Friday, April 11, 2025

शून्यकाल | दुनिया भर में तेजी से बढ़ रहे हैं इंवायरमेंटल रिफ्यूजी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - 
शून्यकाल

दुनिया भर में तेजी से बढ़ रहे हैं इंवायरमेंटल रिफ्यूजी
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

     भारत में बड़ी संख्या में लोग अभी भी जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूक नहीं है। वहीं यूनाईटेड नेशन्स के अनुसार ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण सन् 2030 तक दुनिया में 10 करोड़ से ज्यादा पर्यावरणीय शरणार्थी होंगे। लिहाजा यदि अभी भी नहीं जागे तो शायद सवेरा कभी नहीं हो सकेगा। लिहाजा यदि अभी भी नहीं जागे तो शायद सवेरा कभी नहीं हो सकेगा। सिर्फ तस्वीरें खिंचा कर और मीडिया में प्रचार करके पर्यावरण नहीं बच सकता है, इसके लिए सच्ची कोशिशें करनी होंगी, यदि हमें भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी नहीं बनना है तो।
 
 इंवायरमेंटल रिफ्यूजी यानी पर्यावरणीय शरणार्थी अर्थात् वह व्यक्ति जो पर्यावरण में हुए प्राकृतिक एवं मानवजनित परिवर्तनों के कारण शरणार्थी बन गया हो। पहले सिर्फ़ युद्ध-शरणार्थी हुआ करते थे लेकिन अब पर्यावरणीय शरणार्थी यानी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी होने लगे हैं। सूडान और सोमालिया जैसे अफ्रिकी देशों में गृहयुद्ध से कहीं अधिक लोग शरणार्थी जीवन बिताने को विवश हुए हैं प्रकृतिक आपदा के कारण। उनके गांवों के जलस्रोत सूख गए, पानी उपलब्ध न होने के कारण उनके मवेशी मरने लगे और उनके स्वयं के प्राणों पर संकट आ गया। जिससे मजबूर हो कर उन्हें अपना गांव, घर छोड़ कर दूसरे देशों में शरण लेनी पड़ी। लेकिन उनका यह विस्थापन अवैध है क्योंकि इंवायरमेंटल रिफ्यूजी को शरण देने का कानून अभी किसी भी देश में नहीं बनाया गया है। ऐसे शरणार्थी वास्तविक शराणार्थी होने पर भी न तो शराणार्थी कहलाते हैं और न उन्हें कोई सहायता मिल पाती है। यह संभावना व्यक्त की जा रही है कि पर्यावरण परिवर्तन के कारण सन् 2050 तक अफ्रिका, लैटिन अमरीका और दक्षिण एशिया से लगभग 140 मिलियन लोग इंवायरमेंटल रिफ्यूजी के रूप में अपनी मुख्य भूमि छोड़ कर दूसरे भू भाग में विस्थापित हो जाएंगे।    
भारत में भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी बढ़ते जा रहे हैं। ये रिफ्यूजी पानी की अनुपलब्धता के कारण अपना गांव छोड़ कर बड़े शहरों में काम की तलाश में भटक रहे हैं और दिहाड़ी मजदूर बन कर जिन्दा रहने की कोशिश कर रहे हैं। इसका एक उदाहरण देखें कि आए दिन किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने का समाचार मिलता है। सरकार किसानों को हर संभव सहायता देती है। तो फिर यह आत्महत्या क्यों? यदि राजनीतिक चश्मा उतार कर देखा जाए तो कारण समझ में आ जाएगा। आखिर सरकार द्वारा दी जाने वाली रुपयों की सहायता से न तो फसल उगाई जा सकती है और न बचााई जा सकती है। फसल उगाने के लिए बुनियादी जरूरत है पानी की। जिसे हम लगभग गंवाते जा रहे हैं। 

