन, समाज, देश दुनिया, प्रेम और अव्यक्त।
प्रकृति उनको प्रिय विषय है अतः अपनी कविताओं में उन्होंने प्रकृति की सुंदरता एवं विशालता से आरम्भ किया है। वे ‘‘प्रकृति’’ शीर्षक कविता में लिखती हैं -
अनगिन नक्षत्रों को धारे 
विस्तृत भू पर गगन विशाल 
शुभ्र नीलवर्णी अंबर पट 
सूर्य चंद्र से शोभित भाल।
निज कक्षा में भ्रमण कर रहे 
लघु, विशाल कई ग्रह अविराम 
दसों दिशाएँ देतीं पहरा 
मुक्त अनिल बहती हर याम।

     प्रकृति की विशालता कवयित्री को नक्षत्रों तक ले जाती है। वहीं ‘‘गर्मियों की एक शाम’’ का वर्णन करती हुई वे लिखती हैं -
स्मृतियों के उपवन में सजी 
उस सजीली साँझ की सुगन्ध 
रक्तिम नभ तले लौटते पंछी 
मन में भरते उच्छवास निर्बन्ध ।

यूं भी शाम का स्मृतियों से सीधा संबंध होता है। शाम होते ही मन व्याकुल हो उठता है और तब स्मृतियां जाग उठती हैं। किन्तु कवयित्री अनिता निहालानी यहीं नहीं ठहरतीं। वे निज से सर्व की ओर प्रस्थान करती हुईं बादल फटने से होने वाले विनाश को भी इंगित करती हैं और धिक्कारती हैं। ‘‘बादल फटा’’ कविता शीर्षक की कुछ पंक्तियां देखिए-
क्यों रे बादल 
क्यों फट पड़े तुम 
कहर बरपाया, 
सोते हुओं को जल समाधि दिला 
शांत हुए तुम मानव बलि पा।
हम मरे, बहे, कटे, जले 
अनगिनत बार... 
फिर-फिर जन्मेंगे 
सहने प्रकोप प्रकृति का, 
सुख पाने, प्रकृति बन महकेंगे।

प्रकृति मिट-मिट के बनती है, पुनः संवरती है, यही प्रकृति का यथार्थ है। प्रकृति की यह भी खूबी है कि वह मानव मन पर गहरी छाप छोड़ती है। वहीं मानव मन की भी अपनी एक निजी प्रकृति होती है। मन पर लिखी उनकी दो कविताओं मे से ‘‘मन-2’’ में मन की गोपनीय प्रकृति को कवयित्री ने लक्ष्य किया है-
भीतर कितने भेद छिपाए, 
बाहर रूप बदल कर आए 
द्वन्द्वों का शिकार हुआ जो, 
मन, हाँ पागल मन, कहलाए।

वर्तमान में सच झूठ के बोझ तले दबा हुआ मिलता है। दिखावा, आडम्बर, छल की प्रवृति इतनी अधिक प्रभावी हो गई है कि झूठ में से सच को छांट पाना कभी-कभी बड़ा कठिन हो जाता है। कविता है ‘‘सच’’। इसमें अनिता जी ने सच के स्वरूप की सुंदर व्याख्या की है- 
सच केवल सच होता है 
उसी तरह जैसे आकाश से तिरती बर्फ 
श्वेत, स्वच्छ, निर्मल 
सच को आवरण पहना देने से भी 
भीतर यह पवित्र रहता है
मन सच है
मन होता नहीं मलिन 
ओढ़ाए गए विचारों और कल्पनाओं से 
मन भोले निष्पाप शिशु सा

कवयित्री ने ‘समाज’ खण्ड में मानव और उसकी मनुष्यता का आकलन किया है ‘‘आदमी’’ कविता में। समाज और समाज को गढ़ने वाला मानव कितने दोहरेपन में जीता है, यह बात इस कविता में अक्षरशः उदाहरण सहित अभ्व्यिक्त है-
हम पंछियों को दाना चुगाते हैं 
गऊ माता को खिलाते हैं रोटी 
क्यों नजरें फेर लेते हैं, 
गली में खेलते नंग-धड़ंग बच्चे से...
उसकी चाल में पंछियों की सी उड़ान है, 
उसकी आँखें भी, 
मूक पशु की आँखों से 
कम सुंदर तो नहीं।
वह आदमी का बच्चा है तो, 
हिकारत का पात्र है

‘‘इस संग्रह ‘‘इन्द्रधनुष के पूर्व अनिता निहालानी के दो कविता संग्रह और प्रकाशित हो चुके हैं- ‘‘बस इतना सा सरमाया’’ और ‘‘श्रद्धा सुमन’’। यह संग्रह भी कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था किन्तु इसकी कविताओं में जो ताप है उसकी आंच को महसूस करने के लिए उनकी बार-बार चर्चा की जानी आवश्यक है। निश्चत रूप से अनिता जी के भावों में गहराई है और अभिव्यक्ति में स्पष्टता है और यही इस संग्रह की कविताओं को विशेष रूप से पठनीय बनाती है।
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(26.08.2025 )
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