Saturday, November 8, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | जड़कारो आ गओ है, अपनो अच्छे से ख्याल राखियो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | जड़कारो आ गओ है, अपनो अच्छे से ख्याल राखियो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
टाॅपिक एक्सपर्ट 
जड़कारो आ गओ है, अपनो अच्छे से ख्याल राखियो 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
अब आप कैहो के जड़कारो सो, हर की साल आऊत आए, ईमें नओ का आए? सो, नओ तो कछू नइयां, सिवाय ईके के मौसम बदल रओ जीसे सबई तरफी खांसी औ सरदी फैली आए। जोन को देखो बोई खांस रओ, छींक रओ। सो अपन को ऐसे लोगन से तनक दूरी बना के रैने। का आए के अपन ओरों मन से कछू हरों खों इत्तो सऊर नईं रैत के खांसे के टेम पे मों पे एक ठइयां रुमाल राख लेवें। बे तो बिंदास सामनेवारों के मों पे खखरत रैत आएं। जेई से खांसी फैलत जात आए। सो, बे न अपनों मों ढांपें तो अपन खुदई अपनो मों ढांप लो। संगे अब ठंडो-मंडो खाबो-पीबो छोड़ देओ। भले दुपारी में गरम सो लगे। काए से के जेई ठंडो-गरम तो नुकसान करत आए।
    औ एक बात औ के जड़कारो के संगे आ गओ आए शादी-ब्याओ को सीजन। बुरौ ने मानियो पर सांची कए रए के शादी-ब्याओ में भैया हरें सो खीब अच्छो सूट-मूट डांट के पौंचत आएं, मनो अपनी बैन हरें कछू ज्यादा दिखावा में पड़ जात हैं औ पतरी सी धुतिया-हुन्ना पैन्ह के पौंच जात आएं। देखत में तो बे बड़ी खबसूरत दिखात आएं पर ठंडी खा के बीमार परे को डर बनो रैत आए। सो, ऐसो हुन्ना पैन्हियो के फैसन को फैसन हो जाए औ ठंडी बी ने खाने परे। ने तो होत का आए के घंटा खांड़ के दिखावा में मईना भर को कष्ट पल्ले पड़ जात आए। सो, हमाई जेई बिनती आए सबई जने से के जड़कारो में अपनो ख्याल राखियो।
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Friday, November 7, 2025

शून्यकाल | डॉ. अम्बेडकर के जीवन को प्रभावित करने वाली स्त्रियां | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | डॉ. अम्बेडकर के जीवन को प्रभावित करने वाली स्त्रियां | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
शून्यकाल 
डॉ. अम्बेडकर के जीवन को प्रभावित करने वाली स्त्रियां
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

        डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने 'हिन्दू कोड बिल’ के जरिए स्त्रियों को समान अधिकार और संरक्षण दिए जाने की पैरवी की। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि स्त्रियों को संपत्ति,विवाह-विच्छेद, उत्तराधिकार, गोद लेने का अधिकार दिया जाए। स्त्री का विवाह की उसकी मर्जी के बिना न किया जाए। स्त्रियों को पढ़ने का भरपूर अवसर दिया जाए। ऐसे स्त्री-अधिकारों के पक्षधर डॉ. अम्बेडकर के जीवन को भी कुछ स्त्रियों ने प्रभावित किया था। डॉ. अम्बेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस के अवसर पर यहां प्रस्तुत हैं मेरी पुस्तक ‘‘डॉ. अम्बेडकर का स्त्रीविमर्श’’ का एक अंश।

   डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अपने जीवन में स्त्रियों के हित की रक्षा करने के लिए अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कदम उठाए। उनके इन कदमों के पीछे वे स्त्रियां मौजूद थीं जिन्होंने जाने-अनजाने डॉ. अम्बेडकर के जीवन को प्रभावित किया। उनमें जीवनदायिनी मां भीमाबाई, बुआ मीराबाई, सौतेली मां जिजाबाई, प्रथम पत्नी रमाबाई प्रमुख थीं। 

*जीवनदायिनी मां भीमाबाई -* डॉ. अम्बेडकर की मां भीमाबाई वाक्चातुर्य की धनी, सुन्दर, सुशील और धर्मपरायण थीं। वे अत्यन्त स्वाभिमानी थीं। रामजी सकपाल अपने अल्प वेतन से पैसे बचाकर भीमाबाई के पास भेजते थे जो पूरे परिवार के लिये पर्याप्त नहीं था। परिवार के खर्चों को पूरा करने के लिये भीमाबाई ने सान्ताक्रूज में सड़क पर बजरी (कंकड़-पत्थर) बिछाने की मजदूरी का काम करना शुरू कर दिया। कुछ समय बाद भाग्य ने करवट ली और रामजी सकपाल की योग्यता को पहिचान कर उन्हें पूणे के पन्तोजी विद्यालय में पढ़ने का अवसर दिया गया परीक्षा पास करने के उपरान्त उन्हें फौजी छावनी के विद्यालय में अध्यापक का पदभार सौंपा गया। शीघ्र ही उन्हें प्रधान अध्यापक बना दिया गया। वे लगभग चौदह वर्ष तक प्रधान अध्यापक रहे। जिससे उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती गयी। इस बीच भीमाबाई ने तेरह संतानों को जन्म दिया जिनमें सात संताने ही जीवित रहीं, शेष का बचपन में ही निधन हो गया था।
भीमाबाई बहुत अधिक व्रत-उपवास करती थीं। साथ ही उनकी बीमारी का सही निदान न होने के कारण स्वास्थ्य लगातार गिरने लगा। रामजी सकपाल का स्थानांतरण अलग-अलग छावनियों में होता रहता था। महू (मध्यप्रदेश में इन्दौर के निकट) में रहते समय रामजी सकपाल और भीमाबाई ने कामना की कि उनका एक ऐसा पुत्र उत्पन्न हो जो दीन दुखियों की सेवा करे। भीमाबाई की यह प्रार्थना शीघ्र ही फलीभूत हुई और उन्होंने 14 अप्रैल 1891 को एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम भीमराव रखा गया। भीमराव को अपनी मां का स्नेह अधिक समय तक नहीं मिल पाया। अस्वस्थता के कारण भीमाबाई का निधन हो गया।
भीमराव अपनी मां को ‘बय’ कह कर पुकारते थे। उन्हें अपनी मां से अगाध स्नेह था। मां की मृत्यु के उपरान्त भी वे अपनी ‘बय’ को कभी भुला नहीं सके। स्वाभिमान, दृढ़ इच्छाशक्ति और किसी भी संकट का साहस के साथ सामना करने का गुण भीमराव को अपनी मां भीमाबाई से मानो अनुवांशिक रूप में मिला था। यह गुण भी उन्हें अपनी मां से ही मिला था कि कोई भी काम छोटा नहीं होता है। ये सारे गुण भीमराव को जीवन में सतत आगे बढ़ाते रहे।

*बुआ मीराबाई -* मीराबाई डॉ. अम्बेडकर की बुआ थीं। वे उत्साही होने के साथ परिवार-प्रबंधन में निपुण थीं। दुर्भाग्यवश उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं था। पति से अनबन के कारण उन्हें मायके में अपने छोटे भाई रामजी सकपाल के साथ रहना पड़ रहा था। भीमराव की मां भीमाबाई का निधन होने के बाद मीराबाई ने भीमराव को मां की कमी नहीं होने दी। भीमराव के प्रति उनका अगाध स्नेह था। मीराबाई अत्यंत मितव्ययी थीं। किन्तु बालक भीमराव को यही लगता था कि बुआ के पास पर्याप्त पैसा है। इसीलिए जब भीमराव के मन में विचार आया कि कुली का काम कर के वे परिवार को इच्छित सहयोग नहीं कर सकते हैं और उन्हें मुंबई जा कर मिल में काम करना चाहिए, तो उन्हें मुंबई जाने के लिए धन की आवश्यकता का अनुभव हुआ। उन्हें लगा कि बुआ जिस बटुवे को हमेशा अपनी कमर में खोंसे रहती हैं, उसमें अवश्य इतना पैसा निकल आएगा कि वे उस पैसे से मुंबई पहुंच जाएंगे। वे बुआ से पैसे मांग कर अपने मुंबई जाने का इरादा प्रकट नहीं करना चाहते थे। अतः उन्होंने बुआ के बटुए से चुपचाप पैसे निकालने का निश्चय किया। रात को भीमराव और उनके बड़े भाई बुआ की दाईं-बाईं ओर सोते थे तथा यह क्रम बदलता रहता था। जिस रात भीमराव बटुवे की ओर सोए, उन्होंने चुपके से बटुवा खोल कर देखा। बटुवे में झांकते ही वे सन्न रह गए। बटुवे में मात्र दो पैसे थे। भीमराव का यह भ्रम टूट गया कि बुआ के पास पर्याप्त पैसे हैं। वे सोच में पड़ गए कि इतने कम पैसों में बुआ इतने सारे सदस्यों का लालन-पालन कैसे कर रही हैं? उन्हें अपने किए पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने मुंबई जाने का निश्चय छोड़ कर पढ़ाई में मन लगाने का निश्चय किया। उन्हें लगा कि पढ़-लिख कर ही वे परिवार का सहारा बन सकते हैं। इस घटना के बाद भीमराव के व्यक्तित्व का कायाकल्प हो गया। पढ़ाई के प्रति उदासीन रहने वाला बालक पढ़ाई के प्रति समर्पित हो गया। जो शिक्षक पहले भीमराव के ठीक से न पढ़ने की शिकायत उनके पिता से करते रहते थे, वे अब भीमराव की बुद्धिमानी को देखते हुए उन्हें आगे पढ़ाने का आग्रह करने लगे। यह परिवर्तन बुआ मीराबाई के मितव्ययी स्वभाव और ममत्व के कारण हुआ।


*सौतेली मां जिजाबाई -* भीमाबाई की मृत्यु के बाद डॉ. अम्बेडकर के पिता रामजी सकपाल ने दूसरा विवाह जिजाबाई से किया। जिजाबाई विधवा थीं। जिजाबाई भी रामजी सकपाल के प्रति पूर्ण समर्पिता रहीं। किन्तु बालक भीमराव को उस समय अपनी सौतेली मां पर बहुत क्रोध आता था जब वे उनकी ‘बय’ अर्थात् मां भीमाबाई के कपड़े और जेवर पहन लेती थीं। एक बार त्यौहार के अवसर पर जिजाबाई ने भीमाबाई के कपड़े-जेवर पहन लिए। यह देख कर उन्हें अपनी सौतेली मां पर बहुत क्रोध आया। वे अपनी सौतेली मां जिजाबाई से झगड़ा करने लगे। उसी समय रामजी सकपाल घर आ गए। उन्होंने झगड़े का कारण पूछा तो बालक भीम ने कारण बता दिया। यह सुन कर पिता ने भीमराव को ही डांट दिया। इस पर भीमराव को लगा कि उन्हें स्वयं पैसे कमाने होंगे। इसीलिए उन्होंने ढोर चराए, खेत पर काम किया और तो और कुली का भी काम किया। यद्यपि इसके बाद उनके ज्ञानचक्षु खुल गए और वे समझ गए कि यदि वे परिवार की सहायता करना चाहते हैं तो उन्हें अध्ययन में मन लगाना होगा।
आयु के बढ़ने के साथ-साथ भीमराव अपनी सौतेली मां जिजाबाई के मनोविज्ञान को समझते गए और वे उनके चिड़चिड़े स्वभाव को अनदेखा कर उन्हें सदा मान-सम्मान देते रहे। यहां तक कि जिजाबाई की मृत्यु के शोक में डूबे होने के कारण उन्होंने नवम्बर 1997 में दलित वर्ग द्वारा आयोजित सम्मेलन में भाग नहीं लिया।


*पत्नी रमाबाई -* डॉ. अम्बेडकर जब मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की तभी उनके विवाह के लिए योग्य लड़की की खोज शुरू कर दी गई। उनके लिए रामीबाई को पसन्द किया गया। उस समय रामीबाई नौ साल की थीं और भीमराव सोलह साल के थे। विवाह के बाद रामीबाई का नाम बदल कर रमाबाई रखा गया। रमाबाई बचपन से ही शांत स्वभाव की थीं। वे मितव्ययी और सहनशील भी थीं। मैट्रिक उत्तीर्ण छात्र भीमराव को संविधान निर्माता बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर के स्वरूप तक पहुंचने में रमाबाई के समर्पित सहयोग को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। डॉ. अम्बेडकर उच्चअध्ययन के लिए अमेरिका गए उन दिनों रमाबाई गर्भवती थीं। शीघ्र ही उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम गंगाधर रखा गया। दुर्भाग्यवश गंगाधर बचपन में ही परलोक सिधार गया। उनके दूसरे पुत्र यशवंत का स्वास्थ्य प्रायः खराब रहता था जिसकी चिकित्सा के लिए वे जूझती रहती थीं किन्तु अपने पति डॉ. अम्बेडकर के अध्ययनकार्य को बाधित नहीं होने देती थीं। लंदन में अध्ययन के समय डॉ. अम्बेडकर को अपने मित्र से उधार मांग कर काम चलाना पड़ा। उस समय भी रमाबाई ने धन की कमी का उलाहना अपने पति को कभी नहीं दिया। उनका प्रयास यही रहता था कि पारिवारिक विषमताओं का प्रभाव डॉ. अम्बेडकर के जीवन पर न पड़ने पाए और वे निश्चिन्त भाव से अपने महान उद्देश्यों की पूर्ति में संलग्न रहें। रमाबाई के इस समर्पित भाव का डॉ. अम्बेडकर के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और वे भारतीय समाज की प्रत्येक स्त्री की जीवनदशा एवं संघर्षों के बारे में गहराई से समझ सके।


*सविता देवी -* पत्नी रमाबाई की मृत्यु के उपरान्त डॉ. अम्बेडकर ने सामाज में जातिगत एकता का आदर्श स्थापित करते हुए ब्राह्मण परिवार की विधवा स्त्री सविता देवी से विवाह किया। सविता देवी सुशिक्षित थीं। पुत्र यशवंत राव के विवाह में डॉ. अम्बेडकर के सम्मिलित न हो पाने पर सविता देवी ने मां के रूप में विवाह में सहयोग दिया। वे डॉ. अम्बेडकर के अंतिम समय तक उनके साथ रहीं तथा उनके कार्यों में उन्हें सहयोग देती रहीं। विवाह से पहले उनकी पत्नी का नाम शारदा कबीर था। डॉ. अम्बेडकर के साथ ही उन्होंने ने भी बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था।

डॉ. अम्बेडकर के जीवन से जुड़ी इन सभी स्त्रियों ने प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से उन पर अपना स्थाई प्रभाव डाला। इन स्त्रियों के जीवन और समाज में उनके स्थान तथा उनके कर्त्तव्यबोध के प्रति डॉ. अम्बेडकर सदा चिन्तनशील रहे तथा इससे उन्हें समाज में स्त्री की दशा को समझने का पर्याप्त अवसर मिला।  
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शून्यकाल | डॉ. अम्बेडकर के जीवन को प्रभावित करने वाली स्त्रियां | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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Thursday, November 6, 2025