हर वर्ष बढ़ती गरमी अपने पिछले रिकाॅर्ड तोड़ती नज़र आती है। जल स्रोत तेजी से सूखते जा रहे हैं या फिर उनका जलस्तर निरंतर गिरता जा रहा है। वृक्षों और पोखरों में स्वच्छन्द जीवन बिताने वाले पक्षियों के लिए मुट्ठी भर दाने और एक सकोरा पानी रख देने भर से हम अपने दायित्वों से मुक्त नहीं हो सकते हैं। यह एक सकोरा पानी भी तब तक ही हम पक्षियों को दे सकेंगे जब तक हमारे पास अपनी प्यास बुझाने के लिए प्र्याप्त पानी होगा लेकिन हमारी प्यास भी अब संकट के दायरे में आती जा रही है। हमने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए मौजूदा पीढ़ीें के लिए ही गंभीर संकट खड़े कर दिए हैं। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, नदियों से रेत का असीमित उत्खनन, जहरीली गैस उत्सर्जन करने वाले वाहनों की सीमा तोड़ती संख्या, खाद्यान्न की आपूर्ति पर जनसंख्यावृद्धि का भारी दबाव जैसे वे प्रमुख कारण हैं जो आज पानी की उपलब्धता, सांस लेने को शुद्ध हवा और तापमान के संतुलन को बिगाड़ रहे हैं और देश का पढ़ा-लिखा तबका यह सब देख कर भी अनदेखा कर रहा है। 

सन् 1992 में जब रियो में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु कंवेशन पर दस्तखत हुए, तो अमेरिका ने ग्रीनहाउस गैस पर किसी भी प्रकार की सीमा लगाने का विरोध किया। इसके विपरीत वाशिंगटन ने हमेशा राष्ट्रीय संप्रभुता की बात की, जब भी यह तय करने की बात हुई कि किस गैस को कम करना है, किस तरह, कितना और कब। सन् 1997 में अमेरिका ज्यादातर देशों की तरह क्योटो संधि में शामिल होने को तैयार हो गया, जिसमें सिर्फ धनी देशों के लिए उत्सर्जन में कमी के बाध्यकारी लक्ष्य तय किये गये थे, जो ग्लोबल वॉर्मिंग का स्रोत समझे जाने वाले कार्बन प्रदूषण के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माने जाते हैं। अमेरिका कई रियायतें हासिल करने के बाद इसके लिए तैयार हुआ.बिल किं्लटन के उपराष्ट्रपति अल गोर ने 1998 में अमेरिका की ओर से इस संधि पर हस्ताक्षर किये, लेकिन डेमोक्रैटिक प्राशासन इस संधि के औपचारिक अनुमोदन के लिये सीनेट में जरूरी दो तिहाई बहुमत कभी नहीं जुटा पाया। और जब बिल किं्लटन के बाद जॉर्ज डब्ल्यू बुश राष्ट्रपति बने तो सारी स्थिति बदल गई। पिता जॉर्ज बुश की तरह जूनियर बुश भी ऐसी संधि के विरोधी थे जो उनके विचार में विकासशील देशों को फोसिल इंधन जलाने और अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की छूट देता था जबकि धनी देशों के हाथ उत्सर्जन की सीमाओं के साथ बांध दिये गये थे। यह संधि 2005 में अमेरिका की भागीदारी के बिना शुरू हुई। रूस के हस्ताक्षर के साथ संधि को लागू करने के लिए जरूरी 55 देशों ने इस पर अनुमोदन के बाद दस्तखत कर दिये थे। कनाडा बाद में संधि से बाहर निकल आया जबकि न्यूजीलैंड, जापान और रूस ने कार्बन कटौती के दूसरे चरण में भाग नहीं लिया। सन् 2009 में दुनिया भर के देश क्योटो प्रोटोकॉल की जगह पर एक नई संधि करने के लिए इकट्ठा हुए जिसमें अमेरिका, चीन और भारत सहित सभी देशों को कार्बन कटौती के लिए सक्रिय कदम उठाने थे। लेकिन धनी और गरीब देशों के बीच बोझ के बांटने के मुद्दे पर मतभेदों के बीच कोपेनहैगन सम्मेलन विफल हो गया। कुछ दूसरे देशों के समर्थन के साथ अमेरिका ने इस पर जोर दिया कि डील को संधि न कहा जाए। अंत में बैठक में एक अनौपचारिक समझौता हुआ जिसमें औसत ग्लोबल वॉर्मिंग को औद्योगिक पूर्व स्तर से 2 डिग्री पर रोकने पर सहमति हुई, लेकिन उत्सर्जन में कटौती का कोई लक्ष्य तय नहीं हुआ.