Sunday, July 27, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | रामधई, हमाओ जी जुड़ा गओ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

जब हमारी प्रिय सांसद लता वानखेड़े 'ड्रीम गर्ल' सांसद हेमा मालिनी जी से मिलीं....
रामधई, हमाओ जी जुड़ा गओ!
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

  (पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में)
         अब आप ओरें सोच रये हुइयों के इनको काए से जी जुड़ा गओ? इनें ऐसो का दिखा गओ? काए से के जा बारिस ने तो सगरी पोलें खोल के धर दई आएं। कऊं सड़कन पे गड्ढा दिखा रये तो कऊं दरारें कढ़ आईं। कहूं नरदा को पानी घरे घुस रओ तो कहूं अच्छी नोनी कॉलोनी तला में बदल गई। अबई कल्ल की बात आए के बीना के हमाए पैचान वारे भैया जी ने अपने घरे की फोटू सोसल मीडिया पे डारी जोन में उनके घरे पानी भरो दिखा रओ। बे कवि आएं, सो इत्तई में इमोशनल हो गए। ऊपे कछु सयानों ने उने डरा दओ के ‘हर घर जल’ योजना को उनें टैक्स देने परहे। मने दूसरों की उधड़ी में उंगरियां टुच्चबे में कछु लोगन खों भौतई मजो आऊत आए। सो, अब जे सब तो हो नईं सकत हमाए जी जुड़ाबे को कारन। हऔ, सई समझे आप ओरें। अब गांव-देहात के सरकारी स्कूलन में छत से पानी टपक रओ, मोड़ा-मोड़ी फट्टी पे बैठ के पढ़ रये। अब जा देख के थोड़ई हमाओ जी जुड़ाहे? 
      बाकी, अब सस्पेंस खोल दओ जाये के का देख के हमाओ जी जुड़ाओ। हमने संसद की छिड़ियां पे अपनी सांसद लता वानखेड़े जू की फोटू देखी, वा बी ड्रीमगर्ल रईं सांसद हेमामालिनी जू के संगे। औ रामधई ! हमें अपनी सांसद उनसे काऊं कम नईं दिखानी। सो, बा फोटू देख के हमाओ तो जी जुड़ा गओ। अब अपने सागर के लाने अच्छे-अच्छे काम औ करात चलें सो हमाओ मूंड़ शान से ऊंचो बनो रैहे औ एसईं जी जुड़ात रैह। काए से के इंसान को काम ई सो ऊको असली पैचान देत आए।
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 सांसद हेमा मालिनी तथा सागर की सांसद डॉ लता वानखेड़े
Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, July 25, 2025

शून्यकाल | कौन थे असुर? आर्य, अनार्य अथवा कोई और प्रजाति? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - 
शून्यकाल
कौन थे असुर? आर्य, अनार्य अथवा कोई और प्रजाति?
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                                              जिसने वैदिक ग्रंथ पढ़े हैं अथवा वैदिक ग्रंथों की कथाएं सुनी हैं, वह देवासुर संग्राम से परिचित होगा। जो असुरों एवं देवताओं के मध्य कई वर्ष चला था। ये असुर ही राक्षस कहे गए। शुंभ और निशुंभ राक्षसों का देवी दुर्गा द्वारा वध किए जाने की कथा है। महिषासुर को भी देवी ने मारा था। असुर और देवताओं के बीच युद्ध के बाद मानव एवं असुरों के बीच युद्ध होने लगा। रामकथा के मूल में श्रीराम एवं रावण के मध्य युद्ध का वर्णन है। श्रीराम देवावतार थे किन्तु थे मानव ही, और रावण राक्षस था। इसके बाद श्रीराम-रावण युद्ध से बड़ा युद्ध महाभारत का हुआ किन्तु यह दो मानवकुलों के बीच का युद्ध था जिसमें राक्षस कुल के लोगों ने भी भाग लिया किन्तु सहयोगी के रूप में। तो फिर असुर कौन थे? आर्य, अनार्य अथवा कोई और प्रजाति जो देखने में मनुष्यों से अलग थी?
    वाल्मीकि कृत ‘‘रामायण’’ वह रामकथा है जिसमें राक्षसों एवं श्रेष्ठ मानवों के मध्य छल, कपट, राजनीति एवं युद्ध का वर्णन है। यह माना जाता है कि श्रीराम और रावण के बीच जो युद्ध हुआ वह वस्तुतः आर्यों एवं अनार्यों के बीच युद्ध था। यद्यपि इस युद्ध में उनकी भी सहभागिता थी जो न तो आर्य थे और न अनार्य थे, जैसे वानर, भाल्लुक आदि। रामायण के अतिरिक्त हर भाषा में लिखी गई रामकथा में राक्षस राज रावण से युद्ध का वर्णन मिलता है। अनेक विद्वान यह मानते हैं कि आर्य भारत भूमि के नहीं थे, जबकि द्रविड़ भारत के मूल निवासी थे। इस समय इस प्रश्न को छोड़ कर इस पर विचार किया जाए कि राक्षस यानी असुर कौन थे? क्या वे अनार्य थे? या फिर वे मनुष्य ही नहीं थे अपितु कोई और प्रजाति के थे? यद्यपि यह सोचना भी अटपटा लगता है कि राक्षस मनुष्य से इतर किसी और प्रजाति के थे। यूं भी वैज्ञानिकों द्वारा मानव विकास के संबंध में किए गए अब तक के अनुसंधानों से यह ज्ञात नहीं हुआ है कि मनुष्य से इतर कोई ऐसी प्रजाति मानव के समकालीन रही जिसे हम राक्षस कह सकते हों। तो फिर वही प्रश्न उठता है कि क्या राक्षस अनार्य थे? वेदों में राक्षसों को असुर कहा गया है। वैदिक ग्रंथों में सुर-असुर संग्राम की कई कथाएं हैं। ये देवासुर संग्राम कई-कई वर्ष तक चलते थे। इस दृष्टि से देखा जाए तो कोई बाहरी आक्रांता कई वर्ष तक युद्ध में निरंतर डटे नहीं रह सकता था अतः सुर और असुर दोनों को एक ही भू-भाग का निवासी होना चाहिए, जिनमें वर्चस्व की लड़ाई चलती रही होगी। किन्तु दोनों पक्षों में उस पक्ष को असुर अथवा राक्षस का सम्बोधन दिया गया जिसने शालीनता का उल्लंघन किया, जिसने स्त्रियों का सम्मान नहीं किया, जिसने स्वार्थपूर्ति के लिए हर प्रकार के छल-कपट का सहारा लिया, जिसने नृशंसता को अपनाया। अतः इस दृष्टि से देखा जाए तो असुर अथवा राक्षस वे थे जो अमानवीय भावनाओं से भरे हुए थे। जिस परिवार अथवा समुदाय के अधिकांश जन अमानवीय भावनाओं से युक्त थे वे असुर अथवा राक्षस कुल के कहलाए। यद्यपि यह आवश्यक नहीं था कि उस कुल का प्रत्येक सदस्य अनार्य आचरण अथवा राक्षसी प्रवृत्ति का हो। 
वाल्मीकि कृत ‘‘रामायण’’ में रावण को राक्षस कुल का माना गया है। उसके भाई-बहन राक्षसी आचरण के थे किन्तु उसका एक भाई विभीषण तथा उसकी एक पत्नी मंदोदरी राक्षस कुल के होते हुए भी राक्षसी प्रवृति के नहीं थे। विभीषण श्रीराम के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है तो मंदोदरी सीता के पक्ष लेती है। रामायण काल से पूर्व वैदिक काल में असुरों का अस्तित्व था जिसका उल्लेख ‘‘ऋग्वेद’’ में मिलता है। 

वैदिक ग्रंथों के अनुसार प्राचीन भारत में ये जातियां थीं- देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग आदि। देवताओं को सुर तो दैत्यों को असुर कहा जाता था। माना गया कि देवताओं की अदिति, तो दैत्यों की दिति से उत्पत्ति हुई। दानवों की दनु से, तो राक्षसों की सुरसा से, गंधर्वों की उत्पत्ति अरिष्टा से हुई। इसी तरह यक्ष, किन्नर, नाग आदि की उत्पत्ति मानी गई है। प्रारंभ में सभी महाद्वीप आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। इस जुड़ी हुई धरती को प्राचीन काल में 7 द्वीपों में बांटा गया था- जम्बू द्वीप, प्लक्ष द्वीप, शाल्मली द्वीप, कुश द्वीप, क्रौंच द्वीप, शाक द्वीप एवं पुष्कर द्वीप। इसमें से जम्बू द्वीप सभी के बीचोबीच स्थित है। जम्बू द्वीप के 9 खंड थे - इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरिवर्ष, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। इसी क्षेत्र में सुर और असुरों का साम्राज्य था।
कुछ विद्वान वैदिक ग्रंथों में प्राप्त विवरण के आधार पर निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि ब्रह्मा और उनके कुल के लोग धरती के नहीं थे। उन्होंने धरती पर आक्रमण करके मधु और कैटभ नाम के दैत्यों का वध कर धरती पर अपने कुल का विस्तार किया था। बस, यहीं से धरती के दैत्यों और स्वर्ग के देवताओं के बीच लड़ाई शुरू हो गई। देवता और असुरों की यह लड़ाई हमेशा चलती रही। जम्बूद्वीप के इलावर्त क्षेत्र में 12 बार देवासुर संग्राम हुआ। अंतिम बार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र राजा बलि के साथ इंद्र का युद्ध हुआ। जब देवता हार गए तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया। इस जम्बूद्वीप के बीच के स्थान में था इलावर्त राज्य। माना जाता है कि अंतिम बार संभवतः शम्बासुर के साथ युद्ध हुआ था जिसमें राजा दशरथ ने भी भाग लिया था। 

चाहे देवता हों अथवा देवियां, उन्हें असुरों का दमन करने के लिए शस्त्र उठाने पड़े। प्राचीन ग्रंथों में जिन प्रमुख असुरों का वर्णन है उनमें से कुछ प्रमुख नाम हैं- राहू, केतु, हेति, प्रहेति, सुकेश, माल्यवान, माली, सुमाली, कुम्भकर्ण, मेघनाद, अक्षयकुमार, अतिकाय, त्रिशरा, नरान्तक, देवान्तक, मूलक, शुम्भ, निशुम्भ आदि।

यहां यह भी विचारणीय है कि वैदिक युग से रामायण काल तक राक्षसों का मानव एवं देवमानवों  अथवा देवताओं के विरुद्ध प्रबल विरोध एवं युद्ध चलता रहा। किन्तु महाभारत काल में राक्षसकुल का वर्णन तो है किन्तु मूल युद्ध एक ही कुल के मानवों के बीच हुआ। हिडिम्ब, हिडिम्बा को राक्षस कुल का कहा गया है। पाण्डव कुल का भीम हिडिम्बा से विवाह कर के घटोत्कच नामक संतान उत्पन्न करता है जो मानव एवं राक्षस दोनों के अंश से जन्मा था। घटोत्कच ने भी महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की ओर से भाग लिया था। किन्तु महाभारत की मूल कथा रामकथा की भांति राक्षसों एवं मानवों के बीच युद्ध की कथा नहीं है अपितु मानव में ही मौजूद न्याय एवं अन्याय की प्रवृत्तियों के बीच युद्ध की कथा है। 
‘‘महाभारत’’ में राक्षसों से कहीं अधिक बर्बरता के उदाहरण हैं। जैसे रावण ने छल पूर्वक सीता का अपहरण किया था। सीता उसके लिए एक रूपवती परस्त्री थी जिसे वह अपनी रानी बनाना चाहता था। वह भी अपनी बहन शूर्पणखा के उकसावे में आ कर। वहीं महाभारत काल में द्रौपदी को पहले जुए में दांव पर लगाया जाता है, वह भी युधिष्ठिर जैसे व्यक्ति द्वारा जिसे धर्म का ज्ञाता माना जाता था। फिर दुश्शासन भरी सभा में उसका चीरहरण करने का यत्न करता है। यदि श्रीकृष्ण का हस्तक्षेप नहीं होता तो द्रौपदी के साथ निर्लज्जता की सारी सीमाएं लांघ दी गई होतीं। लाक्षागृह में पाण्डवों को जीवित जला कर मार दिए जाने का षडयंत्र किया जाता है। यहां तक कि महाभारत के युद्ध के दौरान अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घेर का मार दिया जाना अमानवीयता की कहानी कहता है। ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनके आधार पर कौरवों को राक्षस कहा जा सकता है फिर भी उनके कृत्य को तो राक्षसी कृत्य विशेषण दिया गया किन्तु उन्हें ‘‘राक्षस अथवा असुर’’ नहीं कहा गया। कहने का आशय यह है कि महाभारत काल आते-आते असुर का विशेषण उन लोगों के लिए सिमटने लगा था जो वनांचलों में अपनी विशेष रीति-रिवाजों के साथ कबीलों के रूप में रहते थे किन्तु वे ‘‘वनवासी’’ भी नहीं कहे गए। उस काल में तो वनों में ऋषि-मुनि भी रहते थे। नगर के कोलाहल से दूर वनप्रांतर में उनके आश्रम होते थे जहां वे यज्ञ आदि पवित्र अनुष्ठान करते थे। लेकिन हिडिम्बा को भी ‘सुंदर स्त्री का रूप धारण कर’ प्रकट होने वाली कहा गया है, ठीक शूपर्णखा की भांति। अर्थात ये दोनों स्त्रियां तत्कालीन स्त्रियों के सौंदर्य के मानकों के अनुरूप नहीं थीं। उसका भाई हिडिम्ब भी तत्कालीन प्रचलित मानवीय कद-काठी से भिन्न था। यह विशेष कबीलों में पाया जाना संभव था। जिनका बैर देवताओं एवं मानवों से पहले की अपेक्षा बहुत सीमित हो गया था।
असुरों/राक्षसों की उपस्थिति को यदि प्रवृत्ति से आंका जाए तो वे आज भी मानव में ही उन लोगों के रूप में मौजूद हैं जो अमानवीय कृत्य करते हैं। वे चाहे बलात्कारी हों, जघन्य अपराधी हों अथवा आतंकवादी हों। यदि सूक्ष्मता से देखा जाए तो ऐसी प्रवृति के लोगों में अधिकांश का रहन-सहन आसुरी ही हो जाता है। वहीं, यदि राक्षसों को किसी कुल अथवा कबीले के रूप में देखें तो यह माना जा सकता है कि निर्दयी कबीले दयावान कबीलों पर आक्रमण करते थे और उनकी स्त्रियां, उनकी भूमि, उनके पशुधन पर अधिकार पा लेना चाहते थे। इसे सुर-असुर संग्राम कह सकते हैं। दयावान कबीलों में संस्कृति का वह विकास हुआ जिसने कालांतर में असुर कबीलों को भी प्रभावित किया और वे भी निर्दयता को त्याग कर स्वयं को बदलते चले गए। यहां आशय वर्तमान चिन्हित वनांचल समुदाय से कदापि नहीं है, क्योंकि असुर कबीलों के भी अपने बड़े-बड़े राज्य हुआ कहते थे जिसे बलि, रावण आदि के रूप में हम जान सकते हैं। 