बतकाव बिन्ना की | किसानों खों बिजली मने जबरा मारे औ रोन न दे | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की | किसानों खों बिजली मने जबरा मारे औ रोन न दे
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
          जो अपने इते की कहनातें होत आएं, बे बड़े पते की होत आएं। जैसे अबे कल्ल की बात आए भैयाजी, भौजी औ मैं, हम तीनों बैठे बतकाव कर रए हते के तभई गांव से हल्के भैया आ गए। उने देखतई साथ भैयाजी ने पूछी के ‘‘काए हल्के, मोंमफली लाए के नईं?’’
‘‘हऔ, काय ने लाते? जब आपसे बोल दई ती सो बोल दई ती। चाय कछू हो जातो हम तो लातेई।’’ कैत भए हल्के भैया ने मोेमफली की थैलिया भौजी खों पकरा दई।
‘‘आप तो औ! हल्के भैया बैठ पाए नईं औ आप मोंमफली मांगन लगे। इने तनक सांस तो ले लेन देते।’’ भौजी ने भैयाजी खों झिड़को। फेर हल्के भैया से बोलीं,‘‘ठैरो आपके लाने पानी ला रई। पैले चाय पीहो के सूदे खाना खैहो?’’
‘‘खाने की रैन देओ! आप तो पैले हमें ठंडो पानी पिवाओ औ फेर अच्छी अदरक वारी चाय पिवा दइयो।’’ हल्के भैया बोले।
‘‘अरे नईं! हमने आपके लाने खाना बनाओ आए। बस, गरमा गरम गांकड़े सेंक देबी। सो, पैले चाय पीलो, सुस्ता लेओ फेर सबई जने खाना खा लइयो।’’ भौजी बोलीं। खवाबे-पिवाबे में बे बड़ी उदार ठैरीं। 
‘‘आपके लाने याद कहाई के हमने आपसे कई हती कि अगली बेरा जब हम आहें तो गांकड़े खाहें।’’ हल्के भैया खुस होत भए बोले।
‘‘काय ने याद रैहे? आप ऊंसई तो कछू नईं खात, कम से कम एक बेर तो आपने गाकड़े खाबे की बोली। हमें तो भौतई अच्छो लगो। जो खाबे खों मन होय आप तो फोन कर के बोल दए करो, हम बना के राखबी आपके लाने।’’ भौजी सोई खुस होत भई बोलीं।
‘‘औ बिन्नाजू आप कैसी हो? सब ठीक-ठाक तो आए न?’’ हल्के भैया ने मोसे पूछी।
‘‘हऔ भैया! सब ठीक आए। आप सुनाओ के का चल रओ? काए की बुआनी करी ई टेम पे?’’ मैंने हल्के भैया से पूछी।
‘‘काय की बुआनी? इते तो जे दसा आए के जबरा मारे औ रोन न दे।’’ हल्के भैया दुखी होत भए बोले। 
‘‘काय का हो गओ?’’ मैेने औ भैयाजी ने एक संग पूछो।
‘‘अब का बताएं अब तो किसानी करे में भौतई सल्ल बिंधत जा रई। को जाने का हुइए हम ओरन को?’’ हल्के भैया को मों उतर गओ।
‘‘का हो गओ? कछू तो बताओ।’’ भैयाजी ने फेर के पूछी।
‘‘का बताएं। सरकार ने कई रई के हम ओरन खों सिंचाई के लाने चैबीस घंटा पानी दओ जैहे। मनो बिजली विभाग वारे कै रए के 10 घंटा से ज्यादा बिजली नई दई जैहे। बिजली कंपनी के मालिक हरों ने तो उते काम करे वारन खों धमका दओ आए के जो कोऊ 10 घंटा से ज्यादा बिजली किसानों खों दई ऊकी तनखा से पइसा काटे जाहें। अब आपई बताओ के ईमें हम ओरें का करें? कां तो सोची रई के सरकार 24 घंटा बिजली दैहे सो अच्छी से सिंचाई हुइए, अच्छी खेती हुइए, अच्छी फसल हुइए, ओ इते बिजली कंपनी उल्टे हाथ से थपड़यात भई कै रई के किसानों कों कोऊ 10 घंटा से ज्यादा बिजली ने दे। अब ऊके करमचारी अपने मालिक की ने मानहें तो उनकी तनखा से कटहे। औ जो हम ओरें कछू कहबी सो बे कहन लगहें के 10 घंटा तो दे रए, औ का चाउने? अब उनखों कैसे समझाएं के ने तो सबई माटी एक सी होत औ ने सबई फसल एक सी होत। कऊं ज्यादा पानी लगत तो कऊं कम। अब आपई ओरें बताओ के हम ओरें का करें।’’ हल्के भैया ने अपनी पूरी प्राब्लम बता डारी। 
‘‘आपकी बात सुन के सो हमें जा लग रओ के कोनऊं दिनां बा बिजली वारे जा ने कैन लंगें के पैले अपनी फसल की जड़ें नप्पों औ बताओ के कित्तो पानी लगहे, फेर हम उत्तोई पानी देबी।’’ मैंने हल्के भैया से कई।
‘‘का मतलब?’’ हल्के भैया ने पूछी।
‘‘मतलब जे भैया के एक हतो आप घांई किसान। ऊको कोनऊं काम से कछू दिनां के लाने बायरे जाने रओ। ऊको समझ ने पर रई हती के कोन खों खेत सौंप के जाएं? काए से के सिंचाई को बखत रओ। ऊके खेत के चारो तरफी जंगल हतो जीमें बंदरा रैत्ते। बंदरा के मुखिया से ऊ किसान की अच्छी दोस्ती रई। सो, बंदरा के मुखिया ने किसान खों परेसान देखो तो ऊसे परेसानी को कारन पूछो। सो किसान ने ऊको अपनी परेसानी बताई। ईपे बा बंदरा मुखिया बोलो के बस, इत्ती सी बात? हमाई टीम के बंदरा कब काम आहें? जा सुन के किसान भौतई खुस भओ। पर ऊने कई के जो ऐसो हो जाए तो भौतई अच्छो रैहे। बस, तनक ध्यान जे राखने के जोन तरफी के पौधा खों जित्तो पानी चाउने, उत्तई दइयो। बंदरा मुखिया ने कई के तुम फिकर ने करो सब खों नप्प के पानी दओ जैहे।’’ मैंने तनक ठैर के सांस लई।
‘‘फेर का भओ?’’ हल्के भैया ने पूछी।
‘‘होने का रओ, किसान खुसी-खुसी बायरे चलो गओ औ बंदरा मुखिया अपनी टीम ले के ऊके खेत में आ गओ। ऊने अपनी टीम खों आदेस दओ के पौधन में पानी उत्तई डारने के जित्ती जरूरत होए। टीम ने पूछी के जे हमें कैसे पता परहे के कोन पौधा को कित्ती जरूरत आए? जा सुन के बंदरा मुखिया बोलो के गुड क्वेश्चन! औ इस क्वेश्चन को आंसर जो आए के तुम ओंरे पैले पौधा को उखाड़ के ऊकी जड़ नप्पियो औ फेर जड़ के हिसाब से पानी डारियो। टीम खों जो आइडिया भौतई पुसाओ। उन ओरन ने ऊंसई करो। जब किसान अपनो काम निपटा के कछू दिनां बाद अपने खेत को लौटो तो ऊने खेत की दसा देख के अपनो मूंड़ पकर लओ। पूरो खेत सिंचो तो दिखा रओ हतो मनो सारे सारी फसल औंदी दिखा रई हती। तब किसान ने बंदरा मुखिया से पूछो के जे ऐसी दसा कैसे भई तो बंदरा मुखिया बोलो के का पता पौधन खों का भओ? काए से हम ओंरे तो जड़े नप्प-नप्प के पानी डारत्ते। किसान ने सुनी तो उतई गश खा के गिर परो। सो आप ओरें गश ने खइयो जो कभऊं आप ओरन से कई जाए के फसल की जड़े नप्प के पानी डारो करे।’’ मैंने किसां सुनात भई हल्के भैया खों समझाओ।
‘‘सई कै रई बिन्ना। हम तो अच्छे बेवकूफ बने। हमने सुनी के चैबीस घंटे पानी मिलहे सो हमने जो पैले ज्वार बोने की सोची रई, ऊके बदले पिसी बो दई अब पतो पर रओ के दस घंटा से ज्यादा बिजली ने मिलहे। हम तो बुरे फंसे। सरकार औ बिजली कंपनी दोई ने मिल के जबरा मारो औ अब रोन बी नईं दे रए।’’ हल्के भैया घबड़ाए से बोले।
‘‘घबड़ाओ ने, सब ठीक रैहे।’’ भैयाजी ने हल्के भैया खों तनक सउरी बंधाई।
‘‘घबड़ाएं कैसे न, काए से के मौसम को बी कोनऊं भरोसो नई रै गओ आए। कभऊं बी ओला-पानी होन लगत आए। अब तो ऐसो लगत के हम किसानी ज्यादा दिन ने कर पाबी।
‘‘ऐसो ने कओ हल्के भैया! जो आप ओरें किसानी ने करहो, सो हम ओरो खों खाबे के लाने अनाज कां से मिलहे?’’ मैंने हल्के भैया से कई।
‘‘सो का करो जाए बिन्ना? ऐसई अधपर की ब्यबस्थाओं के कारन सो कितेक किसान खेतीबाड़ी बेंच के बड़े शहर चले गए जां उने मजूरी करने पर रई। जो इते सब ठीक रए तो इते से कोऊ काए खों जाए?’’ हल्के भैया ने कई।
‘‘फिकर ने करो भैया, कछू तो हल निकरहे। आप ओरें मिलके सरकार से कओ, बा कछू हल निकारहे। बाकी चलो आप ओरें, हम खाना परोस रए।’’ भौजी बोलीं।
हम ओरन ने हाथ धोओ। फेर बैठ गए जीमबे के लाने। बाकी थारी में जब भौजी ने गांकड़ धरी तो मोए हल्के भैया की पीरा चुभन लगी। हमाई-तुमाई थारी लौं आत-आत ई गाकड़ों के लाने किसान खों कित्ती मेनत करने परत आए, अपन नईं समझ सकत। मनो अब सबई खों समझने परहे।  
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के किसानों के हित की बतकाव करबे औ सई में ऊको हित करबे में अंतर कैसे मिट सकत आए?
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Wednesday, November 5, 2025

चर्चा प्लस | सड़क दुर्घटनाएं, यातायात व्यवस्था और हम | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

(दैनिक, सागर दिनकर में 05.11.2025 को प्रकाशित)  
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चर्चा प्लस
सड़क दुर्घटनाएं, यातायात व्यवस्था और हम 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
      सड़कों पर गाड़ियां बढ़ी हैं और साथ ही सड़क दुर्घटनाएं भी। विशेष रूप से मंझोले शहरों में स्थिति भयावह है क्योंकि वहां गाड़ियों की भरमार तो है लेकिन चालकों में ट्रैफिकसेंस नहीं है और यातायात व्यवस्था चरमराई रहती है। नाबालिग बच्चों को भी बाईक और स्कूटी चलाते देखा जा सकता है। कमाल हैं वे माता-पिता भी जिन्हें अपने नाबालिग बच्चों को बाईक सौंपते हुए डर नहीं लगता है। यातायात का सबसे बुनियादी स्लोगन है ‘‘कभी नहीं से देर भली’’। लेकिन आज चालकों को देख कर लगता है कि वे सोचते हैं-‘‘देरी से कभी नहीं भली’’। क्या यह रवैया उचित है?  

अभी कल ही की बात है, मैं सिविल लाइन्स से मकरोनिया लौट रही थी। अपनी स्कूटी से। इतने में जोर का हाॅर्न सुनाई देने लगा। पीछे से कोई बाईकर लगातार हाॅर्न बजाता हुआ पीछे से तेजी से चला आ रहा था। पल भर बाद ही वह मेरे बाजू से गुज़रा। इतनी स्पीड से कि मेरे बहुत किनारे होने पर भी मुझे उसके गुज़रने से हवा का झोंका-सा लगा। मेरे आगे बाईक पर जा रहे दो युवाओं में से एक ने तो बौखला कर चिल्ला कर उसे गाली भी दे डाली। परन्तु वह तो हवा-हवाई हो गया था। उसकी स्पीड ऐसी थी मानो किसी रेसिंग ट्रेक पर बाईक दौड़ा रहा हो और उसे गोल्ड मेडल जीतना हो। जबकि उस रोड पर अच्छा-खासा ट्रैफिक रहता है। उसकी स्पीड इतनी अधिक थी कि यदि उसे इमर्जेंसी ब्रेक लगाना पड़ता तो सिर के बल पलटना तय था। बेशक उसने हैलमेट लगा रखा था लेकिन पूरे जोर से सिर के बल गिरने पर सिर फूटने से भले बचता लेकिन गरदन तो टूटती ही। उसकी उस स्पीड से दूसरे चालक घबरा गए थे, चैंक गए थे। मैं भी। घर आ कर मैंने सोचा कि उसे इतनी जल्दी कहां थी जाने की जो वह अपनी हाई स्पीड की परवाह नहीं कर रहा था। सच पूछा जाए तो उसे कहीं जल्दी नहीं पहुंचना रहा होगा। बस, आजकल युवा बाईकर्स में जो शोआॅफ का चलन है उसी को वह फालो कर रहा था। अपनी जान जोखिम डाल कर। न सिर्फ खुद की बल्कि उनकी भी जो उसकी बाईक की चपेट में आ सकते थे। कहां था उस समय गति नियंत्रक? नहीं, सागर जैसे छोटे शहर में गति मापक शहर के अंदर की सड़कों पर नहीं हैं। केवल निर्देश हैं जिन्हें देखने की आदत चालकों को नहीं है। 
यूं भी सुबह-सवेरे जब अखबार उठा कर शीर्षक पढ़ो तो कई बार राजनीति से भी अधिक सड़क दुर्घटनाओं की ख़बरें रहती हैं। कहीं कोई अनियंत्रित वाहन किसी पर चढ़ गया तो कहीं कोई वाहन चालक ओवरटेक करते हुए किसी भारी वाहन के तले आ कर कुचल गया। इतना ही नहीं, सड़क पर खेलते बच्चे और आवारा पशु भी दुर्घटनाओं को दावत देते रहते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में हर घंटे औसतन 55 सड़क हादसे हो रहे हैं, जिसमें 20 लोगों की मौत होती है। इस आधार पर भारत में सड़क दुर्घटनाओं में मृत्यु दर लगभग 17 प्रति 100,000 व्यक्तियों पर थी। एनसीआरबी के 2021 के आंकड़ों के अनुसार भारतीय रेलवे में 17,993 दुर्घटनाएँ हुईं, जो वर्ष 2020 की तुलना में 38 प्रतिशत की वृद्धि है, जिसमें सबसे अधिक दुर्घटनाएँ महाराष्ट्र में हुईं। वर्ष 2025 में अब तक यह संख्या और अधिक बढ़ चुकी है। वर्ष 2025 में अब तक हुईं 13,000 से अधिक सड़क दुर्घटनाएं, लगभग 7,700 मौतें दर्ज हो चुकी हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में इस साल 1 जनवरी से 20 मई के बीच सड़क हादसों की संख्या 13,000 से ज्यादा रही, जिनमें लगभग 7,700 लोगों की जान चली गई। ये आंकड़े बेहद चैंकाने वाले हैं और राज्य में सड़क सुरक्षा को लेकर चिंता बढ़ाते हैं। अगर पिछले वर्षों से तुलना करें तो 2024 में कुल 46,052 सड़क दुर्घटनाएं हुई थीं, जिनमें 24,118 मौतें और 34,665 लोग घायल हुए थे। वहीं 2023 में ये संख्या थोड़ी कम थी। जब 44,534 हादसों में 23,652 लोगों की मौत हुई थी और 31,098 लोग घायल हुए थे।
मध्य प्रदेश 2023 में सड़क दुर्घटनाओं में देश के सबसे खतरनाक राज्यों में से एक रहा, जहां छब्त्ठ रिपोर्ट के अनुसार 14,098 मौतें दर्ज हुईं, जो देश की कुल मौतों का 9।8ः है। 54,763 दुर्घटनाओं में 5।4 प्रतिशत की वृद्धि हुई। पुलिस ट्रेनिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (पीटीआरआई) के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में वर्ष 2024 में 14 हजार 791 लोगों की मृत्यु सड़क दुर्घटनाओं में हुई है, जबकि 2023 से 13 हजार 798 लोगों की जान चली गई थी।ग्रामीण क्षेत्रों की सड़कों पर हुई मौतों की संख्या शहरी क्षेत्र की तुलना में दोगुना से भी अधिक है। ग्रामीण क्षेत्र की सड़कों पर दुर्घटनाओं से लगभग नौ हजार लोगों की मौत हुई है। पिछले चार वर्ष से यह संख्या आठ हजार से नौ हजार के बीच है। इसका कारण यह है कि भीड़ नहीं होने के कारण लोग तेज गति से वाहन चलाते हैं। दूसरा यह की सड़कों पर संरक्षा (सेफ्टी) मापदंडों का पालन भी ठीक से नहीं हो पाता।
मध्य प्रदेश में सड़क दुर्घटना की वजह से हर साल करीब 14 हजार लोगों की जान चली जाती है। इसमें 53 प्रतिशत मौत दो पहिया वाहन चालकों की होती है। जिसका बड़ा कारण टू व्हीलर चालकों का हेलमेट नहीं पहनना है। एमपी में होने वाले रोड एक्सीडेंट को लेकर आईआईटी मद्रास ने रिसर्च किया है। जिसमें सामने आया कि दो पहिया वाहन चालकों की 75 प्रतिशत मृत्यु का कारण हेलमेट नहीं पहनना है। मध्य प्रदेश में होने वाले रोड एक्सीडेंट को लेकर आईआईटी मद्रास ने एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है। इसमें बताया गया है कि सड़क दुर्घटनाओं के कारण प्रदेश को हर साल 14,308 करोड़ से लेकर 38,055 करोड़ रुपए तक का नुकसान होने का अनुमान है। वहीं साल 2023 की बात करें तो रोड एक्सीडेंट के मामले में मध्य प्रदेश देश का चैथा राज्य था। जहां सबसे अधिक सड़क दुर्घटनाएं होती है। मध्य प्रदेश में साल 2023 में रोड एक्सीडेंट से 13,798 लोगों की मौत हुई है।

