Friday, December 19, 2025

शून्यकाल | क्यों नहीं देख पा रहे हैं कोकून के बाहर फैला अनंत प्रकाश | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | क्यों नहीं देख पा रहे हैं कोकून के बाहर फैला अनंत प्रकाश | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
शून्यकाल
क्यों नहीं देख पा रहे हैं कोकून के बाहर फैला अनंत प्रकाश
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

       हम जिस ओर बढ़ रहे हैं वह चिंता जनक है। विश्व धार्मिक कट्टरपंथियों से घबराया रहता है। वहीं यदि सारी कट्टरता मिटा दी जाए तो मानवता का प्रकाश जगमगाता मिलेगा। रेशम का कीड़ा रेशम से अपना घर यानी कोकून गढ़ता है और उसी के भीतर जीवन बिताता है उसे पता ही नहीं चलता कि कोकून के बाहर अनंत प्रकाश है। कहीं हम खुद को अनंत सुविधाओं के रेशम में खुद को लपेटते जा रहे हैं, मानवता के प्रकाश को भुलाते हुए? दरअसल ये लेख है "सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के अक्टूबर-दिसम्बर 2017 अंक में प्रकाशित बतौर कार्यकारी संपादक मेरे संपादकीय का अंश। क्या तब से अब तक में कुछ बदला?... यदि बदला तो क्या और कितना?


आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
है कहां वह आग जो मुझको जलाए
है कहां वह ज्वाल मेरे पास आए
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ,
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
       - हरिवंश राय बच्चन की ये पंक्तियां दशकों बाद भी आह्वान करती हैं उस दीपक को जलाने का जिसके अभाव में सकल मानवता अपने भविष्य के प्रति बड़ा-सा प्रश्नचिन्ह उठाए खड़ी है। यह प्रश्न चिन्ह उस पृथ्वी से भी भारी है जिसे कच्छप अपनी पीठ पर ढो रहा है अथवा उससे भी अधिक भारी जिसे हर्लक्युलिस अपने कांधे पर उठाए हुए है। यह प्रश्नचिन्ह आकार ही न ले पाता यदि हम सजग होते कि कब संवेदनाओं का तेल हमारे हदय के दिए से कम होने लगा और बाती शुष्क हो चली है। यदि हमारा व्यवहार किसी अनार्की की तरह होने लगे तो यह ठहर कर सोचने का विषय है। आत्ममुग्धता इस हद तक बढ़ जाए कि व्यक्ति अनर्गल विचारों की सार्वजनिक घोषणा करने लगे तो चिन्तनीय है। कभी-कभी लगता है कि वर्तमान दौर विवादों को सप्रयास जन्म देने का दौर है। गोया एक घायल सड़क पर पड़ा है और यदि कोई उस घायल से सबका ध्यान हटाना चाहता है तो उसे करना सिर्फ़ इतना ही है कि सबकी नज़र बचा कर भीड़ पर एक गिट्टी उछाल दे और फिर होने दे तू-तू, मैं-मैं। कहीं हम इसी दूषित सोच की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं? हमारी दृष्टि का वह परिष्कार कहां गया जिसमें ताजमहल हमें कला की अनुपमकृति दिखाई देता था और खजुराहो को हम कलातीर्थ की संज्ञा देते थे। कोई भी नवीन शोध दृष्टिकोण के नए रास्ते प्रशस्त करता है किन्तु पूर्वाग्रहपूर्ण रास्तों पर चलते हुए कोई नवीन शोध हो ही नहीं सकता है। नवीन शोध अपने आप में एक ऐसी प्रविधि होती है जो जीवन के प्रत्येक बिन्दु को प्रभावित करती है। इस तथ्य को समझने के लिए दृष्टिपात किया जा सकता है प्रो. चोम्स्की के भाषा संबंधी शोधकार्य पर।
  मेसाचुएटस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालाजी के सेवानिवृत्त  प्राध्यापक, भाषावैज्ञानिक, दार्शनिक, लेखक एवं राजनैतिक एक्टीविस्ट प्रो. एवरम नोम चोम्स्की। प्रो. चोम्स्की के भाषा विज्ञान से कम्प्यूटर की प्रोग्रामिंग भाषाओं को समझने में सुगमता होती है। विकासवादी मनोविज्ञान और गणित के क्षेत्र में भी चोम्स्की के भाषाई सिद्धांतों से मदद ली जाती है। चोम्सकी ने मनोविज्ञान के प्रसिद्ध वैज्ञानिक बी. एफ. स्कीनर की पुस्तक ‘वर्बल बिहेवियर’ की आलोचना की, जिसके बाद संज्ञानात्मक (काग्नीटिव) मनोविज्ञान के क्षेत्रा में मानो क्रांति ही हो गई और दशाओं को समझने के नवीन सिद्धांत सामने आए। सन् 1984 में चिकित्सा विज्ञान एवं शरीर विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार विजेता नील्स काज जेरने ने चोम्स्की के जेनेरेटिव माडल का प्रयोग मानव शरीर में स्थित प्रोटीन संरचनाओं के गठन एवं शरीर की प्रतिरक्षा में उसके महत्व को समझाने के लिए किया था। अपने शोध ‘द जेनेरेटिव ग्रामर ऑफ इम्यून सिस्टम’ में जेरने ने प्रो. चोम्स्की के सिद्धांतों को आधार बना कर जेटेरेटिव व्याकरण प्रतिपादित किया। यदि प्रो. चोम्स्की के उदाहरण को लें तो यह निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि भाषा और साहित्य जीवन की प्रत्येक चेष्टाओं को प्रभावित एवं प्रेरित करते हैं। बशर्ते शोध ईमानदारी से किए गए हों। यूं भी जीवन और साहित्य सिक्के के दो पहलू हैं अथवा यूं भी कहा जा सकता है कि ये दोनों परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। जीवन से साहित्य उपजता है और साहित्य से जीवन को दिशा मिलती है। भारत विभाजन की त्रासदी और उस त्रासदी की पीड़ा को इतिहास के पन्नों से कहीं अधिक खुल कर साहित्य के पन्नों ने मन-मस्तिष्क के करीब पहुंचाया।
   डोमेनिक लैपियर एवं लैरी कॉलिंस के ‘फ्रीडम एट मिड नाईट’, खुशवंत सिंह के ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’, सलमान रुश्दी के ‘मिडनाईट चिल्ड्रेन’ और सआदत हसन मंटो के कथा साहित्य जैसे इतर भाषा के साहित्य के उदाहरणों से परे हिन्दी साहित्य में ही देखा जाए तो प्रसिद्ध उपन्यासकार यशपाल का दो खंडों में प्रकाशित उपन्यास ‘झूठा सच’ विभाजन की त्रासदी पर हिन्दी में लिखा गया पहला ऐसा उपन्यास है जो इसे विराट ऐतिहासिक, राजनीतिक फलक पर सामने रखता है। बदीउज्जमा का ‘छाको की वापसी’ और कमलेश्वर का ‘कितने पाकिस्तान’ भी विभाजन पर हिन्दी में लिखे गए उल्लेखनीय उपन्यास हैं। विभाजन को लेकर लिखा गया भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’ भी पाठकों को कालयात्रा कराते हुए अंतस तक सिहरा देता है। राही मासूम राजा का ‘आधा गांव’ भी विभाजन से पहले की घटनाओं और इसके कारण प्रभावित सामाजिक ताने-बाने से परिचित कराता है। हिन्दी की शीर्षस्थ कथाकार कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान’ ने पाकिस्तान स्थित पंजाब के गुजरात से विस्थापित होकर पहले दिल्ली में शरणार्थी के रूप में आने और फिर भारत स्थित गुजरात के सिरोही राज्य में वहां के राजकुमार की गवर्नेस के रूप में नौकरी करने वाले पात्र की कहानी है। विशेष बात यह है कि यह उपन्यास कथानक की खांटी सच्चाई को उजागर करता है क्योंकि अकसर उपन्यासों के कथानक के संबंध में लेखक का कथन होता है कि उपन्यास के पात्र और वर्णित घटनाएं काल्पनिक हैं, लेकिन इसमें लिखा गया कि इसके सभी पात्र और घटनाएं वास्तविक और ऐतिहासिक हैं। उपन्यास का पात्र सिकंदरलाल विभाजन पर टिप्पणी करते हुए कहता है कि ‘यह तवारीख़ का काला सितारा सियासत पर यूं ग़ालिब हुआ कि जिन्ना ने दौड़ाए इस्लामी घोड़े और गांधी, जवाहर ने पोरसवाले हाथी।’ कृष्णा सोबती के इस उपन्यास से पहले भी कई उपन्यास आए जिन्होंने विभाजन और शरणार्थियों की त्रासदी के रोंगटे खड़े कर देने वाले विवरण प्रस्तुत किए। इसी तारतम्य में स्मरण की जा सकती है ‘अज्ञेय’ की वे दो कविताएं जो उन्होंने 12 अक्तूबर 1947 से 12 नवंबर 1947 के बीच लिखी थीं। पहली कविता इलाहाबाद में और दूसरी मुरादाबाद रेलवे स्टेशन पर। इसमें ‘शरणार्थी’ शीर्षक वाली यह लंबी कविता ग्यारह खंडों में है और उस समय की त्रासदी का बेहद मार्मिक चित्राण करती है।
   शरणार्थी होने की त्रासदी झेल रहे हैं रोहिंग्या भी। म्यांमार के सबसे ग़रीब प्रांत रख़ाइन में 10 लाख से ज़्यादा रोहिंग्या रहते थे  और उन्हें वहां का नागरिक नहीं माना गया। राष्ट्र संघ के आंकड़ों के मुताबिक 40,000 रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार की सीमा पार कर बांग्लादेश पहुंचे। नोबल पुरस्कार विजेता मलाला युसुफ़जई ने सवाल किया, ‘अगर उनका घर म्यांमार में नहीं है तो उनकी पीढ़ियां कहां रह रही थी? उनका मूल कहां है?’ उन्होंने कहा, ‘रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार की नागरिकता दी जाए। वह देश जहां वे पैदा हुए हैं।’
    क्या सभी देशों को द्रवित होने के लिए उस तस्वीर की प्रतीक्षा है जो एलन कुर्दी की थी। वह कुर्दी मूल का तीन वर्षीय सीरियाई बालक था जिसके शव की तस्वीर पूरे विश्व को कंपकपा गई थी। एलन का परिवार सीरियाई गृहयुद्ध से बचने के लिए 2 सितंबर 2015 को एक नौका में तुर्की से ग्रीस जाने की कोशिश कर रहा था, पर नौका के डूबने से एलन की मौत हो गई और उसका शव लावारिस की तरह समुद्र तट पर पड़ा मिला। यह तो तय करना ही होगा कि ऐसी मौतें और नहीं हों।