वस्तुतः यह विषय अत्यंत विस्तृत है। एक संक्षिप्त विचार बिन्दु इस लेख में रखा गया है। राक्षसों अथवा असुरों की संकल्पना माया एवं योरोपीय संस्कृतियों में भी पाई जाती है। वहां भी असुरों की कथाएं प्रचलित हैं। जहां तक आचरण से असुर होने पर उसे राक्षस कहे जाने का उदाहरण मध्यकालीन योरोप की ड्रैकुला की कथा में मौजूद है जिसमें एक विलासी राजा इंसानी रक्त पीता था। वस्तुतः सुर और असुर का युद्ध मानवीय चरित्रों के अच्छे और बुरे के बीच का युद्ध है, जो हमेशा चलता रहेगा।  
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Thursday, July 24, 2025

बतकाव बिन्ना की | अब मामुलिया नोंईं मोबाईल झमकत आएं | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
अब मामुलिया नोंईं मोबाईल झमकत आएं
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
      जबे मैं भैयाजी के इते पौंची तो भौजी आंगन में बैठीं भैयाजी की बुश्शर्ट में बटन टांक रई हतीं औ संगे कछू गुनगुना सो रई तीं। मैंने तनक ध्यान दे के सुनो तो मोए पता परी के बे मामुलिया को गानो गा रई हतीं। बा सुन के मोए अपने लरकपन के दिन आ गए। 
‘‘आओ बिन्ना! का हाल-चाल आए?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘चाल तो ठीक आए मनो हाल ऐसो ई सो ठैरो।’’ मैंने कई।
‘‘काए का हो गओ?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘कछू नईं, आप अबे बा मामुलिया गा रई हतीं सो ऊको सुन के मोए अपने लरकपन के दिना याद आ गए।’’ मैंने भौजी खों बताई।
‘‘अरे बा, बा तो हमें ऊंसई याद आ गओ। अबई कछू दिनां बाद बोई मौसम आओ जा रओ जीमें अपन ओरें मामुलिया ले के घूमत्ते। तुम सोई सजाऊत्तीं मामुलिया?’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ! मैंने सोई खूब सजाई।’’ मैंने कई।
‘‘मनो तुम तो बचपने में सरकारी क्वार्टर में रैत्तीं, सो उते को करत्तो जे सब?’’ भौजी को तनक अचरज भओ।
‘‘सरकारी क्वार्टर में तो रैत्ती मनो ऊ टेम पे हमाई काॅलोनी में सबरे बुंदेली त्योहार मनाए जात्ते। मैंने सोई मुतकी मामुलियां सजाईं। उते मोरे घर के लिंगे धरम सागर नांव को तला रओ सो उतई हम ओरे सब जने मामुलिया ले के जात्ते।’’ मैंने बताई।
‘‘सब जने? बाकी मामुलिया तो मोड़ियन को त्योहार रओ।’’ भौजी ने कई।
‘‘ऐसो कछू नईं हतो उते। मोरी काॅलोनी में छै ठईंयां क्वार्टर रए जीमें सबई टीचरें रैत्तीं। मनो बे सबई क्वार्टर लेडी टीचरन खों ई एलाट करो जात्तो। काए से के उत्ते अच्छी बाउन्डरी हती औ एक अच्छो बड़ो सो फाटक रओ। उते घुसबे में लोग डरात्ते ऊ टेम पे। सो, उते छै क्वार्टर में रैबे वालियन के इते मोड़ा बी हते औ मोड़ियां बी हतीं। हम ओरे सबई संगे खेलत्ते। आप यकीन ने करहो, पर हम ओरें ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ घांईं नाटक बी करत रैत्ते। औ जो मामुलिया को टेम आउत्तो तो हम सबई जरवा वारी डगरिया कऊं-कऊं से ले आउत्ते। औ जो हम ओरें ने जुटा पाउत्ते तो कोऊ ने कोऊ काम वारी के मोड़ा-मोड़ी अच्छी बबूल की डगरिया लान देत्ते। हमाए कैम्पस में चांदनी औ चम्पा के पेड़े लगे हते, सो फूलन को कोनऊं कमी ने होत्ती। हम मोड़ी-मोड़ा मने बच्चा हरें सबई मिल के मामुलिया सजाउत्ते। औ जबे मामुलिया सज जात्ती तो ऊको उठा के सबई के दोरे घूमत्ते। बाकी तला जात बेरा कोनऊ बड़ो संगे जाउत्तो। पैले तो मोरी नन्ना जू मोय तला ने जान देत्तीं। मोए कैम्पस के दोरे से वापस लौटने परत्तो। फेर तनक बड़े होने पे तला लौं जाबे की छूट मिल गई रई, पर जे कसम दे के मोए तला की छिड़ियां नईं उतरने। आपको गाबो सुन के मोए जा सगरी बातें याद आन लगीं।’’ कैत-कैत मोरो गला सो भर आओ।
‘‘अरे, दुखी ने होओ। समै के संगे भौत कछु बदल जात आए। अब जेई देखो के पैले आंगन लिपत्ते, ढिग धरी जात्ती, औ अब टाईल्स वारे आंगन में बा स्टीकर वारे मोडने चिपका के काम चला लओ जात आए। मनो करो बी का जाए। पैले लुगाइयन खों खाली धरे के काम देखने परत्ते, मनो अब तो घर औ बायरे सबई कछू देखने। अब बे बी कां लौं आंगन लीपहें? जेई दसा पुराने वारे त्योहरन की आए। अब की मोड़ा-मोड़ियन खों कोचिंग जाबे से फुरसत नईयां, औ जोन टेम बचो सो बा मोबाईल खों चढ़ जात आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कै रईं भौजी! अब मामुलिया नोंईं मोबाईल झमकत आए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, अब तो मोड़ियन खों जेई नईं पतो के मामुलिया होत का आए? कऊं-कऊं देहात में फेर बी दिखा जात आएं, ने तो बाकी सहर में तो कोऊ खों पतो नईं।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कई! बाकी वेलेंटाईन के सबरे दिनन के बारे में पूछ लेओ के कोन दिनां कोन सो डे परत आए तो बे सबरे गिना दैहें। बा कैनात आए ने के अपनी छोर दूजे की भावै, घिसी छुरी से नाक कटावै। सो, जेई हो रओ आजकाल। मनो चाएं तो मामुलिया टाईप के त्योंहरन खों कछू नओ रंग दे के मनाओ जा सकत आए। पर आजकाल के माई-बाप हरें खुदई अंग्रेजी स्कूल में पढ़े कहाने, सो उने देसी त्योहरन से का लेबो-देबो?’’ मोय तनक गुस्सा सो आन लगो।
‘‘सब चलत आए बिन्ना। अब देखो न, इंटरनेट पे इत्ते बुंदेली पकवान बनाबे की वीडियो लौं डरी रैत आएं मनो कोऊ बनाए औ खाए तब ने। आजकाल घी को बनो सामान लोगन खों ‘‘रिच फूड’’ लगत आए। सबरे अपने खाबे में कैलोरी नापत फिरत आएं। औ बाजार को पाम आयल औ न जाने कोन-कोन से तेल को फास्ट फूड औ कुरकुरे खाबे में कछू नईं सोचत।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, आजकाल जोन खों देखो जिम की तरफी दौड़त दिखात आए। का पैले के लोग अच्छे न दिखत्ते का? के उनकी हेल्थ अच्छी ने रैत्ती?’’ मैंने कई।
‘‘का हतो के पैले के लोग चाए धर को होए, चाए बायरे को होए, खूब काम करत्ते। मैनत वारे काम। मनो अब लोगन खों चार पईया पे चलने औ दिन भरे कुर्सियन पे बिराजे रैने। सो, मुटापा तो चढ़हे ई। सो अब मुटापा घटाबे के लाने जिम ने जाएं तो कां जाए? काए से के घर के काम करबे में तो बे छोटे होन लगत आएं।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई में भौजी! मैं तो जब सेकेंड ईयर में उते पन्ना के छत्रसाल काॅलेज में पढ़त्ती, ऊ टेम पे बी अपनी सायकल के पांछू पिसी की पिकिया धर के आटा चक्की चली जात्ती। मोए लगत्तो के अपने धर को काम करबे में काए की सरम? अब तो स्कूल में पढ़े वारे मोड़-मोड़ी से तो ऐसी कोनऊं आसा करई नईं जा सकत।’’ मैंने कई।
‘‘मोड़ा-मोड़ी खों छोड़ों, उनके बाप-मताई से आसा नई करी जा सकत। कछू जने तो ऐसे रैत आएं के बे कछू को बी मोल-भाव करे बिना सामान खरीद के ले आऊत आएं। बे जे लाने ऐसो नईं करत के कोनऊं गरीब को ईसे भलो हो जैहे, बे ओरे जे लाने ऐसो करत आएं के उनको बड़ो आदमी समझें। न जाने कित्तो दिखाबे खों मरे जात आएं सबरे।’’ भौजी बोलीं।
हऔ, मनो जो घरे के दोरे कोनऊं सब्जी की ठिलिया वारो आ जाए तो ऊसे मोल-भाव करत भए खूब गिचड़त आएं, ऊ टेम पे उने जे नई लगत के बा बिचारों घर के दोरे लौं ठिलिया लाओ आए, अखीर ऊको बी तो पईसा लगो हुइए।’’ मैंने कई।
‘‘अरे, अब का कओ जाए बिन्ना, जा दुनिया ऐसई चलत आए। समै के संगे सब कछू बदल जात आए। पैले बड़े लोगन के इते किटी चलत्ती। हम ओरन खों तो पतोई नई रओ के जे किटी होत का आए? हम ओरे तो बचपने में बी अपनी मताई, मौसी, मामी हरों खों सूटर बुनत, कढ़ाई करत, बरी बनाऊत देखत रए। हम जब तनक बड़े भए तो उनई ओरन के संगे जेई सब काम करन लगे, पर आज काल चाए मोड़ियां होंए चाए बहुएं होंए, उने जा सब के बदले मोबाईल पे रील बनाबे में ज्यादा जी लगत आए। औ तनक तुमाए घांई लिखबे-पढ़बे वारी हुईं तो बे आॅन लाईन बतकाव में ऐसी डटी रैत आएं मनो उनके कए से कोनऊं क्रांति आ जैहे। बुरौ ने मानियो!’’ भौजी बोलीं।
‘‘ईमें बुरौ मानबे की का आए? सई तो कै रईं आप। मनो कछू बी कओ पर आज जबे पुराने त्योहार याद आन लगत हैं तो जी में कछू-कछू होन लगत आए। अबई आपको गाबो सुन के जी करन लगो रओ के दौड़ के कऊं जे बबूल की डगरिया ले आऊं औ मामुलिया सजान लगूं। संगे गाऊं के -
झमक चली मोरी मामुलिया।
मामुलिया के आए लिवौआ, झमक चलीं मोरी मामुलिया।।
ले आओ-ले आओ चम्पा चमेली के फूल, सजाओ मोरी मामुलिया।
ले आओ-ले आओ घिया, तुरैया के फूल, सजाऔ मोरी मामुलिया।।
जहां राजा अजुल जू के बाग, झमक चलीं मोरी मामुलिया।
मामुलिया ! मोरी मामुलिया ! कहां चलीं मोरी मामुलिया।।
     मोरे सुर में भौजी बी सुर मिलान लगीं औ हम दोई देर तक गात रए। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के बदलाव खों रोको नईं जा सकत जा सई आए, लेकन जे बी तो याद राखने जरूरी आए के हमाई परम्पराएं का रईं। सांची कई के नईं?  
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Wednesday, July 23, 2025