प्रदेश में सड़क दुर्घटना से होने वाली मौत में 15 प्रतिशत भागीदारी महिलाओं की है। साल 2023 में रोड एक्सीडेंट की वजह से 2165 महिलाओं की मौत हुई। जबकि 84।4 प्रतिशत यानि 11,633 पुरुष सड़क दुर्घटना का शिकार हुए। वहीं इस दौरान नेशनल हाइवे पर एक्सीडेंट से 32 प्रतिशत यानि 4,476 लोगों की मृत्यु हुई। इसी तरह स्टेट हाइवे में 22 प्रतिशत यानि 2,960 लोगों की मौत हुई। जबकि 6,362 लोगों की मौत अन्य सड़कों पर हुई।
सड़क दुर्घटना में जान गंवाने वाले 75 प्रतिशत लोग 18 से 45 वर्ष की आयु के होते हैं। साल 2023 में सड़क दुर्घटना से 24 प्रतिशत मौत 18 से 25 वर्ष की आयु के लोगों की हुई। जबकि रोड एक्सीडेंट में जान गंवाने वाने 20 प्रतिशत लोग 25 से 35 वर्ष के रहे। वहीं 35 से 45 वर्ष वाले 22 प्रतिशत लोगों की जान एक्सीडेंट से हुई। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सड़क दुर्घटना में जान गंवाने वाले 87 प्रतिशत लोग वर्किंग एज ग्रुप के हैं।
दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या का एक कारण यह भी है कि मध्य प्रदेश में ट्रैफिक पुलिस का अमला मात्र साढ़े तीन हजार है, जबकि जिस तरह से वाहनों की संख्या बढ़ रही है उससे इसका दोगुना पुलिस बल चाहिए।
मध्य प्रदेश में ब्लैक स्पाट यानी दुर्घटना संभावित क्षेत्रों की संख्या घटने की जगह बढ़ रही है। इनकी संख्या 400 से अधिक है। स्थायी तौर पर इस समस्या को हल करने के लिए जिम्मेदार एजेंसिया रुचि नहीं ले रही हैं।
पुलिस की चेकिंग के दौरान चालान की कार्रवाई में सबसे अधिक ध्यान हेलमेट और सीट बेल्ट नहीं लगाने वालों पर रहता है। दोनों को मिला लें तो प्रतिवर्ष आंकड़ा औसत 10 लाख के ऊपर रहता है, जबकि तेज गति से वाहन चलाने वालों में 50 हजार के विरुद्ध भी कार्रवाई नहीं होती।
लेकिन अपनी लापरवाही का ठीकरा दूसरों के सिर पर फोड़ कर मुक्त नहीं हुआ जा सकता है। हर नागरिक को साचना होगा कि वह अपनी जान की कितनी परवाह करता है? या फिर उसके सड़क दुर्घटना में मारे जाने पर उसके परिजन पर क्या बीतेगी? वही बाईकर युवक जिसका मैंने आरंभ में उल्लेख किया, संभवतः मित्रों से मिलने की जल्दबाजी में रेस कर रहा था। हर गाड़ी को ओवरटेक करता हुआ गाड़ी भगा रहा था। ईश्वर न करे, किन्तु उसे रास्ते में कुछ हो जाए तो उसके मित्र हमेशा उसकी प्रतीक्षा करते रह जाएंगे। उसकी बहन राखी बांधने को भाई की कलाई के लिए तरसेगी और माता-पिता अपने घर के चिराग के बुझने पर कैसा महसूस करेंगे यह बयान कर पाना लगभग असंभव है। इस प्रकार की कल्पना करने पर बात कठोर है किन्तु इस निर्मम सत्य को ठुकराया भी नहीं जा सकता है। क्या अक्ष्छा नहीं होगा कि जब कोई अपना वाहन ले कर सड़क पर निकले तो स्वयं की सुरक्षा और अपने परिजन की भावनाओं ध्यान में रखे। साथ चलते दूसरे राहगीरों की सुरक्षा का भी ध्यान रखे। सड़क आखिर सड़क होती है, कोई रेसिंग का मैदान नहीं जहां असीमित रफ्तार से गाड़ी दौड़ाई जा सकती हो। 
यह भी शर्म की बात है कि यातायात सुरक्षा सप्ताह मना कर याद दिलाने का प्रयास करना पड़ता है कि सड़क पर सुरक्षा के क्या नियम-कायदे है। सड़क दुर्घटनाओं के लिए जितनी जिम्मेदार यातायात व्यवस्था है उतनी ही जिम्मेदार वे लोग हैं जो अनियंत्रित गति से वाहन दौड़ाते हैं या फिर शराब पी कर वाहन चलाते हैं। यदि उन्हें कोई पकड़ नहीं रहा है, उनका कोई चालान नहीं काट रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि नियमों का उल्लंघन कर के अपनी और दूसरों की जान जोखिम में डालें। वह स्लोगन है न कि ‘‘सावधानी में ही सुरक्षा है।’’ सो कोई भी गाड़ी चलाते समय दो बातें दिमाग में हमेशा रखनी चाहिए कि कभी नहीं से देर भली और सावधानी में सुरक्षा है। वरना सड़क दुर्घटनाओं के आंकड़े इसी तरह बढ़ते रहेंगे और सैकड़ों परिवारों का जीवन से सुख उजड़ता रहेगा।                     
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Tuesday, November 4, 2025

पुस्तक समीक्षा | दर्द से ताहिली तक : भावनाओं की पैरवी करती ग़ज़लें | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा | दर्द से ताहिली तक : भावनाओं की पैरवी करती ग़ज़लें | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा
दर्द से ताहिली तक : भावनाओं की पैरवी करती ग़ज़लें
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह  - दर्द से ताहिली तक
कवयित्री     - सपना ‘क्षिति’
प्रकाशक     -  जवाहर पुस्तकालय हिन्दी पुस्तक प्रकाशक एवं वितरक मथुरा-281001 (उ.प्र.)
मूल्य       - 250/-
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फारसी से उर्दू और उर्दू से हिन्दी में आई ग़ज़ल विधा को एक देशकालजयी काव्य विधा कहा जा सकता है। जब बात आती है हिन्दी और उर्दू की मिश्रित ग़ज़लों की तो अपने आप कौंधने लगती हैं अमीर खुसरो की हिन्दवी ग़ज़लें। अमीर खुसरो ने अपनी ग़ज़लों के शेरों में प्रथम पंक्ति फारसी में कहा तो दूसरी पंक्ति तत्कालीन हिन्दी में। जैसे-
जे-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तगाफुल दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम ऐ जाँ न लेहू काहे लगाए छतियाँ
शबान-ए-हिज्राँ दराज चूँ जुल्फ ओ रोज-ए-वसलत चूँ उम्र-ए-कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ

अमीर खुसरो की इन सूफ़ियाना हिन्दवी ग़ज़लों ने ग़ज़ल विधा को सार्वभौमिक स्वरूप दिया। वर्तमान में हिन्दी ग़ज़लों में उर्दू की प्रचुरता से समावेश भी लिता है, भले ही उसे हिन्दवी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है किन्तु हिन्दी और उर्दू का संतुलित प्रयोग हिन्दी ग़ज़ल के अंतर्गत बहुप्रचलित है तथा मान्य भी है। इस संदर्भ में सपना ‘‘क्षिति’’ की ग़ज़लें हिन्दवी का स्मरण कराती हैं यद्यपि इसका आशय यह नहीं है कि उनकी ग़ज़लें अमीर खुसरो की ग़ज़लों के समकक्ष हैं किन्तु वे आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल विधा में भाषाई सौंदर्य के साथ सामने आती हैं।

यूं तो सपना ‘‘क्षिति’’ को काव्य सृजन की रुचि अपनी अवयस्क आयु से ही थी किन्तु जैसा कि उन्होंने अपने आत्मकथ्य में लिखा है कि विवाह के बाद उनके लेखन पर लगभग प्रतिबंध लग गया। यह बहुतेरी स्त्रियों के साथ हुआ है और होता रहता है कि ससुराल में सहयोग न मिलने से उनकी सृजनात्मकता धुंधली पड़ने लगती है। कई बार तो स्त्रियां अपनी साहित्यिक सृजनात्मकता को भूल कर घ-गृहस्थी की पर्याय बन कर रह जाती हैं। सपना ‘‘क्षिति’’ के साथ भी यही हो रहा था किन्तु उन्होंने विरोधों के समक्ष घुटने नहीं टेके। वे अपने आत्मकथ्य में लिखती हैं कि ‘‘चुनौतियों का सामना मुझे करना पड़ा। गजलों की तरफ मेरा रुझान 2017 से हुआ। उर्दू भाषा मुझे शुरू से ही अपनी ओर आकर्षित करती थी सो मैंने उम्दा गजलकारों को पढ़ना प्रारंभ कर दिया और इस तरह गजलों पर भी अपना हाथ आजमाना प्रारंभ कर दिया। ऐसा नहीं कि मैंने अन्य विधाओं में सृजन करना बंद कर दिया है। मैं आज भी हर विधा में लिखती हूँ। मैं अपनी गजलें या गीत लिखकर धुन बनाकर गाती भी हूँ। मैंने गजलों में मापनी को प्राथमिकता नहीं दी है क्योंकि मेरा मानना है कि यदि गजलों में भावों की भरमार हो तो ही वो दिलों तक पहुँचती हैं उसके लिये मापनी का होना अनिवार्य नहीं है।’’

ग़ज़ल में मापनी की अवहेलना प्रायः नहीं की जाती है अपितु इसे दोषपूर्ण भी माना जाता है। यद्यपि हिन्दी ग़ज़ल में उर्दू या फारसी मापनी अर्थात मीटर का पालन नहीं किया जाता है फिर भी मात्रिक छंद के स्वभाव को आत्मसात किया गया है। गेय ग़ज़लें मीटर के लिहाज़ से त्रुटिपूर्ण हो कर भी श्रवण में क्षम्य हो जाती हैं किन्तु जब वही ग़ज़लें पारखियों की दृृष्टि से गुज़रती हैं तो उन्हें दोषपूर्ण ठहराए जाने में एक पल नहीं लगता है। सपना ‘‘क्षिति’’ ने अपनी कई ग़ज़लों में मापनी की अवहेलना कर के जोखिम उठाया है किन्तु उनकी ग़ज़लें भावनात्मक दृष्टि से परिपक्व एवं महत्वपूर्ण हैं।

शास. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह (म. प्र.) के हिन्दी के प्राध्यापक डॉ. कीर्तिकाम दुवे ने ‘‘खामोशी की जुबां’’ शीर्षक से संग्रह की भूमिका में लिखा है कि ‘‘सपना जी का प्रस्तुत गजल-संग्रह ये लगभग 80 रचनायें हैं, उनकी विषय-वस्तु भी बहुत व्यापक है। उनकी हर गजल को पढ़ते हुये मैं नये-नये अनुभव लोक से गुजरा, उन्होंने अपने ज्ञान, अनुभव और भाषा का सुन्दर सामंजस्य किया है। उन्होंने हर भाव को अपने केनवास पर उकेरा है-वे अपनी सच्चाई और साफगोई से बात करने व रखने में माहिर हैं। उनके पास भाषा की बड़ी ताकत है, मैंने अपने जीवन में पहली बार उर्दू और फारसी के इतने शब्दों से परिचय प्राप्त किया, जो मैंने सुने नहीं थे, क्षिति जी के पास हिन्दी-उर्दू का व्यापक शब्द संसार है, वे बाह्य आवरण रदीफ और काफिये को नहीं साधतीं, वे कई गजलों में उसकी आत्मा को छूती हैं। कई जगह उनकी प्रतिभा चमत्कृत करती है, उनकी गजलें दर्शन के कारण शायरी को नया फलसफाप्रदान करती हैं-यह गजल-संग्रह आम पाठक से लेकर दानिश्वरों तक सबको अपनी तरह का सुकूँन देगा। यह गजल के नीचे फुटनोट है, इसलिए क्लिष्ट शब्दों को समझने में दिक्कत नहीं होगी।’’

‘‘दर्द से ताहिली तक’’ की ग़ज़लों में भावनाओं की प्रधानता जीवन को भरपूर जीने का आग्रह करती हैं। कवयित्री सपना ‘‘क्षिति’’ अपने जीवन में जो दुख और विरोध झेले उनसे उन्हें जीने और आगे बढ़ने का माद्दा मिला जो कि उनकी ग़ज़लों में साफ़ देखा जा सकता है। ‘‘ग़ज़ल गुनगुनाओ’’ के रूप में वे संग्रह की पहली ग़ज़ल में ही आग्रह करती हैं कि- 
खुशियों की गजल गुनगुनाओ तुम।
खफा-खफा क्यूँ हो मुस्कुराओ तुम।
उल्फत को लगाके गले जी लो अब,
हसीं खुदाई नेमत को निभाओ तुम।
हों कितनी भी गर्दिशें घबराना नहीं,
चुनौती मान, ना शिकस्त खाओ तुम।

कुछ ग़ज़लें पूरी तरह उर्दू में बयान की गई हैं। जैसे एक ग़ज़ल है ‘‘कशिश’’। ज़िन्दगी को ख़्वाबों और हक़ीकत के बीच ही जिया जाता है इसीलिए कवयित्री अपने ख़्वाबों की चर्चा करती हुई कहती हैं कि-
बड़ी कशिश है मिरे ख़्वाबों में।
नफासत है उनके ही शबाबों में ।
शबो-फजर ये चहकते हैं रहते,
रहते हैं मुकम्मली के रुआबों में ।
कभी संजीदा तो कभी हैं शोख़
दिलकशी है इक उनकी ताबों में ।
मिरी तो हर नफस में ये हैं जी रहे,
जवाब नहीं है इनका जवाबों में।

जमाने का यह चलन है कि कुछ भी अच्छा करने वाले के मार्ग में बाधाएं खड़ी की जाती हैं। उन्हें रोकने और हतोत्साहित करने का यत्न किया जाता है। टोंकाटाकी तो आम बात है। जिसका मसले से कोई सरोकार न भी हो, वह भी टोंकने में कोताही नहीं बरतता है। ऐसे लोगों को नज़रअंदाज़ कर के जीवन जीने का आह्वान करती हैं कवयित्री सपना ‘‘क्षिति’’ -
जहां में कुछ तो लोग कहेंगे ही।
सरगोशियाँ जरूर ये तो भरेंगे ही।
परवाह ना कर जी ले खुलकर,
कयासों के दरिया तो बहेंगे ही।
पहनकर शोखियाँ निकल पड़,
बढ़ती उम्र के भी लम्हे डरेंगे ही।

