Saturday, September 27, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | इते तो खाली बम्प दिखात आएं सूचना नोंई | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | इते तो खाली बम्प दिखात आएं सूचना नोंई | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
टाॅपिक एक्सपर्ट  
इते तो खाली बम्प दिखात आएं सूचना नोंई
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

        का भऔ के कल्ल हमाए एक चिन्हारी वारे ने सोसल मिडिया पे अपनी फोटूएं चिपकाईं। बे आजकाल अपने मोड़ा के लिंगे अमरीका गए हैं। सो,  उन्ने उते अपने घूमत टेम की चार-छै ठाइयां फोटू चपका दईं। हमने देखी तो हम देखतई रै गए। उने नोंई। औ ने उते के खबसूरत सीन देख के। हम तो जा देख के देखत रै गए के उनके पांछू लगे खम्बा पे एक ठो सूचना लिखी रई, जीमें लिखो रओ के ‘स्पीड बम्प 12 किमी’। बा सू्चना पढ़ के हमाई आंखें खुली के खुली रै गईं। काए से के अपने इते तो रोड पे मुतके बम्प तो बना दए जात आएं पर उते एक ठइयां सूचना लिखबे की याद कोनऊं को नईं रैत। ने तो कछू लिख के बताओ जात आए औ ने तो डिजाइन सी बना के। सो, होत का आए के चलत-चलत एकदम से बम्पर आंगू आ जात आएं, जीमें उचके बिगर बच नईं सकत। औ कऊं-कऊं तो चार-चार ठइयां  बम्प ठाड़े कर दए गए आएं। ने मानों तो तनक सिविल लाइन से मकरोनिया जा के देख लेओ। औ ऊ पे बी जी ने भरे तो मकरोनिया से बहेरिया तिगड्डा निकर जइयो। एक बम्प पे तो मनो गाड़ी एक दार उचकत भर आए, औ जो चार-चार बम्प होंए तो ऐसो लगत आए के कोनऊं ने सूपा पे फटक दओ होए। स्कूटी, मोटर सायकिलें सो ऐसी उचकत आएं मनो तनक ने सम्हार पाओ तो मों के बल गिरबो तै समझियो। 
     मनो एक तरफी तो अपन ओरें अमेरिका वारन की बराबरी करबो चात आएं औ दूसरी तरफी अपने इते बिगर सूचना के बम्प बना के अपनेई लोगन के हात-गोड़े तोड़बे चात आएं। का लंगड़ा-लूला हो के अमेरिका की बराबरी करबी? तनक सोचियो!
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, September 26, 2025

शून्यकाल | कबीर के कथित स्त्री-विरोधी दोहों का सच | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | कबीर के कथित स्त्री-विरोधी दोहों का सच | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल
कबीर के कथित स्त्री-विरोधी दोहों का सच
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       कबीर ने समाज को आईना दिखाने वाले और मानव-प्रेम के दोहे रचे। वह भी उस काल में जब बोधन जैसे कवि को मात्र इसलिए मृत्युदण्ड दे दिया गया था कि उसका कहना था कि हिन्दू और मुस्लिम धर्म में कोई अंतर नहीं है। ऐसे दुरूह समय में पाखण्डियों को स्पष्ट शब्दों में ललकारने वाले कबीर क्या स्त्री-विरोधी दोहे लिख सकते हैं? यह एक चौंकाने वाला तथ्य है। यह एक शोध का विषय भी हो सकता है लेकिन इसके लिए पूर्वाग्रह से उठ कर बारीकी से तथ्यों को परखना होगा। इस संभावना पर भी गौर करना होगा कि कबीर को लांछित करने के लिए उनके नाम से स्त्री-विरोधी दोहे रच दिए गए हों।

       कुछ वर्ष पूर्व लखनऊ की एक शोध छात्रा ने मुझसे प्रश्न किया था कि ‘‘क्या कबीर स्त्री विरोधी थे?’’ यह प्रश्न चेतना को आंदोलित करने वाला था। मैंने उससे पूछा कि आप किस आधार पर कबीर के बारे में यह प्रश्न कर रही हैं? इस पर उस छात्रा ने मुझे कबीर के दो दोहे सुनाए। निश्चितरूप से वे दोनों दोहे स्त्री-विरोधी थे। मैंने उस छात्रा से यही कहा कि मैं तत्काल इस प्रश्न का उत्तर नहीं दूंगी दो दिन बाद उत्तर दूंगी। दो दिन में मैंने कबीर का लगभग तमाम साहित्य खंगाल डाला और साथ ही उस परिदृश्य पर भी ध्यान दिया जो कबीर के समय मौजूद था। दो दिन बाद उस शोध छात्रा ने फिर अपना प्रश्न दोहराया कि ‘‘क्या कबीर स्त्री-विरोधी थे?’’ मैंने पूर्ण आश्वस्ति के साथ उसे उत्तर दिया कि मेरे विचार से कबीर स्त्री-विरोधी नहीं थे। उसने प्रतिप्रश्न किया कि लेकिन वे दोहे जिनमें कबीर ने स्त्री को सर्प से अधिक विषधारी बताया है? उसने जो दो दोहे मुझे उदाहरण स्वरूप सुनाए वे इस प्रकार थे -
(1) नारी की झांई पड़त, अंधा होत भुजंग।
‘कबिरा’ तिन की कौन गति, जो नित नारी को संग।।
तथा,
(2) नारी तो हमहूं करी, तब न किया विचार।
जब जानी तब परिहरि, नारी महा विकार।।

इस पर मैंने उससे पूछा कि इसका क्या प्रमाण है कि वे स्त्री-विरोधी दोहे कबीर ने ही रचे हैं। कबीर वाचिक परम्परा के कवि थे। उन्होंने स्वयं कहा है कि -“मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।” अतः जब आज हम पाते हैं कि विरोधीजन प्रकाशित, प्रमाणित रचनाओं में भी हेरफेर कर देते हैं तो क्या यह संभव नहीं है कि कबीर की स्पष्टवादिता से खीझे हुए विरोधियों ने उन्हें अपने खेमे का दिखाने के लिए कुछ स्त्री-विरोधी दोहे उनके नाम से प्रचारित कर दिए हों। इस पर गंभीरता से शोध होना चाहिए। मेरे विचार से तो शोध के उपरांत ऐसे भ्रामक दोहे कबीर-साहित्य से खारिज़ किए जाने चाहिए।
          कबीर ने जिस काल में दोहों की रचना की उस समय सिकन्दर लोदी का शासन था। 1489 से 1517 ई. का।  सिकन्दर लोदी एक असहिष्णु शासक था। उसकी धार्मिक भेद-भाव की नीतियों के कारण समाज हिन्दू और मुस्लिम दो भागों में बंटा हुआ था। दोनों धार्मिक समाजों में एकता की बात करना अपराध की श्रेणी में गिना जाता था। इसका उदाहरण कवि बोधन के हश्र के रूप में देखा जा सकता है। कवि बोधन ने यही कहा कि हिन्दू और मुस्लिम धर्म एक समान है और परिणामस्वरूप उसे मुत्युदण्ड दे दिया गया। ऐसे दुरूह समय में कबीर दोनों धर्मों के पाखण्डियों को खुले शब्दों में ललकार रहे थे। पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना ही उनका प्रधान लक्ष्य है। कथनी के स्थान पर करनी को, प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को तथा बाह्यभेदों के स्थान पर सब में अन्तर्निहित एक मूल सत्य की पहचान को महत्व प्रदान करना कबीर का उद्देश्य है। हिन्दू समाज की वर्णवादी व्यवस्था को तोडकर उन्होंने एक जाति, एक समाज का स्वरूप दिया। मूर्तिपूजा पर कबीर ने गहरा व्यंग्य किया। वे कहते है -
पहान पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।
या तो यह चाकी भली, पीस खाये संसार।।
     इसी प्रकार खुदा को पुकारने के लिए जोर से आवाज लगाने पर वे कटाक्ष करते हैं कि -
कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दै, बहरा हुआ खुदाय”
      कबीर का नाम हिंदी भक्त कवियों में निर्गुण भक्ति धारा की ज्ञानमार्गी शाखा में प्रमुखता से गिना जाता है। कबीर की रचनाओं को मुख्यतः निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता हैः रमैनी, सबद, साखी। ’रमैनी’ और ’सबद’ गाए जाने वाले ’गीत या भजन’ के रूप में प्रचलित हैं। ’साखी’ शब्द साक्षी शब्द का अपभ्रंश है। इसका अर्थ है - “आंखों देखी अथवा भली प्रकार समझी हुई बात।“ कबीर की साखियां दोहों में लिखी गई हैं जिनमें भक्ति व ज्ञान उपदेशों को संग्रहित किया गया है। 
    कबीर ने उलटबांसियां भी कही हैं। कबीर न तो मात्र सामाजिक सुधारवादी थे और न ही धर्म के नाम पर विभेदवादी। वे आध्यात्मिकता की सार्वभौम आधारभूमि पर सामाजिक क्रांति के नायक थे। कबीर मानववादी विचारधारा के प्रति गहन आस्थावान थे। वह युग अमानवीयता का था, इसलिए कबीर ने मानवता से परिपूर्ण भावनाओं, सम्वेदनाओं तथा चेतना को जागृत करने का प्रयास किया। कबीर वर्गसंघर्ष के विरोधी थे। वे समाज में व्याप्त शोषक-शोषित का भेद मिटाना चाहते थे। 
      जातिप्रथा का विरोध करके वे मानवजाति को एक दूसरे के समीप लाना चाहते थे। समाज में छुआछूत का प्रचार जोरों पर देखकर कबीर ने उसका खंडन किया। उन्होंने पाखंडियों को संबोधित करके कहा कि -
जो तुम बाभन बाभनि जाया, आन घाट काहे नहि आया।
जो तुम तुरक तुरकानी जाया, तो भीतर खतना क्यूं न कराया।।
     कबीर का समाज-दर्शन अथवा आदर्श समाज विषयक उनकी मान्यताएँ ठोस यथार्थ का आधार लेकर खडी हैं। अपने समय के सामन्ती समाज में जिस प्रकार का शोषण दमन और उत्पीडन उन्होंने देखा-सुना था, उनके मूल में उन्हें सामन्ती स्वार्थ एवम धार्मिक पाखण्डवाद दिखाई दिया जिसकी पुष्टि दार्शनिक सिद्धान्तों की भ्रामक व्यवस्था से की जाती थी और जिसका व्यक्त रूप बाह्याचार एवम कर्मकाण्ड थे। कबीर ने समाज व्यवस्था सत्यता, सहजता, समता और सदाचार पर आश्रित करना चाहा जिसके परिणाम स्वरूप कथनी और करनी के अन्तर को उन्होंने सामाजिक विकृतियों का मूलाधार माना और सत्याग्रह पर अवस्थित आदर्श मानव समाज की नीवं रखी। यहां विचारणीय है कि जो कवि, जो विचारक मानवप्रेम और मानव एकता की बात करता हो वह स्त्री-विरोधी दोहे कैसे रच सकता है? उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘जांत-पांत पूछे नहिं कोय। हरि को भजे सो हरि का होय।।
इसके बाद कबीर के उस पक्ष को भी ध्यान में रखना होगा जिसमें वे सूफी भावना को स्वीार करते हुए स्वयं को अर्थात् आतमा को स्त्री और परब्रह्म को पुरूष मानते हैं-
   सुर तैंतीस कौतिक आए, मुनियर सहस अठासी।
   कहैं ‘कबीर’ हम ब्याह चले हैं, पुरुष एक अविनासी।।
      अतः कबीर ने तो स्वयं को भी स्त्री की भांति माना और अपने गुरु रामानंद का स्मरण करते हुए यही कहा कि - कहैं ‘कबीर’ मैं कछु न कीन्हा। सखि सुहाग राम मोहि दीन्हा।।
     एक बिन्दु यह भी है कि कबीर का जीवन के प्रति सकारात्मक एवं तटस्थ दृष्टिकोण था। उन्होंने कहा कि - 
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात। 
देखत ही छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।
     इस भंगुर जीवन का अंत जब मृत्यु ही है तो उससे भयभीत क्यों होना? इसी सत्य के महत्व को समझते हुए वे स्पष्टवादी बने रहे। उन्हें शासक, शासन अथवा पाखण्डियों से कभी भय नहीं लगा। उन्होंने कहा कि - 
आए हैं तो जाएंगे, राजा, रंक, फकीर। एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जंजीर।।
           कवि थे जिन्होंने प्रेम की महत्ता को ज्ञान से भी ऊंचा बताया। उन्होंने कहा कि ज्ञान व्यक्ति को ज्ञानी बनाता है किन्तु प्रेम मनुष्य को मनुष्य बनाता है और जो सच्चे अर्थों में मनुष्य बन गया शेष ज्ञान तो उसे स्वयं हो जाएगा-
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। 
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
       अतः प्रेम को सर्वोपरि मानने वाले, पाखण्ड को ललकारते हुए स्पष्ट बोलने वाले, आत्मा को स्त्री और ब्रह्म को पुरुष मानने वाले कबीर स्त्री-विरोधी दोहे भला कैसे रच सकते थे? मुझे तो संदेह है इन दोहों पर। मेरा हमेशा यही आग्रह रहेगा कि कबीर के विचारों के प्रति भ्रम उत्पन्न करने वाले दोहों को जांचने और संदेहास्पद निकलने पर खारिज करने की जरूरत है।
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बतकाव बिन्ना की | नौरातें चलत भर बे गलत काम नईं करत | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