अगला लक्ष्य 2015 तक वैश्विक संधि कर लेने का हुआ जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन के शी जिनपिंग के साथ मिलकर भारत सहित 195 देशों को जलवायु संधि के लिए इकट्ठा किया। उत्सर्जन लक्ष्यों को प्रतिबद्धता के बदले योगदान कहा गया जिसकी वजह से ओबामा इस संधि का अनुमोदन कर पाए। डोनाल्ड ट्रम्प इसके लिए कुछ प्रयास भी किया। लेकिन फिर एक बार सबकुछ अधर में लटका हुआ है।

भारत पर जलवायु परिवर्तन की मार दिखने लगी है। बारिश के स्वभाव में आए बदलाव की वजह से हिमालयी राज्यों में कई नदियां रास्ता बदल चुकी हैं। वैज्ञानिक भी मान रहे हैं कि मौसम अजीब ढंग से व्यवहार करने लगा है। बीते कुछ दशकों में अरुणाचल प्रदेश और असम के कई गांव बह चुके हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक जलवायु परिवर्तन की वजह से कई नदियों ने अपना रास्ता बदल दिया है। पूर्वोत्तर भारत में काफी बारिश होती है। विशेषज्ञों के मुताबिक बीते कुछ दशकों में बारिश का स्वभाव बदला है। अब कुछ क्षेत्रों में बारिश बहुत ज्यादा और लंबे समय तक होती है। इसकी वजह से नदियां लबालब भर कर अपना रास्ता बदलने लगती हैं। नदियों के रास्ता बदलने से असम के लखीमपुर और धेमाजी जिले के कई गांव साफ हो चुके हैं। भूगर्भीय आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि कुछ नदियों ने अपना रास्ता 300 मीटर दूर तक बदला है तो कहीं कहीं नदियां 1.8 किलोमीटर दूर जा चुकी हैं। नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरन्मेंट (सीएसई) के अनुसार जलवायु की सामान्य स्थिति में बरसात पूरे साल अच्छे ढंग से बंटी रहती है। लेकिन अब जलवायु परिवर्तन की वजह से उसका स्वभाव बदला है। भारत सहित पूरी दुनिया में बड़े शहरों की आबादी तेजी से बढ़ रही है। लेकिन विशेषज्ञों की राय में यह सिर्फ शुरुआत है। सन् 2050 तक दुनिया की सत्तर फीसदी आबादी शहरों में रहेगी। भारत जैसे देश जिसकी आबादी सवा अरब है। तेजी से बढ़ती जा रही है, इन बड़े शहरों के पर्यावरण को बचाने के लिए काम करना होगा। सवा करोड़ के भारत में शहरों की घनी आबादी पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी बजा रही है। आबादी के मामले में साठ सत्तर लाख से लेकर करोड़ के आंकड़े को छूते इन शहरों में अगर फौरन पर्यावरण पर ध्यान नहीं दिया गया, तो स्थिति बेहद गंभीर हो सकती है। पहले से ही घनी आबादी वाले इन शहरों पर दबाव बढ़ेगा। बिजली की जरूरत के अलावा बुनियादी सुविधाओं की भी व्यवस्था करनी होगी। नासा की ताजा रिपोर्ट कहती है कि 2060 तक धरती का औसत तापमान चार डिग्री बढ़ जाएगा, जिससे एक तरफ प्राकृतिक जलस्त्रोत गर्माने लगेंगे, तो दूसरी तरफ लोगों का विस्थापन भी बढ़ेगा। पिछले दशक में दिल्ली की आबादी डेढ़ करोड़ से ज्यादा हो गई है। वहीं मुंबई की भी आबादी लगभग दो करोड़ का आंकड़ा पार हो चली है।