जो दुख के दरिया को पार कर लेता है फिर उसे कोई डर सता नहीं सकता है। यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अपने दर्द को हथियार बना कर जीने वाले ज़िन्दगी केा खुल कर जीना सीख जाते हैं। एक ग़ज़ल के चंद शेर देखिए -
बरहम बहुत थी तकदीर मिरी दर्दों-गम से,
मैंने उसमें भी बेशुमार हौसला जगा दिया।
मुद्दतों जलाके दिल बनाया है उसे कुंदन,
जमाने को अपना फैसला भी बता दिया।
थकी नहीं है अब तक ‘‘क्षिति’’ चलते हुये,
तबस्सुम ने गर्दिशों को भी सता दिया ।

इस संग्रह में एक बड़ी प्यारी-सी ग़ज़ल है जिसमें कवयित्री ने खुद को दुआ देने की बात कही है। अन्यथा लोग दुनियावी दुख-सुख में इतने डूब जाते हैं कि उन्हें खुद का खयाल नहीं रह जाता है। विशेष रूप से पारिविारिक जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे लोग तथा बहुधा स्त्रियां अपनी ओर ध्यान ही नहीं दे पाती हैं, ऐसे सीाी लोगों के लिए यह गज़ल बहुत मायने रखती है-
खुद को भी दुआ दे, देखो कभी,
गमों का बोझ उतार फेको कभी।
खुद में ही है खुदा इल्म रहे तुम्हें,
खुद से भी मुहब्बत सीखो कभी।

कवयित्री सपना ‘‘क्षिति’’ में ग़ज़लगोई है और साथ ही भावप्रवणता भी। बस, मापनी के जोखिम को न उठाते हुए वे ग़ज़लें कहें तो उनकी ग़ज़लों का सैद्धांतिक महत्व भी बढ़ जाएगा। वैसे भावनाप्रधान ग़ज़लें होने के कारण ये सीधे दिल को छूती हैं और प्रभावित करती हैं। इस लिहाज़ से संग्रह पठनीय है।
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Saturday, November 1, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | बधाई ! पूरो 70 बरस को हो गओ अपनो मध्यप्रदेश | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | बधाई ! पूरो 70 बरस को हो गओ अपनो मध्यप्रदेश | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
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बधाई ! पूरो 70 बरस को हो गओ अपनो मध्यप्रदेश

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

1 नवंबर 1956 को अपनो मध्यप्रदेश बनो रओ। ईके पैले जा सेंट्रल प्राविंसेस औ बरार मने सीपी एंड बरार कहाऊत्तो। मने जबसे जा अलग प्रदेश बनो ईने भौतई तरक्की करी। जोन खों याद ने होय सो याद करा दओ जाए के मध्य भारत, विंध्य प्रदेश औ भोपाल राज्यों खों मिला के ईको बनाओ गओ रओ। पैले छत्तीसगढ़ सोई जेघ में रओ, बाकी 2000 में बा अलग हो गओ। एक मजे की बात जा रई के ईको नांव मध्यप्रदेश ई लाने रखो गओ, के जा अपने देस के बीचोबीच आए। मध्यप्रदेश के पैले मुख्यमंत्री हते रविशंकर शुक्ल जू औ पैले राज्यपाल हते महामहिम भोगराजू पट्टाभि सीतारमैया। दोई ने प्रदेस के लाने खींबई काम करो। बाकी फेर जोन-जोन कुर्सी पे आए उन सबने प्रदेस के लाने कछु ने कछू अच्छोई काम करो। 
      सो, अपन ओरन को सोई गर्व करो चाइए के अपनो सागर देस के दिल कओ जाबे वारे मध्यप्रदेश के दिल में आए । सो अपन खों गर्व करबे के संगे अपने प्रदेश को खयाल सोई राखने है। ईकी प्रगति में अपनी प्रगति हुइए। जा जो साफ सुथरो रैहे सो अपनी बी बड़वारी हुइए। जा जो भ्रष्टाचार से छूछो रैहे सो अपनी जिनगी बी अच्छी रैहे। सो, अपन सबई खों अपने प्रदेस के हैप्पी बर्थडे पे खूब-खूब बधाई !
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏

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Friday, October 31, 2025

शून्यकाल | प्रेरणा देता रहेगा सरदार वल्लभ भाई पटेल का व्यक्तित्व | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | नई शिक्षा नीति में भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल 
जन्मदिन विशेष 
प्रेरणा देता रहेगा सरदार वल्लभ भाई पटेल का व्यक्तित्व
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

      स्वतंत्र भारत के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती को राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाया जाता है। ‘लौह पुरुष’ के नाम से विख्यात सरदार वल्लभ भाई पटेल एक सच्चे देशभक्त थे। आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में उन्होंने भारतीय गणराज्य में रियासतों के एकीकरण का दुरूह कार्य जिस कुशलता से कर दिखाया, वह सदैव स्मरणीय रहेगा। स्वभाव से वे निर्भीक थे। अद्भुत अनुशासनप्रियता, अपूर्व संगठन-शक्ति, शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता उनके चरित्र के अनुकरणीय गुण थे। कर्म उनके जीवन का साधन था तथा देश सेवा उनकी साधना थी। उनका राजनैतिक योगदान देश के व्यापक हित से जुड़ा हुआ होने के कारण ही उन्हें ‘भारतीय बिस्मार्क’ भी कहा जाता है।


   वास्तव में वल्लभ भाई पटेल आधुनिक भारत के शिल्पी थे। उन्होंने रियासतों के एकीकरण जैसे असम्भव दिखने वाले कार्य को उस समय अन्जाम दिया जब विंस्टन चर्चिल इस उपमहाद्वीप को हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और छोेटे-छोटे रजवाड़ों के समूह के रूप में बांटना चाहते थे। अगर सरदार पटेल निरन्तर प्रयास न करते तो आज भारत की जगह बहुत सारे देश होेते जो एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी बने रहते।
       सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर, 1875 को गुजरात के नाडियाड स्थित एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम झावेरभाई और माता का नाम लाडभाई था। उनके पिता पूर्व में करमसाड में रहते थे। करमसाड गांव के आस-पास दो उपजातियों का निवास था- लेवा और कहवा। इन दोनों उपजातियों की उत्पत्ति भगवान रामचन्द्र के पुत्रों लव और कुश से मानी जाती है। वल्लभ भाई पटेल का परिवार लव से उत्पन्न लेवा उपजाति का था जो पटेल उपनाम का प्रयोग करते थे। वल्लभ भाई के पिता मूलतः कृषक होते हुए भी एक कुशल योद्धा एवं शतरंज के श्रेष्ठ खिलाड़ी थे। उत्तर भारत तथा महाराष्ट्र से नाडियाड आने वाले व्यापारियों के माध्यम से इस सम्बन्ध में छिटपुट समाचार झावेर भाई को मिलते रहते थे। वे भी अंग्रेजों द्वारा भारतीय कृषकों के साथ किए जाने वाले भेद-भाव से अप्रसन्न थे। एक दिन उन्हें पता चला कि उनके कुछ मित्रा नाना साहब की सेना में भर्ती होने जा रहे हैं। झावेर भाई ने भी तय किया कि वे भी सेना में भर्ती होकर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ेंगे। वे जानते थे कि उनके परिवारजन इसके लिए उन्हें अनुमति नहीं देंगे। अतः एक दिन वे बिना किसी को बताए घर से निकल पड़े। नाना साहब की सेना में भर्ती होने के उपरांत उन्होंने सैन्य कौशल प्राप्त किया। उस समय तक झांसी की रानी ने ‘अपनी झांसी नहीं दूंगी’ का उद्घोष कर दिया था। सन् 1857 में अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई की सहायता करने के लिए नाना साहब अपनी सेना लेकर झांसी की ओर चल दिए। उनकी सेना में झावेर भाई भी थे।
        बचपन से ही संषर्घमय जीवन व्यतीत करने के कारण सरदार वल्लभ भाई पटेल के स्वभाव में कठोरता तो आई ही थी, साथ ही साथ कठिन से कठिन समस्याओं को सहज ढंग से सुलझाने की क्षमता का भी विकास उनमें हुआ था। उनके स्वभाव में गम्भीरता थी और इच्छाशक्ति में लोहे जैसी मजबूती। वल्लभ भाई बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जाना चाहते थे किन्तु उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वे इंग्लैंड जा सकें। उन्होंने वकालत करके धन जोड़ा और जब इंग्लैंड जाने का समय आया तो उनके बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल ने उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें पहले इंग्लैंड जाने दें। अनुपम त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वल्लभ भाई ने अपने बड़े भाई को अपने बदले इंग्लैंड जाने दिया और स्वयं उनके लौटने के कुछ समय बाद इंग्लैंड गये।
         इंग्लैंड जा कर उन्होंने बैरिस्टर की पढ़ाई अच्छे अंकों से पूरी की। भारत वापस आ कर एक बार फिर वकालत आरम्भ की और वकालत के क्षेत्र में ख्याति एवं प्रतिष्ठा अर्जित की। आरम्भ में वल्लभ भाई महात्मा गांधी के विचारों से सहमत नहीं थे किन्तु जब वे गांधी जी के निकट सम्पर्क में आए तो इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने न केवल अहिंसा एवं सत्याग्रह को अपनाया अपितु पाश्चात्य वस्त्रों को सदा के लिए त्याग कर धोती-कुर्ता की विशुद्ध भारतीय वेश-भूषा अपना ली।
         स्वतंत्रता आन्दोलन में वल्लभ भाई का सबसे पहला और बड़ा योगदान खेड़ा आन्दोलन में था। गुजरात का खेड़ा जिला उन दिनों भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज सरकार से लगान में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो वल्लभ भाई ने महात्मा गांधी के साथ पहुंच कर किसानों का नेतृत्व किया और उन्हें कर न देने के लिए प्रेरित किया। अंततः सरकार को उनकी मांग माननी पड़ी और लगान में छूट दी गयी। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी। इसके बाद उन्होंने बोरसद और बारडोली में सत्याग्रह का आह्वान किया। बारडोली कस्बे में सत्याग्रह करने के लिए ही उन्हंे पहले ‘बारडोली का सरदार’ और बाद में केवल ‘सरदार’ कहा जाने लगा। यह एक कुशलतापूर्वक संगठित आन्दोलन था जिसमें समाचारपत्रों, इश्तिहारों एवं पर्चों से जनसमर्थन प्राप्त किया गया था तथा सरकार  का विरोध किया गया था। इस संगठित आन्दोलन की संरचना एवं संचालन वल्लभ भाई ने किया था। उनके इस आन्दोलन के समक्ष सरकार को झुकना पड़ा था।
        महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आन्दोलन के दौरान सरकारी न्यायालयों का बहिष्कार करने आह्वान करते हुए स्वयं का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए वल्लभ भाई ने सदा के लिए वकालत का त्याग कर दिया। इस प्रकार का कर्मठताभरा त्याग वल्लभ भाई ही कर सकते थे।
        वल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू के बीच संबंध


सरदार पटेल और नेहरू की प्रकृति में असमानता थी, एक ओर पटेल एक साधारण किसान परिवार से ग्रामीण परिवेश में पले बड़े हुए, वहीं नेहरू को पारिवारिक विरासत का धनी कहा जा सकता है। व्यक्ति अपनी प्रकृति का अनुसरण करके ही कार्य कर सकता है। ऐसा प्रतीत होता है पटेल और नेहरू दोनों के लिए मार्गदर्शी महात्मा गाँधी ही थे और जो कुछ सामंजस्य या वैचारिकता का आदान-प्रदान रहता उसमें उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी, क्योंकि महात्मा गाँधी समय की नजाकत को पहले ही भांप लेते थे। सरदार पटेल भी ऐसा कोई कार्य नहीं करते थे जिससे गाँधीजी को ठेस पहुँचे परन्तु जब मामला राष्ट्रहित का होता या भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए मत भिन्न होता तो वे गाँधीजी को इससे सचेत करते थे और आव यकता होने पर विरोध भी जताते थे। पटेल और नेहरू दोनों को ही आधुनिक भारत का निर्माता माना जाता है और दोनों में अनेक समानताओं के होते हुए भी वैचारिक भिन्नता थी। दोनों में ही राष्ट्र भक्ति, नेतृत्व क्षमता, आदर्शों के प्रति आस्था थी। डॉ. बी.के. केसकर ने कहा था- नेहरू और पटेल दो विरोधी तत्वों का एक ऐसा मिश्रण थे, जो एक-दूसरे के पूरक थे। नेहरू की विचारधारा साम्यवाद से प्रभावित थी जबकि पटेल ने किसी भी विचारधारा को अपने पर हावी नहीं होने दिया। इन विपरीत स्वभावों से जुड़ी दोनों धुरियों को महात्मा गाँधी ने एक साथ बांधे रखने का कार्य किया था। हालाकि सरदार पटेल और नेहरू दोनों का सपना एक मजबूत भारत का निर्माण करना था परन्तु पटेल वास्तविक  एवं व्यवहारिक दृष्टिकोण से समस्या पर विचार करते थे और प्रत्येक समस्या के भविष्य के परिणामों का अंदाजा लगा लेते थे। उदाहरण के तौर पर जूनागढ़ और हैदराबाद के मामले में पटेल ने नेहरू की इच्छा के विरूद्ध जाकर कार्यवाही की और भारत में मिला लिया। क मीर के मामले में नेहरू ने अपनी अन्तर्राष्ट्रीय नीति के कारण बिना पटेल से विचार विमर्श किए समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए जिसके पटेल सख्त विरोधी रहे और समस्या आज तक बनी हुई है। इसी प्रकार चीन की मित्रता पर भी पटेल ने कभी विश्वास नहीं किया बल्कि संभावित खतरों की ओर पहले ही ईशारा कर दिया था। नेहरू ने 1 अगस्त 1947 को सरदार पटेल को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने लिखा कि मैं आपको मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए लिख रहा हूँ। इस पत्र का कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि आप तो मंत्रिमंडल के सुदृढ़ स्तम्भ हैं। इसी के उत्तर में पटेल ने नेहरू को लिखा कि एक अगस्त के पत्र के लिए धन्यवाद। एक-दूसरे के प्रति हमारा जो अनुराग व प्रेम रहा है तथा 30 वर्ष की हमारी जो अखंड मित्रता है, उसे देखते हुए औपचारिकता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। आ है कि मेरी सेवाएं बाकी के जीवन के लिए आपके अधीन रहेंगी। आपको इस ध्येय की सिद्धि के लिए मेरी संपूर्ण वफादारी और निष्ठा प्राप्त होगी, जिसके लिए आपके जैसा त्याग और बलिदान भारत के अन्य किसी ने नहीं किया है। आपने अपने पत्र में मेरे लिए जो भावनाएं व्यक्त की हैं, उसके लिए में आपका कृतज्ञ हूँ।”
      सरदार पटेल वचन के पक्के तथा सहयोग से काम करने वाले व्यक्ति थे जबकि जवाहरलाल नेहरू महत्वाकांक्षी अधिक थे लेकिन महत्वाकांक्षी होते हुए भी पटेल की योग्यता पर पूर्ण वि वासी थे। गाँधीजी की मृत्यु उपरांत 3 फरवरी 1948 को पं. नेहरू ने पटेल को लिखा-"बापू की अन्तिम अभिलाषा यह थी हम दोनों ने अब तक जिस तरह कन्धे से कन्धा मिलाकर काम किया है, उसी तरह आगे भी करते रहें। हमारे मतभेदों में से भी हमारे बीच महत्व के विषयों में जो मतैक्य है, वह स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है और उसी में से एक दूसरे के प्रति हमारा आदर भाव भी प्रकट हुआ है।"
          वास्तव में वल्लभ भाई पटेल आधुनिक भारत के शिल्पी थे। उन्होंने रियासतों के एकीकरण जैसे असम्भव दिखने वाले कार्य को उस समय अन्जाम दिया जब विंस्टन चर्चिल इस उपमहाद्वीप को हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और छोेटे-छोटे रजवाड़ों के समूह के रूप में बांटना चाहते थे। अगर सरदार पटेल निरन्तर प्रयास न करते तो आज भारत की जगह बहुत सारे देश होेते जो एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी बने रहते। वस्तुतः वल्लभ भाई पटेल के जीवन के बारे में पढ़ना भारतीय संस्कृति एवं भारतीय मूल्यों को पढ़ने के समान है।  
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Thursday, October 30, 2025