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बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बुंदेली कॉलम | बतकाव
बतकाव बिन्ना की
नौरातें चलत भर बे गलत काम नईं करत
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
    ‘‘बिन्ना! तनक साजी सी चाय सो पिला देओ!’’ भैयाजी आतई साथ बोले। मोए समझ में आ गई के कोनऊं सल्ल बींध गई हुइए जो आतई साथ भैयाजी चाय के लाने बोल रए।
‘‘हऔ! अभईं लो!’’ मैंने कही। फेर तुरतईं चाय बना लाई।
‘‘अब तनक अच्छो लगो!’’ चाय सुड़कत भए भैयाजी बोले।  
‘‘का हो गऔ? काय की सल्ल बींध गई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे ने पूछो!’’
‘‘अरे कछू तो बताओ आप!’’ मैंने सोई जिद पकर लई।
‘‘अरे बो आए न, अपन ओरने के इते को नेता!’’
‘‘को? कौन की कै रए?’’ मोए कछु समझ में ने आई।
‘‘अरे बोई जमुना, जमुना पार्षद!’’
‘‘अरे, उनकी कह रै! का कर दओ जमुना भेया ने?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे तुम सोई, ऊको भैया-वैया ने कहो!’’
‘‘काए? ईमें का बुराई दिखा रई?’’
‘‘बुराई तुमाए कैबे में नई दिखा रई, बो आदमई बुरौ कहानो!’’ भैयाजी चिड़कत भए बोले।
‘‘अब बे काए के लाने बुरै बन गए? काल तक तो आप ई ऊकी तारीफें करत फिरत्ते।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, मोए का पता रओ को जमुना सोई ऐसो निकरहे।’’ भैयाजी गुस्सा दिखात भए बोले।
‘‘मनो ऐसो का कर दओ उन्ने?’’ मैंने पूछी।
‘‘हमने कही न, के ऊके लाने इज्जत से ने बोलो! बो ई के काबिल नइयां! औ फेर ऊ तो ऊंसई तुमसे लोहरो ठैरो, सो तुम तो ऊको आप-वाप ने कहो करो।’’ भैयाजी मोय समझान लगे।
‘‘हऔ, हमें पतो आए के कौन से कैसे बात करी जात आए। आप सो अपनी कहो के ऊने आपके कौन से खेत काट लए?’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘बो का हमाओ खेत काटहे? अगली बेरा आन देओ चुनाव, चार से ज्यादा वोटें ने मिल पाहें ऊको!’’ भैयाजी तिन्नात भए बोले।
‘‘चार? चार कौन-कौन की? एक आपकी, एक भौजी की....!’’
‘‘हम काए खों देबी?’’ मोरी बात काटत भए भैयाजी बोल परे।
‘‘सो, औ को देहे?’’ मैंने पूछी।
‘‘एक मताई की, एक बापराम की, एक लुगाई की औ एक ऊकी खुद की! ई चार से पांचवीं वोट ऊको मिल जाए सो हमाओ नांव बदल दइयो!’’ भैयाजी उखड़त भए बोले।
‘‘ऐसो का कर दओ ऊने? चलो अब आपई बता देओ!’’ अब मोए से रओ नई जा रओ हतो।
‘‘भओ का, के कुल्ल दिनां से हमाओ एक काम अटको डरो आए नगरपालिका में। सो हम सोचई रै हते के कोई दिनां जमुना मिल जेहे सो ऊसे कै देबी के हमाओ जल्दी काम करा देओ। अभईं आज संकारे जमुना हमें दिखा गओ। हमने ऊसे कहीं के हमाओ काम नगरपालिका में अटको परो आए, सो तुम तनक जल्दी करा देओ।’’ 
‘‘सो का कही ऊने? करा देहे जल्दी?’’ मैंने बीचई में पूछ लई।
‘‘अरे काय खों, ऊ ससुरो कहन लगो के अभई नौरातें चल रईं सो हम कछु ऐसो-वैसो काम नईं करा सकत आएं। काए से हम नौरातें में गल्त काम नईं करत।’’ भैयाजी बतान लगे।
‘‘ऐं? ऊने ऐसी कही? पर आपको तो गल्त काम नइयां, मोए पतो आए।’’ मोरे मों से निकर परो।
‘‘औ का! हमाओ काम ठक्का-ठाई आए! एकदम सांचो!’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो ऊने ऐसी काए कई?’’ मोए अचरज भओ।
‘‘हमने सोई ऊसे पूछी, के भैया जमुना तुमाओ मुंडा सो ठिकाने पे आए के नईं? हम कोनऊ गल्त काम कराबे खों नईं कै रए, जो तुम हमाए लाने भाव दिखा रए। सो बो कैन लगो के अरे नईं भैयाजी आपको काम सो सांचो आए मनो जो आपको काम कराबी सो दस जने औ आ जेहें अपनों काम ले के। अब सबको काम सांचो सो रैहे ने, औ ई नौरातें चलत में हम गल्त काम ने करत आएं औ ने करात आएं।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘जे का बात भई? मने नौरातें के आगूं-पांछू बो गल्त करत रैत आए?’’ मोए बड़ो अचरज भओ जे सुन के।
‘‘औ का! तभईं सो हमाओे मुंडा खराब हो गओ। हमई ने सो ऊको जिताबे के लाने तरे-ऊपरे एक करो रओ और जे देखो! ऊ समै कैत रओ के अब कछु ने गल्त करबी औ ने गल्त होने देबी, औ अब देखो! हमें सो अभई की ऊकी बात सुन के जी में आओ रओ के ससुरे को एक लपाड़ा दे दें, बाकी हम गम्म खा के रै गए के मोहल्ला वारे का कैहें? हमाओ बकरा, हमई खों सींग दिखा रओ।’’ भैयाजी खदबदात भए बोले।
भैयाजी की कहनात सुन के मोए हंसी फूट परी -‘‘हमाओ बकरा, हमई खों सींग दिखा रओ।’’ 
‘‘भैयाजी, मनो अब सो ऊने सो आपई खों बकरा बना दओ।’’ मोसे हंसी रोकत ने बनीं। मोरी हंसी सुन के भैयाजी सोई हंसन लगे। मनो ईसे उनको मूड ठीक हो गओ।
‘‘भैयाजी आप तो जे सोचो के बो कम से कम नौरातें को तो लिहाज कर रओ, ने तों आजकाल नेता हरें एकऊं रातन को लिहाज नईं करत आएं। उनको सो चैबीसों घंटा औ सातो दिनां गल्त-सल्त करबे में जी लगो रैत आए।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘हऔ, सो कोनऊं किरपा कर रओ का? ऊको सो पूरे बारहों मईना ईमानदारी से काम करो चाइए। चुनाव से पैलऊं खुदई कैत रओ के मोए सो कभऊं गल्त नहीं करने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जेई सो नेता औ जनता में फरक आए भैयाजी! उने बेवकूफ बनात बनत आए औ जनता खों सिरफ बेवकूफ बनबो आत आए।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘ठीक कही बिन्ना तुमने, मनो जे बताओ के ऐसे में देवी मैया ऊपे कैसे के किरपा करहें? ऐसो धरम-करम कोनऊं काम खों नईंया।’’ भैयाजी ने कही।
‘‘देवी मैया की सो पतो नइयां भैयाजी, पर जे सो पक्को कहानो के अगली चुनाव में आप ऊपे किरपा ने करहो!’’ मैंने हंसत भए कही।
‘‘रामधईं! कभऊं ने करबी। ससुरो लबरा कहीं को।’’ भैयाजी सोई हंसन लगे। फेर कहन लगे,‘‘अब चलन देओ मोए, एकाध चक्कर खुदई लगाने पड़हे नगरपालिका को।’’
‘‘अभई उते ने जाओ भैयाजी! अभईं बे ओरें देवी पूजा में बिजी हुइएं।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘काए? जे आॅफिस के टेम पे काए बिजी हुइएं?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘आप सो ऐसे पूछ रए मनो आप कोनऊं औरई ग्रह से आए हो! जे कओ के आप खों पैले काम नई परो सो आप खों पतो नइयां मनो...!’’
‘‘हऔ-हऔ, आ गई समझ में!’’ भैयाजी मुस्कात भए बोले औ चलबे खों ठाड़े हो गए। 
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। अब चाए अगली चुनाव में जमुना भैया रैं जाए गंगा भैया, मोए का करने? अगली चुनाव में सो ऊंसई मुतको समै ठैरो, तब लों सो इन्हईं खों झेलने परहे। सो आप ओरें सोई सहूरी राखो! अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। बाकी सोचियो जरूर के का कोनउं के चार दिनां गलत ने करबे से सारे पाप धुल सकत आएं?    
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Wednesday, September 24, 2025

चर्चा प्लस | जरा सोचिए नवरात्रि के इन नौ दिनों में | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

दैनिक, सागर दिनकर में 24.09.2025 को प्रकाशित
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चर्चा प्लस 

जरा सोचिए नवरात्रि के इन नौ दिनों में

 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
   नवरात्रि आरम्भ अर्थात् देवी मां के नौ रूपों के नौ दिन। इन नौ दिनों में धर्मपरायण स्त्रियां अपनी भक्ति भावना के चर्मोत्कर्ष पर जा पहुंचती हैं। व्रत, उपवास और मनौतियों की पूर्ति में कोई कसर नहीं रहती है। देवी मां सभी हिन्दू स्त्रियों के लिए मानसिक संबल हैं। पूज्या हैं। किन्तु क्या इन नौ दिनों कोई भी स्त्री देवी मां के सम्मुख जाने से पहले या सामने पहुंच कर आत्ममंथन करती है कि उसने अपने स्त्री समुदाय के लिए क्या अच्छा कार्य  किया? यह प्रश्न मात्र स्त्रियों के लिए ही नहीं उन पुरुषों के लिए भी है जो सम्पूर्ण निष्ठा के साथ देवी मां की आराधना करते हैं। इसका उत्तर ढूंढे बिना क्या देवी मां से अपनी प्रार्थना स्वीकार किए जाने की उम्मीद हमें रखना चाहिए? जरा सोचिए!