चर्चा प्लस | डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने गर्वनर सर जाॅन हरवर्ट को लिखा था करारा पत्र | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस           
डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने गर्वनर सर जाॅन हरवर्ट को लिखा था करारा पत्र
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
     देश स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्षरत था। अंग्रेजों को भी समझ में आता जा रहा था कि अब उन्हें भारत से जाना होगा किन्तु शासक कभी स्वयं को भयभीत या डरा हुआ प्रकट नहीं करता है। 1947 के पूर्व अंग्रेज सरकार इतनी सक्षम थी कि वह उनका विरोध करने वाले किसी भी व्यक्ति केा बेझिझक दण्डित कर सकती थी। किन्तु उस दौर में भारतीय राजनीति में भी वह नेता थे जो अन्याय अथवा अनुचित के विरुद्ध झुकना नहीं जानते थे। उन्हें अपने परिणाम की चिन्ता नहीं थी। उन्हें चिन्ता थी तो देश और देशवासियों की। इसका सबूत दिया डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने सर जान हरवर्ट को करारा पत्र लिख कर।
जिस समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने प्रजा कृषक पार्टी में सम्मिलित हो कर उन्हें अपना समर्थन दिया उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ चुका था और बंगाल पर जापानी आक्रमण का खतरा मंडराने लगा था। जबकि ब्रिटिश सरकार बंगाल की सुरक्षा की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा रही थी। यदि बंगाल जापान के कब्जे में आ जाता तो भारत के अन्य भागों में उसे अधिकार करने में देर नहीं लगती। यदि जापान बंगाल पर अधिकार नहीं कर पाता तब भी अपार जनहानि सुनिश्चित थी। इन दोनों परिस्थितियों से बचने के लिए आवश्यक था कि बंगाल में एक सेना गठित की जाए जो हर परिस्थिति में जापानी सेना को सीमा पर ही रोक दे। 
बंगाल के प्रशासन की ओर से सुरक्षा व्यवस्था की अनदेखी किए जाने पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी चिन्तित हो उठे। पहले उन्होंने विभिन्न माध्यमों से इस मुद्दे को उठाया किन्तु अंग्रेज सरकार द्वारा ध्यान नहीं दिए जाने पर उन्होंने बंगाल के गर्वनर सर जाॅन हरवर्ट को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने बंगाल में सेना का गठन किए जाने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने बिना किसी संकोच के ‘‘नौकरशाही तथा प्रशासन के हानिप्रद स्वरूप’’ का भी अपने पत्र में स्पष्ट उल्लेख किया तथा इस बात का भी संकेत दिया कि अब अंग्रेजी शासन के आधीन भारत की यात्र अपने अंतिम पड़ाव पर है। इतना सब लिखना किसी जोखिम से कम नहीं था। किन्तु डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी डरना तो जानते ही नहीं थे।
डाॅ. मुखर्जी ने जो पत्र सर जाॅन हरवर्ट को लिखा उसका मुख्य अंश इस प्रकार था -‘‘आप गवर्नर जनरल से कहें कि इतना विलम्ब होने पर भी इंग्लैण्ड और भारत में तत्काल समझौता हो जाना चाहिए जिससे भारतीय यह अनुभव कर सकें कि यह सचमुच जनता का युद्ध है और यदि हमें इस युद्ध में विजय प्राप्त करनी है तो अविलम्ब ही एक प्रतिनिधि राष्ट्रीय सरकार बनानी चाहिए जो भारत के हितों की दृष्टि से भारतीय प्रतिरक्षा की नीतियों का अधिकारपूर्वक संचालन करे। चीनी जनता को अंतिम सांस तक शत्रु से टक्कर लेने की प्रेरणा चीनी सेनानायक च्यांग काई शेक ही दे सकते हैं और आपके देशबंधु चर्चिल संकट की स्थिति में शंखनाद कर आप लोगों का आह्वान कर सकते हैं। किन्तु यहां इसके ठीक विपरीत वास्तविक शक्ति उस लापरवाह शासन के हाथों में है जिसे हम अपने देशहित के लिए हटाना आवश्यक समझते हुए भी हटा नहीं सकते।
मैं आपके सम्मुख कई बार यह प्रस्ताव रख चुका हूं कि हमें बंगाल की रक्षा के लिए गृहसेना के निर्माण का अधिकार मिलना चाहिए। संकटपूर्ण परिस्थिति में भी बंगाल में गृहसेना के निर्माण में आपको यह आपत्ति थी कि यह भारतीय सैन्य-नीति के सर्वथा प्रतिकूल है। मेरा उत्तर है कि नीति में भारत का हित ही सबसे ऊपर होना चाहिए। नीति निर्धारण में भारत के हितों को ही प्रमुख आधार बनने दीजिए और भारतवासियों को स्वयं सोचने दीजिए कि जिस संकट में आपने उन्हें झोंक दिया है वे उससे कैसे बचें।
व्यावहारिक दृष्टि से इसमें कई अड़चनें आएगीं, जैसा कि मैं पूर्व में भी निवेदन कर चुका हूं। फिर भी मेरी आपसे और आपके द्वारा वायसराय से यह प्रार्थना है कि इस नौकरशाही तथा प्रशासन के हानिप्रद स्वरूप का मोह त्याग दें। आपसे कई बार निवेदन कर चुका हूं कि ऐसे कई भारतीय हैं जो नहीं चाहते हैं कि यहां ब्रिटिश शासन सदा बना रहे, किन्तु भारत कोई भी सहृदय शुभचिन्तक नहीं चाहेगा कि भारत जापान के अधीनस्थ हो कर विदेशी परतंत्रता का नया इतिहास आरम्भ करे।  इंग्लैण्ड से जहां तक हमारे संबंधों का प्रश्न है, हम यात्र के अंतिम पड़ाव तक पहुंच सके हैं और अब यह समझने की आवश्यकता है कि भारत के सपूत ही उसके भाग्यनिर्मता होंगे। इस तथ्यात्मक वास्तविकता पर आधारित उदार राजनीति अपेक्षित है।’’
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने इस पत्र के माध्यम से बंगाल के गवर्नर को ही नहीं वरन भारत स्थित ब्रिटिश सरकार को भी इस सच्चाई से अवगत कराने का प्रयास किया कि भारत पर ब्रिटेन का आधिपत्य अपने अंतिम चरण में चल रहा है, वह अधिक समय तक भारत को अपने आधीन नहीं रख सकेगा। अतः भारतीयों को सौहाद्र्य एवं सुरक्षा भरा प्रशासन उपलब्ध कराया जाना चाहिए। अन्यथा जापान के आक्रमण के संकट से निपटना दुरूह हो जाएगा। 
दूसरी ओर श्यामा प्रसाद मुखर्जी यह आकलन कर चुके थे कि भारत पर ब्रिटिश आधिपत्य अधिक दिन तक नहीं रह सकेगा, ऐसे में यदि देश एक नए आक्रमणकारी के आधीन हो जाएगा तो डेढ़ शताब्दी से भी अधिक समय से किए जा रहे स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयासों पर पानी फिर जाएगा।
बंगाल के गर्वनर सर जाॅन हरवर्ट को लिखे अपने इस पत्र में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने गवर्नर जनरल का ध्यान आकृिष्ट करते हुए लिखा कि -
‘‘विश्व में हो रहे परिवर्तनकारी उथल-पुथल को ध्यान में रखते हुए वे भारतीय स्थिति की वास्तविकता को परखें तथा उचित निर्णय लें।’’ 
अपने इसी पत्र में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत-इंग्लैण्ड के मध्य समझौते के लिए कुछ आवश्यक सुझाव दिए जो कि इस प्रकार थे -
1. ब्रिटिश सरकार इस बात की घोषणा करे कि भारत की  स्वतंत्रता को औपचारिक रूप से मान्यता दे दी गई है।
2. वाइसराय या ब्रिटिश सरकार के किसी भी अन्य प्रतिनिधि को यह अधिकार दिया जाएगा कि वह भारत के राजनीतिक दलों से भारत की राष्ट्रीय सरकार के निर्माण के विषय में, जिसे सत्ता हस्तांतरित होगी, बातचीत करे।
3. इंडियन नेशनल कांग्रेस पूरी शक्ति से जर्मन एवं जापान गुट से युद्ध करने की घोषणा करेगी। 
4. भारत के प्रतिनिधित्व में भारत की युद्धनीति ‘एलाईड वार कौंसिल’ द्वारा निर्धारित होगी।
5. एलाईड वार कौंसिल द्वारा निर्धारित युद्धनीति का पालन भारत की ओर से कमांडर-इन-चीफ के हाथों में होगा।
6. राष्ट्रीय सरकार का स्वरूप बहुदलीय सरकार का होगा जिसमें देश के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि होंगे। यही स्वरूप प्रांतों द्वारा भी अपनाया जाएगा।
7. जो लोग देश की नीतियों में प्रभावी रूप से सहायक हो सकते हैं तथा जो युद्धकाल में विशेष सहायक हो सकते हैं, उन्हें भी केन्द्रीय एवं प्रांतीय मंत्रीमंडलों में सदस्यता दी जाएगी।
8. राष्ट्रीय सरकार देश के आर्थिक उत्थान एवं विकास पर विशेष ध्यान देगी जिससे युद्धकाल में आर्थिक सहायता में किसी भी प्रकार की कोई कमी न हो।
9. ‘इंडिया आॅफिस’ को अनुपयोगी मानते हुए बंद कर दिया जाएगा।
10. भारतीय राष्ट्रीय सरकार भविष्य में एक ‘कांस्टीट्यूएंट एसेम्बली’ का गठन करेगी जिसके अंतर्गत भविष्य में संविधान का निर्माण हो सकेगा। इसी तारतम्य में भारत तथा ब्रिटेन के मध्य एक संधि होगी अल्पमत दलों के अधिकारों के संबंध में भी विशेष धाराएं होंगी।किसी भी अल्पमत दल को यह अधिकार होगा कि वह अपने न्यायोचित अधिकारों की रक्षा के लिए भावी संविधान संबंधी अपने विकल्प को वैचारिक मध्यस्थता के लिए पटल पर रख सके। पटल पर रखने के बाद विचार किए जाने पर निए गए निर्णयों को राष्ट्रीय सरकार तथा संबंधित अल्पमत दल को स्वीकार करना होगा।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने इन सुझावों के साथ ही पत्र में लिखा कि -
‘‘ब्रिटिश क्राउन के प्रतिनिधि के रूप में आपको यह अधिकार होना चाहिए कि आप भारतीय समस्याओं पर ब्रिटिश सरकार के निश्चित आदेश के अनुसार कार्य कर सकें। इस विषय पर अन्य सुझाव भी रखे जा सकते हैं। मुख्य बात तो यह है कि ब्रिटिश सरकार को इस विषय पर चर्चा करने से पूर्व इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए कि अब उसे सत्ता का हस्तांतरण करना है।
मैं बंगाल के गवर्नर को ब्रिटिश सरकार तथा उसके प्रतिनिधियों द्वारा संकटकाल में अपनाई गई नीतियों के प्रति अपनी असहमति दे चुका हूं। मैं आपसे इस आशा से प्रार्थना कर रहा हूं आप झूठी प्रतिष्ठा के भ्रम में न पड़ते हुए इस गतिरोध को दूर करने हेतु आवश्यक कदम उठाएंगे तथा तत्काल कार्यवाही करेंगे। यदि आपका यह विचार हो कि ब्रिटिश सरकार को इस गतिरोध की सर्वथा उपेक्षा कर निष्क्रिय बने रहना चाहिए तो मुझे खेदपूर्वक अपने गवर्नर से कहना पड़ेगा कि वे मुझे मंत्रीपद के कार्यभार से मुक्त करें जिससे मैं स्वतंत्रतापूर्वक समझौते की मांग के प्रति आम जनता में जागृति ला सकूं।’’  
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का उपरोक्त पत्र अंग्रेज सरकार के मुंह पर तमाचा के समान थी किन्तु उस समय नौकरशाही इतनी चरम पर थी कि उनके इस कठोर पत्र पर भी गवर्नर या वायसराय ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। अंग्रेज सरकार न तो उनके पत्र पर अपनी सहमति देने का साहस जुटा पाई और न उन्हें दण्डित करने का। इससे डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के समक्ष यह खुलेतौर पर स्पष्ट हो गया था कि अब अंग्रेजी शासन की बागडोर सम्हाले जो आका बैठे हैं उन्हें मात्र ‘‘निज चिन्ता’’ है, यही समय है जब बड़े और कड़े कदम उठाए जाएं और अंग्रेजों को वापसी का रास्ता दिखा दिया जाए। डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं ने ही देश की झोली में स्वतंत्रता का उपहार डालने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस पत्र पर भले ही प्रतिक्रिया नहीं हुई किन्तु इसने साबित कर दिया कि राजनीति भी साहसियों को सलाम करती है, कायरों को नहीं। एक साहसी राजनीतिज्ञ ही युग निर्माता बनता है।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 23.07.2025 को प्रकाशित)  
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Tuesday, July 22, 2025

पुस्तक समीक्षा | महत्वपूर्ण हैं शुष्क होते समय में सरस भावपूर्ण ये श्रृंगार गीत | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 22.07.2025 को 'आचरण' में पुस्तक समीक्षा