बतकाव बिन्ना की | भौत दिनां से इते फेर-बदल नईं भौ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की 
भौत दिनां से इते फेर-बदल नईं भौ
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

         ‘‘भैयाजी का हो रओ?’’ मैंने भैयाजी के घरे घुसतई साथ उनसे पूंछी। बे भीतर के अंगना में खटिया डार के पांव पसारे परे हते। मोरी आवाज सुनी तो तुरतईं उठ बैठे।
‘‘अरे नईं, आप तो परे रओ। भौजी कां हैं?’’
‘‘हम इते आएं।’’ कैत भईं भौजी कमरा से बायरे निकर आईं। उनके हाथ में सरसों  के तेल की शिशिया हती।
‘‘जे काए के लाने? का अचार-मचार डार रईं?’’ मैंने शिशियां की तरफी उंगरिया करत भई पूंछी।
‘‘इत्ते से करै तेल में काए को अचार डरहे? जा तो गोड़न में मलबे के लाने निकारो आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘का हो गओ गोड़न में?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे, खीबई दुख रए। दिवारी, दिवारी, लेओ कढ़ कई दिवारी! मनो जा दिवारी ने प्रान ले लए। आज लौं हाथ-गोड़े दुख रए।’’ भौजी उतईं बैठत भई बोलीं।
‘‘आप का सोच रए भैयाजी?’’ मैंने देखी के भैयाजी कछू सोस-फिकर में परे।
‘‘हम जा सोच रए बिन्ना के कुल्ल टेम नईं हो गओ अपने इते कछू फेर-बदल भए?’’ भैयाजी ऊंसई सोचत भए बोले। 
‘‘कां फेर-बदल? अबई तो दिवारी पे भौजी ने पूरो रूम सेट और पर्दा हरें बदलो रओ। आपने तो सोई उनको हाथ बंटाओ रओ पर्दा लगाबे में। आप इत्ती जल्दी भूल गए?’’ मैंपे भैयाजी से पूंछी।
‘‘अरे हम घरे के फेर-बदल की बात नोंई कर रए।’’ भैया जी बोले।
‘‘तो कां के फेर-बदल की कै रए?’’ मैंने पूछीं।
‘‘अब का बताए?’’ भैयाजी सोचत भए बोले।
‘‘कछू तो बताओ!’’ मैंने कई।
‘‘तनक सोचियो बिन्ना, के जोन ने चार-पांच दफा पार्टी खों सीट दिलाई, जीत के दिखाओ, ऊको आज लौं कोनऊं मंत्री की कुर्सी ने दई गई। तनक सोचो के ऊके दिल पे का बीतत हुइए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात तो आप सई कै रए, मनो जे खयाल आपके लाने कां से आओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘का भओ के हम दिवारी मिलबे के लाने गए हते एक विधायक जू के इते। उते लोगन ने उने बधाई देत भई कई के आप जल्दी से मंत्री बन जाओ। हमने कई के मंत्री काए? हम तो चात आएं के जे मुख्यमंत्री बनें। जा सुन के वे विधायक जू दुखी होत भए बोले के जे इत्ती बड़ी दुआ दे देत हो, जेई से तो हम मंत्री लौं नईं बन पा रए। हमने कई हम छोटी काए सोचें? हम तो जो चात आएंे बई दुआ करहें। फेर बात नाएं-माएं की होन लगी। हम सोई उते से चले आए। मानो हमाए जी में जा फांस टुच्च रई के उने अबे लौं कोनऊं मंत्री पद काए नईं दओ गओ? फेर हमें खयाल आओ के अपने इते तो कुल्ल टेम से मंत्रीमंडल में फेर-बदल नईं भओ।
‘‘देखो भैयाजी! पैली बात तो जे के सबई पार्टी में हाई कमान की चलत आए। जब ऊपरे से कओ जाहे तभई कछू फेर-बदल हुइए। औ दूसरी बात के का पता कओ हाई कमान ने उनके लाने कछू अच्छो सो सोच रखो होए।’’ मैंने कई।
‘‘का पतो?’’ भैयाजी अनमने से बोले।
‘‘पतो तो कोनऊं खों नई परत आए भैयाजी! आप काए भूल रए के जोन ने इते पार्टी खों जिताओ, ओई खों एक दिनां के लाने बी मुख्यमंत्री की कुर्सी ने दई गई। फेर जोन ऊ टेम पे मंत्री हते उने आज कनारे लगा दओ गओ आए। उन ओरन की सोई सोचो के उनके दिल पे का बीतत हुइए?’’ मैंने कई।
‘‘हऔ! जा तो सांची कै रईं तुम।’’ भैयाजी बोले।
‘‘फेर भैयाजी, जा सोई सोचो के उन ओरन के जी पे का गुजरती हुइए जोन पार्टी के लाने मरत-कुटत रैत आएं औ जबे चुनाव टेम आत आए तो पैराशूट वारे टपक परत आएं। ने तो दल बदल वारे हाथ मार लेत आएं। औ वफादारन से कई जात आए के बे नओ मेहमान खों पलकां पे बिठाएं। ऐन टेम पे पार्टी बदरवे वारन की तो चांदी रैत आए। पैले बी घी चाटत रैत्ते औ बाद में बी घी की पिकिया मिल जात आए।’’ मैंने कई।
‘‘ईको कछू हल भओ चाइए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘को करहे हल? मैंने पूछी।
‘‘जा पार्टी वारन खों सोचो चाइए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बे काए के लाने सोचें? आपने कभऊं सुनो के बच्चा के रोए बिगैर ऊकी अम्मा ने ऊको दूद पिलाओ होए? अम्मा सोए तभई बच्चा खों दूद पिलात आएं जबके बा मों फार-फार के रोऊत आए।’’ भौजी बोल परीं। मनो उन्ने बात पते की कई। 
‘‘सई कै रई भौजी! जिने कछू नईं मिल रओ, उने मों खोल के कछू तो मांगबो चाइए। औ खुद ने मांगे तो अपने आदमियन से कछू हल्ला कराएं।’’ मैंने कई।
‘‘ऐसे करे से बे बागी ने कहला जैहें? पता परी के जो कछू मिलो आए बा बी गओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जा बी बात सई आए।’’ मैंने कई।
‘‘जेई लाने तो हम कै रए हते के ई के लाने खुद पार्टी खों सोचने चाइए औ कछू-कछू टेम पे फेर-बदल करो चाइए, जोन से सबई खों मौका मिल सके।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जे राजनीति आए भैयाजी, कोनऊ अनवरसिटी को विभाग नोंई जां रोटेशन में विभागाध्यक्ष बनत रैत आएं। इते जो एक बार कुर्सी से जो उतरो ऊको फेर के बैठबे में खुदई डाउट रैत आए।’’ मैंने कई। 
‘‘चलो भौत हो गई उन ओरन की चिन्ता अब तनक उने अपन ओरन की फिकर कर लेन देओ।’’ कैत भईं भौजी हंसन लगीं। 
‘‘अपन ओरन की चिन्ता को कर सकत, काए से अपन ओरें अपनईं चिंता करबी नईं जानत। तभई तो दिवारी पे ऐसो पटाखा चलात आएं के सांस लेबो मुस्किल हो जात आए। जो जब अपन अपनी भली नईं सोच सकत तो दूसरे से काए की उमीद करो चाइए?’’ मैंने कई।
‘‘अब तुम आरे बी नेता हरों घांईं बात ने बदलो!’’ भैयाजी ने मों बना के कई औ फेर बे हंस परे। 
भौजी औ मैं, हम दोई सोई हंस परे।
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के ई प्राब्लम को कछू हल निकर सकत आए के नईं?
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चर्चा प्लस | बड़े आत्मीय थे लकड़ी, कोयले और बुरादे के मैनेजमेंट वाले दिन | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

(दैनिक, सागर दिनकर में 30.10.2025 को प्रकाशित)  
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चर्चा प्लस 

बड़े आत्मीय थे लकड़ी, कोयले और बुरादे के मैनेजमेंट वाले दिन

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

     हमने आधुनिकता के इस दौर में यदि कोई चीज खोई है तो वह है संवेदनशीलता। पहले सुविधाओं की कमी थी किन्तु संवेदनाएं असीमित थीं। परिवारिक संबंधों में भी उष्मा में गिरावट आई है। हर संबंध में नफ़ा-नुकसान देखने की आदत हमने बाजार से सीख ली है और अपने जीवन को शुष्कता से भरते जा रहे हैं। ऐसे में कुछ यादें बार-बार दस्तक देती हैं और किसी परीकथा की भांति मन को छू जाती हैं। आप भी मेरी यादों के साथ अपनी यादों के दरवाज़े खोल दीजिए फिर देखिए के सुविधाओं की कमी को झेलता हुआ भी अतीत कितना बेहतरीन लगेगा। 

अभी-अभी दीपावली का त्योहार गुज़रा है। यदि बचपन के समय की दीपावली के बारे में सोचो तो आज की दीपावली हर साल एक नए परिवर्तन के साथ हमारे सामने आती हुई मिलती है। उस दिनों दीपावली की रात से ही निःस्वार्थ भाव से दीपावली का प्रसाद एवं मिठाई का आदान-प्रदान शुरू हो जाता था लेकिन अब स्वार्थ के हिसाब से इस परम्परा का निर्वाह किया जाता है। यही परिवर्तन जीवन के हर पक्ष में दिखाई पड़ता है। आज गैस का चूल्हा है, हाॅट प्लेट है, इंडक्शन है, माक्रोवेव ओवेन है, एयर फ्रायर है लेकिन इन सब के प्रति आत्मीयता नहीं है। ये हमारे लिए महज एक उपकरण मात्र हैं। पहले लकड़ी, कोयला और बुरादा था लेकिन उन सबके प्रति गजब की आत्मीयता थी, एक विशेष मैनेजमेंट था जिसका आज अभाव है। आज सोचने बैठो तो वे सब न जाने किस युग की बातें लगती हैं। बिलकुल किसी परिकथा-सी काल्पनिक। लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जो अतीत में थीं किन्तु आज असंभव-सी प्रतीत होती हैं। किसी किंवदंती या भूले हुए मुहावरे की तरह अतीत की जीवनचर्या, आज से एकदम भिन्न थी। बात पुरानी है लेकिन बहुत पुरानी भी नहीं।
जब मैं छोटी थी तो घर में मिट्टी के चूल्हे में लकड़ियां जला कर खाना पकाया जाता था। मेरे घर में दो चूल्हे थे। एक स्थाई चूल्हा जो चैके में स्थापित था। यह दो मुंह का था। यानी एक मुंह सामने था जिसमें लकड़ियां डाली जाती थीं और दूसरा मुंह उसके ठीक पीछे ऊपर की ओर खुला हुआ था। इस पीछे वाले मुंह पर आमतौर पर दाल पकने को रख दी जाती थी। दाल पकने में बहुत समय लगता था। लकड़ी के चूल्हे पर पतीले में रख कर दाल-चावल पकाना भी एक विशेष पाककला थी। दाल और चावल दोनों को पकाने के लिए पहले पतीले में पानी खौलाया जाता था। जिसे ‘अधहन’ कहते थे। जब पानी खदबदाने लगता तब दाल के बरतन में दाल और चावल के पतीले में चावल डाल दिए जाते थे। दाल पकाने के लिए आमतौर पर लोटे के आकार का बरतन काम में लाया जाता था जिसे ‘बटोही’ अथवा ‘बटलोही’ कहते थे। इसे चूल्हे के पीछे वाले मुंह पर चढ़ाते थे। खौलते पानी में दाल डालने के बाद उसमें हल्दी डाल दी जाती लेकिन नमक देर से डाला जाता ताकि दाल पकने में अधिक समय न ले। बटलोही के मुंह पर एक कटोरे में पानी भर कर रख दिया जाता था जो धीरे-धीरे गरम होता रहता था। यह गरम पानी पकती हुई दाल में उस समय मिलाया जाता जब दाल में पानी कम होने लगता और दाल पूरी तरह गली नहीं होती। पकती हुई दाल में ठंडा पानी मिलाने से दाल गलने में अधिेक समय लेती। पकाते समय दाल का अच्छी तरह गलना बहुत महत्व रखता था। निश्चितरूप से इसी से ‘‘दाल गलना’’ मुहावरा बना होगा। 

चूल्हे के पीछे वाले मुंह में आग की लपटों एवं तापमान को नियंत्रित करने के लिए लकड़ियों को आगे या पीछे सरका दिया जाता था। जब लकड़ियों से पर्याप्त अंगार बन जाते तो उन्हें चूल्हे के आगे वाले मुंह में फैला कर उन पर रोटियां सेंकी जातीं। यदि अंगार अधिक मात्रा में होते तो रोटियों पर राख कम लगती थी। मैंने मिट्टी के चूल्हे पर बहुत कम बार खाना बनाया। क्योंकि जब पूरी तरह से रसोई का पूरा काम हम दोनों बहनों के जिम्मे आया तब तक घर में कुकिंग गैस और गैस चूल्हा आ चुका था। फिर भी चूंकि मुझे बचपन से खाना पकाने का शौक़ था इसलिए मैं खाना पकाने वाली महराजिन बऊ के क्रियाकलाप ध्यान से देखा करती थी और सोचती थी कि एक दिन मैं भी इसी तरह खाना पकाया करूंगी। 

घर में दूसरा चूल्हा ‘‘मोबाईल चूल्हा’’ था। वह आमतौर पर बाहर के आंगन में काम में लाया जाता था। गर्मी के दिनों में शाम को उस पर बाहर खाना बनता, जाड़े के दिनों में सुबह और रविवार की दोपहर उस पर नहाने का पानी गरम किया जाता। उन दिनों हीटर या गीज़र नहीं थे। बड़े से पतीले पर हर सदस्य के लिए बारी-बारी से पानी गरम किया जाता। उस गरम पानी को लोहे की बाल्टी में डाल कर उसमें ठंडा पानी मिलाते हुए पानी का तापमान नहाने लायक बनाया जाता। बारिश के दिनों में वह चूल्हा उठा कर घर के अंदर रख दिया जाता। बऊ खाना बनाना आरम्भ करने से पूर्व चूल्हे को रोज नियमित रूप से गोबर से लीपती थी। लगभग पंद्रह दिन के अंतराल में मिट्टी से चूल्हे की मरम्मत भी किया करती थी। चूल्हे का पूरा मैनेजमेंट बऊ के हाथों था लेकिन चूल्हे के लिए लकड़ियों की व्यवस्था मां और मामाजी को करनी पड़ती थी। जब तक कमल मामाजी हम लोगों के साथ रहे तब तक मां को अधिक परेशान नहीं होना पड़ा लेकिन मामाजी के नौकरी पर शहडोल चले जाने के बाद पूरा जिम्मा मां पर आ गया। 
मां की यह आदत थी कि वे अपने काम पर स्कूल जाने के अलावा कहीं भी अकेली जाना पसंद नहीं करती थीं। इसलिए जब वे सुबह छः बजे बैलगाड़ी वालों से बात करने घर से निकलतीं तो मुझे अपने साथ ले जातीं। मैं तो शायद पैदायशी घुमक्कड़ थी। मैं खुशी-खुशी उनके साथ चल पड़ती। उन दिनों लकड़ियां बेचने वाले बैलगाड़ी में लकड़ियां भर कर बेचने शहर लाते थे। पन्ना शहर के आस-पास तब न तो जंगल की कमी थी और न लकड़ियों की। बारिश के पहले अचार, बड़ी, पापड़ बना कर रखने की भांति एक बैलगाड़ी भर लकड़ियां भी खरीद कर रख ली जाती थीं। जो लकड़ियां अधिक मोटी होतीं उन्हें उस बैलगाड़ी वाले विक्रेता से ही फड़वा ली जाती थीं। लकड़ियां फाड़ने के दौरान उनके पतले टुकड़े भी निकलते जिन्हें ‘‘चैलियां’’ कहते थे। उन्हें अलग रखा जाता था। चूल्हा जलाने में इन चैलियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती। यही चैलियां पहले आग पकड़तीं। फिर धीरे-धीरे लकड़ियां सुलगनी शुरू होतीं। सूखी लकड़ियां सबसे अच्छी जलतीं और कम धुआं करतीं जबकि गीली लकड़ियां धुआं-धुआं हो कर रुला डालतीं। इसलिए लकड़ियां खरीदते समय इस बात का ध्यान रखा जाता कि लकड़ियां सूखी हों। यदि ज़रा भी संदेह होता कि लकड़ियां कच्ची और गीली हैं तो उन्हें स्टोर करने से पहले कुछ दिन धूप में छोड़ दिया जाता ताकि वे अच्छी तरह सूख जाएं। उन दिनों मैंने यह बात सीखी थी कि कच्ची लकड़ियों में एक अजीब सोंधी गंध आती है, कुछ-कुछ शुद्ध गोंद जैसी। जबकि सूखी लकड़ियों में सूखी-सी, दूसरे ढंग की गंध होती है। लकड़ियों की खास गंध को पहचानना मैंने अपने बचपन में ही सीख लिया था।