नवशक्तिभिः संयुक्तं, नवरात्रं तदुच्यते ।
एकैवदेव देवेशि, नवधा परितिष्ठिता । ।
नवरात्र का पहला दिन घटस्थापना से आरम्भ होता है और इस प्रथम दिवस में मां दुर्गा के प्रथम रूप शैलपुत्री का पूजन किया जाता है। शैल अर्थात पर्वत। पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण देवी को शैलपुत्री कहा गया।
वन्दे वांछितलाभाय, चंद्रार्धकृतशेखरां।
वृषारूढां शूलधरां, शैलपुत्रीं यशस्विनीं।।
- अर्थात अपने मस्तक पर अर्धचंद्र धारण करने वाली, वृष पर सवार रहने वाली, शूलधारिणी और यशस्विनी मां शैलपुत्री के प्रति मेरी वंदना है जो मुझे मनोवांछित लाभ प्रदान करे। क्या मनोवंाछित लाभ एक क्रूर ससुराली बन कर दहेज प्राप्त करना है? क्या मनोवांछित लाभ गलत तरीके से धन कमाने के लिए अपने परिजन को उकसाना करना है? क्या किसी योग्य व्यक्ति का अवसर छीन कर अयोग्य व्यक्ति को दे कर स्वार्थ पूरा करना मनोवांछित लाभ है? क्या ऐसे व्यक्तियों को देवी मां मनोवांछित लाभ दे सकती हैं?
नवरात्रि के दूसरे दिन मां दुर्गा के देवी ब्रह्मचारिणी रूप की पूजा की जाती है। पुराणों के अनुसार शैलपुत्री ने महर्षि नारद के कहने पर जगकल्याण के लिए महादेव को पति के रूप में पाने हेतु कठोर तपस्या की थी। कठिन तपस्या के कारण ही इनका नाम तपश्चारिणी या ब्रह्मचारिणी पड़ा।
दधाना करपद्माभ्यां अक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि, ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
-अर्थात जिनके एक हाथ में अक्षमाला है और दूसरे हाथ में कमण्डल है, ऐसी उत्तम ब्रह्मचारिणी रूपा देवी मां मुझ पर कृपा करें। विचार करने की बात यह है कि कठोर तपस्या करने वाली ब्रह्मचारिणी उन पर कृपा कैसे करेंगी जिन्होंने समाज सुधार या बालिका सुरक्षा की सिर्फ बातें ही की हों और कभी कोई ठोस कदम नहीं उठाया हो। क्या समाज उस स्त्री या बालिका को सम्मान दे पाता है जो बलात्कार की शिकार हुई हो या जो किसी धोखेबाज के कारण अविवाहिता गर्भवती हो गई हो? क्या कोई स्त्री ऐसी पीड़िता का साथ देती है? या कोई पुरुष साहस के साथ तमाम विरोधों का सामना करते हुए बिना अहसान जताए सामान्य भाव से ऐसी स्त्री को जीवन संगिनी बनाता हैै? अविवाहित मां को अपने नवजात का त्याग करने को विवश करने वाली सामाजिक व्यवस्था में रमें हुए स्त्री-पुरुषों पर मां ब्रह्मचारिणी कैसे कृपा कर सकती हैं?  
नवरात्रि के तीसरे दिन दुर्गाजी के तीसरे रूप चंद्रघंटा देवी की पूजा करने का विधान है। मस्तक पर घंटे के आकार का अर्द्ध चंद्र, अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित दस हाथ। स्त्री शक्ति की प्रतीक-
पिंडजप्रवरारूढा, चंडकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं, चंद्रघंटेति विश्रुता।।
- अर्थात सिंह पर सवार और चंडकादि अस्त्र-शस्त्र से युक्त मां चंद्रघंटा मुझ पर अपनी कृपा करें। प्रार्थना आसान है किन्तु माता कैसे कृपा करें उन भीरुओं पर जो निःसक्तजन पर अत्याचार होते देखते रहते हैं और कई बार स्वयं भी अत्याचारी के पक्ष में जा खड़े होते हैं। समझना कठिन है कि जातिगत, धर्मगत, आॅनर किलिंग, घरेलू हिंसा करने वालों पर माता कैसे प्रसन्न हो सकती हैं?
नवरात्रि के चैथे दिन दुर्गाजी के चतुर्थ रूप मां कूष्मांडा की पूजा और अर्चना की जाती है। माना जाता है कि सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व जब चारों ओर अंधकार था तो मां दुर्गा ने इस अंड यानी ब्रह्मांड की रचना की थी।  
सुरासंपूर्णकलशं, रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां, कूष्मांडा शुभदास्तु मे।।
-अर्थात अमृत से परिपूरित कलश को धारण करने वाली और कमलपुष्प से युक्त तेजोमय मां कूष्मांडा हमें सब कार्यों में शुभदायी सिद्ध हो। निश्चित रूप से मां कूष्माण्ड हम पर प्रसन्न होंगी यदि हम उनके बनाए ब्रह्मांड में मौजूद इस अपनी पृथ्वी के भविष्य को बचा लेंगे। हम अपने प्रयासों में तेजी ला कर, अपनी गलत आदतों को सुधार कर, जलवायु परिवर्तन की तेज गति को धीमा कर के, पृथ्वी सहित आने वाली पीढ़ियों को बचा लेंगे। यदि हम मां के सृजन की रक्षा नहीं करेंगे तो मां हम पर कैसे प्रसन्न होंगी?
      नवरात्र के पांचवे दिन दुर्गाजी के पांचवें रूप मां स्कंदमाता की पूजा की जाती है। स्कंद शिव और पार्वती के पुत्र कार्तिकेय का एक नाम है। स्कंद की माता होने के कारण ही देवी का नाम स्कंदमाता पड़ा। सिंह इनका वाहन है। क्योंकि यह सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी हैं इसलिये इनके चारों ओर सूर्य सदृश अलौकिक तेजोमय मंडल सा दिखाई देता है।
सिंहासनगता नित्यं, पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी, स्कंदमाता यशस्विनी।।
- अर्थात सिंह पर सवार, कमल पुष्प धारण करने वाली मां स्कंदमाता हमारा शुभ करें। लेकिन जब हम बालअपराध नहीं रोक पा रहे हैं। जलसंरक्षण के लिए ईमानदार प्रयास नहीं कर रहे हैं, वन्य पशुओं के प्रति क्रूरता बरत रहे हैं, जंगल काट रहे हैं, तो स्कंदमाता कैसे हमें शुभफल दे सकती हैं?
नवरात्र के छठे दिन दुर्गाजी के छठे रूप मां कात्यायनी की पूजा की जाती है। चूंकि देवी ने महर्षि कात्यायन की पुत्री रूप में जन्म लिया था इसीलिये इनका नाम कात्यायनी पड़ा। 
चंद्रहासोज्ज्वलकरा, शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्यात, देवी दानवघातनी।।
- अर्थात् सिंह पर सवार देवी कात्यायनी असुर संहारिनी तथा कल्याण करने वाली हैं। स्कन्द पुराण के अनुसार मां कात्यायनी का रूप धारण कर के देवी ने महिषासुर का वध किया था। ऐसी असुर संहारक माता उन व्यक्तियों पर कैसे कृपा कर सकती हैं जो हिंसा, बलात्कार, चोरी, ठगी, रिश्वतखोरी, परपीड़ा, अत्याचार, घरेलू हिंसा आदि आसुरी कर्म में संलग्न रहते हैं?  
नवरात्र के सातवें दिन दुर्गाजी के सातवें रूप मां कालरात्रि की पूजा और अर्चना का विधान है। इन्हें तमाम आसुरी शक्तियों का विनाश करने वाला बताया गया है। इनके तीन नेत्र हैं और चार हाथ हैं जिनमें एक में खड्ग अर्थात् तलवार है तो दूसरे में लौह अस्त्र है, तीसरे हाथ में अभयमुद्रा है और चैथे हाथ में वरमुद्रा है। इनका वाहन गर्दभ अर्थात् गधा है।
एकवेणी जपाकर्ण, पूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी, तैलाभ्यक्तशरीरिणी।
वामपादोल्लसल्लोह, लताकंटकभूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा, कालरात्रिभयंकरी।।
- अर्थात एक वेणी ( बालों की चोटी ) वाली, जपाकुसुम ( अड़हुल ) के फूल की तरह लाल कर्ण वाली, उपासक की कामनाओं को पूर्ण करने वाली, गर्दभ पर सवारी करने वाली, अपने बांये पैर में चमकने वाली लौह लता धारण करने वाली, कांटों की तरह आभूषण पहनने वाली, बड़े ध्वज वाली और भयंकर लगने वाली कालरात्रि मां हमारी रक्षा करें। तो क्या मां कालरात्रि उन लोगों की रक्षा करेंगी जो दूसरों का जीवन अंधकारमय बनाते हैं, जो दूसरों के रास्ते में कांटे बिछाते हैं, जो जीवित व्यक्तियों को मृत घोषित कर के उनके हिस्से का सरकारी पैसा खा जाते हैं, जो नकली दवाएं और मिलावटी खाद्य बेच कर दूसरों के जीवन को खतरे में डालते हैं?
नवरात्र के आठवें दिन मां दुर्गा के आठवें रूप देवी महागौरी की पूजा की जाती है।
श्वेते वृषे समारूढा, श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यात महादेवप्रमोददाद।।
- अर्थात सफेद वस्त्राभूषण पहनने वाली, वृषभ अर्थात् बैल पर सवारी करने वाली, त्रिशूल और डमरू धारण करने वाली, अभय और वर प्रदान करने वाली मां महागौरी शुभ करें। अशुभ कार्यों को करने वालों, अशुभ कार्यों का विरोध नहीं करने वालों तथा अशुभ कार्यों को बढ़ावा देने वालों का मां कैसे शुभ करें? जो गौवंश को सड़को पर लावारिस छोड़ दें उनका शुभ कैसे करें, यह मां के लिए भी असमंजस की बात है।
 नवरात्र के नौवें दिन मां दुर्गा के नौवें रूप मां सिद्धदात्री की पूजा की जाती है। सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली देवी मां सिद्धिदात्री।
सिद्धगंधर्वयक्षाद्यैः, असुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात, सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।
- अर्थात सिद्ध, गंधर्व, यक्ष, असुर और अमरता प्राप्त देवों के द्वारा भी पूजित किए जाने वाली और सिद्धियों को प्रदान करने की शक्ति से युक्त मां सिद्धदात्री हमें भी आठों सिद्धियां प्रदान करें। किन्तु मां उन लोगों पर कृपा क्यों करें जो स्वार्थवश दूसरों की महिमा और गरिमा को चोट पहुंचाते हैं, जो दूसरों की पीड़ा का मजाक उड़ाते हैं, जो किसी घायल या मरते हुए व्यक्ति की सहायता करने के बजाए उनका वीडियो बनाने में मशगूल रहते हैं, जो अपने माता-पिता को वृद्धाश्रमों में छोड़ आते हैं, जो अपने बच्चों को अपराध करने से नहीं रोक पाते हैं और जो स्वयं अपनी बुरी आदतों पर संयम नहीं रख पाते हैं? मां उन्हें सिद्धियां क्यों दें?
इस चर्चा का आशय यही है कि यदि हम मां के सभी रूपों सहित देवी मां को पूर्णता के साथ प्रसन्न करना चाहते हैं, उनकी कृपा पाना चाहते हैं तो यह हमें समझना होगा कि वर्ष के 365 दिन में 356 दिन मनुष्यत्व को भूल कर मात्र नौ दिन अपना पूर्ण समर्पण दिखा कर देवी मां को भ्रमित नहीं किया जा सकता है। जब हम उन्हें सर्वज्ञानी मानते हैं तो यह याद रखना जरूरी है कि उन्हें हमारे शेष 356 दिनों के कृत्यों का भी पता रहता है। अतः हम मां के नौ रूपों के सच्चे अर्थों को समझें और उनके प्रति अपने कत्र्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करें। यदि हम स्त्रियों, बच्चों, वृद्धों, निर्बलों पर होने वाले अत्याचारों को रोक सकें, यदि हम पर्यावरण और जलवायु की क्षति को रोक सकें, जल-थल-वायु के प्रत्येक जीव की रक्षा कर सकें, यदि जाति-धर्म-लिंग-रंग आदि के भेदभाव को समाप्त कर सकें और आपसी वैमनस्य को समाप्त कर सकें तो देवी मां हम पर सदा प्रसन्न रहेंगी, यह मुझे विश्वास है।
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।  
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Tuesday, September 23, 2025

पुस्तक समीक्षा | गोल्डन केज : स्त्री जीवन और मन की परतों को खोलता एक रोचक उपन्यास | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | गोल्डन केज : स्त्री जीवन और मन की परतों को खोलता एक रोचक उपन्यास  | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | गोल्डन केज : स्त्री जीवन और मन की परतों को खोलता एक रोचक उपन्यास 
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - गोल्डन केज
लेखिका -  डॉ. श्वेता भटनागर
प्रकाशक - स्टोरीमिरर इन्फोटेक प्राइवेट लिमिटेड, यूनिट संख्या-एफ/705, सातवीं मंजिल, कैलाश कॉर्पोरेट लाउंज, वीर सावरकर रोड, विखेओली पार्क साइट, विक्रोली वेस्ट,
मुंबई-400079
मूल्य - 499 /-
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‘‘गोल्डेन केज: ए वूमेन्स जर्नी थ्रू एक्सपेक्टेशन्स एंड इंपावरमेंट’’ यदि इसका हिंदी अनुवाद किया जाए तो अर्थ होगा, ‘‘सोने का पिंजरा: अपेक्षाओं और सशक्तिकरण के बीच एक स्त्री का सफर’’। डाॅ. श्वेता भटनागर का उपन्यास है ‘‘गोडन केज’’। डॉ. श्वेता भटनागर मैक्सिलोफेशियल सर्जन और सागर, मध्यप्रदेश स्थित मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर हैं। कथा साहित्य में उनका रुझान है। वे दो बेटियों की माँ हैं अतः स्वाभाविक रूप से वे एक ऐसे संसार की कल्पना अपने कथानक में करती हैं जहां स्त्री को अपनी इच्छानुरूप जीवन जीने का अवसर मिले। ‘‘गोल्डेन केज: ए वूमेन्स जर्नी थ्रू एक्सपेक्टेशन्स एंड इंपावरमेंट’’ उनका पहला उपन्यास है। अंग्रेजी में है। यह उपन्यास एक पड़ताल है स्त्री की महत्वाकांक्षा और परिस्थितियों के पारस्परिक टकराव की। यह उपन्यास बात करता है स्त्री के स्त्री होने के साथ ही एक मानव होने की। यह उपन्यास प्रश्न करता है स्त्री की अभिलाषाओं के बारे में।

यह प्रश्न हमेशा बहस का विषय रहा है कि एक स्त्री क्या चाहती है? वह किस प्रकार का जीवन जीना चाहती है? स्त्रीवादी स्वर कहता है कि स्त्री दैहिक स्वतंत्रता चाहती है। गैरस्त्रीवादी सामाजिक स्वर कहता है कि स्त्री के लिए आर्थिक स्वतंत्रता आवश्यक है। किन्तु जब किसी आम स्त्री से पूछा जाता है तो वह भ्रमित स्वर में उत्तर देती है कि ‘‘मुझे पता नहीं, मुझे क्या चाहिए?’’ स्त्री जीवन की समाज द्वारा जो यात्रा सुनिश्चित की गई उसमें विवाह, संतानोत्पत्ति एवं गृहणी धर्म का पालन जैसे पड़ाव एवं कर्तव्य निर्धारित किए गए। किन्तु समय के साथ स्त्री ने अपने घर की खिड़की से बाहर झांका। पहले डरते-डरते और दृढ़ता से। उसे घर की खिड़की से बाहर की दुनिया अधिक स्वतंत्र और ताज़ा दिखाई दी। कुछ ने सहमति पा कर, कुछ ने विद्रोह कर और कुछ ने मात्र कौतूहलवश बाहर की दुनिया को देखने के लिए धर से बाहर कदम रखा। रास्ता चुना धनोपार्जन का। आर्थिक स्वतंत्रता का। इससे एक कामकाजी स्त्री ने अवतार लिया। आर्थिक लाभ भला किसे पसंद नहीं? उसके इस कदम का स्वागत किया गया, भले ही अहसान जताने के भाव से। घर में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी। वह प्रसन्न हुई। लेकिन उसकी यह स्वतंत्रता पुरुषों की भांति नहीं थी। उसे संतान को जन्म देना था, बच्चों को पालना था, घर भी सम्हालना था, भोजन पकाना था, समस्त रिश्तों का यथावत निर्वाह करना था। अर्थात उसे कामकाजी होने पर पारिवारिक दायित्वों से कोई छूट नहीं थी। शिकायत करने की गुंजाइश नहीं थी क्योंकि ‘‘यह तुम्हारा निर्णय था’’ अथवा ‘‘तो छोड़ दो नौकरी’’ का ताना उसके लिए तय था। इस तरह कामकाजी स्त्री दो फड़ में बंट गई। वह सुपर वूमेन बनने के प्रयास में ह्यूमन भी नहीं रह गई। एक रोबोट जिसे में भावनाएं एवं इच्छाएं नहीं होनी चाहिए। यही तो है स्त्री का ‘सुनहरा पिंजरा’ जो है तो सोने का किन्तु पिंजरा ही है।     
 