और अंत में मेरी यह कविता -
बुन रखा है हमने
अपनी जातीयता, अपनी राजनीति
अपने समाज, अपने अर्थशास्त्र
और नितांत अपनी आकांक्षाओं का कोकून
जिसके भीतर है 
साम्राज्य गहन अंधकार का,
इससे पहले कि
घुट जाए दम आंखों का,
समझना होगा-
कोकून के बाहर फैला है अनंत प्रकाश
जो बना सकता है हमें
प्रकृति की तरह,
सार्वभौमिक, सर्वहितकारी
घुटनरहित, कुण्ठारहित, द्वंद्वरहित।
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Thursday, December 18, 2025

बतकाव बिन्ना की | कछू नईं से पुराने गरम हुन्ना बी चलहें, मनो देओ तो | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बतकाव बिन्ना की | कछू नईं से पुराने गरम हुन्ना बी चलहें, मनो देओ तो | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम
बतकाव बिन्ना की            
कछू नईं से पुराने गरम हुन्ना बी चलहें, मनो देओ तो                               
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
           
‘‘काए भैयाजी का कर रए? का धूप दिखाबे के लाने जे सब निकारे आएं?’’ मैंने भैयाजी से पूछी। बे पलकां पे गरम कपड़ा बगराए बैठे हते। 
‘‘अरे नईं, धूप दिखाबे के लाने नोंई, जा तो छांटबे के लाने निकारे आएं। का है के कछू तो भौतई पुराने हो गए के अब इने पैन्हबे को जी नईं करत। औ कछू ओछे परन लगे। टाईट से होत आएं। हमें तो समझ नईं पर रई के इनको का करो जाए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘कछू ने करो! धरे रऔ! चार पीढ़ी के बाद कोनऊं के काम आई जैहें।’’ भौजी ने भैयाजी खों टोंट मारी।
‘‘अरे तो का करिए? तुमई बताओ।’’ भैयाजी झल्लात भए भौजी से बोले।
‘‘हम तो बता रए के हम तुमाए लाने नोंन, तेल औ हरदी ल्याए दे रए, इनको अथानों डार देओ। फेर चाट-चाट के खात रहियो।’’ भौजी ने एक टोंट औ जड़ दओ।
‘‘तुमसे तो कछू कैबोई फजूल आए।’’ भैयाजी बड़बड़ात भए बोले।
‘‘आप ओंरे काए गिचड़ रए? का हो गओ?’’ मैंने पूछी। बाकी मोए कछू-कछू समझ में तो आ रई हती के मामलो का आए। फेर बी उन ओरन से बुलवाबो तो बनत्तो।
‘‘का आए बिन्ना के तुमाए भैयाजी के जे जो गरम कपड़ा आएं। ईमें से कछू इने ओछे होन लगे, कछू पुराने होबे के कारन इनसे पैन्हने नईं जा रए। अब सल्ल जे आए के इनको का करो जाए। हमने तो कई के कोनऊं गरीब-गुरबा खों दे देओ। बा तुमाए पांव परहे औ खुसी-खुसी पैन्ह लैहे। पर इनकी मति सो अलगई चलत आए। जे कैत आएं के हमाए पुराने कपड़ा को लैहे?’’ भौजी मोए बतात भई बोलीं।
‘‘औ का! को ले रओ पुरानो हुन्ना? सबई खों नए चाऊंने। अबे कऊं दान वारी जांगा में जाओ सो बे सोई कैंहे के जे का पुराने-सुराने उठा ल्याए, नए ल्याते!’’ भैयाजी बोले।
‘‘ऐसो कछू नइयां भैयाजी! अपने इते सबई जांगा मुतके लोग ऐसे आएं जोन के पास गरम का, सादे कपड़ा बी पूरे नईयां पैन्हबे जोग। उनके लाने तो जा जड़कारो जीबे-मरबे को मामलो आए। आप जो उने जे अपने पुराने हुन्ना दे देओ सो उनके लाने तो ठंडी से बचबे को सहारो हो जाए। कओ उनके प्रान बच जाएं।’’ मैंने भैयाजी से गई।
‘‘नईं, पैले तो लेत्ते पुराने हुन्ना, मनो अब कोऊ लैहे बी के नईं?’’ भैयाजी के मन की संका ने गई।
‘‘काए ने लैहे। मैंने कई ने के जोन के लिंगे कछू नइयां उनके लाने तो आपके जे पुराने हुन्ना ई सब कछू हो जैहे। तनक दे के तो देखो।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘जेई सो हम कै रए। पर जे हमाई माने तब न!’’ भौजी मुंडी हिलाउत भई बोलीं।
‘‘काए बिन्ना! तुम हमें तो सिखापन दे रईं मनो तुम खुदई हर साल नए कंबल ले के बांटत आऔ।’’ भैयाजी ने मोए टुंची करी।
‘‘नए जेई लाने खरीदने परत आएं के पुराने कंबल घरे नईं धरे। जो धरे होते सो ओई खों देत फिरती। का आए के मोरी मताई कैत्तीं के जड़कारे में गरम कपड़ा बांटे से बड़ो पुन्न मिलत आए। सो तनक पुन्न कमाबे की कोसिस करत रैत हों। बाकी ज्यादा तो मोरी हैसियत नोंई।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई कैत्तीं अम्मा जी! जड़कारे में कोनऊं को पैन्हत को, ओढ़त-बिछात को गरम कपड़ा दे देओ, कभऊं ठंड से ठिठुरत भओं को मुफत में चाय-माय पिला देओ सो ईसें भौत दुआएं मिलत आएं। जेई से तो हम तुमाए भैयाजी से कै रए के अब इनें फेर के पुटरियां बांद के ने धरियो। इनमें से जोन खों काम में नईं लाने उने कोऊ जरूरत वारे खों दे देओ। पर जे हमाई सुने तब न!’’ भौजी बोलीं।
‘‘सईं तो कै रईं भौजी। भैयाजी, अब आप सोच-संकोच छोड़ो औ देबे वारे गरम हुन्ना अलग रख लेओ। आजई रात खों चलबी औ अपन तीनों चल के बांट आबी। देखियो कित्तो अच्छो लगहे।’’ मैंने भैयाजी से कई। 
‘‘जा हम सोई जानत आएं, बाकी हमें जेई की हिचक लग रई हती के पुराने हुन्ना देख के कोनऊं बिगर ने परे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘को बिगरहे? औ काए बिगरहे? आज आप ग्यारा-बारा बजे रात को मोरे संगे चल के देखो के जोन के पास कछू गरम हुन्ना ने आएं बे कैसे ठिठुरत रैत आएं। आप से उनकी दसा देखी ने जैहे। फेर कइयो के बे आपके पुराने हुन्ना काए ने लैहें।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ, कै तो ठीक रईं तुम! चलो हमाए दिल की टांटा मिटी। तो तुम चलहो ने संगे?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हऔ, काए ने चलबी। मोए तो ई सब में भौत अच्छो लगत आए। मैं सोई अबे जा के कछू देख लैहों। हो सकत के मोरो एकाद पुरानो सूटर कढ़ आए। बाकी कंबल सो कोनऊं दिनां देने ई आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘औ का बिन्ना, बात जरूरत की होत आए, नए-पुराने की नईं। पैले घरई में जा चलत्तो के बड़ी भैन को छोंटबे वारी फ्राक छोटी वारी खों दे दई जात्ती।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, हम सोई अपनी पुरानी किताबें अपने से छोटी क्लास वारों खों दे देत्ते।’’ भैयाजी जोस में आके बतान लगे।
‘‘सो ऐसई तो जे मामलो आए के जो आप के काम की ने होए बा सामान ऊको दे देओ जोन के पास कछू नइयां। औ मुतकी संस्था ऐसी आएं जो ‘नेकी की दीवार’ नांव से रैक खड़ो कर देत आएं जीमें जोन चाए वो अपने पुराने हुन्ना, लत्ता उते जा के धर सकत आए। जोन खों जरूरत रैत आए बे उते से उठा लेत आएं। मैंने तो खुदई मईना भर पैले ऐसई इक दीवार पे अपने कछू हुन्ना धरे हते। बाकी गरम कपड़ा तो सूधे उनईं खों दए जा सकत आएं जोन खों ईकी जरूरत होए। जब बे अपनी आंखन के आंगू ऊको पैन्हत आएं, ने तो ओढ़त आएं तो बड़ो चैन सो मिलत आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई कै रईं तुम दोई! आज रातई खों अपन चलबी औ जड़कारे में ठिठुरत भओं को जा सुटर-मूटर बांट आबी।’’ भैयाजी जोस से भरत भए बोले।
‘‘जे भई ने बात! चलो, जेई बात पे हम पैले तुम दोई को जड़कारो मिटाएं तुम ओरन खों चाय पिला के।’’ कैत भईं भौजी हंस परीं। बे खुस हो गईं के भैयाजी अखीर मान तो गए। 
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के जोन हुन्ना-लत्ता आपके काम के ने होएं उनको घरे पुटरिया बांद के सड़न देबो अच्छो आए के ठिठुरत भओं को दे देबो?
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बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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चर्चा प्लस | वसुधैव कुटुंबकम वाली संस्कृति में अब संकटग्रस्त है कुटुंब ही | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस | वसुधैव कुटुंबकम वाली संस्कृति में अब संकटग्रस्त है कुटुंब ही | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर 