रसोईघर की छत लहररियादार एडबेस्टस सीमेंट शीट की थी ताकि खाना पकाते समय उससे धुआं आसानी से निकलता रहे। यद्यपि उस शीट की निचली सतह पर धुंए की एक पत्र्त जम जाया करती थी जिसे समय-समय पर साफ़ करते रहना पड़ता था। अन्यथा बारिश के दिनों में ठंडा-गरम तापमान मिल कर वह धुंए की पत्र्त बूंद बन कर टपकने लगती। यदि वह रंगीन बूंद किसी कपड़े पर गिर जाती तो उस कपड़े पर सदा के लिए भद्दा-सा अमिट दाग़ पड़ जाता। बहरहाल, रसोईघर में ही बांस की टटियां से पार्टीशन कर के लकड़ियां रखने की जगह बनाई गई थी, जहां बारिश के चार माह के लिए सूखी लकड़ियां करीने से जमा कर रख दी जातीं। लकड़ियों की छाल और चैलियां अलग बोरे में भर कर रखी जातीं। साथ ही गोबर के कंडे भी खरीद लिए जाते। ये कंडे चूल्हा जलाने में काम आते। जाड़े और गर्मी के मौसम में ‘‘मोरी वालियों’’ से भी लकड़ियां खरीदी जाती थीं। ये मोरी वालियां अपने सिर पर लकड़ियों का गट्ठा लाद कर बेचने आती थीं। वे लकड़ियां काट कर नहीं वरन बीन कर लाती थीं और अपने सिर पर रखती थीं अतः उनकी लकड़ियां हमेशा सूखी हुई होती थीं। उन मोरी वालियों से मोल-भाव कर के लकड़ियां खरीदी जाती थीं। यद्यपि वे अपनी मोरी में लकड़िया जमाने में पूरी कलाकारी दिखा देती थीं। वे इस प्रकार टेढ़ी-सीधी लकड़ियां जमातीं कि देखने में गट्ठा भरा-भरा लगे लेकिन उसमें लकड़ियां कम हों। वैसे यह बात भूलने की नहीं है कि वे 20-25 किलोमीटर से भी अधिक दूरी से मोरी सिर पर ढो कर लाती थीं। आज सोचने पर उनकी मेहनत समझ में आती है। उनकी कलाकारी के बावजूद मो उन्हें चाय और कुछ खाने का सामान जरूर दिया करती थीं, यह कहते हुए कि ‘‘बेचारी थक गई होगी।’’ 
काॅलेज के दिनों में जब मैं कहानियां लिखने लगी थी तब मैंने एक मोरीवाली की समस्या पर कहानी लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘‘काला चांद’’। कथानक की दृष्टि से वह अपने आप में एक बोल्ड कहानी थी कि किस तरह वनोपज टोल नाके पर मोरीवालियों को अभद्रता का सामना करना पड़ता था और किस तरह एक मोरी वाली उस अभद्रता को तमाचे के रूप में इस्तेमाल करती है। यानी सच को सामने रखने में मुझे कभी हिचक नहीं हुई। 

चूल्हे के लिए लकड़ियों के अलावा लकड़ी का कोयला और बुरादा भी काम में लाया जाता था। लकड़ी के कोयले की अंगीठी और बुरादे की अंगीठी दोनों मेरे घर में पाई जाती थी। कोयला और बुरादा टाल से खरीदा जाता था। हम लोगों के घर से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर ‘‘छोटा श्ेार-बड़ा शेर’’ की कोठी के पास एक साॅ मिल थी। यह कोठी राणा परिवार की थी जो वर्षों पूर्व पन्ना की महारानी के साथ नेपाल से वहां आए थे और फिर वहीं बस गए थे। बहुत ही सम्मानित परिवार था वह, आज भी सम्मानित है। हां, तो उस साॅ मिल में भी बुरादा बेचा जाता था। अतः कई बार मां वहां से भी बुरादा मंगा लिया करती थीं। जबकि कोयले की टाल घर से काफी दूर महेन्द्र भवन के पास थी जो वहां का शासकीय परिसर था और जहां कलेक्टर कार्यालय, कचहरी, हीरा कार्यालय, पीडब्ल्यूडी आॅफिस आदि सभी कुछ था। महेन्द्र भवन दरअसल आलीशान भवन है। कभी वह पैलेस के रूप में इस्तेमाल हुआ करता था। सन् 1980 में बड़ौदा महाराज राव फतेहसिंह गायकवाड़ की एक किताब प्रकाशित हुई थी- ‘‘दी पैलेसेस ऑफ इंडिया’’, इस किताब के लिए फोटोग्राफी की थी वर्जीनिया फाॅस ने। इस किताब में महेन्द्र भवन का तस्वीर सहित उल्लेख किया गया था।  

लकड़ी का कोयला और बुरादा बोरों में भर कर सूखी जगह पर रखा जाता था। यानी लकड़ी, कोयला और बुरादा तीनों के व्यवस्थित और सही समय पर मैनेजमेंट से खाना पकाने के लिए ईंधन की व्यवस्था सुनिश्चित की जाती थी। तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन कुकिंगगैस, इंडक्शन, माइक्रोवेव और हाॅटप्लेट पर धुआंरहित तरीके से खाना पकाया जाएगा और एक मोबाईल काॅल पर इन्हें खरीद कर घर मंगाया जा सकेगा। सचमुच समय जीने के तरीके बदल देता है। लेकिन ऐसा क्यों लगता है कि उन दिनों ज़िन्दगी फिर भी आसान थी? आत्मीयता से भरी थी। अपनी-सी थी। यह मेरा भ्रम है या सच्चाई, पता नहीं।                     
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Tuesday, October 28, 2025

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली ग़ज़लों की समृद्धि में एक कड़ी और | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली ग़ज़लों की समृद्धि में एक कड़ी और | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
पुस्तक समीक्षा
बुंदेली ग़ज़लों की समृद्धि में एक कड़ी और
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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बुन्देली ग़ज़ल संग्रह  - रिपट परे की हर गंगा है 
कवि     - डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया
प्रकाशक -. जेटीएस पब्लिकेशन्स, वी 508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली - 110053
मूल्य    - 300/-
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हिंदी साहित्य की काव्यात्मक सेवा करने वाले तथा ‘‘गीतऋषि’’ की उपाधि से सुशोभित डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया यूं तो मूलतः हिंदी में गीत, गजल, दोहे आदि लिखते हैं किंतु बुंदेलखंड की माटी में जन्मे होने के कारण अपनी माटी और बोली से लगाव भी स्वाभाविक है। डॉ सीरोठिया का बचपन गांव में व्यतीत हुआ तथा चिकित्सक बनने के उपरांत भी अधिकांश समय ग्रामीण अंचल में चिकित्सा कार्य करते हुए बिताया। अतः ग्रामीण अंचल का बदलता गया परिवेश उनकी दृष्टि से छिपा नहीं है। जहां हल चलाते थे वहां अब ट्रैक्टर चलाते हैं। जहां देसी व्यंजन खाए जाते थे वहां अब विदेशी व्यंजन मुख्य भोजन में दिखने हैं। पहनाव-पोशाक, खानपान, रहन-सहन आदि में आता जा रहा अंतर आधुनिकता की अंधी दौड़ में ग्रामीण अंचलों के शामिल हो जाने की ललक को दर्शाता है। ऐसे बदलते परिदृश्य में जब कोई व्यक्ति अतीत का स्मरण करता है तो वर्तमान उसे अतीत से बहुत भिन्न प्रतीत होता है। बहुत-सी चीज पीछे छूट चुकी होती हैं जिससे मन को पीड़ा होती है किंतु फिर लगता है कि परिवर्तन जीवन की नियति है और स्वाभाविकता भी। इस संदर्भ में डॉ सीरोठिया ने गहरी संवेदनशीलता से अपनी लेखनी चलाई है। इस संग्रह में सम्मिलित उनकी गजलों में वे गजलें भी हैं जो इस परिवर्तन को चिन्हित करती हैं।परिवर्तन हर ओर दिखाई देता है सिर्फ जीवनचर्या ही नहीं, अपितु राजनीतिक विचारों में, सामाजिक चलन में, पारस्परिक संबंधों में, पारिवारिक बुनावट में, आजीविका के संसार में तथा इस पूरे पर्यावरण में। इन परिवर्तनों ने बहुत कुछ छीना है तो बहुत कुछ नया भी दिया है। जो सकारात्मक है वह उत्तम है किंतु जो नकारात्मक है वह चिंतनीय है और मन को सालने वाला है। डॉ  सीरोठिया की बुंदेली गजलें समग्रता के साथ इन बिंदुओं पर चर्चा करती हैं। 
वर्तमान में बुंदेली में गद्य और पद्य दोनों तरह के साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहे हैं। जहां तक काव्य का प्रश्न है तो बुंदेली में भी काव्य की लगभग वे सारी विधाएं शामिल कर ली गई हैं जो हिंदी काव्य धारा में स्वीकार की गई हैं। जैसे बुंदेली में छंदबद्ध रचनाओं के अतिरिक्त छंद मुक्त रचनाएं तथा गजलें भी लिखी जा रही हैं। इनमें कवि महेश कटारे का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। डॉ बहादुर सिंह परमार बुंदेली साहित्य एवं संस्कृति के उत्थान के लिए अनेक वर्ष से निरंतर अपना योगदान दे रहे हैं। विगत वर्ष (2024) मेरा भी बुंदेली गजल संग्रह ‘‘सांची कै रए सुनो, रामधई’’ प्रकाशित हुआ था। वस्तुतः बुंदेली एक इतनी मीठी बोली है कि इसकी मिठास रचनाकार को स्वयं प्रेरित करती है कि बुंदेली में रचना कर्म किया जाए। कहा भी जाता है कि जब लोक की बातें लोक की भाषा में की जाए तो वह हृदय के अत्यंत समीप प्रतीत होती है। लोक भाषा के अपनत्व का सबसे सटीक उदाहरण है तुलसीदास कृत ‘‘रामचरितमानस’’ है जिसने श्रीरामकथा को जन-जन के हृदय में प्रतिष्ठित कर दिया। किंतु लोक भाषा में सृजन की अपनी चुनौतियां भी हैं। इसकी सबसे बड़ी और पहली चुनौती है कि सृजनकर्ता को लोक और लोक भाषा का पर्याप्त ज्ञान हो। वातानुकूलित कक्षों में बैठे हुए सृजन करता लोक पर बहस तो कर सकते हैं किंतु यथार्थवादी सृजन कभी नहीं कर सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि सृजनकर्ता को लोक के व्यवहार, प्रकृति और परंपराएं आदि का समुचित ज्ञान हो। डॉ. सीरोठिया लोक जीवन से भली-भांति परिचित हैं या यूं कहना चाहिए कि लोक जीवन उनके सृजन-संस्कार से जुड़ा हुआ है। उनकी हिंदी रचनाओं में भी लोक जीवन के दर्शन हो जाते हैं। अतः जब उन्होंने लोकभाषा बुंदेली में गजलें लिखीं तो उसमें लोक के तमाम तत्व स्वतः समाहित होते चले गए।     
 इस संग्रह का नाम ‘‘रिपट परे की हर गंगा है’’ ही अपने आप में एक कहावत के माध्यम से सब कुछ कहा जाता है। वास्तविकता को छुपाने की प्रवृत्ति जो वर्तमान में दिनों दिन बढ़ती जा रही है उस पर कटाक्ष करता यह नाम एक साथ कई विसंगतियों को ललकारता है। वे परिवर्तन जिनमें गांव की मौलिकता खत्म हो गई है,उन्हें देखकर कवि का उद्विग्न हो उठाना स्वाभाविक है। डॉ. सीरोठिया ने संग्रह की पहली गजल में ही अतीत से जुड़ी स्मृतियों को जगाते हुए बहुत सी छोटी-छोटी बातों का स्मरण किया है जो जीवन का अभिन्न अंग हुआ करती थीं, किंतु अब मानो कहीं खो गई हैं-
चपिया- जाँते सिल-लोढ़ा के,
देखत-देखत समय निकर गय।
डुबरी- भूँजा मठा-महेरी 
भूक हमाई दूनी कर गय
ठाट- बड़ेरी- मलगा बारे 
कौन देश खों अब जे घर गय 
श्याममनोहर गाँव देख कें
भीतर- भीतर असुंआ ढर गय
सच भी है कि मिक्सी और ग्राइंडर के जमाने में सिल-लोढ़ा को भला कौन पूछ रहा है? ‘‘चपिया- जाँते’’, ‘‘डुबरी- भूँजा’’ भी अतीत के पन्नों में दर्ज होकर रह गए हैं। शहरों में पली-बढ़ नई पीढ़ी उनके नामों से भी परिचित नहीं है। मंच हो या राजनीति हो, समाज हो या साहित्य हो सभी के स्तर में गिरावट आई है। मंचों पर ज्ञानहीन लोगों का दबदबा जिस तरह से बढ़ता जा रहा है उस पर भी कवि ने करारा कटाक्ष किया है। डॉ. सीरोठिया कहते हैं-
ज्ञानी कम आ रय मंचों पे 
ज्यादा मिलें खखलबे वारे 
कबउँ जुगत सें पटक देत हैं
संगसात में चलबे वारे 
जब व्यवस्थाएं बिगड़ती है तो इसका सीधा असर आमजन पर पड़ता है। जैसे शासकीय कार्यालय में फाइलों के देर में दबी अर्जी आम इंसान को कार्यालय के चक्कर लगवाती रहती है। तमाम हताशा और निराशा की बावजूद आम इंसान के पास और कोई विकल्प भी नहीं रहता -
जनता मारी- मारी फिर रइ
संगसात  लाचारी फिर रइ 
ये आफिस सें ओ आफिस लौ 
फाइल  जा सरकारी फिर रइ
इस गजल का मक़्ता वर्तमान सामाजिक परिवेश को आईना दिखाने वाला तथा आत्मा को झकझोरने वाला है। जो माता-पिता अपना पूरा जीवन, अपना सर्वस्व संतान का जीवन संवारने में लगा देते हैं, उनकी संतान सक्षम होने पर अपने उन्हीं माता-पिता को ठुकरा देती है। इस स्थिति को डॉ. सीरोठिया ने अपनी गजल के मक़ते में कुछ इस तरह व्यक्त किया है -
‘‘श्याममनोहर’’ मोंड़ा साहब 
माँगत खात मतारी फिर रइ
यह सामाजिक विडंबना नहीं तो और क्या है? रक्त संबंधों में आती जा रही विद्रूपता किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए अत्यंत पीड़ादायक है। इसका कारण कवि की दृष्टि में अंधी आधुनिकता का दौर है जिसमें स्वार्थपरता अधिक है तथा मानवता कम होती जा रही है। इसका असर गांवों पर भी पड़ा है- 
परे शहर के पाँव कका जू 
बिगर गओ है गाँव कका जू 
भँड़यों ने सब पेड़ काट लय 
नईं दिखाबे छाँव कका जू     
कुछ गजलों में बड़े रोचक एवं चुटीले बिम्ब उठाए गए हैं। जैसे एक गजल है ‘‘भोग लगा ले दार बनी है’’, इसमें ‘‘दार बनी है’’ को काफिए के रूप में बड़ी खूबसूरती से प्रयोग में लाया गया है। गजल के कुछ शेर देखिए-
भात बना ले दार बनी है 
छौंक लगा ले दार बनी है 
मोटी हतपउ रोटी पैले
तवा चढ़ा ले दार बनी है       
सिकीं कचरियाँ और बिजौरे
लाला खा ले दार बनी है   
डॉ. सीरोठिया ने  अपनी कई गजलों में बुंदेली कहनातों अर्थात कहावत का सुंदर प्रयोग किया है। जिससे कहन की अर्थवत्ता बढ़ गई है। कवि की बुंदेली पर अच्छी पकड़ है। उनके पास प्रचुर शब्द भंडार है तथा गजल विधा में बुंदेली शब्दों को ढालने की कला भी है। संग्रह की भूमिका अवचार्य भगवत दुबे, डाॅ. गायत्री वाजपेयी, डाॅ (सुश्री) शरद सिंह तथा गुप्तेश्वर द्वारिका गुप्त ने लिखी है। संग्रह की सभी गजलें रोचक हैं एवं समसामयिक संवाद करने में सक्षम हैं। मुझे विश्वास है कि 80 ग़ज़लों का यह बुंदेली गजल संग्रह ‘‘रिपट परे की हर गंगा है’’ बुंदेली साहित्य को समृद्ध करेगा तथा पाठकों को रुचिकर लगेगा।
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Saturday, October 25, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | फर्जी बाड़ा से तनक बचके रहियो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | फर्जी बाड़ा से तनक बचके रहियो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
टाॅपिक एक्सपर्ट
फर्जी बाड़ा से तनक बचके रहियो
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
सब ओरें चात आएं के एक ठइयां अपनो घर होए। अपने मूंड़ पे अपनी छत होए। जो पुताई कराबे की बेरा आए सो अपने घरे कराएं, अपने मन को रंग कराएं। शार्ट में कई जाए सो सब चाऊंत आएं के उनको अपनो घर होए। जेई लाने सब एक-एक पईसा जोड़त रैत आएं। मनो अपने इते का आए के प्रॉपर्टी के दाम आसमान छूअत रैत आएं। ऐसे में जो कोनऊं सस्ते में सबरी सुविदा वारे प्लाट को, ने तो सस्ते मकान को ढिंढोरा पीटत आए तो लालच में परबे में देर नईं लगत। सो भैया-बैन हरों, जे ई टाईप के ललत्तापने में कभऊं ने परियो। पैले अच्छे से पता कर लइयो के बा कालोनी जोन में प्लाट, ने तो घर ले रये बा वैध तो आए न! ऊको डायवर्सन भओ, के नईं भओ? कछू सेसा-मेसा को बिधौंना तो नईं बिधों? काये से के आप सो अपनी जिनगी भर की पूंजी लगा के प्लाट या घरे खरीद हो औ बाद में पता परी के कालोनी अवैध निकरी सो आप का कर लैहो? आपखों तो चूना लग चुको हुइए। जेई के लानें हम कै रये के प्रापर्टी खरीदियो, मनो पैले अच्छे से जांच लइयो।
     जा सब हम जे लाने बता रये के हमाई एक चिनारी वारे जेई मामला में ठगा गए। आजकाल जे टाईप की सोच सोई चलन लगी आए के ‘कछू नईं, बाद में सबरी अवैध, वैध हो जात आएं।’ सो, जे भुलावा में ने रहियो। काये से के अब सब कछू डिजिटल होन लगो, सबरे रिकॉर्ड पक्के रैत आएं, सो ऊमें करो गओ घपला चल नईं सकत। सो, चौकन्ने रओ औ अपनो घर बना के ऊमें राजी खुसी से रओ। काए हमाई सलाय सई आए न!
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Friday, October 24, 2025