यदि इंवायरमेंटल रिफ्यूजी की बढ़ती दर को रोकना है तो हमें सबसे पहले उन सब कामों को रोकना होगा जिनसे पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है। वृक्षों को बचाना होगा तथा नए वृक्षों की पौध लगानी होगी तथा उस पौधों की ईमानदारी से रक्षा करनी होगी। सिर्फ तस्वीरें खिंचा कर और मीडिया में प्रचार करके पर्यावरण नहीं बच सकता है, इसके लिए सच्ची कोशिशें करनी होंगी, यदि हमें भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी नहीं बनना है तो।
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Thursday, April 10, 2025

बतकाव बिन्ना की | बा ऊपरे सुफेद बनो रओ, भीतरेे करिया निकरो | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम


बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
बा ऊपरे सुफेद बनो रओ, भीतरेे करिया निकरो
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
         दोरे की घंटी बजी। मैंने बायरे झांक के देखो। भैयाजी औ भौजी दिखानीं। 
इत्ते टेम? दुफैर के साढ़े ग्यारा बज रए हते। जा टेम तो उन ओरन के खाबे-पीबे को होत आए? ऐसे टेम पे बे घाम में काए निकरे? मोय तनक अचरज भओ। चिन्ता भई। बाकी मैंने तुरतईं बायरे जा के दोरे खोलो।
‘‘आप ओरे ई टेम पे? सब ठीक तो आए?’’ मोसे पूछे बिगर ने रओ गओ।
‘‘हऔ सब ठीक आए! पैले तो पानी पिला बिन्ना! बायरे भौतई गरमी आए।’’ भैयाजी कैत भए सोफा पे आ बैठे। पांछू से भौजी सोई रुमाल से अपनो मों पोंछत भईं भीतरे आईं औ कैन लगीं,‘‘जा तो घाम में अभई से लुघरिया सी छू रई। ऐसो लग रओ मनो बायरे आगी-सी लगी होय।’’
‘‘हऔ, जब के अबे तो अप्रैल ई चल रओ। मई औ जून में का हुइए?’’ कैत भई मैंने पंखा चलाओ औ किचन में जा के दो गिलास पानी ले आई।
‘‘अबे फ्रिज में बाॅटलें धरनी सुरू र्नइं करी?’’ भैयाजी एक बेर में गिलास को पूरो पानी गटकत भए पूछन लगे।
‘‘अबे नईं! अबे का आए के मौसम बदल सो रओ आए औ ऊंसई मोय प्रिज को ठंडो पानी नईं पोसात। मोय तो घड़े को पानी अच्छो लगत आए। बाकी नओ घड़ो अबे ले ने पाई। एकाद दिनां जाबी तो लाबी।’’ मैंने भैयाजी खों बताई औ पूछी, ‘‘औ लाओं?’’
‘‘नईं! तनक देर में चाय जरूर बना लइयो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘आप औ, बिन्ना खों काए परेसान कर रए? घरे चलियो सो हम पिबा देबी।’’ भौजी ने भैयाजी खों टोंको। 
‘‘ईमें परेसानी काय की? आप सोई गजब की कै रईं? अभईं बनाऊं के तनक देर में?’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘तनक ठैर के!’’ भौजी बोलीं।
‘‘आप ओरें आ कां से रए?’’ मोए पूछे बिगर रओ नईं जा रओ हतो।
‘‘अरे का बताएं, बिन्ना! संकारे चार बजे बा दमोए वारी चाची को फोन आओ के बे ओरें सागरे आ रए चाचा जू खों इते चेकअप कराने खों। औ उन्ने हम दोई खों उते तला के ऐंगर वारे अस्पताल पे मिलबे खों बोलो। सो सुभै सात बजे हम दोई उते अस्पतालें पौंचे।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘सरकारी वारे में?’’ मैंने पूछी।