चर्चा प्लस


वसुधैव कुटुंबकम वाली संस्कृति में अब संकटग्रस्त है कुटुंब ही


- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                
  हमें अपनी भारतीय संस्कृति पर इस लिए गर्व होता है कि हमारी संस्कृति एक विस्तृत दृष्टिकोण रखती है। इसका आधारभूत सूत्र है-‘‘वसुधैव कुटुबंकम’’- अर्थात पूरी पृथ्वी एक कुटुंब है। जिस वैश्विकता की अवधारणा को हम आज डिजिटल क्रांति से जोड़ कर देखते हैं, उस अवधारणा को प्राचीन भारतीय मनीषियों ने पहले ही आत्मसात कर लिया था। सच तो यह है कि हम उस अवधारणा को बोल रहे हैं अपना नहीं रहे हैं। क्योंकि जहां कुटुंब ही छोटे-छोटे परिवारों के रूप में बंटता जा रहा हो वहां वसुधा यानी पृथ्वी को कुटुंब मानने की की बात स्वयं को धोखा देने जैसी बात है।           

          आज लगभग हर परिवार छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटता जा रहा है। पहले पति, पत्नी और बच्चों वाली लघु इकाई और फिर बच्चों के बड़े हो कर अपनी पढ़ाई और कैरियर के लिए चले जाने पर बुजुर्ग प्रौढ़ या पति, पत्नी वाली अत्युत छोटी इकाई। आज आधुनिक परिवार का स्वरूप यही है तो फिर बसुधैव कुटुंबकम कहना क्या थोथापन नहीं है? रिश्तेदार मात्र शादी-विवाह आदि के उत्सवों एकत्र होते हैं जहां धन के दिखावे के सामने संवेदनाएं दम तोड़ती रहती हैं। बड़े-बुजुर्ग वसीयत के कागजों तक उपयोगी रहते हैं अन्यथा प्रेम का प्रवाह वीडियो काॅल तक सीमित हो कर रह जाता है। कम से कम यह तो नही थी हमारी सांस्कृतिक पारिवारिक अवधारणा। आज तो एक पडा़ेसी भी दूसरे पड़ोसी से बिना स्वार्थ के हलो-हाय नहीं करता है। जबकि प्राचीन काल में परिदृश्य इसके एकदम उलट था। प्राचीन भारतीय समाज में परिवार को बहुत अधिक महत्व दिया जाता था। प्राचीन ग्रंथों से तत्कालीन पारिवारिक संरचना एवं उसके संगठन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। मानव जीवन मं दाम्पत्य जीवन का संतति की दृष्टि से बहुत अधिक महत्व था। परिवार में पुत्र तथा पुत्री की स्थिति निर्धारित रहती थी। वृद्धों के प्रति प्राचीन भारतीय समाज में परम्परागत विचार थे।
           परिवार का संगठन - परिवार मानव सभ्यता के विकास का वह रूप है जो मनुष्य को सुव्यवस्थित, सुसंगठित एवं आपसी सहयोग की भावना से रहना सिखाता है। परिवार को समाज का एक ऐसा लघु रूप कहा जा सकता है जिसमें हर आयु वर्ग के, विभिन्न विचारों वाले मनुष्य एक साथ रहते हैं तथा परस्पर सहयोग के द्वारा अपना संगठन बनाए रखते हैं। इस संगठन का आधार प्रायः रक्त संबंध तथा वैवाहिक संबंध होता है। परिवार के संबंध में आधुनिक समाजशास्त्रियों के जो विचार हैं लगभग वही विचार प्राचीन भारतीय समाज में भी पाए जाते थे।
          बर्गेस एवं लॅाक के अनुसार-‘ परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो विवाह, रक्त अथवा गोद लेने के संबंधों द्वारा संगठित है। एक छोटी-सी गृहस्थी का निर्माण करता है और पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन के रूप में एक दूसरे से अंतःक्रियाएं करता है तथा एक सामान्य संस्कृति का निर्माण और देख-रेख करता है।’
          प्राचीन भारत में परिवार का बहुत अधिक महत्व था। परिवार का मुख्य उद्देश्य संतति होता था। समाज की इकाई के रूप में भी परिवार महत्वपूर्ण होता था। परिवार के कुछ महत्वपूर्ण उद्देश्य थे -
           (क) परिवार मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था।
           (ख) यह सामाजिक संरचना को बल प्रदान करता था।
           (ग) यह चारो पुरुषार्थों का निर्वाह करने में सहायता प्रदान करता था।
           (घ) परिवार गृहस्थाश्रम की आवश्यकताओं को पूरा करने का अवसर प्रदान करता था।
           (ङ) यह संतति तथा संतान के लालन-पालन के लिए उचित वातावरण प्रदान करता था।
           (च) परस्पर सहयोग का वातावरण प्रदान करता था।