 उपन्यास की नायिका साहित्या नामक एक महत्वाकांक्षी स्त्री है जो अपने महत्वाकांक्षी सपनों और पारिवारिक अपेक्षाओं के बीच संतुलन बिठाती है। साहित्या में शैक्षणिक प्रतिभा है। वह अपने करियर में सफल है लेकिन विवाह के बाद स्थितियां जटिल होने लगती हैं। एक स्थिति ऐसी भी आती है जब कार्यस्थल में भी उसे निराशा का सामना करना पड़ता है और व्यक्तिगत विश्वासघात उसे तोड़ने का पूरा प्रयास करता है। किन्तु साहित्या जीवट है। वह हार नहीं मानना चाहती है। वह संघर्ष करती है। जब उसे लगता है कि उसका अस्तित्व बिखर रहा है, उसकी पहचान खो रही है, ठीक उसी समय वह स्वयं को सम्हालती है और एक बार फिर उठ खड़ी होने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देती है। अपने प्रयासों से नया व्यवसाय खड़ा करना कठिन था फिर भी वह अपनी शर्तों पर अपना व्यवसाय फिर से बनाती है। अपने रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित करती है। यह साहित्या का एक ऐसा प्रयास था जो उसे उसके सुनहरे पिंजरे से आजादी दिला सकता था।

मशहूर उर्दू उपन्यासकार कुर्रतुलैन हैदर नारीवादी लेखिका नहीं थीं लेकिन वे स्त्री स्वतंत्रता की प्रबल समर्थक थीं। एक बार एक साक्षात्कार में उनसे पूछा गया कि ‘‘आपके हर उपन्यास की नायिका पुरुषों के समान सशक्त और सक्षम होती है, फिर भी आप मानती हैं कि आप नारीवादी नहीं है, ऐसा क्यों?’’ इस प्रश्न का बड़ा सटीक उत्तर दिया था कुर्रतुलैन हैदर ने,‘‘स्त्री का जीवन कोई वाद नहीं है और न ही उसकी स्वतंत्रता की आकांक्षा को नींव बना कर उस पर किसी वाद का महल खड़ा किया जा सकता है। हां, मैं स्त्री स्वतंत्रता की प्रबल पक्षधर हूं किन्तु यह नारा बन कर हवाओं में सिर्फ उछलता रहे यह भी मुझे स्वीकार नहीं है।’’ यही बात ध्वनित होती है डाॅ. श्वेता भटनागर की कहानी में। उनके उपन्यास की नायिका स्वतंत्रता चाहती है किन्तु अपनी उन शर्तों पर जहां उसका स्त्री होना उसे खुद भी बोझ प्रतीत न हो।

        यह भी एक विचित्र स्थिति है कि शैशवावस्था छोड़ते ही परिवार और समाज तय करने लगता है कि लड़की को लड़की बनना है और लड़के लड़का। यद्यपि यह बात तो बायोलाॅजिकली प्रकृति ही तय कर चुकी होती है। फिर भी लड़की को गुड्डे-गुड़िया और लड़के को गाड़ी, हथियार आदि खिलौनों के रूप में सौंपा जाता है। यह दोनों की सामाजिक एवं पारिवारिक स्किल तय करने का परंपरागत सामाजिक तरीका है। इससे आगे क्या होता है इस पर डाॅ. श्वेता भटनागर ने उपन्यास की प्रस्तावना में सटीक शब्दों में लिखा है कि ‘‘हर छोटी बच्ची एक दिन कामयाब होने और अपनी काबिलियत के लिए जानी जाने का सपना देखती है। किसी भी छोटी बच्ची से पूछिए कि वह बड़ी होकर क्या बनना चाहती है, तो आपको मासूम मगर महत्वाकांक्षी जवाब मिलेंगे- शिक्षक, डॉक्टर, वैज्ञानिक, वगैरह। लेकिन अपनी जिंदगी में मैंने कभी किसी छोटी बच्ची को यह कहते नहीं सुना कि वह गृहिणी बनना चाहती है। वही छोटी बच्ची बड़ी होकर अपने सपनों के लिए अथक परिश्रम करती है, उसे अपने उज्ज्वल भविष्य की संभावना पर विश्वास होता है। कुछ लोग उच्च शिक्षा और अपने सपनों को प्राप्त करने में भाग्यशाली होते हैं, जबकि कुछ को बचपन से ही इस बुनियादी जरूरत के लिए संघर्ष करना पड़ता है। एक दिन, वह कॉलेज में होती है - हँसती-खिलखिलाती, और आजादी की दुनिया में जी रही होती है। जैसे ही उसकी शिक्षा पूरी होती है, अक्सर शादी अगला पड़ाव बन जाती है, और वह एक ऐसे घर में प्रवेश करती है जहाँ उसके छोटे से छोटे फैसले भी सूक्ष्म स्वीकृति की माँग करते हैं। उसके सपने और इच्छाएँ, जो कभी बहुत ज्वलंत थीं, चुपचाप गौण हो जाती हैं। उसकी महत्वाकांक्षाएँ एक अदृश्य कारागार में बंद हो जाती हैंः परिवार, समाज की अपेक्षाओं और परंपराओं के अदृश्य भार से निर्मित एक सुनहरा पिंजरा। सुनहरा पिंजरा सिर्फ एक कहानी नहीं है, यह उन अनगिनत महिलाओं के जीवन का दर्पण है जो आजादी की चाहत में चुपचाप इन बोझों को सहती हैं।’’

उपन्यास के आरंभ में तीन टिप्पणियां भी हैं जिनका उल्लेख करना समीचीन होगा। पहली टिप्पणी है केशव भटनागर की। वे कहते हैं कि ‘‘हमेशा खुद पर विश्वास रखें। अगर आपके दो काम करने वाले हाथ, दो काम करने वाले पैर और एक काम करने वाला दिमाग है, तो आप दुनिया के सबसे भाग्यशाली लोगों में से एक हैं। इनका अच्छा इस्तेमाल करें। अपना रास्ता खुद बनाएँ।’’ उनके बाद प्रवीण खरे का कथन है कि ‘‘आप दुनिया में सफल होना चाहते हैं, तो अपने दुश्मनों को न्यूनतम रखें।’’ और तीसरी टिप्पणी है श्वेता भटनागर खरे की कि ‘‘ईश्वर ने तुम्हें एक ही जीवन दिया है, अपने आप पर एक उपकार करो, इसे अपनी इच्छानुसार जियो।’’

उपन्यास की नायिका इन्हीं टिप्पणियों के अनुसार अपने जीवन को नया आकार देने के लिए कृतसंकल्प दिखाई देती है। उपन्यास के कुछ प्रसंग सहसा ध्यान खींचते हैं। जैसे -‘‘आखिरकार, चेयरमैन ने मेज पर जोर से हाथ पटक दिया। ‘‘बस, बस,‘‘ उनकी आवाज में आदेशात्मक भाव था। ‘‘आर्थिक नुकसान से इनकार नहीं किया जा सकता। हम इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते। क़ानूनी कार्रवाई जरूर होनी चाहिए।’’ साहित्या का दिल धड़क उठा। वे उसे लड़ने का मौका दिए बिना ही उसकी किस्मत पर मुहर लगा रहे थे। फिर, पहली बार, पराग बोले। ‘‘इस समय कोई भी कानूनी कार्रवाई लंबी जाँच की माँग करेगी। इससे न सिर्फ कंपनी की छवि धूमिल होगी, बल्कि लंबित परियोजनाओं में भी देरी होगी, और फिर जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई नामुमकिन होगी।’’ उन्होंने सहजता से कहा। ‘‘सबसे अच्छा यही होगा कि उनकी सेवाएँ तुरंत समाप्त कर दी जाएँ और एक सार्वजनिक बयान जारी किया जाए।’’ साहित्या ने बीच में कहा, ‘‘मैं किसी भी जांच से गुजरने को तैयार हूं, मैं आपको सार्वजनिक रूप से मेरी छवि खराब नहीं करने दूंगी, अन्यथा मैं कानूनी कार्रवाई करूंगी और इस कंपनी को मानहानि के तहत जिम्मेदार ठहराऊंगी।’’
पराग बोला, ‘‘साहित्य, तुम ठीक से सोच नहीं रहे हो, सारे सबूत तुम्हारे खिलाफ हैं और अगर तुम दोषी पाए गए तो सिर्फ तुम ही नहीं, तुम्हारे मातहत काम करने वाले सभी निर्दोष लोगों पर गबन, चोरी और धोखाधड़ी समेत वित्तीय भ्रष्टाचार के आरोप लगेंगे।’’ उसी समय, साहित्या के मोबाइल पर एक मैसेज आया, जिसमें लिखा था, ‘‘चली जाओ, वरना।’’
कमरे में सन्नाटा छा गया। आखिरी वार हो चुका था।
साहित्या जड़वत खड़ी रही, उसका मन दौड़ रहा था। सब खत्म हो गया था।’’
इसी तरह उपन्यास में एक और प्रसंग है जो हार को जीत की ओर ले जाने का प्रस्थान बिन्दु बन कर उभरता है। दृश्य कुछ इस प्रकार है कि ‘‘बिना ठोस सबूत के, कंपनी उस पर मुकदमा कर सकती थी, जिससे वह कानूनी पचड़े में पड़ सकती थी और उसके नए उद्यम में देरी हो सकती थी। वह अतीत को अपने भविष्य को बर्बाद करने नहीं दे सकती थी। उसने खुद को याद दिलाया कि हर चीज का एक समय होता है। फिलहाल, उसे अपना स्टार्टअप बनाने पर ध्यान केंद्रित करना था। बदला तो इंतजार कर सकता था, लेकिन उसके सपने नहीं। वह खिड़की के पास बैठी, विचारों में खोई हुई, सामने के बगीचे को घूर रही थी। निराशा का बोझ उस पर भारी पड़ रहा था। तभी, दो नन्हे हाथों ने उसकी कमर को थाम लिया। आर्या की उत्साह भरी आवाज गूँजी, ‘‘मेरी मम्मा सबसे अच्छी हैं! मेरी मम्मा सबसे अच्छी हैं!’’ साहित्या की आँखों में आँसू आ गए। शायद उसे बस यही चाहिए था। कोई ऐसा जो उस पर विश्वास करे। उसने ऊपर देखा तो उसके पिता बगीचे के दूर छोर पर घास काट रहे थे। उन्होंने आर्या की नजरें पकड़ लीं और हाथ हिलाया। आर्या ने भी उत्साह से हाथ हिलाया। उसके मन में उसके शब्द गूंजने लगे, ‘‘यदि एक रास्ता अवरुद्ध हो, तो दूसरा रास्ता अपना लो, किसी छोटी सी बाधा के कारण चलना मत छोड़ो।’’

‘‘गोल्डन केज’ यद्यपि अंग्रेजी में लिखा गया है किन्तु इसकी भाषा सरल है। इसे आसानी से पढ़ा और समझा जा सकता है। फिर भी यह एक अच्छी और सारगर्भित कृति है अतः इसे अनुवाद हो कर उस तबके पाठकों तक भी पहुंचना चाहिए जिनसे इसके कथानक का अधिक सरोकार है अर्थात हिन्दी जानने वाले मध्यमवर्गीय पाठकों का। डाॅ. श्वेता भटनागर की लेखनी में अपार संभावनाएं हैं और वे स्त्री जीवन के प्रति एक सशक्त लेखन क्षमता रखती हैं। यह उपन्यास निश्चित रूप से पठनीय है।
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(23.09.2025 )
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Monday, September 22, 2025

डॉ. (सुश्री) शरद सिंह द्वारा नाटक रश्मिरथी की नाट्य समीक्षा

🎭 मेरी नाट्य समीक्षा प्रकाशित करने के लिए हार्दिक आभार दैनिक भास्कर 🙏🏻
🎭 कल आरंभ हुए तीन दिवसीय नाट्य समारोह में प्रथम दिवस रश्मिरथी नाटक का मंचन किया गया। इस एकल नाटक को मुंबई की नाट्य संस्था सुरभि बेगूसराय ने प्रस्तुत किया जिसके परिकल्पनाकार, निर्देशक एवं अभिनेता थे हरीश हरिऔध।
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नाट्य समीक्षा
 “रश्मिरथी” : जन्म से नहीं, कर्म से व्यक्ति का महत्व होता है। 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
नाट्य कला समीक्षक
          
     संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से सागर की रंगप्रयोग नाट्य संस्था द्वारा तीन दिवसीय राष्ट्रीय नाट्य समारोह का शुभारंभ स्थानीय रविंद्र भवन में “रश्मिरथी” नाटक से हुआ।  राष्ट्रीय कवि रामधारीसिंह दिनकर के खंडकाव्य “रश्मिरथी” पर आधारित  इस एकल नाटक को मुंबई की नाट्य संस्था सुरभि बेगूसराय ने प्रस्तुत किया जिसके परिकल्पनाकार, निर्देशक एवं अभिनेता थे हरीश हरिऔध।
      ‘रश्मिरथी' रामधारी सिंह दिनकर की वह कालजयी रचना है जो हमेशा समय और समाज को चुनौती देती आई है। ‘रश्मिरथी' का अर्थ है सूर्य की किरणों के रथ का सवार। यह रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा रचित एक प्रसिद्ध खंडकाव्य है, जो महाभारत के एक प्रमुख पात्र कर्ण के जीवन के उतार-चढ़ाव को वर्णित करता है। इस खंडकाव्य में कर्ण के जीवन, वीरता, निष्ठा, अपमान, प्रतिकार के साथ ही उस सामाजिक भेदभाव का चित्रण किया गया है, जिसे अनेक मनुष्य ने पीढ़ियों तक झेला है। ‘रश्मिरथी' नाटक में भी कर्ण के बहाने मूल संदेश यही है कि जन्म से नहीं, कर्म से व्यक्ति का महत्व होता है।     
    ‘रश्मिरथी' नाटक के निर्देशक हरीश हरिऔध को मंच और फिल्मों में अभिनय का भी अनुभव है। एकल अभिनय यूं भी चुनौती भरा होता है। ‘रश्मिरथी' में उनका एकल अभिनय है। एकल अभिनय नाटक अपने आप में चुनौती भरे होते हैं। दर्शकों को बांधे रखना और पूरी कहानी को एक ही अभिनेता द्वारा संचालित करना, मानसिक रूप से थका देने वाली प्रक्रिया के लिए भावनात्मक और मानसिक दृढ़ता की आवश्यकता, कोई सह-अभिनेता न होने के कारण निरंतर प्रदर्शन दबाव, और दर्शकों की प्रतिक्रिया या समर्थन के अभाव में भी अपनी कला का विश्वसनीय और प्रभावी प्रदर्शन करना। इससे भी बड़ी चुनौती होती है अगर संवाद कविता के रूप में हों। इस चुनौती को एक निर्देशक और अभिनेता के रूप में हरीश हरिऔध ने बखूबी स्वीकार किया एवं अपने बेहतरीन अभिनय और प्रभावी संवाद अदायगी से “रश्मिरथी” की एक-एक पंक्ति को जीवंत कर दिया। हरीश हरिऔध ने मूल पात्र कर्ण के  अभिनय के अतिरिक्त दुर्योधन, भीम, परशुराम आदि पात्रों का भी भावपूर्ण अभिनय किया जिसमें लगभग सभी रसों का समावेश था। इस  एक घंटा 40 मिनट की प्रस्तुति में ‘महाभारत’ के महापात्र कर्ण के जीवन, संघर्ष, और चेतनाओं का संजीव एवं सटीक चित्रण किया गया। हरीश हरिऔध ने एकल अभिनय की सीमाओं को पार कर कर्ण के अंतर्द्वंद, गर्व, पीड़ा और साहस को जिस सजीवता से मंच पर उतारा। पूरे नाटक के दौरान कई बार हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। उनके चेहरे के हाव-भाव, स्वर की उतार-चढ़ाव भरी अभिव्यक्ति, और संवाद अदायगी उनके एक मंजे हुए अभिनेता होने का प्रमाण दे रही थी। 
         "नहीं पूछता है कोई, तुम व्रती, वीर या दानी हो? सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?" जैसे संवाद काव्यात्मक होते हुए भी दर्शक के विचारों को झकझोरने वाले थे। 
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#डॉसुश्रीशरदसिंह #DrMissSharadSingh #नाटक #नाट्यसमारोह #रश्मिरथी #रामधारीसिंहदिनकर  #नाटकरश्मिरथी #हरीशहरिऔध #सुरभिबेगूसराय

लोकसंगीत ज्ञान परंपरा का बुनियादी संवाहक हैं। - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

"लोकसंगीत ज्ञान परंपरा का बुनियादी संवाहक हैं। लोक कलाओं का जन्म लोक से होता है। इसीलिए इन कलाओं में परंपराएं, जातीय स्मृतियां एवं लोकाचार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ज्ञान के रूप में हस्तांतरित होती रहती हैं। और, जब हम लोकपर्व मनाते हैं तो इसका अर्थ होता है कि हम लोक की ज्ञान परंपरा का उत्सव मनाते हैं, उसका पोषण करते हैं, उसका संरक्षण करते हैं। लोक पर्व 2025  वस्तुतः लोक परंपरा के संरक्षण का उद्घोष है।" बतौर मुख्य अतिथि मैंने लोक कलाओं और विशेष रूप से उसमें लोकसंगीत के महत्व को परिभाषित करते हुए अपने विचार व्यक्त किए।
    ❗️अवसर था लोक कला निकेतन सोशल वेलफेयर सोसायटी, सागर एवं सागर की अग्रणी संस्था श्यामलम द्वारा आयोजित पर्व 2025 का।
     ❗️अध्यक्षता की वरिष्ठ रंगकर्मी राजेन्द्र दुबे जी ने विशिष्ट अतिथि थे बुंदेली संग्रहालय के संस्थापक दामोदर अग्निहोत्री जी ।
      🚩वरिष्ठ एवं ख्यातिलब्ध लोक गायक शिवरतन यादव जी एवं उनके शिष्य कपिल चौरसिया जी ने लोकगीतों की अपनी सुंदर प्रस्तुति दी।
     🚩आयोजन की सफलता पर श्यामलम अध्यक्ष आदरणीय बड़े भाई उमाकांत मिश्रा जी, भाई अतुल श्रीवास्तव एवं प्रिय रचना तिवारी जी को हार्दिक बधाई 💐
20.09.2025
 #डॉसुश्रीशरदसिंह 
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#लोकपर्व #lokparv

Sunday, September 21, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | अब हमें उते चोखरबा मारबे की दवाई सोई ले जाने परहे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
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टाॅपिक एक्सपर्ट
अब हमें उते चोखरबा मारबे की दवाई सोई ले जाने परहे
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
परों हमें पता परी के हमाए एक चिन्हारी वारे भौतई बीमार आएं, सो हमने सोची के तनक उनके इते हो आओ जाए। उने देख लेबी औ संगे उन ओरन खों कोनऊं जरूरत हुइए तो मदद कर देबी। सो, हम उनके इते पौंचे। उते देखो के सब भैंराने से दिखाने। पूछबे पे पता परी के दद्दा खों बाटलें चढ़नी, सो उने अस्पताल में भर्ती करने परहे। संगे उतई कछू जांचे-मांचे सोई हुंइए। हमने पूछी के कोन के अस्पतालें ले जा रए? सो दद्दा को मोड़ा बोलो के हम ओरें तो कै रये के कोनऊं पिराईवेट अस्पताल ले चल रये, मनों दद्दा अड़ी बता रये के हमें तो सरकारी अस्पताल जानें, चाये जिला अस्पतालें ले चलो, चाये मेडिकल कालेज ले चलो, मनो जाबी सरकारी में ई।
     सो ठीक तो आए। जां दद्दा को मन करे उतई ले जाओ। हमने कई। जा सुन के दद्दा की बाई बोलीं, “हमने इनकी धुतिया, कुर्ता औ कुल्ला-मुखारी को समान रख लओ। बाकी बा चोखरबा मारबे की दवाई अबे मंगाहो के उतई कऊं मिल जैहे?” बाई की बात जो दद्दा ने सुनी तो बे बमक परे के तुम ओरें जो हमें मारबो चात हो इतई काए नईं मार देत? बा उते जिला अस्पतालें ले जाबे का जरूरत? मोए सोई अचरज भओ के बाई चोखरबा मारबे की दवाई की काए कै रईं? इत्ते में बाई दद्दा से बोलीं के तुमें मारबे खों नोंई चोखरबा खों मारबे खों चाऊने। काए से हमने सुनी है के उते सरकारी अस्पतालन में चोखरवों ने बच्चन खों चींथ खाओ। सो, कऊं तुमें चींथ लओ तो हमाओ का हुइए? बाई की बात सुन के हमें लगी कि बात में दम तो आए। या तो परसासन सरकारी अस्पतालन की दसा सुदार देवे, ने तो दवा की दुकानों के संगे चोखरबा मारबे की दवा की दुकानें खुलवा देवे। ईसे उते भरती होबे वारन खों चोखरबा तो ने खा पाहें।
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Friday, September 19, 2025

शून्यकाल | कोई हौआ नहीं हमारी ही नई जेनरेशन है जेन जी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | कोई हौआ नहीं हमारी ही नई जेनरेशन है जेन जी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल
कोई हौआ नहीं हमारी ही नई जेनरेशन है जेन जी
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
नेपाल की वर्तमान क्रांति ने जो एक शब्द सामने लाया, वो है “जेन जी”। ऐसा लगा मानो कोई अनोखे क्रांतिकारी पैदा हो गए हों। उनकी आवाज़ की बुलंदी से दूसरे देश भी सकते में आ गए। विद्रोह और सत्ता परिवर्तन से सभी सत्ताधारियों को डर लगता है। जबकि जेनरेशन जी कोई गैर नहीं हमारी ही जनरेशन है जो अव्यस्थाओं के विरुद्ध डटकर खड़ी हो गई और उसने अव्यस्थाओं को नकार दिया।

     जब किसी देश में कोई क्रांति होती है तो पूरी दुनिया चौंकती है। एक जमी- जमाई राजनीतिक व्यवस्था यह कभी नहीं चाहती कि उसकी नीतियों के विरुद्ध कोई उठ खड़ा हो। सभी देश सतर्क हो जाते हैं। कोई सत्ताधारी यह नहीं चाहता कि उसकी सत्ता को किसी भी तरह की चुनौती मिले, वे निर्विघ्न अपनी सत्ता चलाना चाहता है। किंतु हर नई पीढ़ी एक नई सोच लेकर पैदा होती है। उसके भीतर सब कुछ ठीक-ठाक कर देने की तीव्र आकांक्षा होती है। 

   हाल ही में नेपाल में जो क्रांति हुई उसमें नई जनरेशन जेन जी की अहम भूमिका रही। दरअसल, 1997 से 2012 के बीच जन्मे लोगों को जनरेशन जेड यानी जेन जी कहा जाता है। कोई राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन नहीं है, बल्कि ये एक पीढ़ी यानी जेनरेशन समूह के लिए प्रयोग होने वाले शब्द है। इस पीढ़ी के लोगों ने नेपाल में तख्तापलट कर दिया है। वर्ष 2025 तक यह पीढ़ी दुनिया की करीब 30 फीसदी वर्कफोर्स बन चुकी है और अपनी अलग सोच और आदतों से समाज और अर्थव्यवस्था दोनों पर असर डाल रही है।  यह पीढ़ी इंटरनेट और सोशल मीडिया के युग में पली-बढ़ी है, जिसके कारण यह तकनीक-संपन्न तो है ही, ये जागरूक और सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय भी मानी जाती है। ये ज़िलेनियल्स भी कहे जाते हैं। ये आज के समय की सबसे चर्चित और प्रभावशाली पीढ़ी है। टेक्नोलॉजी उनके डीएनए में है, वो नए ऐप्स और ट्रेंड्स को बहुत तेजी से अपनाते हैं।

       जेनरेशन यानी पीढ़ियों को अलग- अलग उम्र के हिसाब से बांटा गया है। इसमें जन्म से लेकर 124 साल तक की उम्र के लोग शामिल होते हैं। सबसे नई जेनरेशन का नाम बीटा है। इसमें 0 से 14 साल तक के बच्चे शामिल हैं। ये पीढ़ी पहले के मुकाबले काफी टेक्निकल होगी। इसकी वजह ये है कि इन्हें इंटरनेट, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस समेत तमाम जानकारियां होंगी।

      बाकी जेनरेशन को इस प्रकार नाम दिया गया है- 1901 से 1927 के बीच जन्मे लोगों को ग्रेटेस्ट जेनरेशन कहा जाता है। इसके बाद आती है साइलेंट जेनरेशन। यह 1928-1945 के बीच जन्म लेने वाले लोगों को गिना जाता है। सन 1946-1964 के बीच जन्म लेने वाले बेबी बूमर्स जनरेशन के कहलाते हैं। इसी तरह 1965 -1980 के बीच जन्म लेने वाले लोग जेनरेशन एक्स कहलाते हैं। मिलेनियल्स या जेन वाई पीढ़ी में 1981-1996 के बीच जन्म लेने वाले लोगों को शामिल किया गया है। इसके बाद क्रम आता है जेन जी का। जो 1997- 2012 के बीच जन्मे हैं।