‘‘नईं, उते जोन प्राईवेट अस्पताल बनी आए। बा संजय ड््राईव के इते, ऊ वारे में।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘का हो गओ चाचा जी खों?’’ मैंने पूछी।
‘‘अबे कछू नईं भओ। बाकी हम दोई खों बी जेई लगो हतो के उनकी तबीयत ज्यादा बिगरी हुइए, तभईं बे ओरें उने ले के सागरे आ रए। मनो उते अस्पताले पौंच के पतो परो के अबे उने कछू नईं भओ, बस, तनक डरा गए।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘डरा गए मने? काय से डरा गए?’’ मैंने पूछी।
‘‘भओ का के दो-ढाई मईना पैले उनके सीने में दरद उठो रओ। उन्ने उतई दमोय में डाक्टर खों दिखाओ। दो दिनां भरती बी रए। डाक्टर ने बताई रई के हल्को सो अटैक आओ रओ। बाकी अब तो लग रओ के बा हार्ट को अटैक रओ के गैस को अटैक? डाक्टर ने सई बताओ रओ के नईं?’’ भैयाजी बोले।
‘‘काए? आप ऐसो काए कै रए? जबे डाक्टर ने हार्ट को अटैक कओ रओ, तो हार्ट ई को अटैक रओ हुइए।’’ मैंने कई।
‘‘कछू नईं कओ जा सकत बिन्ना! देख नई रईं, बा फर्जी डाक्टर खों कैसे पुलिस पकर लाई।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, बा तो गजब को फ्राडिया निकरो।’’ मैंने कई।
‘‘औ का! ओई को तो दिखाओ रओ इन ओरन ने। सो अब डरा गए के का पता ऊने का दबाई दई, औ का करो। कईं अब ने कछू हो जाए। मनो इत्ते दिनां बाद कछू ने हुइए। पर दिल में डर तो बैठई जात आए। सो चाचा जू खों जब से पता परी के बा डाक्टर फर्जी निकरो तब से बे घबड़ा रए हते। फेर उनके बड़े वारे मोड़ा ने सोची के जो पैले सई को हार्ट अटैक ने बी आओ रओ हुइए तो अब घबड़ात-घबड़ात सई को हार्ट अटैक आ जाहे। सो ऊने चाचा जू से कई के सागरे चल एक बेर पूरो चेकअप करा लेत आएं सो सबरी संका मिट जैहे। जेई लाने बे ओरे भुनसारे निकर परे इते के लाने।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘तो बे ओरें अब कां आए? लौट गए का?’’ मैंने पूछी।
‘‘नईं, बे ओरे उतई आएं। पूरी जांच कराबे में अबे टेम लगहे। बाकी अरजेंट में ज्यादा पइसा दे के संझा लों रिपोर्टें मिल जैहे। जे ठीक रओ के अबे जो डाक्टर ने चेकअप करो तो बे बोले के घबड़ाने की कोन ऊं बात नोंई, सब ठीक आए। बाकी जांच में पूरो पतो पर जैहे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हमने तो उन ओरन से कई रई के घरे चलो, भोजन-पानी कर के अस्पताले पौंच जाइयो। सो बे ओरें कैन लगे के दूर परहे। औ अबे मुतकी जांचे होने, इतई रुकबे से रिपोर्ट के लाने टोंकत रैबी। फेर बे ओरे हम ओरन से बोले के आप ओरे जाओ, जो कछू जरूरत परहे तो हम फोन कर देबी औ जो सब ठीक निकरहे सो बा बी बता देबी। सो, उनको कैबो बी ठीक हतो, हम ओरें उते रुक के करत बी का? इन्ने उन ओरन खों उते नास्ता-पानी करा दओ औ उतई की एक होटल में एक कमरा दवा दओ, के बे ओरें आराम कर सकें। सपर-खोंर सकें।’’ भौजी ने बताई।
‘‘जा ठीक करो। इते तक आबे में उन ओरन खों परेसानी तो होती। संगे टेम बी खराब होतो। चलो मैं अब चाय बना रई। चाय पियत भए आगे की कैबी-सुनबी।’’ कैत भई मैं उठ खड़ी भई।