          युवा स्त्री तथा युवा पुरूष विवाह करके परिवार का निर्माण करते थे। वे संतानोत्पत्ति करते थे तथा अपने वंश को आगे बढ़ाते हुए सुखमय जीवन व्यतीत करते थे। आयु बढ़ने के साथ-साथ वे अपनी संतानों पर निर्भर होते जाते थे। वृद्धावस्था में वे अपने घर में अपने परिवार के बीच रह कर जीवन व्यतीत कर सकते थे अथवा वानप्रस्थ में जा सकते थे । वे सन्यास ग्रहण करके देशाटन भी कर सकते थे।
          मुखिया -परिवार में एक साथ कई सदस्य रहते थे- माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधुएं, पौत्र, पौत्री, बंधु, बंधु-पत्नी आदि। परिवार का स्वरूप संयुक्त कुटुम्ब का होता था। परिवार का सबसे बड़ी आयु का व्यक्ति परिवार का मुखिया होता था। ऋग्वेद में परिवार के मुखिया के लिए ‘कुलपा’ शब्द का प्रयोग किया गया है।  प्रायः पिता परिवार का मुखिया होता था। पितामह (पिता के पिता) के साथ रहने पर पितामह परिवार का मुखिया माना जाता था। परिवार का मुखिया परिवार के सभी सदस्यों को एकसूत्र में बंाधे रखने का कार्य करता था। उसके आदेश का पालन करना सभी सदस्यों के लिए अनिवार्य होता था। सभी सदस्यों द्वारा उसे सम्मान दिया जाता था। वह सभी सदस्यों से प्रेमपूर्ण व्यवहार करता था। परिवार का मुखिया परिवार के किसी भी सदस्य को उसकी उद्दण्डता के लिए दण्डित कर सकता था। यह दण्ड संपत्ति में भागीदारी से अलग कर दिए जाने का भी हो सकता था। परिवार की संपत्ति पर परिवार के मुखिया का अधिकार होता था। प्राचीन विद्वानों ने परिवार के मुखिया की मुत्यु के पूर्व अथवा पिता की मृत्यु के पूर्व संतानों में संपत्ति के विभाजन को अनुचित माना है। गौतम धर्मसूत्र, मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार -‘पिता के जीवित होते हुए पुत्र का संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता है।’
      स्मृति ग्रंथों में संपत्ति के अधिकार के संबंध में संतानों के लिए ‘अनीश’ शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसका अर्थ होता है जो संपत्ति का स्वामी न हो। कौटिल्य ने भी पिता के जीवनकाल में पुत्रों को संपत्ति का स्वामी नहीं माना है तथा ऐसे पुत्रों के लिए ‘अनीश्वर’ शब्द का प्रयोग किया है। ‘अनीश्वर’ अर्थात्  संपत्ति पर जिसका अधिकार न हो।
         पिता - प्राचीन भारतीय परिवारों में पिता परिवार का मुखिया होता था। वह अपने परिवार के लालन-पालन करता था। परिवार के सभी सदस्य  उसकी आज्ञा का पालन करते थे तथा उसके परामर्श पर ही कोई कार्य करते थे। पिता का यह दायित्व होता था कि वह अपनी पत्नी अर्थात् परिवार की माता की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखे। वह अपनी संतानों की शिक्षा, पोषण तथा बहुमुखी विकास के लिए उत्तरदायी होता था। ऐतरेय बाह्मण के अनुसार पिता का पुत्र पर पूरा अधिकार रहता था। वह उसे प्रेम कर सकता था तथा दण्डित कर सकता था। पिता का दायित्व होता था कि वह अपने परिवार के सदस्यों में अनुशासन बनाए रखे। इसके लिए उसे कठोर कदम उठाने के भी अधिकार थे। वह अपने परिवार के सदस्यों को उनकी त्रुटियों, उद्दण्डता अथवा पारिवारिक नियमों की अवहेलना करने के अपराध में दण्डित कर सकता था। पारिवारिक न्याय करते समय वह संबंधों को महत्व नहीं दे सकता था। ऋग्वेद में ऋजाश्व की कथा का उल्लेख मिलता है। ऋजाश्व की लापरवाही के कारण सौ भेड़ों को भेड़िए ने खा लिया। इस घटना से क्रोधित हो कर ऋजाश्व के पिता ने उसे अंधा कर के दण्डित किया।  मनुस्मृति में भी कठोर दण्ड का उल्लेख किया गया है। मनुस्मृति के अनुसार- ‘पत्नी, पुत्र, भाई अथवा दास यदि कोई अपराध करे तो उन्हें रस्सी के कोड़े अथवा बेंत से पीठ पर मार कर दण्डित करना चाहिए।’ यह व्यवस्था दायित्वों के सही निर्वाह को बनाए रखने के लिए थी न कि पिता द्वारा तानाशाही के लिए, जैसा कि प्रायः गलत ढंग से व्याख्यायित कर दिया जाता है।
          माता - प्राचीन भारतीय परिवार में पिता के उपरान्त माता को ही सबसे अधिक महत्व दिया जाता था। माता का दायित्व होता था कि वह अपने पति तथा अपनी संतानों की उचित देख-भाल करे। अपनी संतानों को प्रेम करे तथा उनसे आदर प्राप्त करे। ऋग्वेद के अनुसार पुत्रवती माता का परिवार में उच्च स्थान होता था। ऋग्वेद में सती प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता है। जिससे पता चलता है कि विधवा होने पर माता का सम्मान कम नहीं होता था।
         संतान तथा अन्य संबंधी - संतान तथा अन्य संबंधियों का परिवार के प्रति उत्तरदायित्व होता था। परिवार में संगठन बनाए रखना, एक दूसरे के प्रति परस्पर प्रेम तथा आदर की भावना रखना, संकट के समय परस्पर एक-दूसरे की सहायता करना तथा मिलजुल कर अन्न उगाना अथ्वा शिकार करना आदि संतानों तथा अन्य निकट संबंधियों के लिए अनिवार्य था। संतानों से अपेक्षा की जाती थी कि वे परिवार के मुखिया, माता, अपने बड़े भाई-बहन का आदर करें। परिवार के मुखिया तथा माता का कहना मानें। परिवार के मुखिया के घर पर न होने पर घर के बड़े पुत्र का कहना मानें।
          इस प्रकार प्राचीन भारत में पारिवारिक संगठन को बनाए रखने के प्रति विशेष ध्यान दिया जाता था। तत्कालीन परिवर का स्वरूप मुख्य रूप से केन्द्रीकृत था। संयुक्त अर्थात् अधिक सदस्यों वाले परिवार अच्छे माने जाते थे। इसीलिए प्राचीन ग्रंथों में परिवार को ‘कुल’ अथवा ‘कुटुंब’ कहा गया है। आज कुटुंब की अवधारणा को फिर ये समझने और उसे अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि परिवार के बड़े-बुजुर्गों की छत्र-छाया के बिना पलने, बढ़ने वाले बच्चे स्वच्छंदता का पाठ पढ़ते जा रहे हैं और इससे समाज में उद्दण्डता बढ़ रही है।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 18.12.2025 को प्रकाशित) 
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Tuesday, December 16, 2025