पुस्तक समीक्षा
महत्वपूर्ण हैं शुष्क होते समय में सरस भावपूर्ण ये श्रृंगार गीत 
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह - डाॅ. जड़िया के श्रृंगार गीत
कवि   - पद्मश्री डाॅ. अवध किशोर जड़िया
प्रकाशक     - शशिभूषण जड़िया, विनायक जड़िया, हरपालपुर, छतरपुर, म.प्र.- 471111
मूल्य - 200/-
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17 अगस्त 1948 को हरपालपुर में जन्मे कवि अवध किशोर जड़िया के माता-पिता श्रीमती बृजरानी वैद्य एवं राजवैद्य बृजलाल वैद्य ने भी नहीं सोचा रहा होगा कि उनके सपनों को पूर्ण करते हुए बी.ए.एम.एस में स्वर्ण पदक प्राप्त कर आयुर्वेद चिकित्सा अधिकारी तक का सफर तय करने वाले उनके पुत्र को एक दिन साहित्य सेवा के लिए ‘‘पद्श्री’’ से सम्मानित किया जाएगा। सन 1973 से मंचों पर धूम मचाने वाले एवं अपने पारंपरिक छंदों के लिए ख्यातिलब्ध पद्मश्री डाॅ. अवध किशोर जड़िया आज भी सृजनशील हैं तथा विविध काव्य विधाओं में रचनाएं लिख रहे हैं। अब तक उनकी छः कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। इसी वर्ष प्रकाशित कृति ‘‘डाॅ. जड़िया के श्रृंगार गीत’’ में सरस श्रृंगार गीत हैं। पुस्तक की भूमिका में डाॅ. गंगा प्रसाद बरसैंया ने लिखा है कि ‘‘साहित्य में श्रृंगार-चित्रण की परम्परा अति प्राचीन है। बुन्देलखण्ड इसमें कहीं भी पीछे नहीं है। आदि कवि बाल्मीकि से लेकर जगनिक, तुलसी, केशव, बिहारी, पद्माकर, ठाकुर, पजनेश, बोधा, मान, दूलह, चैनराय से लेकर आधुनिक युग में यह परम्परा, मैथलीशरण गुप्त, रसिकेन्द्र, सेवकेन्द्र, रामचरण हयारण मित्र, भवानीप्रसाद मिश्र, केदारनाथ अग्रवाल आदि से जुड़कर बराबर चल रही है। ईसुरी, गंगाधर व्यास, ख्यालीराम, भुजबल, आदि पचासों आंचलिक कवियों के साथ जुड़कर यह परम्परा बुंदेली में भी गतिशील है। डॉ. अवध किशोर जड़िया बुन्देली की उसी परम्परा के समर्थ और सुपरिचित कवि हैं।’’ डॉ. बरसैंया आगे लिखते हैं कि “डॉ. जड़िया के श्रृंगार गीत’’ उच्चकोटि के हैं, जिनमें श्रृंगार का वायवी सौंदर्य ही नहीं अपितु अंतरंग भाव सौंदर्य भी सहजता के साथ अंकित किया गया है। बुंदेली मन की गहरी पहचान ये गीत कराते हैं। यह अवश्य है कि श्रृंगार के अतिरिक्त जीवन जगत का अन्य कोई भी व्यापार यहाँ स्थान नहीं पा सका।’’
इस काव्य संग्रह में गीतों को तीन खंडो में विभक्त किया गया है। प्रथम खंड है ‘‘गोरी देह गांठ हरदी की’’, द्वितीय खंड है ‘‘मेरे कमल नयन’’ तथा तीसरा खंड है ‘‘‘‘इधर आ गया रथ’’। संग्रह में संग्रहीत श्रृंगार गीतों के रचनाकाल के संबंध में डॉ. जड़िया ने लिखा है कि ‘‘वर्ष 1973 से वर्ष 2006 तक की दीर्घ अवधि में किसी न किसी छोटी घटना, दृश्य अथवा समीक्षा की स्थिति से उत्पन्न ये सारे गीत हैं।’’
प्रथम भाग ‘‘गोरी देह गांठ हरदी की’’ में बुंदेली की कविताएं व चैकड़ियाँ हैं। चैकड़ियों में बुंदेलखंड की सांस्कृतिक विशेषता का परिचय देते हुए कवि ने बुंदेली स्त्रियों का नख-शिख वर्णन, उनकी दिनचर्या तथा उनके मनोरंजन के साधनों को भी पिरोया है। प्रथम गीत है ‘‘बुंदेलखण्ड की संस्कृति’’ -
आवें इतै पाहुनें तौ पलकन पै पारे जावें।
जौ लौ कछू न खा लें तौ लौ खालें उतर न पावें ।।
जीवन में भू-खन मरिवे कौ इतै भान न होवै।
इतै अन्न कौ समाधान तौ समाधान सें होवै।।
मुरका कुछ मुरका खट्टी करी का स्वाद देता है।
और बुंदेली बारा-बारी के बराबर नहीं है।
डाॅ जड़िया ग्रामीण अंचल को निकट से देखा और अनुभव किया है इसीलिए उनके गीतों में पनिहारिनों को सुंदर वर्णन मिलता है। इसी संग्रह में उनका एक गीत है ‘‘बुंदेली पनिहारी’’। वे बुंदेली पनिहारी का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि-
पनियां भरन जात कुअला पै बुंदेली पनिहारी
चाल नियारी चले और फिर गैल चलै अनियारी।
नूपुर की धुनि बसी करन में, वशीकरन सौ डारें।
घट अरु घूँघट कौ संघटु, पनघट कौ रूप निखारें ।।
चढ्यो कूप पै रूप जगत के नैना हरष उठे हैं।
और दूसरी ओर जगत के नैंना तरस उठे हैं।।
ग्रामीण अंचल में मेलों का बहुत महत्व रहता है। यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो ग्रामीण स्त्रियों के जीवन में मेला वह अवसर है जब वे सज-धज कर मेला देखने जाती हैं और इसी बहाने वे अपने दैनिक कार्योंं से तनिक मुक्ति पा कर अपना मनोरंजन कर पाती हैं तथा घर से बाहर निकल कर कोलाहल का आनंद उठा पाती हैं। डाॅ. जड़िया ने ‘‘बुंदेली बाला का मेला’’ शीर्षक गीत में ऐसी ही एक युवती का वर्णन किया है जो श्रृंगार कर के मेला घूमने पहुंची है-
घेला डार कधेला डारें, धन्नो जाती मेला।
अलबेले जीवन में बगरो, जौवन वारौ मेला ।।
आँखें चपल हिंडोरा जैसी, बातन भरी मिठाई।
हमरी बातन से बाहर है, वा तनकी तरुणाई ।।
टिकुली तौ टिक ली ललाट पै, फेंक रई उजियारौ।
चुटिया छुटिया कसी कस्यो, आँखन में कजरा कारौ ।।
प्रथम खंड में ही एक मार्मिक गीत भी है जिसमें प्रिय की प्रतीक्षा में व्याकुल युवती का वर्णन किया गया है। गीत का शीर्षक है ‘‘प्रतीक्षा गीत’’। एक अंश देखिए-
अँखियन के कजरा में अगवानी कौ मंत्र सँवारें।
बेसुमार सुकुमार सजीली मार भरौ मन मारें ।।
भाई, तन बेचारा है, ज्वाला आती-जाती है।
दर्द उठता है, ब्रीडा उठता है, फिर चला जाता है।
दूसरे खण्ड ‘‘मेरे कमल नयन’’ में खड़ी बोली की रचनाएं हैं। इन गीतों में श्रृंगार का भाव होते हुए भी जीवन के विविध पक्षों को रेखांकित किया गया है। मानो कवि इस बात का स्मरण कराना चाहते हैं कि जीवन में श्रृंगार रंग भरता है किन्तु मात्र श्रृंगार से जीवन पूर्ण नहीं होता है पर श्रृंगार जीवन को सरस बनाता है। ‘‘हम थके थकाये आये घर’’ गीत में कवि ने स्पष्ट किया है कि यदि घर में प्रेम और अपनत्व हो तो बाहर की सारी थकान चुटकियों में उतर जाती है-
हम थके थकाये आये घर ।।
कुछ बोलो कुछ रस घोलो,
कुछ अन्तर के पट खोलो,
कुछ दिखाओ प्यार का असर।
हम थके थकाये आये घर।।
इसी खंड में एक और महत्वपूर्ण गीत है जिसमें साहित्य सर्जक का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि एक रचनाकार की नस्ल अक्षरों की होती है तथा वह स्वयं ब्रह्म की अनुपम कृति होता है। कवि ‘‘जाति न पूछो’’ शीर्षक गीत में कहते हैं-
तुम्हें क्या मालूम हम किस जाति के हैं।
अक्षरों की नस्ल के हम ब्रह्म की सौगात के हैं।।
जगत है परिवार अपना धर्म परहित धारणा है
विश्व में बंधुत्व दृढ़ हो ये प्रबल अवधारणा है।
संग्रह का तृतीय खंड ‘‘इधर आ गया रथ’’ श्रृंगार के संदर्भ में लौकिक अनुभूतियों से होता हुआ अलौकिक अनुभूतियों तक जा पहुंचा है। इसमें संग्रहीत गीत भावनात्मक परिपक्वता के द्वार पर स्पष्ट दस्तक की भांति ध्वनित हैं। उदाहरण के लिए एक गीत ‘‘बड़ी कृपा’’ की इन पंक्तियों को देखा जा सकता है-
आज तलक न मैंने तेरा दिल से नाम जपा।
उस पर भी मेरे ऊपर है इतनी बड़ी कृपा ।।
हम तन के मन के व्यभिचारी हम अति अधमाधम,
अलग-अलग कथनी करनी के हम ठहरे संगम,
वर पाने के लायक कोई कार्य नहीं वरपा।
उस पर भी मेरे ऊपर है इतनी बड़ी कृपा ।।
इसी प्रकार ‘‘मैं’’ गीत नूतन शिल्प में दार्शनिक भावों को उंडेलते हुए कवि ने लिखा है कि -
मैं/ एक प्रयोग हूँ मैं, गात, इन्द्रिय, आत्मा, मन का सुखद सँयोग हूँ मैं/ एक प्रयोग हूँ मैं/कल्पना तेरी, मेरी घटना बनी/ आपका आदेश, वह रटना बनी/ सिंधु के बिंदु का विलगाव, एक वियोग हूँ मैं/ एक प्रयोग हूँ मैं/हर इशारे से दिशायें चल रहीं/ चल रहे हैं दिन निशायें ढल रहीं/ सब समय सम्राट के हैं भोग/ सो वह भोग हूँ मैं/एक प्रयोग हूँ मैं।
डाॅ. अवध किशोर जड़िया का गीत संग्रह “डॉ. जड़िया के श्रृंगार गीत’’ आज के शुष्क होते समय में सरस भावपूर्ण श्रृंगार गीतों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है। वस्तुतः ऐसे गीतों की आवश्यकता आज और अधिक है। यह गीत संग्रह न केवल बुंदेलखंड के ग्रामीण अंचल से जोड़ता है वरन प्रेम की निश्च्छलता का भी पुनर्पाठ कराता है। इस दृष्टि से यह संग्रह और अधिक महत्वपूर्ण हो उठा है।   
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Monday, July 21, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | टॉपटेन में पहुंचबे पे सल्यूट तो बनत आए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में
टॉपिक एक्सपर्ट 

टॉपटेन में पहुंचबे पे सल्यूट तो बनत आए
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
  
         खूब-खूब बधाई पौंचे उन सबरे सफाई कर्मियन खों जोन की मेनत ने सागर सिटी खों 73 नंबर से सूदे दसमें पे पौंचा दओ। सो, अपने सागर सहर को नांव टॉपटेन में पहुंचबे पे एक सल्यूट तो बनत आए। बाकी बधाई महापौर जू खों औ नगरनिगम कमिश्नर जू खों सोई। औ बधाई स्वच्छता ब्रांड एंबेसडर खों बी। बधाई सो खुरई औ गढ़ाकोटा की नगरपालिका वारन खों बी। काए से के बे ओरें बी अव्वल आए। ई बरस लाखा बंजारा तला को सुंदर बनाबे को काम पूरो भओ, गंगा आरती सुरू भई, कचरा को सई से प्रबंधन भओ औ सबसे खास बात जे रई के 60 हजार लोगन ने नगरनिगम वारन खों फीडबैक दओ, जीके लाने महापौर जू ने बी सबखों धन्यबाद करो। जा खबर से जी खुस हो गओ। सांची में, अच्छो सो लगत आए जब कोऊ अच्छो काम करत आए। 
    का आए के कछू जने घांई हमने फिजूल की बुराई करबे को ठेका नईं ले रखो मगर जबे कोऊ लापरवाई करत आए, के गलत करत आए तो ऊको टोंकनेई परत आए। जो सब ओरें अपनों-अपनों काम जुम्मेवारी से करें तो सल्ल काए की? जैसे अबे याद कराबो बनत आए के ई बेर दसमें नंबर पे पौंचे आएं, सो अगली बेर पैले नंबर पे पौंच के दिखाने है। बाकी आवारा पशुअन की प्राब्लम सोई हल करने परहे, ने बे सबरी जांगा गंदगी करत फिरत रैहें।
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Sunday, July 20, 2025

डॉ (सुश्री) शरद सिंह का प्रलेस की गोष्ठी में रचना पाठ

आज दोपहर प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठी मकरोनिया में अंकुर कॉलोनी के स्नेह भवन में सम्पन्न हुई, जिसमें मुख्य अतिथि थे बंडा से पधारे 'बुंदेलखंड के रसखान' कहे जाने वाले शायर मायूस सागरी जी ।  अध्यक्षता की आदरणीय टीकाराम त्रिपाठी जी ने तथा गोष्ठी का कुशल संचालन किया डॉ. सतीश पांडे जी ने। गोष्ठी में नगर के वरिष्ठ साहित्यकार बड़ी संख्या में उपस्थित हुए तथा सभी ने अपनी रचनाओं का पाठ किया।
      गोष्ठी में मैंने भी अपनी एक ताज़ा कविता का पाठ किया जिसका शीर्षक है- "सांची में बुद्ध"
      गोष्ठी के अंत में पेट्रिस फुसकेले जी ने आभार प्रदर्शन किया।