शून्यकाल | नई शिक्षा नीति में भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | नई शिक्षा नीति में भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल
नई शिक्षा नीति और भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह  
     नई शिक्षा नीति-2020  अब नई नहीं रही, इसे लागू हुए 5 वर्ष से अधिक हो गए हैं। इस नीति की सबसे बड़ी बात है कि नई शिक्षा नीति में पांचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी लेवल से होगी। यद्यपि नई शिक्षा नीति में यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा। प्रश्न यह है कि क्या इस नीति के भाषाई प्रावधान में सरकारी स्कूलों के बच्चे उन बच्चों का मुकाबला कर सकेंगे जो प्राईवेट स्कूल में पहली कक्षा से अंग्रेजी भाषा सीखते हैं। देश में अंग्रेजी के प्रभाव के चलते कहीं सरकारी स्कूलों के बच्चे और पिछड़ तो नहीं जाएंगे? इस तरह की कई बातें अभी विचार करने योग्य हैं।

     मुझे याद है भारत भवन में सन् 2004 में हुई एक साहित्यिक संगोष्ठी, जिसमें देश-विदेश से हिन्दी के जानकार एकत्र हुए थे। कथासम्राट प्रेमचंद की पोती सारा राय भी उसमें आई थीं। विदेशों में हिन्दी साहित्य विषयक सत्र के बाद जब हम भोजनसत्र में गपशप कर रहे थे तभी किसी बात पर चर्चा चलते-चलते स्कूल शिक्षा पर पहुंची और सारा राय ने हंस कर कहा-‘‘हिन्दी स्कूलों में पढ़े हुए लोग कितनी भी अच्छी अंग्रेजी बोल लें लेकिन पकड़ में आ ही जाते हैं।’’ मैंने चकित हो कर पूछा-कैसे?’’ तो उन्होंने कहा-‘‘शायद आपने ध्यान नहीं दिया होगा कि अभी पिछले सत्र में जो सज्जन भाषण दे रहे थे वे बिना वज़ह अंग्रेजी झाड़ रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने ‘‘पोर्टुगल’’ को ‘‘पुर्तगाल’’ कहा, मैं ताड़ गई कि ये हिन्दी मीडियम के अंग्रेजी नवाब हैं।’’ उस समय तो यह बात हंसी-हंसी में आई-गई हो गई लेकिन सारा राय की यह टिप्पणी फांस बन कर मेरे दिल-दिमाग़ में चुभी रही। यह बात किसी एक सज्जन की नहीं थी, बल्कि उन तमाम लोगों की थी जो हिन्दी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हैं और स्वश्रम से अंग्रेजी में पारंगत होने का प्रयास करते हैं। अब तो अंग्रेजी सिखाने वाले कोचिंग सेंटर भी खुल गए है। ऑनलाईन अंग्रेजी शिक्षा की साईट्स हैं लेकिन वे इतनी सक्षम नहीं हैं कि अंग्रेजी न जानने वाले अथवा कम जानने वाले को अंग्रेजी की पर्याप्त शिक्षा दे सकें। ऐसे में नई शिक्षा नीति 2020 में भाषा शिक्षा को ले कर जो प्रावधान रखा गया है वह चिंता में डालने वाला है।
मैं भी हिन्दी माध्यम स्कूल, कॉलेज में पढ़ी हूं और मुझे अब तक अनेक ऐसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में भाग लेने का अवसर मिला है जो हिन्दी भाषा पर केन्द्रित होते हुए भी अंग्रेजी के बोलबाले के साए में हुए। मुझे असुविधा नहीं हुई क्योंकि हिन्दी पर मेरी भाषाई पकड़ अच्छी है और मेरी मां डॉ, विद्यावती ‘मालविका’ ने हिन्दी की व्याख्याता होते हुए भी मेरी अंग्रेजी भाषा की शिक्षा पर ध्यान दिया तथा उच्चारण को लेकर हमेशा सजग रखा। लेकिन जब मैं उन युवाओं के बारे में सोचती हूं जो समाज के ऐसे तबकों से आते हैं जहां माता-पिता दोनों ही भाषाई ज्ञान में कच्चे होते हैं, वे युवा हिन्दी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हुए अंग्रेजी के आतंक का कैसे मुकाबला करते होंगे? क्या उनमें हीन भावना पनपने लगती है? क्या वे स्वयं को रोजगार की दौड़ में स्वयं को सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ा महसूस करते हैं? 

कक्षा पांच तक मातृ भाषा में शिक्षा दिया जाना बड़ी सुखद बात लगती है। निश्चित रूप से इससे बच्चे को विषय को समझने और अपनी मातृभाषा से जुड़े रहने का अवसर मिलेगा। लेकिन क्या इस नीति को अंग्रेजी माध्यम के प्राईवेट स्कूल अपनाएंगे? यदि नहीं अपनाएंगे तो सरकारी और प्राईवेट स्कूलों के बीच की भाषाई खाई और गहरी हो जाएगी। हम दशकों से पुरानी शिक्षा नीति को ‘बाबू बनाने की शिक्षा नीति’’ कह कर कोसते आए हैं। लेकिन इस शिक्षा नीति के भाषा-माध्यम पक्ष को लेकर बच्चों के क्या बनने की उम्मींद कर सकते हैं? इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह शिक्षा नीति एक महत्वाकांक्षी नीति है। इसमें स्किल डेव्हलपमेंट के अनेक प्रावधान हैं लेकिन इस दौर में जब यह महसूस होने लगा है कि बच्चों को पहली कक्षा से ही द्विभाषी शिक्षा दी जाए तब कक्षा पांच तक केवल मातृ भाषा में शिक्षा का प्रावधान कई चुनौतियां खड़ा करता है। नई शिक्षा नीति में पांचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी स्तर से होगी। इसे लागू करने के साथ ही यह जरूरी होता कि देश में भाषाई एकरूपता पर भी नई नीति बनाई जाती और अंग्रेजी के प्रभाव को समाप्त करने की दिशा में कड़े कदम उठाए जाते। चीन, जापान, रूस, जर्मनी आदि देश एक राष्ट्र भाषा के आधार पर प्रगति कर रहे हैं तो हमारे देश में यह संभव क्यों नहीं हो पाता है? जबकि देश की आज़ादी के बाद से इस दिशा में कई बार ज़ोरदार मांग उठाई गई। यह विचारणीय है कि भाषा का मुद्दा इस नई शिक्षा नीति के व्यावहारिक उद्देश्यों को ठेस पहुंचा सकता है।   

यह अच्छी बात है कि समय के साथ शिक्षानीति में भी परिवर्तन होना चाहिए और अब देश की शिक्षा नीति में 34 साल बाद नए बदलाव किए गए। नई शिक्षा नीति में प्रावधान यही रखा गया कि प्री स्कूलिंग के साथ 12 साल की स्कूली शिक्षा और तीन साल की आंगनवाड़ी होगी। प्रायमरी में तीसरी, चौथी और पांचवी क्लास को रखा गया है। इसके बाद मिडिल स्कूल अर्थात् 6-8 कक्षा में विषय का परिचय कराया जाएगा। सभी छात्र केवल तीसरी, पांचवी और आठवीं कक्षा में परीक्षा देंगे। 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा पहले की तरह जारी रहेगी। लेकिन बच्चों के समग्र विकास करने के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इन्हें नया स्वरूप दिया जाएगा। पढ़ने-लिखने और जोड़-घटाव (संख्यात्मक ज्ञान) की बुनियादी योग्यता पर ज़ोर दिया जाएगा। बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान अत्यंत ज़रूरी एवं पहली आवश्यकता मानते हुए ’एनईपी 2020’ में ’बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन’ की स्थापना की जाएगी। एनसीईआरटी 8 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए प्रारंभिक बचपन देखभाल और शिक्षा के लिए एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और शैक्षणिक ढांचा विकसित करेगा। शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय प्रोफ़ेशनल मानक राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा वर्ष 2022 तक विकसित किया जाएगा, जिसके लिए एनसीईआरटी, एससीईआरटी, शिक्षकों और सभी स्तरों एवं क्षेत्रों के विशेषज्ञ संगठनों के साथ परामर्श किया जाएगा। समग्र आकलन के बाद ही स्थिति स्पष्ट हो सकेगी कि यह टारगेट पूरा हो सका कि नहीं।

पहली बार मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम लागू किया गया। यानी मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम की इस नई व्यवस्था में एक साल के बाद सर्टिफ़िकेट, दो साल के बाद डिप्लोमा और तीन-चार साल के बाद डिग्री मिल जाएगी। इससे उन छात्रों को लाभ होगा जिनकी पढ़ाई बीच में छूट जाती है। नई शिक्षा नीति में छात्रों को ये आज़ादी होगी कि अगर वो कोई कोर्स बीच में छोड़कर दूसरे कोर्स में दाखिला लेना चाहें तो वो पहले कोर्स से एक खास निश्चित समय तक ब्रेक ले सकते हैं और दूसरा कोर्स ज्वाइन कर सकते हैं। उच्च शिक्षा में कई बदलाव किए गए हैं। जो छात्र रिसर्च करना चाहते हैं उनके लिए चार साल का डिग्री प्रोग्राम होगा। जो लोग नौकरी में जाना चाहते हैं वो तीन साल का ही डिग्री प्रोग्राम करेंगे। लेकिन जो रिसर्च में जाना चाहते हैं वो एक साल के एमए के साथ चार साल के डिग्री प्रोग्राम के बाद सीधे पीएचडी कर सकते हैं। उन्हें एमफ़िल की ज़रूरत नहीं होगी। नई शिक्षा नीति में अनेक ऐसी बातें हैं जिन पर विस्तार से विचार किए जाने की जरूरत है। फिलहाल भाषा तत्व जो किसी भी शिक्षा नीति की बुनियाद है, उस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। यानी पहले ‘‘पुर्तगाल और ‘‘पोर्टुगल’’ की दूरी को पाटना जरूरी है।
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Sunday, October 19, 2025

रूप चतुर्दशी उर्फ़ नरक चतुर्दशी उर्फ़ यम चतुर्दशी उर्फ़ काली चौदस उर्फ़ छोटी दिवाली की हार्दिक बधाई - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

🚩 रूपचतुर्दशी उर्फ़ नरक चतुर्दशी छ़ोटी दीवाली की हार्दिक बधाई 🚩🎉🚩

🚩 नरक चतुर्दशी : मैने अपने बचपन से इस तिथि को इसी नाम से जाना। रात्रि के समय आटे के छोटे-छोटे 14 दिए बनाए जाते थे जिसमें कड़वा तेल डालकर जलाया जाता था और दियों का मुख दिशा दक्षिण की ओर रखा जाता था। मां कहती थी कि इससे यमराज प्रसन्न होते हैं तथा घर में शोक रोग या मृत्यु प्रवेश नहीं करती है। उन छोटे-छोटे 14 दोनों का एक साथ जलना, जगमग करना बहुत सुंदर लगता था। 

🚩नरक चतुर्दशी की अपनी एक कथा भी है जिसके अनुसार नरकासुर नाम के बलशाली राक्षस ने 16000 से अधिक कन्याओं को बंदी बना रखा था। वह देवताओं को भी परेशान करता था। जब उसके अत्याचार सहन से बाहर हो गए, तब श्रीकृष्ण ने  सत्यभामा के सहयोग से नरकासुर का वध किया और सभी कन्याओं को मुक्त कराया। इस विजय के कारण इस तिथि को नरक चतुर्दशी कहा जाने लगा।