पुस्तक समीक्षा | आकलन की समग्रता रखती है एक विशेष अर्थवत्ता संदर्भ ‘चांद गवाह’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | आकलन की समग्रता रखती है एक विशेष अर्थवत्ता संदर्भ ‘चांद गवाह’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
पुस्तक समीक्षा 
आकलन की समग्रता रखती है एक विशेष अर्थवत्ता संदर्भ ‘चांद गवाह’
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - चांद गवाह-उर्मिला शिरीष : स्त्री, प्रेम और प्रकृति का पर्याय 
संपादक        - डाॅ. बिभा कुमारी
प्रकाशक     - अमन प्रकाशन, 104-ए/80 सी, रामबाग, कानपुर-208012 (उप्र)
मूल्य       - 525/-
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    हाल ही में लेखिका डाॅ बिभा कुमारी के संपादन में एक पुस्तक आई है -‘‘ चांद गवाह-उर्मिला शिरीष : स्त्री, प्रेम और प्रकृति का पर्याय’’। यह हिन्दी साहित्य की सुपरिचित कथाकार उर्मिला शिरीष के उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ पर केन्द्रित है। किसी पुस्तक का लिखा जाना, उसका प्रकाशित हो कर पाठकों तथा समालोचकों तक पहुंचना एवं उस पर लोगों के विचार तय करते हैं कि वह पुस्तक कालजयी तत्वों से युक्त है या नहीं। यह प्रक्रिया किसी त्वरित टिप्पणी की अपेक्षा अधिक समय की मांग करती है तथा उसका महत्व भी त्वरित टिप्पणी से कहीं अधिक एवं विश्वसनीय होता है। मिथिला विश्वविद्यालय के विश्वेश्वर सिंह जनता महाविद्यालय, राजनगर में हिन्दी की विभागाध्यक्ष डाॅ बिभा कुमारी द्वारा संपादित यह पुस्तक उन सभी लेखों एवं समीक्षाओं का संकलन है जो उर्मिला शिरीष के उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ पर हैं। इस उपन्यास पर मैंने भी अपनी समीक्षात्मक कलम चलाई थी और ‘‘आचरण’’ के इसी काॅलम में वह समीक्षा प्रकाशित हुई थी। मेरी वह समीक्षा भी इस पुस्तक में शामिल की गई है। उर्मिला शिरीष के उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ का आकलन करते हुए मैंने लिखा था कि ‘‘फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो ने कहा था कि ‘‘मनुष्य स्वतंत्र जन्म लेता है किन्तु जीवन भर सर्वत्र जंजीरों से जकड़ा रहता है।’’ यह प्रसिद्ध कथन उनकी पुस्तक ‘‘सोशल कांट्रेक्ट’’ में मौजूद है। सोशल कांट्रेक्ट अर्थात् सामाजिक अनुबंध या और सरल शब्दों में कहा जाए तो सामाजिक बंधन। यह सामाजिक बंधन प्रत्येक व्यक्ति को समाज के नियमों के अनुरूप जीने को बाध्य करता है। सामाजिक व्यवस्था की बात की जाए तो इसके अंतर्गत सबसे बड़ी व्यवस्था है वैवाहिक संबंध। समाजशास्त्रियों के अनुसार विवाह विषमलिंगी व्यक्तियों के परस्पर मिलन से कहीं अधिक गंभीर अर्थ रखता है। विवाह वह संस्था है जो बच्चों को जन्म देकर सामाजिक ढांचे का निर्माण करती है। विवाह पुरुषों और स्त्रियों को परिवार में प्रवेश देने की संस्था है। विवाह के द्वारा स्त्री और पुरुष को यौन सम्बन्ध बनाने की सामाजिक स्वीकृति और कानूनी मान्यता प्राप्त हो जाती है। विवाह परिवार का प्रमुख आधार है, जिसमें संतान के जन्म और उसके पालन-पोषण के अधिकार एवं दायित्व निश्चित किये जाते हैं। समाजशास्त्री जाॅनसन का मानना है कि ‘‘विवाह के सम्बन्ध में अनिवार्य बात यह है कि यह एक स्थाई सम्बन्ध है जिसमें एक पुरुष और एक स्त्री समुदाय में अपनी प्रतिष्ठा को खोए बिना सन्तान उत्पन्न करने की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करते हैं।’’ वहीं बोगार्ड्स मानते हैं कि ‘‘विवाह स्त्री और पुरुष के पारिवारिक जीवन में प्रवेश करने की संस्था है।’’ भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पश्चिमी समाजों की अपेक्षा विवाह का सर्वाधिक महत्व है। इसीलिए भारतीय समाजशास्त्रियों मजूमदार और मदान का कहना है कि ‘‘विवाह एक सामाजिक बंधन या धार्मिक संस्कार के रूप मे स्पष्ट होने वाली वह संस्था है, जो दो विषम लिंग के व्यक्तियों को यौन संबंध स्थापित करने एवं उन्हें एक दूसरे से सामाजिक, आर्थिक संबंध स्थापित करने का अधिकार प्रदान करती है।’’ लेकिन क्या हमेशा वैसा ही होता है जैसा कि समाजशास्त्र की संकल्पनाओं, धारणाओं, व्यवस्थाओं और परिभाषाओं में लिखा हुआ है? नहीं, हमेशा इस प्रकार की नियमबद्धता नहीं रह पाती है क्योंकि विवाह मात्र एक कानूनी अनुबंध नहीं होता है अपितु इससे बढ़ कर मानसिक अनुबंध होता है जिसमें पति-पत्नी के बीच परस्पर प्रेम और भावनाओं का सम्मान करने की बुनियादी शर्त होती है। इसीलिए बेमेल अथवा इच्छाविरुद्ध विवाह की स्थिति में वैवाहिक संबंध बिखरते चले जाते हैं। जब टूटन सारी सीमाएं लांघ जाती हैं तो विवाह-विच्छेद ही विकल्प बचता है। किन्तु भारतीय समाज में विवाह-विच्छेद आसान नहीं है। कानून एक निश्चित अवधि के ‘‘सेपरेशन पीरियड’ के बाद विच्छेद पर मुहर लगा देता है किन्तु समाज का रुख हमेशा कठोर रहता है। विशेषरूप से स्त्री के पक्ष में। भारतीय समाज एवं परिवार स्त्री को विवाह-विच्छेद की अनुमति सहजता से नहीं देता है। स्त्री को ही हर तरह से विवश किया जाता है कि वह अपने वैवाहिक संबंध को हरहाल में निभाए। इस संबंध में बड़ा दकियानूसी-सा डाॅयलाॅग हुआ करता था जिसका भारतीय सामाजिक सिनेमा में बहुतायत प्रयोग किया जाता था, जब पिता अपनी बेटी को ससुराल विदा करते हुए कहता था कि ‘‘अब तू पराई हो गई। जिस घर में तेरी डोली जा रही है वहां से तेरी अर्थी ही उठना चाहिए।’’ यानी वह हर विषम परिस्थिति को झेलती हुई अपनी ससुराल में जीवन पर्यन्त टिकी रहे। इसी धारणा के चलते दहेज हत्याओं के प्रकरण बहुसंख्यक रहे हैं। 
ये सभी समाजशास्त्रीय विवरण तब अपने आप जागृत हो उठे जब हिन्दी साहित्य की प्रतिष्ठित कथाकार उर्मिला शिरीष का ताजा उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ पढ़ा। स्त्रीपक्ष के उन संदर्भों को इस उपन्यास में उठाया गया है जो मानसिक प्रताड़ना का एक कोलाज़ सामने रखते हैं। उस कोलाज़ को देखते हुए यही प्रश्न मन में कौंधता है कि क्या एक स्त्री अपनी इच्छानुसार अपना जीवन जी सकती है? बड़ा पेंचीदा प्रश्न है। समाज की पहली पंक्ति में मौजूद अपनी सफलता की कहानियां अपनी अंजुरी में उठाई हुई स्त्रियों को देख कर यह भ्रम होता है कि वे अपनी इच्छानुसार अपना जीवन जी पा रही हैं। जबकि सच्चाई इससे ठीक उलट होती है। विवाह के ‘‘सोशल कांट्रेक्ट’’ में सबसे अधिक समझौते स्त्री को ही करने पड़ते हैं। उस पर यदि यह संबंध दबाव डाल कर थोप दिया गया हो तो एक घुटन भरी ज़िन्दगी उनके नाम दर्ज़ हो जाती है। अधिकांश स्त्रियां हालात से समझौता कर लेती हैं किन्तु कुछ विद्रोह का साहस जुटा लेती हैं। उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ को पढ़ते हुए विद्रोही नायिका दिशा का विद्रोह अनेक बार असमंजस में डाल देता है। क्योंकि हम परंपरावादी समाज में रहते हैं और जब वैवाहिक परंपराएं टूटती हैं तो संबंध कांच की तरह टूट कर बिखर जाते हैं और उसकी किरचें देह एवं आत्मा को लहूलुहान करती रहती है।’’ 