    2025 से जन्मे बच्चों को बीटा जेनरेशन कहा जाएगा। जेन जी की अपनी विशेषताएं हैं जिनमें सबसे प्रमुख है उनका तकनीक प्रेम। जेन जी तकनीक का बहुत सहजता से उपयोग करते हैं और उनके लिए इंटरनेट और सोशल मीडिया जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है। आर्थिक मामलों में यह पीढ़ी अधिक व्यावहारिक है। वित्तीय चुनौतियों का सामना करने के कारण ये पीढ़ी अधिक व्यावहारिक और बचत करने वाली हो सकती है। ये आर्थिक जोखिम उठाने से पीछे नहीं हटते हैं। जेन जी "ज़ूमर्स" या "पोस्ट-मिलेनियल्स" भी कहलाते हैं।
     मिलेनियल जनरेशन, जिसे जेनरेशन वाई भी कहा जाता है, वह पीढ़ी है जो जेनरेशन एक्स और जेनरेशन जेड के बीच आती है, और इसके सदस्य आम तौर पर 1981 से 1996 के बीच पैदा हुए माने जाते हैं। इन्हें मिलेनियल इसलिए कहते हैं क्योंकि इस पीढ़ी के सबसे बड़े सदस्यों ने 2000 के दशक में वयस्कता हासिल की थी। मिलेनियल्स इंटरनेट और मोबाइल उपकरणों के साथ बड़े होने वाली पहली पीढ़ी हैं, और उन्हें "डिजिटल नेटिव्स" भी कहा जाता है। 

         मिलेनियल पीढ़ी की अपनी कुछ विशेषताएं हैं। जैसे, तकनीक से जुड़ाव। इंटरनेट और सोशल मीडिया के साथ सहज होने के कारण, वे एक वैश्विक समुदाय से जुड़े हुए महसूस करते हैं और नई तकनीक को जल्दी अपनाते हैं। वे मानते हैं किवे बेबी बूमर्स के बच्चे हैं और उन्होंने अपनी युवावस्था में महत्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक बदलाव देखे हैं, जैसे कि बड़ी मंदी का दौर। ऐसे लोग व्यक्तिगत पहचान पर बल देते हैं। वे खुद को एक समूह के बजाय एक व्यक्ति के रूप में पहचानना पसंद करते हैं और व्यक्तिगत ब्रांडिंग पर अधिक ध्यान देते हैं। मिलेनियल पीढ़ी के लोग यथास्थितिवादी नहीं हैं वे परिवर्तन को प्राथमिकता देते हैं। वे समुदाय की भावना और विविधता के प्रति अधिक सहनशील होते हैं और अक्सर अधिकार की भावना रखते हैं। इन लोगों में नेतृत्व की तीव्र भावना होती है तथा वे समाज के प्रति जिम्मेदारी महसूस करते हैं।

      जेनरेशन के क्रमिक विकास को देखने के बाद अब फिर से बात करते हैं जेन जी की। जेन जी बहुत की स्मार्ट तरीके से सोचते हैं। यही कारण है कि ये अपनी भविष्य की प्लानिंग बहुत पहले से ही शुरू कर देते हैं। एक सर्वे के मुताबिक, करीब दो-तिहाई जेन जी ने 19 साल की औसत उम्र से ही बचत करना शुरू कर दिया था।  नौकरी में अनिश्चितता और घर खरीदने की बढ़ती कीमत भी उन्हें परेशान करती है। अपनी कमाई बढ़ाने और वित्तीय स्थिरता पाने के लिए जेन जी में अतिरिक्त काम करने का चलन बढ़ा है। जेन जी डेस्कटॉप के बजाय मोबाइल पर ही ज्यादा काम करते हैं। 81 फीसदी लोग सोशल मीडिया पर ही प्रोडक्ट खोजते हैं और 85 फीसदी नए प्रोडक्ट्स के बारे में इन्हीं प्लेटफॉर्म से पता लगाते हैं। ऑनलाइन रिव्यू पर भरोसा करते हैं। जेन जी ने अपना जीवन तकनीक और आधुनिक उपकरणों के इर्द-गिर्द ही बिताया है। ऐसे में इन लोगों को टेक्नोलॉजी का किंग भी कहा जाता है। इसकी वजह ये है कि इनकी शुरुआत की टेक्नोलॉजी के साथ हुई है। इसी कारण से इस पीढ़ी को जेन जी कहा जाता है।

   जेनरेशन का यह सिलसिला हमेशा से चला रहा है। नई जनरेशन पुरानी जनरेशन को चौंकाती है और नए मूल्य स्थापित करती है। पुरानी पीढ़ी परिवर्तन से परेशानी महसूस करती है क्योंकि चली आ रही परिपाटी चली आ रहे हैं मूल्य एवं पहले से जमी व्यवस्थाएं खंडित होती हैं। इसे एक बहुत ही साधारण सामाजिक घटनाक्रम से समझा जा सकता है कि भारत में पहले स्त्रियां घूंघट में रहती थीं। घूंघट वाली पीढ़ी से आगे की नई पीढ़ी आई तो उसने घूंघट ओढ़ना छोड़ दिया यह नहीं पीढ़ी के लिए नवाचार था जबकि पुरानी पीढ़ी के लिए विद्रोह था। इसी प्रकार यदि आर्थिक पक्ष में देखा जाए तो पुरानी पीढ़ी अथवा वर्तमान पीढ़ी अपने शासकों एवं व्यवस्थाओं के प्रति आवाज उठाने से घबराती है संकोच करती है तथा असुरक्षा का अनुभव करती है किंतु वहीं नई पीढ़ी आक्रामक ढंग से व्यवस्था की कमियों को चुनौती देती है। किसी-किसी देश में नई पीढ़ी का यह आक्रोश विद्रोह के रूप में सामने आता है जब वही पीढ़ी बलपूर्वक उन व्यवस्थाओं को चुनौती देकर ठीक कर देती है जिन्हें वह उचित नहीं समझती और जिन्हें वह अपने शोषण का कारण समझती है। नेपाल में यही हुआ। वहां नई पीढ़ी ने पुरानी पीढ़ी की व्यवस्थाओं को चुनौती दिया तथा अव्यवस्था के विरुद्ध शंखनाद कर दिया।
      
      जेनरेशन जी वह उत्साही पीढ़ी है जो करियर कौशल हासिल करने में रुचि रखती हैं और लचीले और व्यक्तिगत शिक्षण तरीकों को महत्व देती है। वे स्वतंत्र, रचनात्मक, व्यावहारिक और तकनीक-प्रेमी छात्र हैं जो घंटों बैठकर व्याख्यान सुनने के बजाय गहन, सक्रिय शैक्षिक अनुभव पसंद करते हैं। बेशक, वे अलग-अलग पृष्ठभूमि और सीखने की शैलियों वाला एक विविध समूह हैं, यही वजह है कि लचीलापन और सीखने के कई तरीके (जैसे, दृश्य, श्रवण, गतिज, ई-लर्निंग, आत्म-खोज, आदि) उनके लिए कारगर साबित होते हैं। जेनरेशन जेड के लिए आर्थिक सुरक्षा मायने रखती है। कई अध्ययनों में बताया गया है कि व्यक्तिगत वित्त, नौकरी, कर्ज, जीवन यापन की लागत और आवास की असुरक्षा जेनरेशन जेड के लिए तनाव के प्रमुख । 2023 में, 12 से 26 वर्ष की आयु के लगभग दो- तिहाई (64%) जेनरेशन जेडर्स ने कहा कि वित्तीय संसाधन उनके भविष्य के लक्ष्यों के लिए एक बाधा थे। वे स्थिर, अच्छे वेतन वाली नौकरी, किफायती आवास चाहते हैं और कॉलेज के कर्ज से बचना चाहते हैं।

        इस तरह यदि देखा जाए तो जेनरेशन जी अथवा जेनरेशन जेड कोई ऐसे विद्रोही नहीं है जो विध्वंस चाहते हो वह सिर्फ ऐसी व्यवस्था चाहते हैं जिसमें उनका भविष्य सुरक्षित हो सके। अतः जिन देशों में युवाओं का भविष्य सुरक्षित है उन देशों को जेनरेशन जी से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है और न ही जेनरेशन जी को 60-70 के दशक के हिप्पी संप्रदाय जैसा मानने की भूल की जानी चाहिए। यह अव्यवस्था से जेनरेशन का टकराव मात्र है।
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Thursday, September 18, 2025

बतकाव बिन्ना की | जबे हाई कोरट में चली कुलरिया पे बतकाव | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
जबे हाई कोरट में चली कुलरिया पे बतकाव
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

         ‘‘देख तो बिन्ना एक बोल के कितेक मतलब निकार लए जात आएं।’’ भौजी ने मोसे कई।
‘‘काए का हो गओ भौजी? कोन के बोल की कए रईं?’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘अरे, तुमने सोसल मिडिया पे नईं देखी का? ऊमें हाई कोरट की कारवाई को सीन वायरल हो रओ।’’ भौजी बोलीं।
‘‘कोन सो सीन?’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘अरे, आजकाल तुम सोसल मिडिया नईं देख रईं का?’’ भौजी ने अचरज करत भई पूछी।
‘‘मैं देखत तो रैत हों, बाकी ऊमें तो मुतके सीन चलत रैत आएं। जैसे आजकाल बा महाराष्ट््र वाले डिप्टी सीएम की घरवाली को सील वायरल हो रओ।’’ मैंने कई।
‘‘ऊकी तो ने कओ बिन्ना! अरा-रा-रा! ऊको तनकऊ ने लगो के बा का पैन्ह के कोन से परोगराम में जा रई। ऊपे से तनक एक जम्फर सोई डार लेती तो का बिगर जातो। मोय तो बड़ी सरम आई ऊकी वीडियो देख के। काए से के जगां-जगां की बात होत आए। अब संसद में कोनऊं सांसद भैया चड्डी पैन्ह के चलो जाए तो कैसो लगहे।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कै रईं भौजी! हरेक जांगा की एक मरजादा होत आए। समुन्दर में नहाबे जाओ तो बिकनी पैन्ह लो, मनो कोनऊं जलसा में जा रईं तो तनक सलीके को पैन्हों। ने साड़ी पैन्हों तो सलवार सूट पैन्ह लेओ, गाउन पैंन्ह लेओ, घांघरा पैन्ह लेओ।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘सई कै रई बिन्ना, मनो हम ऊ वीडियो की बात नईं कर रए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘तो आप कोन से वीडियो की कए रईं?’’ मैंने पूछी।
‘‘हम बा वारे वीडियो की बात कर रए जीमें हाई कोरट के जज हरें कुलरिया को मीनिंग पूछ रए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘अच्च्छा, बो वारी। बा तो भौतई गजब की आए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ हमें तो अपनी श्वेता यादव बिन्ना पे गरब होत आए के ऊने कुलरिया की सई मीनिंग बता दई ने तो बा बाई तो कुलच्छिनी कैलाई जा रई हती।’’ भौजी बोलीं।
‘‘का बतकाव हो रई तुम ओरन में? कोन को कुलच्छिनी कै रईं?’’ भैयाजी कहूं बायरे से घरे भीतरे आत भए पूछन लगे।
‘‘आप खों तो सोई पतो हुइए।’’ मैंने कई।
‘‘इने कां से पतो हुइए? जे तो आजकाल करै दिनों में बिजी चल रए। अब रिस्तेदारी में आबो-जाबो चल रओ।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सो आपई बता देओ भैयाजी खों।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘का बताने?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘चलो हम बता रए आपके लाने!’’ भौजी बोलीं औ फेर भैयाजी खों बतान लगीं,‘‘का भओ आए के हाई कोरट में कोनऊं केस चल रओ तो। ऊमें एक लुगवा की बात रई के ऊने अपनी घरवारी से का कई जा पे बात हो रई हती। जो कागज हतो ऊमें कुलरिया का के लिखों रओ। जज हरों को समझ में ने आओ के जो कुलरिया को का मतलब भओ?‘‘
‘‘फेर?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘फेर जे के जज हरों ने उते कोरट में बैठे सबईं से पूछी के कोनऊं को ईको मतलब पता आए का? सो उते बैठी एक लुगाई ने बताई के कुलरिया को मतलब होत आए कुलच्छिनी। जा सुन के उते कोरट में बैठीं अपने सागरे की श्वेता यादव बोल परीं। बे उते डिप्टी एडवोकेट जनरल आएं, सो बे बोल परीं के कुुलरिया को मतलब कुल्हड़िया होत आए कुलच्छिनी नोईं। जो सुन के बे जज हरें बोले के हऔ आप तो सागरे की आओ, आपको तो सई पतो हुइए। फेर बे ओरें जा सोई बोले के देखो तो दोई मीनिंग में कित्तों फरक आए।’’ भौजी ने भैयाजी खों सुनाई।
‘‘सई कई उन ओरन ने। काए से कुलच्छिनी बोले तो ऊकी घरवारी बुरे चाल-चलन वारी कई जैहे, औ जो कुल्हरिया कई जाए तो बा लड़ाई-झगड़ा में एक हथियार कहानो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जेई तो होत आए के जो अपनी बोली-भाषा सई ने पतो होय तो कछू के कछू मीनिंग निकर आऊत आए। सो अपनी बोली तो सबईं खों आनी चाइए।’’ मैंने कई।
‘‘औ का! फेर अपनी बुंदेली तो ऊंसई बड़ी घड़िया-घुल्ला सी मीठी आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कई भौजी! बाकी बात चल रई मीनिंग की सो मोए एक सांची किसां याद आ रई के उते पन्ना में हमाए इते एक बऊ खाना बनाबे खों आत रईं। बे बताऊत तीं के बे मरजसेठ के इते काम करबे सोई जात आएं। सो मोरी उमर लरकोरे की रई, उत्ती अकल तो रई नईं सो मैं सोचत्ती के बऊ कोनऊं सेठ की कैत आएं। फेर एक बार अम्मा ने सुनी तो बे बोलीं के अम्मा कोनऊं सेठ की नोईं कैत, बे तो मजिस्टरेट की बात करते आएं। सो अब आपई ओरें कओ के कां सेठ औ कां मजिस्टरेट। सो जे होत आए सई मीनिंग ने जानबे से।’’ मैंने भैयाजी औ भौजी खों बताई। 
‘‘अरे, ऐसईं एक बार हमाए संगे भई! का भओ के हम गए तुमाई भौजी के संगे उते फोर लेन के एक होटल पे खाना खाबे। तुमाई भौजी बोलीं के भोजन बाद में मंगइयो, पैले हमाए लाने फिंगर च्सि मंगा देओ। हमने फिंगर चिप्स मंगा दई। तुमाई भौजी बोलीं की उंगरियन में तेल छप जाहे सो ईको खाबे के लाने कांटा सोई मंगा देओ। सो हमने बा बैरा से कई के भैया तनक कांटा सोई ले आओ। बा गओ औ एक कटुरिया में कछू सुफैद पाउडर सो ले आओ। हमने सोची के हो सकत के जे फिंगर चिप्स पे भुरकबे के लाने कछू मसाला वारो पाउडर हुइए। इत्ते में तुमाई भौजी ने ऊको चींख लओ। सो जे उचक परीं औ बोलीं के जे आटा काए के लाने ले आओ? जा तो पिसी को आटा आए। हैं! हमने सोई चींखों सो बा आटो ई रओ। हमने देखो के बा जो बैरा ला के आटा की कटुरिया धर गओ रओ, बा काउंटर के इते मजे से ठाड़ो हतो। हमने ऊको बुलाओ औ पूछी के भैया जे आटा काए धर गए? सो बा बोलो के आपई नने तो मांगो रओ। हमने कई मोरे भैया, हमने आटा नोंई कांटा मांगो रओ? बा मोरो मों तनक लगो। ऊको कांटा समझ ने परी। तब तुमाई भौजी ने ऊको समझात भईं बोलीं के कोटा मने फोर्क चाउने। सो बा बोलो अच्छा फोर्क चाउने? औ फेर बा लपक के कांटा लेओ। जे तो दसा भई।अब का कई जाए के ऊको कांटा ने समझ आ रओ हतो, फोर्क समझ गओ। जबकि हतो बा अपने इतई बुंदेलखंड को फुर्रा।’ भैया हंसत भए बतान लगे।
‘‘सई में कई दफा ऐसेई मजे की किसां घट जात आए। एक दफा मैं अपने संगवारियन के संगे इतई सागरे के एक होटल में खाना खाबे के लाने गई। हम ओरन ने अच्छो खानो खाओ। औ फेर अखीर में ऊसे हात धोबे के लाने पानी को कुनकुनो कटोरा लाबे की कई। कछू देर तो बा आओ नईं, हम ओरें ऊसई भिड़े हात बतकाव करत बैठे रए। फेर जबे बा आओ तो एक छोटे तसला में पानी लेओ। हम ओरन देखों तो हमाई हंसी रोके ने रुकी। मोरे संगे की एक जनी बोलीं के भैया हम आरन खों सपरने नोंई, हात धोने आए। इत्ते में बा होटल को मैनेजर आ गओ। बा माफी मांगन लगो के जे मोड़ा नओ धरो आए, ईको अबे कछू पतो नइयां। हम ओरन ने कई के चलो कछू नईं, बाकी हंसत-हंसत हम ओरन को खाना पच गओ।’’ मैंने अपनी एक औ किसां सुना दईं।
सो ऐसई-ऐसई कछू देर बतकाव चली। फेर मैं अपने घरे औ भैयाजी औ भौजी अपने घरे।           
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के अपनी बोली औ अपनी भासा अच्छे से आनी चाइए के नईं? अपन ओरें अपनी बोली भाषा के जानकार होंए तो अपने लोगन की कछू ज्यादा मदद कर सकत हैं। काए मैंने सई कई के नईं?      
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Wednesday, September 17, 2025