    ❗️ ⚠️❗️ मायूस सागरी जी की विशेष आग्रह पर मैंने उन्हें अपनी प्रथम पुस्तक "आंसू बूंद चुए" (नवगीत संग्रह) की प्रति भेंट की। यह पुस्तक सन 1988 में प्रकाशित हुई थी। उल्लेखनीय है कि इस पुस्तक का ब्लर्ब आदरणीय त्रिलोचन शास्त्री जी ने लिखा था। 
🙏तस्वीरें साभार : भाई मुकेश तिवारी जी के सौजन्य से🙏😊🙏

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Saturday, July 19, 2025

कर्क रेखा की मेरी यात्रा - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - Chapter 1

🚩किस्सा-ए-कर्क रेखा🚩
😊 Chapter 1 : 💠 कर्क रेखा पर धावा 💠 Attack on the Tropic of Cancer🚩
17.07.2025.. का ऐतिहासिक दिन... लगभग 10 वर्ष बाद सांची जाने का अवसर मिला... यद्यपि सांची जाना मूल उद्देश्य नहीं था मूल उद्देश्य था कर्क रेखा (Tropic of Cancer) देखना....  क्योंकि न जाने कितनी बार कर्क रेखा से गुजरते हुए भोपाल यात्रा की किंतु एक भी बार वहां ठहर कर रेखा के शिलापट के साथ एक भी तस्वीर नहीं खिंचवाई... 😳 यहां तक के उधर से गुजरते हुए उस शिलापट पर ध्यान भी नहीं गया था ...🥶 जबकि मेरे सारे परिचित कर्क रेखा पर अपनी तस्वीर खिंचवाकर पोस्ट कर चुके थे  👿 मुझे यह देखकर बड़ी झुंझलाहट होती थी और लगता था कि अरे मैं कैसे चूक गई... यह मसला इंफेरियारिटी कंपलेक्स पैदा कर रहा था ☹️😀☹️ ... सो, मैंने तय यह किया कि इस बार सीधे कर्क रेखा पर जाकर ही दम लूंगी... पहले कर्क रेखा पर फोटो खिंचवाऊंगी... सेल्फी लूंगी... उसके बाद सांची जाऊंगी ...😂🤗😃😂🤗
    🚩 यद्यपि कर्क रेखा पहुंचने से पहले ... सांची पहुंचकर  एक जैन रेस्टोरेंट में भोजन किया... फिर कर्क रेखा पर पहुंच कर जी भर कर फोटोग्राफी की..... जब तक मेरा टारगेट पूरा नहीं हो गया.....😃😜🌹😂🤗
     🚩 वैसे मेरे देखते-देखते भोपाल की तरफ से एक ऑटो आकर रुकी जिसमें से दो-तीन लड़के उतरे और वे कर्क रेखा के शिलापट के साथ अपनी तस्वीर उतारने लगे... थोड़ी ही देर में एक कार भी आकर रुकी जिसमें से एक परिवार उतरा, वह भी कर्क रेखा के साथ फोटोग्राफी के उद्देश्य से.... वह सब देखकर उस स्थान की पापुलैरिटी समझ में आ रही थी... मुझे वहां अपने पहुंचने पर  प्राउड फील हुआ.... सो, इस तरह मेरी दिली तमन्ना पूरी हुई ..... 🤩♥️🤩

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Friday, July 18, 2025

शून्यकाल | शारीरिक कष्टों से मुक्ति का अनूठा काव्य है तुलसीदास का “हनुमान बाहुक” | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - शून्यकाल

      शारीरिक कष्टों से मुक्ति का अनूठा काव्य है तुलसीदास का “हनुमान बाहुक”
         - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                       
        गोस्वामी तुलसीदास श्री राम के अनन्य उपासक थे किंतु जब उन्हें भय, संकट या पीड़ा से मुक्ति चाहिए होती थी, तो वे श्रीराम के सेवक हनुमान जी का स्मरण करते थे। इसी मनोभाव से उन्होंने “हनुमान चालीसा” का सृजन किया। उसमें उन्होंने लिखा- “भूत पिशाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे / नासे रोग हरे सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बल बीरा” । फिर भी उन्हें शारीरिक कष्ट दूर करने के लिए हनुमान जी से विशेष प्रार्थना करनी पड़ी जो “हनुमान बाहुक” के रूप में सामने आई। यह असीमित विश्वास से भरी हुई रचना है जिसमें एक उलाहना भी शामिल है जो कि बहुत रोचक है।
 
उत्तरप्रदेश के चित्रकूट जिले में राजापुर नाम के गांव में पिता आत्मा राम दुबे और माता हुलसी के घर तुलसीदास का जन्म सम्वत 1557 में श्रावण मास में शुक्ल सप्तमी के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ। यह नक्षत्र शुभ नहीं माना जाता है। इस शंका को बढ़ाने के लिए जो घटनाएं हुईं, उनमें कुछ हैं, जैसे तुलसीदास जी जन्मते ही रोये ही नहीं अपितु उनके मुँह से राम शब्द निकला। उनके शरीर का आकार भी सामान्य शिशु की तुलना में अधिक था और सबसे बढ़कर उनके मुख में जन्म के समय ही दाँतों की उपस्थिति थी। यह सब लक्षण देखकर उनके पिता किसी अमंगल की आशंका से भयभीत थे। उनकी माता ने घबराकर कि बालक के जीवन पर कोई संकट न आए, अपनी एक चुनियां नाम की दासी को बालक के साथ उसके ससुराल भेज दिया। विधि का विधान ही कुछ और था और वे अगले दिवस ही गोलोक वासी हो गई। चुनियां ने बालक तुलसीदास का पालन पोषण बड़े प्रेम से किया पर जब तुलसीदास जी करीब साढ़े पाँच वर्ष के हुए तो चुनियां शरीर छोड़ गई। । अनाथ बालक द्वार – द्वार भटकने लगा। इस पर माता पार्वती को दया आई और वे एक ब्राह्मणी का वेश रखकर प्रतिदिन बालक को भोजन कराने लगीं। 
          श्री अनन्तानन्दजी के प्रिय शिष्य श्री नरहर्यानन्दजी जो रामशैल पर निवास कर रहे थे, उन्हें भगवान शंकर से प्रेरणा प्राप्त हुई और वे बालक तुलसीदास को ढूढ़ते हुए वहां पहुंचे और मिलकर उनका नाम रामबोला रखा। वे बालक को अपने साथ अयोध्या ले गए और वहाँ उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया। तुलसीदास जी ने जहाँ बिना सिखाए ही गायत्री मंत्र का उच्चारण कर सभी को एक बार फिर चकित कर दिया। नरहरि महाराज ने वैष्णवों के पांच संस्कार कराए और राम मंत्र से दीक्षित किया। 
इसके बाद उनका विद्याध्ययन प्रारम्भ हो गया। तुलसीदास जी एकपाठी थे। अर्थात वे जो भी एक बार सुन लेते थे उसे वे कंठस्थ कर लेते थे। उनकी प्रखर बुद्धि की सभी प्रशंसा करते थे। फिर नरहरि महाराज उन्हें काशी में शेषसनातन जी के पास वेदाध्ययन के लिए छोड़ गए। यहाँ तुलसीदास जी ने 15 वर्ष वेद-वेदांग का अध्ययन किया। 
       गोस्वामी तुलसीदास का निधन 1623 ईस्वी में वाराणसी (काशी) में हुआ था. उनकी मृत्यु अस्सी घाट पर हुई थी, जो गंगा नदी के किनारे स्थित है. यह घटना श्रावण मास में कृष्ण पक्ष की तीज को हुई थी, जो विक्रम संवत 1680 के अनुसार थी. उनकी मृत्यु के संबंध में एक दोहा भी प्रचलित है: "संवत सोरह सौ असी, असी गंग के तीर, श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर". 
        अपने दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों का सृजन किया। नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ग्रंथ इसप्रकार हैं - रामचरितमानस, रामललानहछूं, वैराग्य-संदीपनी, बरवै रामायण, पार्वती-मंगल, जानकी-मंगल, रामाज्ञाप्रश्न, दोहावली, कवितावली, गीतावली, श्रीकृष्ण-गीतावली, विनयपत्रिका, सतसई, छंदावली रामायण, कुंडलिया रामायण, राम शलाका, संकट मोचन, करखा रामायण, रोला रामायण, झूलना, छप्पय रामायण, कवित्त रामायण एवं कलिधर्माधर्म निरुपण।
         कवितावली के साथ उन्होंने ‘हनुमान बाहुक’ भी लिखा। कहा जाता है कि तुलसीदास जी को जीवन के उत्तरार्ध में बाँहों में असहनीय पीड़ा होने लगी थी। साथ ही फोड़े-फुंसी जैसे शारीरिक कष्टों ने भी ने उन्हें घेर लिया था। उन्होंने हर तरह की चिकित्सा करके देखी किंतु किसी से भी उन्हें आराम नहीं मिल रहा था। लोगों के कहने पर झाड़-फूंक भी कराया, फिर भी आराम नहीं मिला। जबकि उन्होंने स्वयं लोगों को निरोग रहने के लिए तथा पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए ‘श्रीहनुमान चालीसा’ में यह मंत्र दिया था- ‘नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा’। अतः शारीरिक कष्ट से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने श्रीहनुमान जी की स्तुति एवं प्रार्थना आरंभ कर दी। संयोगवश इससे उन्हें आराम मिला। तब उन्होंने रोग मुक्ति के लिए चवालीस पद वाली हनुमान जी की  प्रार्थना ‘हनुमान बाहुक’ लिखी। 
       ‘हनुमान बाहुक’ में छप्पय, झूलना, घनाक्षरी, सवैया आदि छंदों का प्रयोग किया गया है। मान्यता है कि इस स्तुति का सस्वर पाठ रोग पीड़ित को पीड़ा से मुक्ति दिलाता है। ‘हनुमान बाहुक’ अवधी में लिखा गया है। इसमें कुल 44 पद हैं। 
       "हनुमान बाहुक" छप्पय छंद से आरंभ होता है। इसके कुछ पद भावार्थ सहित इस प्रकार हैं -

सिंधु-तरन, सिय सोच हरन, रबि-बालबरन-तनु।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको काल जनु॥
गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव।
जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव॥
कह तुलसीदास सेवत सुलभ, सेवक हित संतत निकट।
गुनगनत, नमत, सुमिरत, जपत समन सकल-संकट-बिकट॥1॥
       - भावार्थ है कि जिनके शरीर का रंग उदयकाल के सूर्य के समान है, जो समुद्र लाँघकर श्री जानकीजी के शोक को हरने वाले, आजानुबाहु, डरावनी सूरतवाले और मानो काल के भी काल हैं। लंका-रूपी गंम्भीर वन को, जो जलाने योग्य नहीं था, उसे जिन्होंने निःशंक जलाया और जो टेढ़ी भौंहोंवाले तथा बलवान राक्षसों के मान और गर्व का नाश करने वाले हैं, तुलसीदासजी कहते हैं - वे श्रीपवनकुमार सेवा करने पर बड़ी सुगमता से प्राप्त होने वाले, अपने सेवकों की भलाई करने के लिए सदा समीप रहने वाले तथा गुण गाने, प्रणाम करने एवं स्मरण और नाम जपने से सब भयानक संकटों को नाश करने वाले हैं।
       इस प्रकार बाहुक प्रार्थना आरंभ करते हुए तुलसीदास ने तीसरा पद झुलना छंद में लिखा। इसमें उन्होंने श्री हनुमान जी की शक्ति का उन्हें स्मरण कराया है- 
पंचमुख-छमुख-भृगुमुख्य भट-असुर-सुर,
सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो।
बाँकुरो बीर बिरूदैत बिरूदावली,
बेद बंदी बदत पैजपूरो॥
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासु बल
बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो।
दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है,
पवनको पूत रजपुत रूरो॥3॥
           अर्थात  शिव, स्वामिकार्तिक, परशुराम, दैत्य और देवतावृन्द सबके युद्धरूपी नदी से पार जाने में योग्य योद्धा हैं। वेदरूपी आपकी प्रशंसा करते हैं। तुलसीदास जी हनुमान जी से कहते हैं कि आप पूरी प्रतिज्ञावाले चतुर योद्धा, बड़े कीर्तिमान और यशस्वी हैं। जिनके गुणों की कथा को रघुनाथजी ने श्रीमुख से कहा तथा जिनके अतिशय पराक्रम से अपार जल से भरा हुआ संसार-समुद्र सूख गया। तुलसी के स्वामी सुन्दर राजपूत पवनपुत्र के बिना राक्षसों के दल का नाश करने वाला दूसरा  कोई नहीं है।
     जिस प्रकार हनुमान चालीसा में तुलसीदास जी ने हनुमान जी को उलाहना दिया है कि-”कौन सो संकट मोर गरीब को, जो तुमसे नहीं जात है टारो”,  ठीक इसी प्रकार  “हनुमान बाहुक” के सत्रहवें पद में तुलसी बाबा पवनकुमार से उलाहना भरी विनती करते हुए कहते हैं-
तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले।
तेरे निवाजे गरीब निवाज बिराजत बैरिन के उर साले॥
संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरीके से जाले।
बुढ़ भये बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले॥17॥
    - अर्थात हे वानरराज! आपके बसाये हुए को शंकर भगवान भी नहीं उजाड़ सकते और जिस घर को आपने नष्ट कर दिया उसको कौन बसा सकता है ? हे गरीबनिवाज! आप जिस पर प्रसन्न हुए वे शत्रुओं के हृदय में पीड़ा रूप होकर विराजते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं, आपका नाम लेने से सम्पूर्ण संकट और सोच मकड़ी के जाले के समान फट जाते हैं। बलिहारी ! क्या आप मेरी ही बार बूढ़े हो गये अथवा बहुत से गरीबों का पालन करते-करते आप अब थक गये हैं ? (इसीलिए मेरा कष्ट दूर नहीं कर पा रहे हैं)।        
          बीसवें पद में फिर श्री हनुमान जी से प्रार्थना करते हुए तुलसीदास उन्हें आत्मीय उलाहना देते हुए स्मरण कराते हैं कि जो आपको दोना भर-भर के लड्डू खिलाता हो उसे विष खिलाकर मत मारिए। वे घनाक्षरी छंद में  कहते हैं-
जानत जहान हनुमानकौ निवाज्यौ जन,
मन अनुमानि, बलि, बोल न बिसारियै।
सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी,
साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये॥
अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति,
मोदक मरै जो, ताहि माहुर न मारिये।
साहसी समीरके दुलारे रघुबीरजूके,
बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये॥20॥