उर्मिला जी का यह उपन्यास अपने आप में अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण है। इसमें स्त्रीविमर्श के साथ गाढ़ा समाज विमर्श भी है। बिभा कुमारी ने पुस्तक की भूमिका ‘‘स्त्री अस्तित्व का दायरा पर्यावरण, पृथ्वी, पानी, आकाश से चाँद की गवाही तक’’ में ‘‘चाँद गवाह’’ के संदर्भ में लिखा है कि ‘‘समाज तो सदियों से ऐसा ही है। उपन्यास में भी तो वहीं प्रतिक्रियाएं, टिप्पणियाँ व्यक्त हुई हैं जो समाज में होती हैं। दिशा का भाई ही कह देता है कि तुम संदीप से शादी कर लो तो पति कह देता है कि असली खसम तो संदीप ही है। लेखिका ने कुछ भी अपनी तरफ से कहाँ जोड़ा है, उन्होंने तो समाज की कटु सच्चाई को उपन्यास में ज्यों का त्यों पिरो दिया है। दिशा का चरित्र उपन्यासकार ने जिस दृढ़ता से गढ़ा है, वह अत्यंत प्रेरणादायी है। इतने प्रश्नचिन्हों में घेर दिए जाने पर भी वह अपने लक्ष्य से हटती नहीं है। चरित्र निर्माण भी उत्तम शिल्प की पहचान है। उपन्यास का विषय जितना सामयिक और सशक्त है, शिल्प भी उतना ही सुगढ़ है। सरल सहज, संक्षिप्त संवादों के माध्यम से उपन्यासकार ने जो प्रभाव उत्पन्न किया है, वह पाठकों को जैसे नींद से जगाने का कार्य करता है। दिशा एक असाधारण स्त्री के रूप में पाठकों के सामने आ उपस्थित होती है। संवादों में सम्प्रेषण की क्षमता भरपूर है। शैली अपनी नवीनता से भी पाठकों की रुचि को संतुष्ट करता है, उपन्यास अपने कलेवर के भीतर नाटक, कविता, कहानी इत्यादि विधाओं को इतनी भली-भाँति सजाकर पाठकों के सामने परत दर परत खुलकर अपना प्रदर्शन करता है जैसे वह कोई पहुँचा हुआ कलाकार हो, जिसकी कलाकारी से प्रभावित हुए बिना कोई रह न सके। उपन्यास में कविता की भाँति बिम्ब की उपस्थिति है। चाक्षुष, श्रव्य, घ्राण, स्पर्श लगभग सभी बिंबों का प्रयोग सफलतापूर्वक हुआ है। बेशक उपन्यास की पृष्ठभूमि में भारतीय समाज है पर उपन्यास के भीतर से संपूर्ण विश्व की कटु सच्चाई समझ में आती है कि संपूर्ण विश्व का समाज पुरुष प्रधान है, ये बात अलग है कि भारतीय स्त्री के सामने सामाजिक विसंगतियां विकसित देशों की स्त्रियों की तुलना में अधिक हैं। परिवार और समाज में अपने सभी दायित्वों का निर्वहन करती स्त्री के भीतर के व्यक्ति को जीवित रख पाने की कोशिश को दिशा बखूबी साकार करती है। मित्रता के विशुद्ध मायने ढूँढने का विकल्प एक स्त्री रख सकती है, यह किसी को सहजता से स्वीकार कहाँ हो पा रहा है। दिशा को झुकाने और तोड़ने के प्रयास जब विफल हो जाते हैं तब पाठक भी जैसे सुकून की गहरी साँस लेते हैं, क्योंकि दिशा सचमुच जीवन को सकरात्मकमक दिशा प्रदान करने में सफल हुई है।’’
डाॅ बिभा कुमारी अपनी भूमिका में ही अंत में लिखती हैं कि ‘‘उपन्यास अपने कथ्य और शिल्प में जब इतना उम्दा हो तो उस पर प्रतिक्रियाएं भी उतनी ही सशक्त आएंगी। इस उपन्यास को पढ़कर पाठकों, समीक्षकों, आलोचकों ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना जरूरी समझा। यह जरूरी भी है कि पुस्तक को पढ़ने के बाद उस पर विस्तार से चर्चा भी की जाए। इस उपन्यास पर भी मुझे लोगों की भरपूर प्रतिक्रियाएं टिप्पणी और समीक्षा के रूप में दिखाई पड़ती रहीं। मुझे ये प्रतिक्रियाएं इतनी महत्वपूर्ण लगीं कि मैंने इन्हें संकलित करना आरंभ कर दिया, और जब ये प्रतिक्रियाएं पर्याप्त संख्या में संकलित हो पाईं तो इन्हें एक पुस्तक के रूप में संपादित करने की तैयारी में जुट गई।’’ 
जिन आलेखों एवं समीक्षाओं को पुस्तक में शामिल किया गया है वे हैं- उर्मिला शिरीष के उपन्यास की अवधारणा- अरविंद त्रिपाठी, स्त्री के जीवन में प्रेम- आनंद प्रकाश त्रिपाठी, प्रेम के आयतन को व्यापकता प्रदान करने वाला उपन्यास- अरुण होता, प्रेम और ग्राहस्थ जीवन के सवालों का गवाह चाँद अरुणाभ सौरभ, स्त्री स्वाधीनता और प्रेम की अभिव्यक्ति अर्चना त्रिपाठी, बयान दर्ज हुआ है चाँद की गवाही में बिभा कुमारी, स्त्री के लिए चाँद की गवाही का अर्थात है प्रेम चन्द्रकला त्रिपाठी, स्त्री के वजूद और सपनों को दर्ज करता चाँद गवाह हरियश राय, नारीवादी चेतना का अभिनव विस्तार- हीरालाल नागर, चाँद गवाह की हरित आभा के. वनजा, गिद्धों की पहरेदारी से मुक्त होती स्त्री की कहानी चाँद गवाह कांता राय, सामाजिक परिवर्तन की उत्कट अभिलाषा- महेश दर्पण, चाँद पाने का संघर्ष है चाँद गवाह मनीष वैद्य, चाँद ने कही स्त्री के दिल की बातें ममता तिवारी, पारम्परिक माइंडसेट को तोड़कर नये मूल्य स्थापित करता उपन्यास - नीतू मुकुल, मुक्ति के लिए छटपटाती एक स्त्री की कथा- नेहल शाह, चाँद की गवाही में कुकून से निकली नई स्त्री- नीलम कुलश्रेष्ठ, स्त्री संघर्ष की यात्रा चाँद गवाह प्रज्ञा, अनसुलझे सवालों के घेरे में रजनी गुप्त, हरी पृथ्वी का समरस गान- रूपा सिंह, नारी इयत्ता का खुलता आसमान चाँद गवाह - शशिकला त्रिपाठी, स्त्री विमर्श ही नहीं समाज विमर्श भी शरद सिंह, स्त्री स्वाधीनता का वैकल्पिक संसार शशिभूषण मिश्र, समय से आगे की बात करता चाँद गवाह - सुषमा मुनीन्द्र, स्त्री का गीत गाती पृथ्वी और उसका गवाह चाँद - स्मृति शुक्ल, स्त्री मुक्ति का संघर्ष चाँद गवाह सुनीता अवस्थी, सवालों के रू-ब-रू - सूर्यनाथ, चाँद गवाह में स्त्री मुक्ति चेतना सुनील कुमार, प्रेम को जीने की कोशिश चैद गवाह उर्मिला शुक्ल, मदन भारद्वाज सम्मान समारोह के अवसर पर निर्णायक मण्डल की अध्यक्ष के रूप में उपन्यास पर मेरी प्रशस्ति- रोहिणी अग्रवाल।
पुस्तक में ‘‘चांद गवाह ’’ पर चार टिप्पणियां भी हैं-चाँद गवाह रू एक पठनीय और दिलचस्प उपन्यास-धीरेन्द्र अस्थाना, चाँद गवाह : संघर्ष और सौन्दर्य का संगम- गंगाशरण सिंह, पुरुष सत्ता को चुनौती देती दिशा निर्मला भुराड़िया, मुक्ति का निर्णय स्त्री कभी भी ले सकती है- सुधांशु गुप्त। अंत में ‘‘चांद गवाह’’ पर उसकी लेखिका उर्मिला शिरीष से बिभा कुमारी की बातचीत भी है जो ‘‘चांद गवाह’’ की प्रकृति और दृष्टिकोण के बारे में उर्मिला जी के विचारों को और भी अधिक स्पष्टता से समझने में मदद करती है।
डाॅ. बिभा कुमारी ने जितने श्रम के साथ सामग्री को एकत्र कर जितनी कुशलता से संपादन किया है वह प्रशंसनीय है। यह पुस्तक उर्मिला शिरीष के उपन्यास की बारीकियों से परिचित करती हुई एक कृति के आकलन की समग्रता को प्रस्तुत करती है। इस दृष्टि से यह पुस्तक शोधार्थियों के लिए विशेष लाभप्रद है। साहित्यिक पुस्तकों का इस तरह आकलन एवं उनका प्रकाशन सतत रूप से किया जाना चाहिए क्योंकि ऐसी पुस्तकें पुस्तकों, रचनाकारों, पाठकों एवं शोधार्थियों के बीच एक गहरा अंतर्संबंध स्थापित करती है। इसीलिए डाॅ. बिभा कुमारी की यह पुस्तक विशेष अर्थवत्ता रखती है।     
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Saturday, December 13, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | औ कित्ती मौतन के बाद जा स्पीड पे लगाम लगहे? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | औ कित्ती मौतन के बाद जा स्पीड पे लगाम लगहे? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
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औ कित्ती मौतन के बाद जा स्पीड पे लगाम लगहे?
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

हात में गाड़ी आई नईं के उन्ने गदर मचाई - जेई हो रओ आजकाल अपने सागर में। जेई से आए दिनां कोऊ ने कोऊ भैकंर एक्सीडेंट की खबर सुनबे खों मिल रई। मनो चेत कोऊं नईं रओ। चाए सहर के बायरे होए, चाए भीतरे, ऐसी-ऐसी टक्करें भईं आएं के उनकी सोंस के ई जी सो कंप जात आए। छोटू अहिरवार नांव को एक ज्वान मोड़ा शायगढ़ से इते आओ रओ कोनऊं परीच्छा देबे के लाने। बा बिचारो गोपालगंज में रोड के कनारे-कनारे पैदल जा रओ हतो। इत्ते में एक बोलेरो आई औ ऊने ऊको इत्ती जोर से ठोंकी के बा बिचारो मोड़ा 5 फीट लौं उछल के गिरो। अब आपई सोंसो के ऊकी का दसा भई हुइए? जा टक्कर सीसीटीवी में पूरी दिखानी। बाकी जो आप ओरन खों याद होय सो कछू समै पैले जेई गोपालगंज के काली तिराहा पे एक स्याने  बुजुर्ग खों एक कार वारे ने ऐसी टक्कर मारी रई के बे कार के नैंचे फंस के 50 फीट लौं घसटत चले गए रए। उते सदर में सेना के दो ज्वानों खों एक गाड़ी ने भौतईं बुरी तरां से ठोंक दओ। सिविल लेन से मकरोनिया रोड पे सो आए दिन गाड़ियन से कोऊं ने कोऊं ठुंकत रैत आए। मनो स्पीड पे तो कोनऊं को लगाम नइयां। जो जे नए उमर के मोड़ा ठैरे उनखों तो कोनऊं की जान की परवा ई नइयां। चाए दो पहिया होय, चाए चार पहिया बे तो धौंकत रैंत आएं। उने पतो आए के बे कोऊं खों ठोंके उनके दद्दा सो उने बचाई लैहें।
     सहर के बायरे देखो सो फोर लेन मने NH-44 पे बम डिस्पोजल स्क्वॉड की गाड़ी औ एक कंटेनर में भिड़ंत हो गई, जीमें 4 ज्वान शहीद हो गए औ एक अस्पताल में डरो। बाकी फोर लेन की तो जो है सो है, इते सहर के भीतरे गाड़ियन की स्पीड पे लगाम काए नईं लग पा रई? औ कित्ती मौतन के बाद लगाम लगहे?
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, December 12, 2025

शून्यकाल | उत्तर आधुनिकता का ‘सेकेंड फेज़’ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | उत्तर आधुनिकता का ‘सेकेंड फेज़’ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
शून्यकाल 
उत्तर आधुनिकता का ‘सेकेंड फेज़’
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
       हम परिवर्तनों पर ख़ुश होते हैं या चिंता करते हैं यह आकलन करना शायद हमारे स्वभाव में ही नहीं है। हम औद्योगिक एवं प्रौद्योगिक प्रगति पर गर्व करने से नहीं चूकते हैं। चूकना भी नहीं चाहिए क्योंकि यह हमारे सुविधाभोगी उत्सवधर्मी मन को खुशी देता है। किन्तु यही प्रगति काबू से बाहर हो जाती है तो कोरोना महामारी के रूप में सारी दुनिया को कंपा देती है। यहां स्पष्ट कर दूं कि यह लेख मैंने  कोरोना पेंडेमिक के बहुत पहले “सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के अक्टूबर-दिसम्बर 2016 अंक के कार्यकारी संपादक के रूप में  संपादकीय लिखा था। 2016 से 2026 आने वाला है, क्या कुछ स्थितियां बदलीं, सोचिएगा।
     
       परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जो कल था, वह आज नहीं है। जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। बड़ी से बड़ी शिलाओं का भी जल के प्रवाह से आकार बदल जाता है। स्टीफन हॉकिंग ने भविष्यवाणी की है कि पृथ्वी का भविष्य संकट में है और मानवजाति का जीवन लगभग एक हज़ार साल का बचा है। सुनने-पढ़ने में यह किसी साई-फाई फिक्शन जैसा लगता है। इसमें कोई शक़ नहीं कि मनुष्य ने कुछ सार्थक परिवर्तन किए और प्रागैतिहासिक जीवन से आगे बढ़ कर सभ्यताओं के सोपान पा लिए। लेकिन कुछ घातक परिवर्तन भी किए जैसे खनिज संपदा का अधैर्यपूर्ण दोहन, जंगलों की कटाई और वायु में ज़हरीली गैसों का निरंतर निष्पादन। किसने सोचा था कि दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर मापने की क्षमता से भी कहीं अधिक पाया जाएगा। शाम होते-होते धुंधलका छा जाना कई वर्षोंं से दिल्ली के लिए आम बात रही है। सभी ने इसे लगभग अनदेखा किया। देश की राजधानी दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में छाई धुंध ने जता दिया कि हम अपनी सांसों के प्रति कितने लापरवाह हैं।
विकसित देशों का प्रत्येक नागरिक भी जान बचाने के लिए मंगलग्रह नहीं जा सकता है तो हमारी तो कोई बिसात ही नहीं है। हमें यहीं इसी पृथ्वी पर, इन्हीं शहरों, गांवों और कस्बों में सांस लेना है और हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी, यदि वे सांस की बीमारियों से ग्रसित हो कर भी एक हज़ार साल तक प्रवाहमान रहीं तो। गंभीरता से सोचा जाए तो यक़ीनन स्थिति भयावह है। मगर इस स्थिति को बदला अथवा कुछ आगे भी बढ़ाया जा सकता है यदि हम अभी भी चेत जाएं और पर्यावरण के प्रति खुद की लापरवाहियों के विरुद्ध कुछ कठोर क़दम उठाएं।
       जैसे एक कठोर कदम उठाया गया कालेधन के विरुद्ध। देश की जनता ही नहीं, वैश्विक जगत ने भी नहीं सोचा था कि एक रात अचानक लगभग साढ़े तीन घंटे की अवधि में भारतीय मुद्रा की दो महत्वपूर्ण इकाइयां रद्दी के टुकड़े में बदल जाएंगी। यह एक इतना बड़ा निर्णय था जिसने सम्पूर्ण विश्व को चौंका दिया। भारत विपुल जनसंख्या का देश है और यहां वास्तविक साक्षरता का प्रतिशत भी विकसित देशों की तुलना में बहुत कम है। ऐसे में ‘लिक्विड मनी’ की ओर तेजी से क़दम बढ़ाना किसी जोखिम से कम नहीं है। फिर भी इस दिशा में इतना बड़ा डग धरा गया कि जैसे त्रेता युग में वामन ने अपने एक डग से एक लोक नाप लिया था। दफ़्तर के झगड़े, घरेलू पचड़े इन सब को भूल कर आमजन बैंकों के, एटीएम के दरवाज़ों पर कतारबद्ध हो गए। हज़ार और पांच सौ के पुराने नोट जमा करा देने के बाद पचास, बीस और दस के नोट इतनी संख्या में किसी के पास भी नहीं बचे कि वह दो-तीन महीने के लिए आश्वस्त हो सके। कालाधन बाहर आने के उत्साह के बीच घबराहट और तनाव का माहौल। इस परिवर्तन से साहित्य जगत भी प्रभावित हुआ है। मुद्रा की बात छोड़ दी जाए तो तथ्य और कथ्य साहित्य की हर विधा पर अपना प्रभाव छोड़ कर रहेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस दौर के साहित्य में इस पूरे माहौल को स्थान मिलेगा। किसी कहानी में कसमसाता हुआ कालाबाज़ारी करने वाला दिखाई देगा तो वहीं किसी कविता में वह बेचैन पिता मिलेगा जिसने बेटी की शादी के लिए बैंक से बड़े नोट निकलवाए थे और आपाधापी में उसे उन्हें वापस जमा कराना पड़ा। वह चिन्तित खाली हाथ पिता किसी न किसी कविता में अपनी जगह जरूर बना लेगा। या फिर वह दिहाड़ी मज़दूर जो ‘नोटबंदी’ से उपजी आर्थिक समस्या के कारण कई रात भूखा सोया। साहित्य में सबके लिए जगह है। इतिहास से कहीं अधिक उदार होता है साहित्य।
           साहित्य में परिवर्तनकारी तत्व सदैव परिलक्षित होते रहे हैं। इन तत्वों से उपजनेवाली प्रवृत्तियों में अब तक हम सबसे नूतन प्रवृत्ति उत्तर आधुनिकता को मानते आए हैं। इतिहासकार अर्नाल्ड जे.टायनबी के अनुसार आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता तब शुरू होती है जब लोग कई अर्थों में अपने जीवन, विचार एवं भावनाओं में तार्किकता एवम् संगति को त्याग कर अतार्किकता एवम् असंगतियों को अपना लेते हैं। इसकी चेतना विगत को एवम् विगत के प्रतिमानों को भुला देने के सक्रिय उत्साह में दीख पड़ती है। इस प्रकार उत्तर आधुनिकतावाद आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की समाप्ति के बाद की स्थिति है। जबकि पाउलोस मार ग्रगोरिओस ने उत्तर आधुनिकता को एक विचारधारा या लक्ष्य केंद्रित या नियम अनुशासित आंदोलन न मान कर पश्चिमी मानवतावाद की दुर्दशा माना। आज पश्चिम जगत में अनेक मानक टूट रहे हैं। जबकि हमारा देश नए मानक गढ़ रहा है। ये नए मानक उनसे भी ऊपर उभर कर आने की राह बना रहे हैं जो कल तक यू इलीट, कारपोरेट बुल, ब्यूरोक्रेट्स पावर, मीडिया मुगल्स, मॉस प्रोडक्शन, मॉस डिस्ट्रीब्यूशन, मॉस एजूकेशन, मॉस कम्यूनिकेशन तथा मॉस डेमोक्रेसी जैसे शब्दों से पहचाने जाते रहे हैं। ये सभी उत्तर आधुनिकता की ही देन हैं। अमेरिकी लेखक एवं भविष्यवादी एल्विन टाफ्लर ने तीन पुस्तकें लिखीं -‘फ्यूचर-शॉक’, ‘दि थर्ड वेब’, ‘पॉवर शिफ्ट’। इन तीनों पुस्तकों में उत्तर-आधुनिकतावाद के विभिन्न पक्षों का नवीन परिवर्तन के रूप में विवेचन किया गया है।  ‘फ्यूचर शॉक’ बेस्टसेलर रही, जिसकी विश्व भर में 6 मिलियन से अधिक प्रतियां बिकीं। 27 जून, 2016 को 87 वर्ष की आयु में लास एंजेल्स में उनका निधन हो गया। एल्विन टाफ्लर का कहना था कि ‘‘समाज को ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो बुजुर्गों की देखभाल करें और उनके प्रति दयालु और ईमानदार रहें। अस्पताल में काम करने वालों की आवश्यकता है। विभिन्न प्रकार के कौशल वाले व्यक्तियों की आवश्यकता है। समाज भावना और कौशल के संयोग से चल सकता है, डाटा और कम्प्यूटर मात्रा से नहीं।’’
कुछ विद्वान उत्तर-आधुनिकतावाद को बहुलतावाद और नवसंस्कृतिवाद से जोड़ कर देखते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में भूमंडलीकरण, उदारवाद और बाजारवाद अपने पूरे लक्षणों के साथ समाज पर असर डालता दिखाई पड़ता है। वहीं जब मैं टायनबी, पाउलोस मार ग्रगोरिओस और एल्विन टाफ्लर के विचारों के आधार पर हिन्दी साहित्य में उत्तर आधुनिकता को परखने का प्रयास करती हूं तो मुझे लगता है कि हम अब उत्तर आधुनिकता के ‘सेकेंड फेज़’ में प्रवेश कर चुके हैं। हम पारिवारिक विखण्डन को अपना चुके हैं, परिवार की नैनो इकाइयों की ओर बढ़ रहे हैं, लिव इन रिलेशन और समलैंगिकता को सहज रूप में लेने का मन बनाते जा रहे हैं, आर्थिक तौर पर प्लास्टिक मनी और लिक्विड मनी को आत्मसात करने के लिए कटिबद्ध हैं और इन सबसे अधिक परिवर्तनकारी प्रवृत्ति कि हम पहले की अपेक्षा अधिक आत्मकेन्द्रित हो चले हैं। यह उत्तर आधुनिकता का द्वितीय चरण ही कहा जा सकता है।