🚩 रूपचतुर्दशी : आज बाजारवाद ने इस तिथि को ब्यूटी पार्लर्स के हवाले कर दिया है। अपनी रूप को संवारना गलत नहीं है हर स्त्री अपने रूप को संवारना चाहती है लेकिन इस चक्कर में मूल कथा,पौराणिक संकल्पना कहीं खोती जा रही है।

🚩 यमचतुर्दशी : यमराज को प्रसन्न रखने के मूल संकल्पना इसलिए महत्वपूर्ण है कि हम मृत्यु के शासक सत्य को कभी ना भूले और उसके अनुसार घर में प्रसन्नता एवं स्वस्थ वातावरण बनाए रखें जिससे मृत्यु अथवा अन्य शोक के कारण हमसे दूर रहें। इसीलिए आज की स्थिति को यमचतुर्दशी के नाम से भी पुकारा जाता है। 

🚩 काली चौदस : कुछ लोग इसे काली चौदस भी कहते हैं। विशेष रूप से वे लोग जो तंत्र-मंत्र में विश्वास रखते हैं तथा इस तिथि की रात्रि में तांत्रिक क्रियाएं करते हैं।

🚩 छोटी दिवाली : आज के दिन को छोटे दिवाली के रूप में भी मनाया जाता है।

So, Happy Chhoti Diwali !
Happy Roop Chaturdashi - Dr (Ms) Sharad Singh
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Saturday, October 18, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | हैप्पी दिवारी मनाइयो पर तनक सम्हर के | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | हैप्पी दिवारी मनाइयो पर तनक सम्हर के | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
टाॅपिक एक्सपर्ट  

हैप्पी दिवारी मनाइयो पर तनक सम्हर के

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अब आप कैहो के त्योहार के टेम पे बी सिखावन दे रईं, का हम ओरें पैली बार दिवारी मनाबे जा रये? सो, ऐसी बात नोंई! बात सिखावन की नोंई याद दिलाबे वारी आए। काए से के दिवारी मनाबे के जोस में अपन लापरवाई कर बैठत आएं। जैसे मिठाई औ खोबा लेबे में। अब दिवारी पे घरे मिठाई तो बनहेई। औ होत का है के मंगाए, मंगाए से बी कोऊ खोबा ला के ने दे रओ होय, औ ओई टेम पे कोऊ दोरे से “खोबा ले लो” टेरत भओ निकरे तो लगत आए के मनो लाटरी लग गई। ऊ टेम पे हमें खोबा दिखात है, ऊमें की गई मिलावट नोंई। बा तो नकली खोबा पकरा के बढ़ लेत आए औ हमें बाद समझ परत आए के बा तो चूना लगा के चलो गओ। अब नकली खोबा खा के तबीयत तो बिगारी नईं जा सकत सो, ऊको मेंकनईं परत है। सो अच्छो खोबा  औ अच्छी मिठाई लइयो। सस्ती के फेर में नकली ले के तबीयत ने बिगारियो। कम भले लइयो, पर साजी लइयो।
    एक बिनती औ आए के लोहरे मोड़ा-मोड़ी खों तभई पटाखे औ बम फोरन दइयो जब आप ओरें उनके संगे होंए। ने बच्चों खों कां खबर, बे कओ अपनेई मूंड़ के निसाना पे राकेट दाग लेवें । संगे जा बी ध्यान राखने के कोनऊं जानवर खों परेसानी न होने पाएं। का होत आए के बच्चा हरें कऊं कोऊ कुत्ता की,  ने तो गइया की पूंछ में पटाखों की लरियां बांध देत आएं। ईसे उन पसुअन खों खींबई तकलीफ होत आए। सो, जे तनम-मनक सी जरूरी बातें ध्यान राखियों औ अच्छे से हैप्पी दिवारी मनाइयो। लछमी मैया की किरपा सब पे बनी रैहे ।
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, October 17, 2025

शून्यकाल | बुंदेली दीपावली से जुड़ी रोचक परंपराएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | बुंदेली दीपावली से जुड़ी रोचक परंपराएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल | बुंदेली दीपावली से जुड़ी रोचक परंपराएं
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह   
   
कुछ परंपराएं भले ही छूट रही हों, कुछ मान्यताएं भले ही बदल रही हों किन्तु बुंदेलखंड का विस्तृत भू-भाग आज भी दीपावली के लुप्त हो चले अनेक रिवाजों को अपने सीने से लगाए हुए है और उन्हें संरक्षित करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। ये परंपराएं अत्यंत रोचक हैं। यह याद रखने की बात है कि प्रकृति, समाज और प्रसन्नता से जुड़ी परंपराएं न तो कभी हानिकारक होती हैं और न कभी पुरानी पड़ती हैं, अपितु ये परंपराएं हमारे जातीय स्वाभिमान को बचाए रखती हैं। जब तक दीपावली के दीपक जगमगाते रहेंगे, हमारी परंपराएं भी हमारे साथ चलती रहेंगी।

भारत का सबसे जगमगाता त्योहार है दीपावली। इस एक त्योहार के मनाए जाने के कारणों की बात करें से इससे जुड़ी अनेक कथाएं सुनने को मिल जाती हैं। मान्यता अनुसार इसी दिन भगवान राम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे। इस दिन भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताल लोक का स्वामी बनाया था इसलिए दक्षिण भारत के लोगों के लिए यह महत्वपूर्ण दिन है। इस दिन के ठीक एक दिन पहले श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था। इस खुशी के मौके पर दूसरे दिन दीप जलाए गए थे। कहते हैं कि दीपावली का पर्व सबसे पहले राजा महाबली के काल से प्रारंभ हुआ था। विष्णु ने तीन पग में तीनों लोकों को नाप लिया। राजा बली की दानशीलता से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू लोकवासी प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाएंगे। तभी से दीपोत्सव का पर्व प्रारंभ हुआ। यह भी माना जाता हैं कि दीपावली यक्ष नाम की जाति के लोगों का ही उत्सव था। उनके साथ गंधर्व भी यह उत्सव मनाते थे। मान्यता है कि दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते थे। सभ्यता के विकास के साथ यह त्योहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मीजी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है।
दीपावली दीपों का त्योहार है। यह ‘‘अन्धकार पर प्रकाश की विजय’’ को दर्शाता है। दीपावली का उत्सव 5 दिनों तक चलता है। पहले दिन को धनतेरस कहते हैं। दीपावली महोत्सव की शुरुआत धनतेरस से होती है। इसे धन त्रयोदशी भी कहते हैं। धनतेरस के दिन मृत्यु के देवता यमराज, धन के देवता कुबेर और आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि की पूजा का महत्व है। इसी दिन समुद्र मंथन में भगवान धन्वंतरि अमृत कलश के साथ प्रकट हुए थे और उनके साथ आभूषण व बहुमूल्य रत्न भी समुद्र मंथन से प्राप्त हुए थे। दूसरे दिन को नरक चतुर्दशी, रूप चैदस और काली चैदस कहते हैं। इसी दिन नरकासुर का वध कर भगवान श्रीकृष्ण ने 16,100 कन्याओं को नरकासुर के बंदीगृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष्य में दीयों की बारात सजाई जाती है। तीसरे दिन दीपावली होती हैं। दीपावली का पर्व विशेष रूप से मां लक्ष्मी के पूजन का पर्व होता है। कार्तिक माह की अमावस्या को ही समुद्र मंथन से मां लक्ष्मी प्रकट हुई थीं जिन्हें धन, वैभव, ऐश्वर्य और सुख-समृद्धि की देवी माना जाता है। इसी दिन श्रीराम, सीता और  लक्ष्मण 14 वर्षों का वनवास समाप्त कर घर लौटे थे। चैथे दिन अन्नकूट या गोवर्धन पूजा होती है। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा एवं अन्नकूट उत्सव मनाना जाता है। इसे पड़वा या प्रतिपदा भी कहते हैं। पांचवां दिन इस दिन को भाई दूज और यम द्वितीया कहते हैं। भाई दूज, पांच दिवसीय दीपावली महापर्व का अंतिम दिन होता है। भाई दूज का पर्व भाई-बहन के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाने और भाई की लंबी उम्र के लिए मनाया जाता है।
       दीपावली के कई दिन पहले से ही घर की दीवारों की रंगाई-पुताई, आंगन की गोबर से लिपाई और लिपे हुए आंगन के किनारों को ‘‘ढिग’’ धर का सजाना यानी चूने या छुई मिट्टी से किनारे रंगना। चैक और सुराती पूरना। गुझिया, पपड़ियां, सेव-नमकीन, गुड़पारे, शकरपारे के साथ ही एरसे, अद्रैनी आदि व्यंजन बनाया जाना। एरसे त्यौहारों विशेषकर होली और दीपावली पर बनाये जाते हैं। ये मूसल से कूटे गए चावलों के आटे से बनते हैं। आटे में गुड़ मिला कर, माढ़ कर इन्हें पूड़ियों की तरह घी में पकाते हैं। घी के एरसे ही अधिक स्वादिष्ट होते है। इसी तरह अद्रैनी प्रायः त्यौहारों पर बनाई जाती है। आधा गेहूं का आटा एवं आधा बेसन मिलाकर बनाई गई पूड़ी अद्रैनी कहलाती है। इसमें अजवायन का जीरा डाला जाता है। इन सारी तैयारियों के साथ आगमन होता है बुंदेली-दिवाली का।
बुंदेलखंड में दीपावली का त्यौहार पांच दिनों तक मनाया जाता है। यह त्यौहार धनतेरस से शुरु होकर भाई दूज पर समाप्त होता है। बुंदेलखंड में दीपावली के त्यौहार की कई लोक मान्यताएं और परंपराएं हैं जो अब सिमट-सिकुड़ कर ग्रामीण अंचलों में ही रह गई हैं। जीवन पर शहरी छाप ने अनेक परंपराओं को विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया है। इन्हीं में से एक परंपरा है- घर की चैखट पर कील ठुकवाने की। दीपावली के दिन घर की देहरी अथवा चैखट पर लोहे की कील ठुकवाई जाती थी। मुझे भली-भांति याद है कि पन्ना में हमारे घर भोजन बनाने का काम करने वाली जिन्हें हम ‘बऊ’ कह कर पुकारते थे, उनका बेटा लोहे की कील ले कर हमारे घर आया करता था। वह हमारे घर की देहरी पर जमीन में कील ठोंकता और बदले में मेरी मां उसे खाने का सामान और कुछ रुपए दिया करतीं। एक बार मैं उसकी नकल में कील ठोंकने बैठ गई तो मां ने डांटते हुए कहा था-‘‘यह साधारण कील नहीं है, इसे हर कोई नहीं ठोंकता है। इसे मंत्र पढ़ कर ठोंका जाता है।’’ मेरी मां दकियानूसी कभी नहीं रहीं और न ही उन्होंने कभी मंत्र-तंत्र पर विश्वास किया लेकिन परंपराओं का सम्मान उन्होंने हमेशा किया। आज भी वे दीपावली पर पूछती हैं कि कील ठोंकने वाला कोई आया क्या? लेकिन शहरीकरण की दौड़ में शामिल काॅलोनियों में ऐसी परंपराएं छूट-सी गई हैं। दीपावली के दिन गोधूलि बेला में घर के दरवाजे पर मुख्य द्वार पर लोहे की कील ठुकवाने के पीछे मान्यता थी कि ऐसा करने से साल भर बलाएं या मुसीबतें घर में प्रवेश नहीं कर पातीं हैं। बलाएं होती हों या न होती हों किन्तु घर की गृहणी द्वारा अपने घर-परिवार की रक्षा-सुरक्षा की आकांक्षा की प्रतीक रही है यह परंपरा।
        दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती बनाने की परंपरा रही है। आज पारंपरिक रीत-रिवाजों को मानने वाले घरों अथवा गांवों में ही दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती (सुरैती) बनाई जाती है। सुराती स्वास्तिकों को जोड़कर बनाई जाती है। ज्यामिति आकार में दो आकृति बनाई जाती हैं, जिनमें 16 घर की लक्ष्मी की आकृति होती है, जो महिला के सोलह श्रृंगार दर्शाती है। नौ घर की भगवान विष्णु की आकृति नवग्रह का प्रतीक होती है। सुराती के साथ गणेश, गाय, बछड़ा व धन के प्रतीक सात घड़ों के चित्र भी बनाये जाते हैं। दीपावली पर हाथ से बने लक्ष्मी - गणेश के चित्र की पूजा का भी विशेष महत्व है। जिन्हें बुंदेली लोक भाषा में ‘पना’ कहा जाता है। कई घरों में आज भी परंपरागत रूप से इन चित्रों के माध्यम से लक्ष्मी पूजा की जाती है।
       बुंदेलखंड में दशहरा-दीपावली पर मछली के दर्शन को भी शुभ माना जाता है। इसी मान्यता के चलते चांदी की मछली दीपावली पर खरीदने और घर में सजाने की मान्यता भी बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में है। बुंदेलखंड के हमीरपुर जिला से लगभग 40 किमी. दूर उपरौस, ब्लॉक मौदहा की चांदी की विशेष मछलियां बनाई जाती हैं। कहा जाता है कि चांदी की मछली बनाने का काम देश में सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। उपरौस कस्बे में बनने वाली इन मछलियों को मुगलकाल के बादशाह भी पसंद करते थे। अंग्रेजों के समय रानी विक्टोरिया भी इसकी कारीगरी देखकर चकित हो गयी थीं। जागेश्वर प्रसाद सोनी उसे नयी ऊंचाई पर ले गये। मछली बनाने वाले जागेश्वर प्रसाद सोनी की 14वीं पीढ़ी की संतान राजेन्द्र सोनी के अनुसार इस कला का उल्लेख इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी किताब ‘‘आइने अकबरी’’ में भी किया है। उन्होंने लिखा है कि यहां के लोगों के पास बढ़िया जीवन व्यतीत करने का बेहतर साधन है, इसके बाद उन्होंने चांदी की मछली का उल्लेख किया और इसकी कारीगरी की प्रशंसा भी की है। इसके बाद सन् 1810 में रानी विक्टोरिया भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी थीं। उन्होंने सोनी परिवार के पूर्वज स्वर्णकार तुलसी दास को इसके लिए सम्मानित भी किया था। राजेंद्र सोनी के अनुसार दीपावली के समय चांदी की मछलियों की मांग बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। क्योंकि मछली को लोग शुभ मानते हैं और चांदी को भी। उनके अनुसार धीरे-धीरे ये व्यापार सिमटता जा रहा है। कभी लाखों रुपए में होने वाला ये कारोबार अब संकट में है और चांदी की मछलियों की परंपरा समापन की सीमा पर खड़ी है।
        कुछ परंपराएं भले ही छूट रही हों, कुछ मान्यताएं भले ही बदल रही हों किन्तु बुंदेलखंड का विस्तृत भू-भाग आज भी दीपावली के लुप्त हो चले अनेक रिवाजों को अपने सीने से लगाए हुए है और उन्हें संरक्षित करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। ये रोचक परंपराएं हमें हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़े रखती हैं और हमारी सांस्कृतिक विशिष्टता को संजोए रखती हैं। यह याद रखने की बात है कि प्रकृति, समाज और प्रसन्नता से जुड़ी परंपराएं न तो कभी हानिकारक होती हैं और न कभी पुरानी पड़ती हैं, अपितु ये परंपराएं हमारे जातीय स्वाभिमान को बचाए रखती हैं। दीपावली पर खुले आंगन में गोबर की लिपावट की सोंधी गंध भले ही सिमट रही हो किन्तु उस पर पूरे जाने वाले चैक, सातियां, मांडने आज भी आधुनिक बुंदेली घरों के चिकने टाईल्स वाले फर्श पर राज कर रहे हैं। जब तक दीपावली के दीपक जगमगाते रहेंगे, हमारी परंपराएं भी हमारे साथ चलती रहेंगी।
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