     - अर्थात  हे हनुमानजी! अपनी प्रतिज्ञा को न भुलाईये, जिसको संसार जानता है, मनमें विचारिये, आपका कृपापात्र जन बाधारहित और सदा प्रसन्न रहता है। हे स्वामी कपिराज ! तुलसी कभी सेवाके योग्य था ? क्या चूक हुई है, अपनी साहिबीको सम्हालिये। मुझे अपराधि समझते हो तो सहस्त्रों भांतिकी दुर्दशा कीजिये, किंतु जो लडडू दोनेसे मरता हो तो उसको विषसे न मारिये। हे महाबली, साहसी, पवनके दुलारे, रघुनाथ जी के प्यारे ! भुजाओं की पीड़ाको शीघ्र ही दूर कीजिये।
             “हनुमान बाहुक” के अंतिम पद में तुलसीदास दार्शनिक भाव से प्रार्थना करते हुए अपनी पीड़ा के कारणो़ं पर भी विचार करते हैं-
कहों हनुमानसों सुजान रामरायसों,
कृपानिधान संकरसों सावधान सुनिये।
हरष विषाद राग रोष गुन दोषमई,
बिरची बिरंचि सब देखियत दुनिये॥
माया जीव कालके करमके सुभायके,
करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये।
तुम्हतें कहा न होय हाहा सौ बुझैये मोहि,
हौं हूँ रहों मौन ही बयो सो जानि लुनिये॥44॥
       - अर्थात तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं हनुमानजीसे, सुजान राजा रामसे और कृपानिधान शंकरजी से कहता हूँ, उसे सावधान होकर सुनिये। देखा जाता है कि विधाताने सारी दुनियाको हर्ष, विषाद, राग, रोष, गुण और दोषमय बनाया है। वे कहते हैं कि माया, जीव, काल, कर्म और स्वभाव के करने वाले रामचन्द्रजी हैं। इस बात को मैंने चित्तमें सत्य माना है। मैं विनती करता हूँ, मुझे यह समझा दीजिये कि आपसे क्या नहीं हो सकता ? फिर मैं भी यह जान कर चुप रहूँगा कि जो बोया है वही काटता हूँ। 
         यद्यपि “हनुमान चालीसा” अधिक पढ़ी जाती है किंतु “हनुमान बाहुक” का महत्व भी कम नहीं है। इस रचना को भी श्रद्धापूर्वक पढ़ा जाता है क्योंकि यह मूल रूप से व्याधियों और शारीरिक पीड़ा पर केंद्रित है। अतः इसका महत्व हनुमान चालीसा से इतर है।
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Thursday, July 17, 2025

बतकाव बिन्ना की | जे ओरें मरबे खों उधारे फिरत आएं | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम


बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
जे ओरें मरबे खों उधारे फिरत आएं
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
      ‘‘लूघरा छुबे ई रील बनाबे वारन खों!’’ भैयाजी बर्राया रए हते।
भैयाजी को बर्रयानों सुन के मोए झटका सो लगो। काए से के मैंने भुनसारे ई अपनी एक रील सोसल मीडिया पे पोस्ट करी हती। मोय लगो के कऊं भैयाजी मोए तो नईं सुना रए?
‘‘का हो गओ भैयाजी? कोन खों गरिया रए?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे जे रील बनाबे वारन खों।’’ भैयाजी ने बिगैर गोलमोल करे सीदे-सुट्ट बोल दओ।
‘‘रील तो कभऊं-कभऊं मैं सोई बना लेत हों। आप कऊं मोए तो नईं कै रए?’’ मैंने सोई सीदे पूछ लओ।
‘‘अरे नईं, तुम ऊ टाईप की रील बनाबे वारी नईयां।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कोन टाईप की? आप कओ का चा रए?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे, जोन पगलात रैत आएं रील बनाबे के लाने। चाए जान भले चली जाए मनो रील बनाबे के लाने बे कछू बी कर सकत आएं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, जो तो आप सई कै रए।’’ मैंने कई।
‘‘तुम रील बनाबे के लाने कभऊं रेल के आंगू दौड़ी?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘नईं!’’
‘‘कभऊं रेल के पटरी पे चलत रेल के नैंचे लेटीं?’’ भैयाजी ने फेर के पूछी।
‘‘का कै रए आप? जो मैंने ऐसो करो होतो तो आज इते ने दिखाती। मोरी ऊपरे की टिकट कट गई होती।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘जेई तो बात आए के तुम ऊ टाईप की रील बनाबे वारी नईयां। बे जो रील बनाबे के लाने मरे जात आएं उने औ कछू नईं दिखात। चाए प्रान कढ़ जाएं, मनो ऐसी रील बनो चाइए के पोस्ट करत साथ वायरल हो जाए।’’भैयाजी बोले। 
‘‘हऔ, सई कई आपने!’’मैंने फेर के भैयाजी बात पे मुंडी हलाई।
‘‘मनो, हमें तो जे समझ में नई आत के ईसे इन ओरन खों का मिल जात आए? अबई एक वीडियो वायरल हो रओ आए जीमें एक पतरो सो लड़का रेल की पटरियन के बीच में लेट जात आए औ ऊके ऊपरे से रेल कढ़ जात आए। रेल जाबे के बाद बा उठ के नाचन लगत आए। बताओ, जा कोन सी बात भई? कऊं कछू गड़बड़ हो जाती तो उतई कटो डरो रैतो। जा रील तुमने सोई देखी हुइए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, देखी न! कोनऊं ने मोए व्हाट्सएप्प करी रई। ईके कछू मईना पैले जेई टाईप की एक औ रील आई रई जीमें एक मोड़ा दो चलत जीप में से एक से दूसरे में कुद्दी लगाऊत आए। फिल्मी स्टाईल। जो कऊं चूक जातो तो हो जाने तो राम नाम सत्त!’’ मैंने सोई भैयाजी खों बताई।
‘‘हऔ, हमने सोई देखी रई। को जाने का मिलत आए इन ओरन खों? इनके बाप-मताई इने मना नईं करत? जो हमाओ मोड़ा ऐसो करतो तो हम ऊको इत्ती बत्ती देते के बा मोबाईल रखबो बी भूल जातो।’’ भैयाजी गुस्सा होत भए बोले।
‘‘का हो गओ? कोन खों बत्ती दे रए?’’ भौजी ने आतई साथ पूछी।
‘‘अरे, बा नासमिटे रील बनाबे वारन खों।’’ भैयाजी ने भौजी खों बताई।
‘‘हऔ, चाए मोड़ा होए, चाए मोड़ी होय, सबई गजबई कर रईं। अबई बा एक मोड़ी रील बनात-बनात नदी में गिर गई औ डूब के मर गई।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई आए भौजी! ऊ दिनां मैं राजघाट बांध गई रई, उते का मोड़ा-मोड़ी औ का बड़े, सबरे खतरा वारी जांगा पे रील बनाउत फिर रए हते। मोय तो देखत में ई डर लग रओ तो, सो मैं तो ऊ तरफी लौं नई गईं। औ हमाई एक संगवारी कैन लगीं के इते परसासन कछू ध्यान नई दे रओ? कोनऊं नइयां इते जो इने रोके-टोंके। सो, मैंने उनसे कई के बैना, परसासन जे बी तो नई कै रओ के जे ओरें उते खतरा वारी जांगा पे जा के प्रान देबें। अपनी जान के बारे में तो इने खुदई सोचो चाइए।’’ मैंने ऊ संगवारी से कई।
‘‘सई आए! अब बिजली को नंगो तार छूहो तो करंट तो लगहे ई। अब कओ के बिजली विभाग वारन ने तो बताओ नईं के बिजली के नंगे तार छूबे से कंरट लगत आए। भला जे कोन सी बात भई!’’ भौजी बोलीं।
‘‘बिलकुल सई भौजी!’’ मैंने कई।
‘‘जेई से तो हम कै रए के ई टाईप के लोगन खों लूघरा छुबे। जे ओरें खुद के प्रान के लाने दुस्मन बनत आएं औ अपने घरवारन के लाने दुख को पहाड़ तोड़त आएं। अरे, पर की साल बा एक मोड़ा नईं रओ, जेई ऐसई मौसम में बा राहतगढ़ वाटरफाल देखबे के लाने गओ रओ। औ देखबे के लाने का, असल में तो ऊको अपनी रील बनाने रई। सो बा उते रील बनात-बनात फाल में टपक गओ। औ ऊकी लहास लौं ने मिल पाई रई।’’ भैयाजी ने याद कराई।
‘‘पर उते तो अब फाल के लिंगे कोनऊं पौंच नईं सकत? बा कैसे उते पौंच गओ?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘जोन मरबे खों उधारे फिरत आएं न, बे कोनऊं ने कोनऊं रस्ता ढूंढ लेत आएं। बा मोड़ा के संगवारे ने बताओ रओ के बे दोई नदी की दूसरी तरफी से निंगत-निंगत हारे के इते से फाल के लिंगे पौंच गए रए।’’भैयाजी बोले। 
‘‘जा कओ के ऊकी मौत ऊको उते खेंच लाई रई।’’भौजी ने कई।
‘‘मौत काए खेंच लाई रई? वोई अपनी मौत खों खेंच लाओ रओ। बा बाद में अपने लोकल चैनल पे ऊके घरे को हाल दिखाओ गओ रओ, ऊकी मताई को रो-रो के बुरौ हाल हो रओ तो। तीन बैनों में बा एक भैया रओ। ऊके बाप के मों से तो बोल नईं फूट रए हते। बा न रो रओ हतो औ ने कछू बोल पा रओ हतो। ऊको भारी सदमा लगो रओ। मोसे तो उन ओरन की दसा नई देखी गई रई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जेई तो बात आए! के जे ओरें जान जोखम में डारत समै अपने घवारन के बारे में तनकऊ खयाल नईं करत। काए से के बे तो पगलाए रैत आएं।’’ मैंने कई।
‘‘अरे, तो बा मोड़ियन खों तनक देख लेओ, फरिया सो हुन्ना पैन्ह के ऐसी नचत आएं के का कओ जाए। सई में कैसे बाप-मताई आएं के उने रोकत नइयां। अरे, रील बनाने ई आए तो ऊ टाईप की बनाओ जैसी अपने इते के बे दो मोड़ा हरें बनाऊत आएं। का नावं आए उनको, हऔ एक आशीष उपाध्याय आए औ दूसरो बिहारी उपाध्याय। दोई के संगे एक छोटो मोड़ा और दो-तीन बिन्ना हरें सोई रैत आएं। कित्ती अच्छी रील बनाऊंत आएं। हंस-हंस के पेट दुखन लगत आए। ऊमें कोनऊं रिस्क ने कहाओ। ने रेल के नैचे लेटने औ ने झरना पे कूंदने। ई टाईप की औ बी मुतकी रीलें देखी हमने। कछू जने तो कुत्ता की, बिल्ली की बी रील बना-बना के डारत आएं। बे बी खूबई नोनीं रैत आएं। कछू नाचत वारी बी अच्छी रैत आएं। मनो कछू जरूर ऐसी रैत आएं के देखबेई में खराब लगत आएं।’’ भौजी बतान लगीं।
‘‘बा खराब औ अच्छी की तो ऐसी के ऊमें जान को खतरा तो नोंई, मनो जे ई टाईप की रीलन में तो बनाबे वारे मरे जा रए। अब ऐसो बी का पगलौंटापना।’’ भैयाजी बोले।
‘‘असल में का आए के लाईक औ कमेंट के लाने जे ओरें मरे जात आएं। उने लगत आए के कछू जोखिम भरी रील बनाहें तो तुरतईं वायरल हो जाहे। औ होत बी जेई आए। जेई लाने तो आजकाल आत्महत्या करबे वारे सोई सोसल मीडिया पे लाईव सुसाईट करत आएं। बाकी बे खुद नईं जान पात आएं के उनके मरबे की बीडियो पे उने कित्ती लाईक मिली। काए से के बे तो टें बोल चुकत आएं। जे बी तो एक पगलापना आए।’’ मैंने कई।
‘‘हमने सुनी आए के जोन की रील सबसे ज्यादा वायरल होत आए उने कंपनी कछू पइसा देत आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘को जाने! बाकी कित्ताऔ पइसा मिल जाएं पर जान से ज्यादा थोड़े हुइएं। जान सो एक बार गई, मने गई, फेर लौट के नईं मिलत। पईसा की तो आनी-जानी लगी रैत आए। औ कम से कम बीस-तीस हजार को फोन पे रीलें बनाबे वारे कोन से भूके मारे जा रै के उने जान हथेली पे लेने परत आए। जे तो पूरो पागलपन आए। हमाओ कैने को मतलब जे के बनाओ, खूब रीलें बनाओ, मनों ऐसी वारी नईं जीमें तुमाई जान जाबे को रिस्क होय। जो कभऊं ऐसो मन होय तो तनक अपने घरवारन को खयाल कर लओ चाइए, के बे तुमाए बिना कैसे जीहें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सई बात आए भैयाजी! मनोरंजन खों मनोरंजन घांई राखो चाइए। अपनी सेफ्टी सबसे पैली ध्यान रखबे की चीज आए।’’ मैंने कई।    
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के जान जोखम में डारबे वारी रीलें बनाबे वारन खों रोको जाओ चाइए के नईं? औ ईके लाने का पैले घरवारन की जिम्मेवारी नईं ठैरती आए?    
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Wednesday, July 16, 2025