चर्चा प्लस | पितृपक्ष में श्राद्ध का है पौराणिक महत्व एवं मानवीय मूल्य | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
पितृपक्ष में श्राद्ध का है पौराणिक महत्व एवं मानवीय मूल्य
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
पितृपक्ष पूर्वजों के प्रति अपने दायित्वों को पूर्ण करने का पक्ष होता है। पक्ष अर्थात 15 दिन की अवधि। 365 दिन में 15 दिन पूर्वजों के प्रति विशेष कर्तव्यों के लिए निर्धारित किए गए हैं। यह निर्धारण आधुनिक नहीं वरन पौराणिक काल से चला आ रहा है। पौराणिक काल में श्राद्धकर्म किस तरह आरम्भ हुआ इस संबंध में कुछ रोचक कथाएं मिलती हैं जो सदियों से हर पीढ़ी को पूर्वजों के प्रति श्रद्धा रखने की सीख देती आई हैं। तो चलिए एक दृष्टि डालते हैं इन कथाओं पर, क्योंकि पारिवारिक टूटन के संवेदनहीन होते इस समय में ऐसी कथाओं को जानना और समझना जरूरी है। इन कथाओं का मात्र धार्मिक नहीं वरन मानवीय मूल्य भी है।  
पितृ पक्ष, भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक चलता है। इन 15 दिनों में दौरान पितरों अर्थात पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए जो भी श्रद्धापूर्वक अनुष्ठानिक कार्य किए जाते हैं, उसे श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध कर्म आरंभ होने के संबंध में कई कथाएं भी प्रचलित हैं, यूं तो इनका पाठ तर्पण करते हुए किया जाता है। किन्तु ज्ञान की दृष्टि से इन्हें किसी भी समय पढ़ा, सुना और समझा जा सकता है। 

पितृ पक्ष आरंभ होने के संबंध में सबसे प्रमुख कथा है दानवीर कर्ण की कथा। इस बहुप्रचलित कथा के अनुसार कुंतीपुत्र कर्ण ने अपने जीवनकाल में सोना, चांदी, आभूषण आदि का दान हाथ खोल कर दिया। कर्ण के द्वार से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटा। उसके दान-पुण्य कर्म के कारण यह तो सुनिश्चित था कि कर्ण को अंततः स्वर्ग में स्थान मिलेगा। मरणोपरांत कर्ण को नर्क के कुछ दण्ड के बाद स्वर्ग में सम्मानजनक स्थान दिया गया। स्वर्ग में कर्ण को भरपूर सुख-सुविधा दी गई। किन्तु जब भोजन का समय आया तो कर्ण यह देख कर चकित रह गए के उन्हें सोने की थाली में सोने के सिक्के और आभूषण ही परोसे गए। पहले तो कर्ण को लगा कि सेवक से कोई त्रुटि हो गई होगी किन्तु जब दो-तीन बार वही प्रक्रिया दोहराई गई तो कर्ण ने इन्द्रदेव से इसका कारण पूछा।  तब इंद्र ने कहा, ‘‘कर्ण, तुम सबसे बड़े दानवीर थे। तुमने अपने प्राणों की परवाह किए बिना अपना दिव्य कवच दान कर दिया, यहां तक कि मुत्यु के कुछ क्षण पूर्व तुमने अपना सोने का दांत भी स्वयं तोड़ कर दान कर दिया। किन्तु कर्ण, तुमने अपने पूरे जीवन में सिर्फ स्वर्ण का ही दान दिया, कभी भोजन दान नहीं दिया। जबकि स्वर्ग का नियम है कि यहां मनुष्य की आत्मा को वही खाने के लिए दिया जाता है, जिसका उसने धरती पर दान किया होता है। इसलिए तुम्हारी थाली में स्वर्ण ही परोसा जा रहा है।’’
यह सुन कर कर्ण ने इन्द्र से पूछा कि अब मैं अपनी भुल कैसे सुधार सकता हूं? मैं तो मृत्यु को प्राप्त हो चुका हूं। यहां दान आदि का कोई प्रावधान नहीं है, न कोई दान लेने वाला है। अब मेरा उद्धार कैसे होगा?’’
इस पर इन्द्र ने उससे कहा कि ‘‘इसका बस यही उपाय है कि मैं तुम्हें 15 दिन के लिए वापस पृथ्वी पर भेज देता हूं। इस अवधि में तुम अपने पूर्वजों की स्मृति में भोजन का दान करो। यह दान ब्राह्मणों और गरीबों दोनों को करना है।’’
इन्द्र के द्वारा पृथ्वी पर 15 दिन के लिए आने के बाद कर्ण ने ब्राह्मणों एवं गरीबों को भरपूर भोजनदान दिया। इसके बाद 15 दिन की अवधि पूर्ण होते ही उसे वापस स्वर्ग बुला लिया गया। स्वर्ग में पहुंचते ही भांति-भांति के सुस्वाद भोजन से कर्ण का स्वागत किया गया। 
इस कथा का मानवीय मूल्य यह है कि हर तरह का दान-पुण्य कर के मनुष्य यह समझे कि मैंने अपने कर्तव्य पूर्ण कर लिए है, तो ऐसा नहीं है। मनुष्य के सारे कर्तव्य तभी पूर्ण माने जाते हैं जब वह भूखों, निराश्रितों एवं निर्धनों को भोजन दान करता है। संग्रहण की प्रवृति वाले समाज में इस तरह की कथाएं ही प्रेरित करती हैं कि उनका भी समुचित ध्यान रखा जाए जिन्हें एक टुकड़ा रोटी भी नसीब नहीं है। फिर जब कोई सद्कर्म करता है तो भारतीय संस्कृति में यह माना जाता है कि इससे उसके पूर्वज भी प्रसन्न होते हैं तथा उनकी आत्मा को शांति मिलती है। जीवन की व्यस्तताओं में कई बार सब कुछ जानते-समझते हुए भी कर्तव्यों की अवहेलना हो जाती है इसीलिए 15 दिन का वह समय निर्धारित किया गया है जिसमें कर्ण ने धरती पर आ कर दानकर्म एवं श्राद्धकर्म किया था।    

पौराणिक कथा के आधार पर पितृ पक्ष की एक लोकथा भी प्रचलित है जिसके अनुसार जोगे और भोगे नाम के दो भाई थे। दोनों की अपने नामों से विपरीत स्थिति थी। जोगे जिसकी दशा जागी की होनी चाहिए थी, वह धन-सम्पन्न था। वहीं उसका भाई भोगे जिसे नाम के अनुरुप भोग-विलास का जीवन मिलना चाहिए था वह निर्धन था। इतना निर्धन कि कभी-कभी उसके घर में फांके की थिति आ जाती थी। दोनों भाई अलग-अलग रहते थे। दोनों भाइयों में परस्पर प्रेम था लेकिन जोगे की पत्नी को धन का अभिमान था। जबकि भोगे की पत्नी बड़ी सरल स्वभाव की थी। पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने उससे पितरों का श्राद्ध करने के लिए कहा तो जोगे को लगा कि इससे धन व्यर्थ व्यय होगा अतः उसने टालने का प्रयास किया। जोगे की पत्नी का विचार था कि यदि वे लोग श्रद्धभोज करेंगे तो इससे समाज में उनके धन का भरपूर प्रदर्शन होगा और उनकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी। जोगे ने पत्नी को समझाया कि यह सब छोड़ो क्योंकि तुमसे अकेले सब नहीं सम्हाला जाएगा। इस पर जोगे की पत्नी ने कहा कि मैं भोगे की पत्नी को काम करने के बुला लूंगी। आप तो जाइए और मेरे मायके वालों को न्योता दे आइए।  अंततः जोगे को पत्नी के कहं अनुसार कार्य करना पड़ा। जोूगे की पत्नी भोगे की पत्नी को अपने घर काम करने के लिए बुला लाई। भोगे के घर यूं भी खाने का ऐसा कुछ नहीं था कि वे श्राद्धभोज कराना तो दूर एक भी भूखे को भोजन दान कर सकें। सो, भोगे ने पत्नी को मदद करने जाने को कहा और स्वयं कंडा आदि जला कर घरन में मौजूद अन्न का इकलौता दाना अग्नि को समर्पित कर के पितरों को ‘‘अगियारी’’ दान कर दी। जब पितर धरती पर आए तो वे पहले जोगे के घर गए। वहां उन्हें कुछ भी नहीं मिला क्योंकि उस घर में सभी लोग नाना प्रकार के व्यंजन से अपना पेट भरने में ही जुटे थे। उन लोगों ने पितरो की ओर ध्या भी नहीं दिया। इसके बाद पितर भोगे के घर गए। वहां उन्होंने देखा कि अन्न का एक दाना अगियारी के रूप में उन्हें दान दिया गया है। उसी समय भोगे के बचचे आ गए और अपनी मां से खाना मांगने लगे। घर में खाने को तो कुछ था नहीं अतः भोगे की पत्नी ने चूल्हे पर पानी उबलने को रख दिया था जिससे बच्चों को बहलाया जा सके। यह देख कर पितरों को लगा कि देखों तो भोगे ने अपने घर का अन्न का इकलौता दाना भी हमें अर्पित कर दिया जबकि उसके बच्चे भूखे हैं। यदि भोगे के पास पर्याप्त धन होता तो वह हमें भरपूर भोग लगाता। पितरों ने अगियारी की राख चाटी और तृप्त हो गए। इस बीच बच्चे दौड़ कर गए और उन्होंने चूल्हे पर चढ़े पतीले का ढक्कन खोला कि उसमें खाने का कुछ पक रहा होगा, तो उन्हें वहां पतीला सोने के सिक्कों से भरा हुआ मिला। बच्चों ने मां को इस बारे में बताया। बच्चों की मां ने भोगे को बताया। भोगे ने पितरों को लाख-लाख धन्यवाद दिया। इसके बाद उनके दिन फिर गए। अगले वर्ष श्राद्ध पक्ष में भोगे ने विनम्र भाव से पितरों का श्राद्ध करते हुए गरीबों को भरपूर भोजन दान दिया। इसके बाद भोगे को कभी निर्धनता का मुख नहीं देखना पड़ा।
यह कथा भी यही संदेश देती है कि जितना भी हमारे पास है उसे मिल-बांट कर खाएं ताकि कोई भूखा न रहे। 