किचन में पौंच के मैंने तुरतईं। कुकर में एक डब्बा में दाल धरी और दूसरे में चाऊंर। दूसरे छोटे कुकर में आलू उबलने खों धर दए। फेर चाय को पानी चढ़ाओ। तीन बर्नर वारो चूला को जेई तो फायदा रैत आए के तीन काम एक संगे करो जा सकत आएं। जब लौं मैं चाय छान के बैठक में पौंची, उत्ते में दोई कुकर सीटी मारन लगे। 
‘‘काय, तुमाओ खाना नईं बनो का? तुम तो जल्दी बना लेत आओ?’’ भौजी ने कुकर की सीटी सुन के पूछी।
‘‘मोरो खाना तो बनो धरो, जा तो आप ओरन के लाने बना रई। अब का थके-थकाए घरे जा के आप बनाहो का?’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘बिन्ना, तुम औ परेसान हो रईं!’’ भौजी खों संकोच लगी।
‘‘ऐसो बोल के मोरो जी ने दुखाओ। आप ओरे चाय पी लो फेर सब्जी छौंक के तुरतईं रोटी बना देबी, सो अच्छे से भोजन करियो औ आराम करियो। काय से जब कोनऊं के बीमारी की खबर मिले तो सरीर से ज्यादा जी में थकान हो जात आए।’’ मैंने कई।
‘‘सई में! पर देख तो बिन्ना, बा कैसो राच्छस डाक्टर आए, ऊको तनकऊं ने लगो के बा कित्तो बड़ो पाप कर रओ?’’ भौजी बोलीं।
‘‘औ का।’’ भैयाजी सोई बोल परे,‘‘ ऊने तो राष्ट्रपती जू की नकली सील-सिक्का लगा के फर्जी सर्टीफिकेट बना लओ। औ ऊपे गजब की बात जे के हार्ट की सर्जरी करत्तो ससुरो...।’’भैयाजी ने ऊके लाने तनक गारी-सी दई। बाकी ऊने कामई ऐसो करो, गरियाबे जोग।
‘‘सई कै रए भैयाजी आप! आदमी डाक्टर खों भगवान मानत आए औ अपनी जिनगी ऊके हाथ में सौंपे के सोचत आए के जा सब ठीक कर दैहे। जो ठीक आए के डाक्टर भगवान नईं होत, पर जा तो शैतान निकरो। डाक्टरी पढ़ी नईं औ कलेजा चीरन लगो, ऐसे में मरीज को रामनाम सत्त ने होतो तो औ का होतो? ऊ पापी खों तो कर्री सजा मिलो चाइए।’’ मैंने कई।
‘‘बा तो ठीक आए बिन्ना! अब तो ऊको पुलिस ने पकर लओ आए और केस फाईल कर दई गई हुइए, मनो जे बताओ के ऊके कागज-पत्तर पैले कोनऊं ने चैक ने करे? औ जोन ने नईं करो या मिली-भगत करी, उने बी पकरो जाओ चाइए। बोलो सई के नईं?’’ भैयाजी बोले।
‘‘बिलकुल सई। ऊकी लाईसेंस औ डिगरी पैलई चैक कर लए जाते तो इत्ते लोग बेमौत ने मरते।’’ मैंने कई।
‘‘सई में बिन्ना! सबने ऊको देवता घांईं समझो औ मों मांगी फीस दई। औ मिलो का? जान औ चली गई। औ जोन की जान नईं गई बे अब चाचा जू घांई डरात फिर रए के उनको इलाज पैले ठीक करो गओ के नईं। बे ओरंे ऊसईं डरा-डरा के मरे जा रए। कित्तो नीच आदमी आए बा। डाक्टर को सुफेद कपड़ा पैन्ह के करिया काम कर रओ हतो।’’ भौजी बोलीं। 
‘‘हऔ, बा ऊपरे से सुफेद बना रओ, भीतरे से करिया निकरो। बाकी अब ऊ को औ ऊ के सबई संगवारों खों अच्छी बत्ती दओ जाओ चाइए।’’ भैयाजी बोले। औ कोनऊं बात होती तो मोय भैयाजी को ऐसो कैबो बुरौ लगतो, मनो बा पापी तो गरियाबे जोग ई आए।
‘‘चलो मैं सब्जी छौंक के रोटी बना रई, तब तक आप ओरें हाथ मों धो लेओ।’’ मैंने भैयाजी औ भौजी से कई।       
बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। तब लौं मनो सोचियो जरूर ई बारे में के ईमें सासन वारन की भी लापरवाई आए के नईं? 
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