चर्चा प्लस | जान बचाने का पूरा दायित्व मात्र प्रशासन का नहीं है | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस           
जान बचाने का पूरा दायित्व मात्र प्रशासन का नहीं है
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
       यह शीर्षक अजीब लग सकता है किन्तु इस पर चिन्तन करने के बाद इसे नकारा नहीं जा सकता है कि- जान बचाने का दायित्व मात्र प्रशासन का नहीं है। अभी कुछ दिन पहले ही एक युवती का वीडियो वायरल हुआ था जिसमें वह रील बनाने के चक्कर में पीछे की ओर चलती हुई नदी में जा गिरी और जान से हाथ धो बैठी। यह भी वर्तमान का कटु सत्य है कि आज किसी को डूबते या मरते हुए देख कर अधिकांश लोग उसकी रील शूट करने में जुट जाएंगे, उसे बचाने के लिए दो-चार लोग ही आगे आएंगे। कभी- कभी कोई भी आगे नहीं आता है या फिर इतनी जल्दी सबकुछ घटित होता है कि बचाने वालों के पास इतना समय नहीं होता है कि वे संकटग्रस्त व्यक्ति को बचा सकें। ऐसी स्थिति में प्रशासन जिम्मेदार है या जोखिम ले उठा कर प्राण गंवाने वाला व्यक्ति जिम्मेदार है? जरा सोच कर देखिए।
         हाल ही में एक ऐसी रील वायरल हुई जिसमें एक युवक रेल आती देख कर रेल की दोनों पटरियों के बीच लेट गया। रेल उसके ऊपर से धड़धड़ाती हुई निकल गई और रेल गुजरने के बाद वह युवक उठ कर नाचते हुए खुशियां मनाने लगा। क्या प्रशासन यह चेतावनी नहीं देता है कि रेलगाड़ी आ रही हो तो पटरियां पार न करें? मगर यहां तो वह युवक रील बनाने के चक्कर में पटरियों के बीच लेट गया। अब प्रशासन को दोष दिया जा सकता है कि उसने यह चेतावनी नहीं दी थी कि रेल आ रही हो तो पटरियों के बीच न लेटें। अर्थात स्वयं की सुरक्षा स्वयं की नहीं प्रशासन की जिम्मेदारी है। यानी कुल मिला कर किस्सा यह कि आप कुएं में कूदिए, यदि नहीं डूबते तो आप ‘डेयरिंग’ हैं और अगर डूब गए तो प्रशासन हत्यारा है।  

अभी पिछले रविवार को मुझे राजघाट बांध देखने जाने का अवसर मिला। उस दिन रुक-रुक कर बारिश हो रही थी। अच्छा सुहाना मौसम था। राजघाट पहुंच कर यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि वहां दर्शकों की भारी भीड़ थी। सभी राजघाट को लबालब भरा हुआ देखने और बंधान से ओव्हरफ्लो करते पानी को देखने आए थे। एक पिकनिक स्पाॅट जैसा माहौल था। बंाध के किनारे बने रास्ते पर भुट्टे बेचने वालों की टेम्परेरी दूकानें लगी हुई थीं। यह सब देख कर तत्काल मन में विचार आया कि उस मार्ग पर उमड़ने वाली भीड़ को देखते हुए वहां मरम्मत और मार्ग के चैड़ीकरण किए जाने की आवश्यकता है। सड़कों के दोनों ओर खरपतवार-सी उग आई झाड़ियां सड़क के लिए नुकसानदायक हैं। साफ-सफाई की दृष्टि से भी उन्हें हटाया जाना जरूरी है। सड़क पर बड़े-बड़े गढ्ढे बन गए हैं जो आगे चल कर किसी दिन कोई बड़ी आपदा का कारण बन सकते हैं। सभी जानते हैं कि बारिश के मौसम में बांध, झरने, नदियां आदि पिकनिक स्पाॅट में ढल जाते हैं। अतः ऐसे स्थानों को एक सुचारु शहरी पर्यटन क्षेत्र का रूप दे दिया जाए तो इससे प्रशासन को रेवेन्यू भी मिलेगा और लोगों को सुविधाएं एवं सुरक्षा भी मिलेगी। राजघाट बांध के पास एक भी रेस्टोरेंट नहीं है और न ही कोई सुविधाघर। विधिवत सुरक्षा व्यवस्था भी नहीं है। यह जरूर है कि बांध के द्वार से भीतर जाने की अनुमति नहीं दी जाती है किन्तु ओव्हरफ्लो वाले क्षेत्र में कोई रोक-टोक नहीं है। एक निश्चित दूरी तक यानी जहां तक संभव है, लोग अपने वाहन ले जाते हैं फिर वहां से उफनती धाराओं के पास तक पैदल जा पहुंचते हैं। यूं भी आजकल रील बनाने का जमाना है अतः जुनून की हद पार करते हुए लोगों को उफनती धाराओं के पास जाते मैंने अपनी आंखों से देखा। उस दृश्य को देख कर एक आम नागरिक की भांति मेरे मन में यही पहला विचार आया कि इन्हें कोई रोकता क्यों नहीं? प्रशासन इस ओर ध्यान क्यों नहीं देता? फिर तत्काल मेरे मन ने मुझे टोंका कि क्या सारा ठेका प्रशासन का ही है? क्या प्रशासन ने इन्हें कहा है कि उफनती धाराओं के पास जा कर रील बनाओ? ये लोग स्वयं क्यों नहीं समझते हैं कि वे कितना बड़ा जोखिम मोल ले रहे हैं। अरे, उफनती धाराओं के साथ रील बनानी ही है तो एक सुरक्षित दूरी पर रह कर भी बनाई जा सकती है, जान हथेली पर ले कर बनाने से क्या लाभ?

जरा सोचिए कि कोई युवा रील बनाने की धुन में उफनती धाराओं के पास जा खड़ा होता है। ऐसे समय स्पष्ट है कि धाराओं की तरफ उसकी पीठ होगी ताकि उसका चेहरा और चेहरे के पीछे से धाराएं दिखाई दे जाएं। एंगल सही करने के चक्कर में यदि उसका पांव लड़खड़ा जाए या वह फिसल जाए तो वह अपने प्राण भी गवां सकता है। चाहे युवा हों या प्रौढ़ या बुजुर्ग - किसी भी आयुवर्ग के क्यों न हों, ऐसे समय उन्हें सोचना चाहिए कि यदि वे अपनी लापरवाही से किसी दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं तो उनके परिवारवालों का क्या हाल होगा? किसी युवक की मां भोजन की थाली परोसे उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी, किसी युवती का पिता अपनी बेटी के सुरक्षित घर लौटने का बेसब्री से इंतेज़ार कर रहा होगा, कोई पत्नी अपने पति की वापसी की बाट जोह रही होगी, लेकिन जब उन्हें एक हृदयविदारक सूचना मिलेगी तो उन पर कैसी गाज गिरेगी? इस बात को भी सोचना चाहिए। किसी भी सेल्फी, रील अथवा वीडियों के वायरल होने की खुशी आप तभी महसूस कर सकते हैं जब आप स्वयं जीवित हों। यदि आपको कुछ हो गया तो आपके बाद आपके परिजन भी आपकी कलाकारी की खुशियां कभी नहीं मना सकेंगे। 

अकसर होता यही है कि जब किसी बांध, नदी, तालाब या झरने में कोई युवक या युवती फोटोग्राफी या वीडियोग्राफी के चक्कर में जान से हाथ धो बैठते हैं तो सबसे पहले दोष दिया जाता है प्रशासन को कि उसने उस स्थान पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाए अथवा सुरक्षा व्यवस्था क्यों नहीं की? निःसंदेह, यह होना चाहिए। लेकिन अधिकांश स्थानों पर जहां दुर्घटना संभावित क्षेत्र घोषित कर के प्रतिबंध लगाया जाता है वहां भी घुस कर जोखिम लेते हुए लोग दिख जाते हैं। पिछले साल की बात है मैं राहतगढ़ वाटरफाॅल देखने गई थी। वहां लोहे की जालियां लगा कर उस पूरे क्षेत्र को प्रतिबंधित कर दिया गया है, जहां दर्शकों के लिए जान का खतरा हो सकता है। किन्तु मैंने देखा कि कुछ युवक वनक्षेत्र से चक्कर लगा कर फाॅल के इतने निकट पहुंच कर फोटोग्राफी कर रहे थे कि कभी भी कोई भी दुर्घटना घट सकती थी। जब वहां के एक सुरक्षाकर्मी ने उन्हें ललकारा तो वे दौड़ के वहां से जाने लगे। यह दूसरा जोखिम था जो वे उठा रहे थे। पांव फिसलते ही वे अथाह जल में लापता हो सकते थे। अब यह ढिठाई नहीं तो और क्या है? इस हरकत के लिए प्रशासन को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है? 
प्रशासन सुरक्षा की व्यवस्था कर सकता है, मरने पर मुआवजा दे सकता है किन्तु वह जीवन नहीं लौटा सकता है। अपने जीवन की सुरक्षा की पहली जिम्मेदारी खुद हर इंसान की होती है। वह कहावत भी है न कि ‘‘जान है तो जहान है।’’ सारी डेयरिंग, सारा दुस्साहस, सारा जोखिम प्राणों पर संकट तो ला सकता है, प्राण नहीं लौटा सकता है। इसलिए बारिश के मौसम में ऐसे स्थानों पर जहां जोखिम अधिक हो अपनी सुरक्षा का ध्यान पहले रखना चाहिए। 

राजघाट पर युवाओं, महिलाओं और बच्चों को उफनती धाराओं के निकट मंडराते देख कर मुझे उत्तराखंड की वह घटना याद आ गई जब कुछ युवक पिकनिक मनाने गए थे और बंाध से छोड़े गए पानी के चपेट में आ गए थे। उस समय प्रशासन को भी कोसा गया था कि उसने समय रहते चेतावनी नहीं दी किन्तु यह भी तो सभी को पता रहता है कि बांध से जुड़ी हुई नदियों में बारिश के दिनों में कभी भी बांध के दरवाजे खोलने की नौबत आ सकती है। बांध पर दरार आदि की भी स्थिति निर्मित हो जाती है। कोई भी आपदा संदेश दे कर नहीं आती है, वह अचानक ही आती है और इसीलिए हर दुर्घटना संभावित क्षेत्र पर बोर्ड पर चेतावनी लिखी जाती है जिसे लापरवाह पर्यटक कभी नहीं पढ़ते हैं। अब इस लापरवाही का जिम्मेदार किसे ठहराया जा सकता है?
हाल ही में हिमाचल प्रदेश के ऊना में सोशल मीडिया के लिए रील बनाने का शौक युवकों पर भारी पड़ गया। चार युवक नहर में नहाने और रील बनाने पहुंचे। एक युवक नहाने के लिए गंगनहर में उतर गया। इस दौरान उसका दोस्त मोबाइल से उसका वीडियो बनाने लगा। इसी बीच नहाने वाला युवक तैरते हुए रेलिंग पार कर आगे की तरफ जाने लगा। जैसे ही वह कुछ ही दूरी पर पहुंचा वहां पानी का बहाव बहुत तेज था। वह पानी के बहाव से खुद को बचा न सका और कुछ ही सेकंड में डूबकर लापता हो गया। दूसरा युवक उसे बचाने के लिए लपका किन्तु वह भी तेज धार में जा गिरा और लापता हो गया। जीवित बचे दोस्त कुछ भी न कर सके।
उत्तराखंड में हरिद्वार के गोविंदपुरी घाट में इसी तरह का एक दर्दनाक हादसा हो गया जब रील बनवाने के चक्कर में एक व्यक्ति गंगनहर में उतरा और पलक झपकते तेज धाराओं में डूब गया। हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले के सीमावर्ती क्षेत्र की सौल खड्ड में रील बनाने और सेल्फी लेने के चक्कर में दो लड़के पानी में डूब गए। अजमेर जिले के मसूदा थाना क्षेत्र के ग्राम देवपुरा में रील बनाने के चक्कर में दो किशोर तालाब में गए और फिल्मी गानों पर रील बनाने लगे। तभी एक किशोर रील बनवाने की धुन में गहरे पानी की ओर चला गया और तालाब में डूब गया। 