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार नारद मुनि धरती पर आए। वे घूमते-घूमते गंगातट पर पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि एक गरीब व्यक्ति बहुत परेशान था। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। नारद मुनि ने उससे पूछा कि तुम्हें क्या कष्ट है? तो उस निर्धन व्यक्ति ने कहा कि पितृ पक्ष चल रहा है किन्तु मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मैं दान कर के पितरों का श्राद्ध कर सकूं। मेरे पितर मुझ पर नाराज हो रहे होंगे। यह सुन कर नारद मुनि ने कहा कि यह मत सोचो कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है, निर्धन तो वे हैं जिनके पास सब कुछ होता है फिर भी वे दान करने का कलेजा नहीं रखते हैं। तुम तो पेड़ की एक पत्ती तोड़ो और मुझे दान कर दो। तुम्हारा ब्राह्मण दान पूर्ण हो जाएगा। उस व्यक्ति ने वैसा ही किया। इसके बाद नारद वहां से चले गए। किन्तु उस व्यक्ति को लग रहा था कि मैंने मात्र ब्राह्मण दान किया है, वह भी उस ब्राह्मण ने कृपा कर के मेरी दी हुई पत्ती खा कर उसे दान मान लिया, अब मैं अपने जैसे निर्धनों को दान कैसे दूं? वह सोच ही राि था कि अचानक उसके सामने एक निर्धन आ गया। उस व्यक्ति को कुछ नहीं सूझा तो उसने पेड़ की एक और पत्ती तोड़ी और उसे उस निर्धन को देते हुए कहा कि मेरे पास इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीलं है। यदि तुम कृपा कर के इसे ग्रहण कर लो तो मेरे पितर प्रसन्न हो जाएंगे। यह सुन कर उस निर्धन ने पत्ती खा ली। इस प्रकार श्राद्ध कर के वह व्यक्ति अपने धर लौटा तो देखा कि उसकी पत्नी प्रसन्नमुद्रा में द्वार पर खड़ी है। उस व्यक्ति के पूछने पर पत्नी ने बताया कि एक आदमी आया था और वह स्वर्ण मुद्राओं से भरा घड़ा दे गया है जो तुम्हारे पूर्वजों ने तुम्हारे लिए छोड़ा था। यह सुन कर वह व्यक्ति समझ गया कि यह उसके दानकर्म का सुफल है जिससे उसके पूर्वज प्रसन्न हो गए। वह यह नहीं जानता था कि नारद ही पहले ब्राहमण और फिर निर्धन बन कर उससे दान ले गए थे और बदले में उसकी सहायता की।
यह कथा भी पूर्वजों की स्मृति में भोजन दान के महत्व को स्थापित करती है। इस कथा का भी उद्देश्य यही है कि इस धरती पर कोई भूखा न रहे। सब मिल बांट अन्न खाएं, ऐसा न हो कि एक संग्रहण करे और बाकी भूखे रह जाएं। 

वस्तुतः हमारी भारतीय संस्कृति में प्रत्येक त्योहार, संस्कार एवं अनुष्ठान का गहरा सामाजिक महत्व  एवं मानवीय मूल्य है। पितरो का स्मरण, पितरों के प्रति श्राद्ध आदि हमें अपनी पारिवारिक परंपरा पर गौरव करना सिखाती है। वहीं इन सब के साथ जुड़े दानकर्म ये उन लोगों के प्रति कर्तव्य का भी स्मरण रहता है जो हमारे ही समाज के अभिन्न अंग हैं, हमारे समान ही हैं किन्तु आर्थिक रूप से कमजोर हैं, निर्धन हैं। दानकर्म ऐसे जरूरतमंदों की मदद करने का अवसर देता है जिसे कर के हमें स्वयं भी आत्मिक शांति मिलती है।     
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(दैनिक, सागर दिनकर में 19.09.2025 को प्रकाशित)  
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Tuesday, September 16, 2025

पुस्तक समीक्षा | भावनाओं की प्रखरता है मनीष जैन की कविताओं में | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

'आचरण' में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा 
 पुस्तक समीक्षा

भावनाओं की प्रखरता है मनीष जैन की कविताओं में
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह  - कुछ कही : कुछ अनकही 
कवि       - मनीष जैन
प्रकाशक  - 63/1, कटरा बाजार, सागर (म.प्र.)
मूल्य       - 200/-
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काव्य अभिव्यक्ति का सबसे कोमल माध्यम होता है क्योंकि यह भावनाप्रधान होता है। यदि यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि हर व्यक्ति के भीतर एक कवि मौजूद होता है। कभी व्यक्ति अपने भीतर के कवि को पहचान लेता है और अपनी भावनाओं तादात्म्य स्थापित कर लेता है। तब काव्य उसकी भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बन जाता है। कवि मनीष जैन ने भी अपने मन की कोमल भावनाओं को पहचान कर उन्हें काव्यात्मक अभिव्यक्ति का रूप दिया है। फिर भी हर अभिव्यक्ति कभी पूरी नहीं होती है, बहुत कुछ कहने पर भी बहुत कुछ अनकहा रह जाता है। इसी भाव के आधार पर है कवि मनीष जैन का काव्य संग्रह ‘‘कुछ कही: कुछ अनकही’’। 

10 मार्च 1975 सागर, मध्य प्रदेश में जन्मे मनीष जैन ने डॉ. हरीसिंह गौर वि.वि. से  बी. फार्मा तथा इंदौर आई.पी.एस. से एम.बी.ए. किया है। वर्तमान में वे ज्ञानवीर विश्वविद्यालय, सागर के कुलसचिव के पद पर कार्य कर रहे हैं। प्रस्तावना में मनीष जैन ने लिखा है कि “मैंने अपने गुजरे कल से आज तक के सफर में जो देखा, सुना, महसूस किया, ख्वाबों खयालों से, चर्चाओं से, किताबों से कुछ जाना कुछ माना और जिसको लिखा मैंने, जैसे सागर में मिलती नदियां हों, नदियों में घुलती श्रद्धा हो, सागर की गहराई में सीप हों, सीपों में छुपे मोती हों, सागर के लहरों का संगीत हो, संगीत में मचलते पैर हों, पैर के निशान बनती रेत हो, रेत के ढलते आशियां हो, आशियां में बसते ख्वाब हों, ख्वाबों के टूटने पर आँसु हों, आँसुओं में धुंधले होते चेहरे हों, चेहरे जो कुछ पराये कुछ अपने हों, अपनों से कुछ कहीं कुछ अनकही बातें हों।” उनके इस उद्गार से उनकी कविताओं की भाव भूमि का स्पष्ट पता चलता है। 
मनीष जैन की कविताओं में जीवन दर्शन है और विचारों की परिपक्वता भी। उनकी कविताओं की प्रकृति बताती है कि वे सप्रयास कुछ नहीं लिखते, कविताएं स्वतः उनके मन से प्रवाहित होती है। यह कविता देखिए- 
शब्द नहीं है पास मेरे 
सागर को सागर कहना है
सूरज को सूरज कहना है 
अवतार को भगवन कहना है
इस जीवन का सार बता दे 
परदा है पर पार बता दे 
उनकी अमृत वाणी को 
प्यास सभी की कहना है
आशीष ही जिनकी दौलत है उनकी 
कल्याण करे जो जग का
उनके चरण कमल को 
जग का साहिल कहना है
दिल की करनी को जो बदल दे
आँखों की तस्वीर बदल दे 
ऐसी गीता को भाग्य विधाता कहना है।

कवि मनीष जैन अपनी कुछ कविताओं में नास्टैल्जिक हो उठते हैं और स्वयं को लक्षित कर के स्वयं से ही प्रश्न करते हैं। जैसे यह कविता है-
मैं अकेला ही खड़ा था जंग के मैदान में 
मेरी लड़ाई खुद से थी 
जंग के मैदान में मैं क्या हूँ एक प्रश्न है
मुझसे क्या चाहते हैं बड़ा प्रश्न है
मैं जो हूँ प्रश्न ही नहीं है
हो रहे हैं प्रश्न के प्रहार मुझ पर
जंग के मैदान में
पहचान खुद की खो चुकी है
आँख कई बार रो चुकी है
आडंबर का अंबर सर्वव्याप्त है
यथार्थ की धरा लुप्त हो चुकी है
जंग के मैदान में
तुम्हारे अंदर की लौ अब बुझ चुकी है
जाने क्या वजह है कि
जलने की चाह भी रूक चुकी है जंग के ।

वस्तुतः स्वयं से जंग तभी थमती है जब व्यक्ति स्वयं को पहचान लेता है, पूरी तरह से नहीं फिर भी आंशिक पहचान का हो जाना भी स्वयं को पहचानने से कम नहीं होता है। कवि मनीष जैन जीवन के यथार्थ को स्वीकार कर लेने का आग्रह करते हैं। यूं भी सत्य को स्वीकार कर लेने से बड़ी और कोई स्वीकार्यता नहीं होती है। जब स्वयं की पहचान हो जाती है तो भावनाएं भी किसी ग़ज़ल की अभिव्यक्ति सी संवेदनात्मक हो जाती हैं-
सच तो सच है 
पर आज सच को भी सहारा चाहिए 
आइना तुम्हे तुमसा ही दिखाएगा 
कभी खुद को औरों में भी ढूँढ़ना चाहिए 
बुढ़ापे की झुर्रियों में है छुपे कई साल देखो 
एक सवाल के तुम्हें बोलो कितने जवाब चाहिए 
किसी की यादों का झोंका गर 
आँखो में आँसू ला दे 
कागज को रूमाल बनाकर 
गजल कोई लिख देना चाहिए।

मनीष जैन ने एक ऐसे विषय को अपनी कविता का विषय बनाया है जिस पर चिंतन किया जाना आवश्यक है। यह विषय है आत्मघात अथवा आत्महत्या। कोई इंसान किन मानसिक परिस्थितियों में पड़ का आत्मघाती कदम उठाता है इसे समझने का प्रयास प्रायः कम ही किया जाता है। लोग परिणाम देखते हैं और निष्कर्ष गढ़ने लगते हैं। किन्तु मनीष जैन उस तह को टटोलते हैं जहां किसी भी प्रकार की प्रबल विवशता आत्मघात के लिए उकसाती है-
कितना मजबूर वो इंसा होगा 
खुद को मारने को जो मजबूर होगा 
यूँ ही नहीं रूठ जाता किसी से कोई
दरम्याँ उनके कोई मसला जरूर होगा
जिसका हुनर ही उसका अभिशाप बन गया 
वो हाथ कटा ताज का मजदूर होगा 
बिछड़ते वक्त उसकी आँख में आँसू नहीं थे 
हर वादे की तरह यह वादा भी उसने निभाया होगा 
खुशियाँ जिंदगी में है मृग तृष्णा की तरह
हर नये कदम के साथ लक्ष्य और दूर होगा 

संग्रह में दार्शनिक तीव्रता की कविताएं ही नहीं वरन छायावादी भाव की कविताएं भी हैं जैसे यह कविता देखिए- 
आज रात चांद सोया नहीं 
जागते-जागते सुबह हो गई 
ना जाने उसे किसका था इंतजार 
इसी इंतजार में सुबह हो गई 

मनीष जैन का यह प्रथम काव्य संग्रह है जो कवि में मौजूद अपार संभावनाओं की ओर स्पष्ट संकेत करता है। संग्रह की कविताओं में शिल्पगत शिथिलता अथवा कच्चापन अवश्य है किन्तु भावनाओं की प्रखरता ने उन्हें परिपक्वता प्रदान किया है जिससे सभी कविताएं अच्छी बन पड़ी हैं। ‘‘कुछ कही: कुछ अनकही’’ काव्य संग्रह में छोटी-बड़ी कुल 50 कविताएं हैं। शिल्प की दृष्टि से बेशक ये कविताएं अनगढ़ प्रतीत हो सकती हैं किंतु इनमें शब्दों का सुघड़ संयोजन एवं भावों का स्पष्ट प्रस्तुतिकरण है। जैसाकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि ‘‘काव्य भावना प्रधान होता है अतः कला पक्ष का तीव्र आग्रह कभी-कभी शिथिल भी हो सकता है।’’ बस, अनेक स्थानों पर प्रूफ का दोष खटकता है। फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि संग्रह की कविताएं पढ़े जाने के बाद देर तक चेतना के परिसर में टहलती हुई अनुभव होती हैं और यही खूबी इन्हें पठनीय बनाती है।  
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(16.09.2025 )
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