रील बनाने के चक्कर में ही गुजरात के अहमदाबाद के सरखेज स्थित फतेहवाड़ी नहर में एक स्कॉर्पियो कार जा गिरी। वह स्कार्पियों तीन दोस्तों ने मिल कर 4 घंटे के लिए 3500 रुपए दे कर किराए पर ली थी। उनका उद्देश्य था फतेहवाड़ी नहर में रील बनाना। नहर के पास पहुंच कर रील बनाने के चक्कर में स्कार्पियों अनियंत्रित हो कर नहर में जा गिरी। उस समय उसके भीतर तीनों युवक मौजूद थे। स्कॉर्पियो जैसे ही नहर में गिरी उसके तुरंत बाद वहां मौजूद उनके दूसरे दोस्तों ने रस्सी डालकर तीनों युवकों को बचाने की कोशिश की वे लेकिन असफल रहे। जिसके बाद आसपास के स्थानीय लोग मौके पर इकट्ठा हुए। नहर में स्कॉर्पियो कार गिरने और तीन युवकों के डूबने की जानकारी फायर ब्रिगेड और पुलिस को दी गई और रेस्क्यू ऑपरेशन शुरू हुआ। लेकिन उन युवकों को बचाया नहीं जा सका।
बहुधा यह देखा गया है कि रील और वीडियो बनाने के चक्कर में युवाओं को होश ही नहीं रहता कि वह किस तरफ बढ़ रहे हैं। पहले भी ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं जब रील और वीडियो बनाने के चक्कर में लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। सागर में ही राहतगढ़ वाटर फाल में ऐसी कई घटनाएं घट चुकी हैं। फिर भी हर युवा इसी भ्रम में रहता है कि उस पर कभी कोई आपदा नहीं आ सकती है। यह लापरवाही भरा दुस्साहस ही उनकी जान ले लेता है। यह सच है कि प्रशासन लापरवाहियां करता है लेकिन रील बनाने के चक्कर में लोग इतने लापरवाह हो जाते हैं कि प्रशासन को भी कई मील पीछे छोड़ देते हैं। हर व्यक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि अपनी ज़िन्दगी को सुरक्षित रखने की पहली जिम्मेदारी उसकी स्वयं की है, फिर दूसरे नंबर पर प्रशासन की।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 16.07.2025 को प्रकाशित)  
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Tuesday, July 15, 2025

पुस्तक समीक्षा | भावनाओं की गहराई से उलीची गईं कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज'आचरण' में पुस्तक समीक्षा
भावनाओं की गहराई से उलीची गईं कविताएं
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह - बंजारा मन पथरीली आंखें
कवयित्री     - श्रीमती विमल बुन्देला
प्रकाशक     - जे.टी.एस. प्रकाशन, वी-508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली-110053
मूल्य        - 500/-
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कविताएं भावनाओं के प्रस्तुतिकरण का सबसे कोमल एवं सटीक माध्यम होती हैं। जयशंकर प्रसाद ने काव्य को ‘‘आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति’’ कहा है। वहीं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘‘कविता क्या है?’’ इस विषय पर पूरा एक विस्तृत निबंध लिखा है, जिसमें वे लिखते हैं कि-‘‘कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है। सृष्टि के पदार्थ या व्यापार-विशेष को कविता इस तरह व्यक्त करती है मानो वे पदार्थ या व्यापार-विशेष नेत्रों के सामने नाचने लगते हैं। वे मूर्तिमान दिखाई देने लगते हैं। उनकी उत्तमता या अनुत्तमता का विवेचन करने में बुद्धि से काम लेने की जरूरत नहीं पड़ती। कविता की प्रेरणा से मनोवेगों के प्रवाह जोर से बहने लगते हैं। तात्पर्य यह कि कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है। यदि क्रोध, करूणा, दया, प्रेम आदि मनोभाव मनुष्य के अन्तःकरण से निकल जाएँ तो वह कुछ भी नहीं कर सकता। कविता हमारे मनोभावों को उच्छवासित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती है। हम सृष्टि के सौन्दर्य को देखकर मोहित होने लगते हैं। कोई अनुचित या निष्ठुर काम हमें असह्य होने लगता है। हमें जान पड़ता है कि हमारा जीवन कई गुना अधिक होकर समस्त संसार में व्याप्त हो गया है।’’
कवयित्री विमल बुन्देला की कविताओं से गुज़रते हुए जयशंकर प्रसाद एवं आचार्य रामचंद्र शुक्ल दोनों के विचार प्रतिध्वनित होते सुनाई पड़ते हैं। विमल बुन्देला ठहराव की कवयित्री हैं, उनकी कविताओं में उद्विग्नता का भाव तीव्र आवेग के साथ नहीं वरन शनैः-शनैः उभरता है। वे अपने भावों को व्यक्त करने में कोई शीघ्रता नहीं बरतती हैं अपितु अपने भीतर उनका मंथन करती हैं फिर उन्हें कविता के रूप में उद्घाटित कर देती हैं। विमल बुन्देला के काव्य की ये विशेषताएं उनके नवीनतम काव्य संग्रह ‘‘बंजारा मन पथरीली आंखें’’ में अनुभव की जा सकती हैं। वरिष्ठ कवि सुरेंद्र शर्मा ‘‘शिरीष’’ ने सटीक टिप्पणी की है कि ‘‘उनका (विमल बुन्देला का) भाव-संसार एवं शिल्प परम्परा सम्मत एवं नवीनता के प्रति सम्मोहित है। उनकी रचनायें परम्परा व आधुनिकता के मध्य सेतु समान है। उनका रचना संसार पर्याप्त विस्तार लिए हुए हैं। उनकी अभिव्यक्ति का फलक विस्तृत है।’’
विमल बुन्देला की कविताओं में नारी जीवन के विविध आयाम अपनी सूक्ष्मता के साथ प्रस्तुत हुए हैं। वे अपने अनुभवों को जग के अनुभवों में ढाल कर व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाती हैं। इसीलिए संग्रह की कविताओं पर ‘‘एक दृष्टि’’ शीर्षक से लिखते हुए संस्कृतिविद साहित्यकार डाॅ. बहादुर सिंह परमार ने लिखा है कि ‘‘नारी जीवन की पीड़ा, विवशता और संघर्ष की गाथा तो प्रत्येक रचना में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से झांकती मिल जाएगी। इनकी रचनाएं नारी मन को कोमल सूक्ष्म भावनाओं के साथ संवेदना से सराबोर है। प्रेम के विविध रूपों के साथ पिता के प्रति भावनात्मक जुड़ाव इनकी कविताओं में है, जो विमल जी की कविताओं में मिलता है। उनके पात्र निराश नहीं बल्कि संघर्ष में संपृक्त आशा से भरे हैं।’’
वहीं कथाकार आभा श्रीवास्तव ने विमल बुन्देला की कविताओं के विविध पक्षों पर दृष्टिपात करते हुए लिखा है कि कवयित्री की ‘‘प्रत्येक रचना विभिन्न पहलुओं को स्पर्श करती हुयी मानवीय धरातल को अभिव्यक्त करती है। सरल शब्दों में धरा प्रवाहित है। भाषा परिष्कृत है। कहीं-कहीं नये उपमान के माध्यम से भी अपनी बात कुशलता से कहीं है। अपने काव्य ग्रन्थ को अनमोल बनाया है। कवितायें नीतिगत तथ्यों को इंगित करती हैं। साथ ही अन्याय के प्रति भी स्वर मुखरित हुआ है। जीवन को काव्य में व्यापक रूप में प्रस्तुत किया गया है। सामाजिक जीवन की विषमतायें नूतन सौंदर्य बोध के साथ आयी हैं। सरल सरल व स्वाभाविक प्रस्तुति काव्य संग्रह की विशेषता है। प्रतीक और बिम्ब लोक-जीवन से ही लिये गये हैं।’’
वरिष्ठ कवयित्री मालती श्रीवास्तव ने विमल बुन्देला के काव्य में सामाजिक चेतना के साथ आध्यात्मिक अनुभूतियों को भी महसूस किया है। वे लिखती हैं कि ‘‘जीवन चेतना सामाजिक चिन्तन, आध्यात्मिक अनुभूतियां मूल प्रवृत्तियां, उनकी रचनाओं में सहजता, सरलता, भव्यता से परिलक्षित होती है। संसार और जीवन के सत्य की अनन्यता की झांकी सौंदर्य में लपेट कर उनका प्रस्तुतिकरण आनंद से ओतप्रोत होता है।’’
संग्रह में विविध भाव धरातल की 82 कविताएं हैं जिनमें अंतिम रचना में कई मुक्तक समाहित हैं। संग्रह को आद्योपांत पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि कवयित्री विमल बुन्देला अपने पिता के अधिक करीब थीं। उन्होंने अपना यह संग्रह अपने पिताश्री को समर्पित किया है तथा संग्रह में पिता पर एक कविता भी है-‘‘पिता के लिए’’। इस कविता की कुछ पंक्तियों देखिए-
आज हाथ जो कँपकँपा रहे हैं, 
इन्हीं को थामे कभी चली थी मैं, 
इन्ही उँगलियों को थामे, 
जीवन संघर्ष में बढ़ी थी मैं, 
वो बुलन्द आवाज, वो निर्भीक आँखें,
वो दृढ़ चेहरा, वो सदी हुई साँसें, 
वो उठे हुए कदम, जो मंजिल तक पहुँचे, 
आज बुढापे ने छीन ली,
उनके नीचे की जमीन और ऊपर की छत, 
ऊपर वाले, क्या यही है तुम्हारा न्याय ?
क्या यही हैं, बचपन और यौवन की अंतिम परिणति ? 
क्या यही हैं जीवन की नियति ?
- यह कविता पिता के प्रति पुत्री की संवेदनाओं को बड़े मार्मिक ढंग से मुखर करती है। किन्तु मीराबाई का स्मरण करते ही कवयित्री अकुलाकर पुरुष समाज की उस दूषित मानसिकता को रेखांकित करती है जहां स्त्री को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। वे राणा से प्रश्न करती हैं अपनी कविता के रूप में-‘‘राणाजी तेरा क्या बिगाड़ गई मीरा?’’ वे लिखती हैं-
राणाजी तेरा क्या बिगाड़ गई मीरा?
हर पल श्यामल मूरत देखी, 
जीवन उन पर वारा, मन दर्पण में मनमोहन को, 
धारण किया निहारा, जब भी व्याकुल हुई 
दुखों से तारणहार पुकारा। 
राणाजी तेरा क्या.....
किन्तु कवयित्री जानती है कि दुनिया में सब एक समान नहीं हैं। कोई अच्छा है तो कोई बुरा है। सत और असत दोनों इसी संसार के दो पहलू हैं। इसीलिए वे आग्रह करती हैं कि असत से घबराने की आवश्यकता नहीं है, बस, सतर्कता जरूरी है। अपनी कविता ‘‘दुनिया का खेल’’ में वे लिखती हैं-
एक टीम और एक हाथ में, कभी बाल न रह पाती, 
चूक ना हो जाए गफलत में, गोल सम्भलकर करना रे।
गलत बात और गलत साथ से, समझौता क्या करना रे, 
जाना तो सबको है एक दिन, डर डर क्या रहना रे।
दृढ़ संकल्पों के बल पर ही, जीवन खेल निकलना रे, 
फिसलन-फिसलन सभी जगह है, गिरना नहीं सम्भलना रे।
जीवन के उतार-चढ़ाव की बारीकियों को समझने की सीख देने के साथ ही विमल बुन्देला ने ‘‘बीज का विश्वास’’ कविता में आशावादिता का प्रबलता से पक्ष लिया है। यदि व्यक्ति में आत्मविश्वास हो तो जीवन का कोई भी झंझावात उसे डिगा नहीं सकता है अपितु वह स्वयं दूसरे के लिए उदाहरण बन सकता है। यही तथ्य सामने रखा है इस कविता में- 
और एक दिन अमावस के एक प्रहर ने, 
सूरज से कहा, कहाँ है तुम्हारी किरणें,
और कहाँ है तुम्हारा आकार, 
कौन कहता है कि तुम सृष्टि के नायक हो, 
मेरा अन्धकार जब आता है, पूरे जड़ चेतन पर छा जाता है।
तब एक दिन एक नन्हें से बीज ने, सर उठाकर कहा, 
सूरज के प्रकाश व उष्णता का, अर्थ मैं बताता हूँ, 
जब मैं धरती का सीना चीर कर, लहलहाता हूँ 
तब सूरज क्या है, उसका अर्थ बताता हूँ।
मध्यप्रदेश के छतरपुर की निवासी विमल बुन्देला की अब तक कुल तीन कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। वे भीड़ की कविता नहीं, वरन एकान्त की कविता लिखती हैं एवं सतत सृजनशील हैं। उनका यह संग्रह ‘‘‘‘बंजारा मन पथरीली आंखें’’ भले ही हौले से दस्तक देता लगे किन्तु इसकी थाप की अनुगूंज देर तक मन-मस्तिष्क पर प्रभावी रहती है। इनमें अलंकारिकता की गहरी छाप भले ही न हो किन्तु रस है, प्रवाह है और लयात्मक शब्द विन्यास है। यह विश्वास किया जा सकता है कि भावनाओं की गहराई से उलीची गई इस संग्रह की कविताएं पाठकों को पसंद आएंगी।   
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(15.07.2025)
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