मैनेजर पाण्डेय ने हिन्दी साहित्य में बोध, विश्लेषण तथा मूल्यांकन के महत्व को स्थापित करने के साथ ही हिन्दी भाषा में साहित्य की समाजशास्त्रीय नूतन दृष्टि को विकसित किया है। वे आलोचना-कर्म में परम्परा के विश्लेषणात्मक पुनर्मूल्यांकन के पक्षधर रहे हैं। उन्होंने भक्त कवि सूरदास के साहित्य की समकालीन सन्दर्भों में व्याख्या कर भक्तियुगीन काव्य की परंपरागत प्रचलित धारणा से अलग एक सर्वथा नयी तार्किक प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। दलित साहित्य और स्त्री-स्वतन्त्रता के समकालीन प्रश्नों पर भी मैनेजर पाण्डेय की अपनी एक स्वतंत्र दृष्टि है।

आलोचना संदर्भ के क्रम में भारत यायावर का लेख "नन्दकिशोर नवल की आलोचनात्मकता के तारतम्य में हिन्दी साहित्य" में आलोचना के नए पक्षों को सामने रखा है जिन पर चिंतन-मनन किया जाना आवश्यक है। यूं भी एक अरसे से यह माना जा रहा है कि हिन्दी का आलोचनात्मक पक्ष कमजोर होता जा रहा है।
    रोहिणी अग्रवाल इस प्रश्न को उठा कर झकझोरती हैं कि ‘क्या समूचा हिन्दी साहित्य गहरे राग या उदग्र द्वेष से बन्धे भावोच्छ्वासों का अखाड़ा है, जो अपने-अपने द्वीपों में कैद रचयिता को अपने-अपने हिसाब चुकता करने का अवसर देता है?’ उन्होंने इस तथ्य को भी याद दिलाया है कि मीराबाई के बाद हिन्दी साहित्य में स्त्री अभिव्यक्ति के स्वर आधुनिक काल में सुनाई पड़ते हैं। वहीं सुषमा सहरावत भी यही मानती हैं कि स्त्री विमर्श के बीज हमें मीराबाई के काव्य में मिलते हैं। इन्हीं बीजों ने प्रस्फुटित होकर आगे चलकर स्त्री विमर्श को व्यापक धरातल पर स्वरूप प्रदान किया।
समाज बदल रहा है, स्त्री का जीवन बदल रहा है, विचार और प्रवृत्तियां बदल रही हैं। यह साल भी बदल जाएगा।
परिवर्तन पर अपनी ये पंक्तियां याद आ रही हैं मुझे -
अब न वो वन है न कानन
न पेड़, न झुरमुट
न नदी के स्वच्छ किनारे
कोलाहल में गुम वंशीस्वर
और उजड़े हुए हमारे मिलन स्थल
कहो कान्हा! 
मैं तुमसे कहां मिलू?
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Thursday, December 11, 2025

बतकाव बिन्ना की | बिटियन के मामले में अब हल्के से काम ने चलहे | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बतकाव बिन्ना की | बिटियन के मामले में अब हल्के से काम ने चलहे | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम
बतकाव बिन्ना की

बिटियन के मामले में अब हल्के से काम ने चलहे 

    - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

‘‘हमाओ समाज कां से कां जा रओ आए? भैयाजी तनक गुस्से में दिखाने।
ं‘‘काए का हो गओ भैयाजी?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘होने का? बिटियन की कोनऊं खों तनकऊं फिकर नइयां।’’ भैयाजी ऊंसईं गुस्से में बोले।
‘‘अब ऐसो बी नइयां। सरकार कित्तो खयाल रखत आए लाड़ली बिटियन को।’’ मैंने कई।
‘‘जो ऐसो आए तो लोहरी-लोहरी बिटियन के संगे ऐसो भयानक काम काए हो रओ?’’ भैयाजी बोले।
‘‘का हो गओ?’’ मैंने पूछी।
‘‘काए तुमने सुनी-पढ़ी नईं का के एक छै साल की बिटिया के संगे निरभया घांईं कांड करो गओ। भला छै साल कोनऊं उम्मर होत आए?’’ भैयाजी गुस्सा में भर के बोले।
‘‘हऔ, बात तो आप सई कै रएं बा कांड के बारे में तो मैंने सोई पढ़ी रई। सई में ई टाईप के लोग इंसान कहे जाने जोग नोंईं। बे तो राकस आएं राकस। इत्ती लोरी बच्ची खों कोऊ इंसान तो इत्तो जुलम नईं ढा सकत।’’ मैंने कई। अब मोए भैयाजी के गुस्से को कारन समझ में आओ। उनको गुस्सा सई हतो। जो बी बा कांड के बारे में पढ़े चाए सुने, ऊको खून खौले बिगर नईं रै सकत।
‘‘जेई सो हम कै रए के अपने ई समाज को का होत जा रओ?’’ जे सब ठीक नइयां।’’ भैयाजी बोले।
‘‘पर भैयाजी, ईमें पूरो समाज को का दोस? पांचों उंगरियां बरोबर तो होत नइयां। ऊंसई सबई जने एक से तो होत नइयां। चार अच्छे हुइएं, सो एक बुरौ बी निकर सकत आए।’’ मैंने कई।
‘‘जा कोन सी बात भई? पांचों उंगरियां छोटी-बड़ी भले होएं मनो बे कोनऊं खों अपने मन से अलग से नईं नोंचत आएं। सो ई समाज में कोनऊं खों जो अधिकार नईयां के बे ऐसो घिनां अपराध करे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘आपको कैबो सई आए, मनो जे बताओ के ईके लाने करो का जा सकत आए?’’मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘बई करो चाइए जो हैदराबाद में पुलिस वारन ने करो रओ।’ भैयाजी बोले।
‘‘पर उते तो बाद में कओ गओ के बा फर्जी इनकाउंअर रओ।’’ मैंने कई।
‘‘सो इते असली वारो कर देवें न! कोन ने रोकी आए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘जी तो जोई करत आए मानो ऐसो हो नईं सकत। काए से के कानून ऐसो करबे की इजाजत नईं देत आए।’’ मैंने कई।
‘‘औ कानून ऐसे राकसों को सब कुछ करबे की छूट देत आए?’’ भैयाजी औ गरम हो गए।
‘‘मेरे मतलब जो नइयां। कानून सजा देत आए अपराधियन को।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ! मनो अपराध करबे के बाद न! ऐसो डर काए नइयां के कोऊ ऐसो अपराधई ने करे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बो का आए के कानून को चक्कर बड़ो लंबो परत आए। बा ई लाने के चाए सौ अपराधी छूट जाएं मनो एक निरदोस खों सजा ने हो पाए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, जेई लाने तो रोजीना के सौ अपराधी बढ़त जा रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात तो सई आए आपकी, मनो अब करो बी का जा सकत आए?’’ मैंने पूछी।
‘‘भौत कछू करो जा सकत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जैसे?’’ मैंने पूछी।
‘‘जैसे के कानून जल्दी रिजल्ट देवे औ कर्री से कर्री सजा सुनाए। ऐसी सजा के जोन की सुन के दूसरों की हिम्मत ने होए ऐसो गंदो अपराध करबे की।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जा बात सई आए आपकी। कछू टेरर तो होने चाइए ऐसे लोग के लाने। तभई बे कछू करबे के पैले हजार बार सोंसे।’’ मैंने कई।
‘‘जा तो बात आए कानून की, मनो हम तो जा कै रए के अपराधी समाज से औ अपने परिवार से डराए। उनें लगो चाइए के जो हमने कछू खराब काम करो सो हमें भरी बजार में जूताई जूता परहें। तब कऊं जा के बे तनक डरहें। औ कैसे बे मताई-बाप आएं जो अपने मोड़ा खों कई से संस्कार नईं दे पा रए? अरे मोड़ा की सौ गलतियां माफ करो, मनो ऊ गलती में ने बख्सो। पैले तो समझा के रखो के सबई मोड़ियां इंसान होत आएं। छेड़ा-छाड़ी से उने बी दुख पौंचत आए। मोड़ियन की इज्जत करो। फेर बी ने माने सो पैलई सिकायत पे तबीयत से जूताई जूता मारो, जीसें ऊको समझ में आ जाए के मोड़ियन से कछु बी गलत नईं करो चाइए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सई कई भैयाजी! पैले तो सबरे बिगरे मोड़ा के बाप-मताई जेई कैत आएं के हमाओ मोड़ा गऊ सो सीदो आए, बा ऐसो कछु करई नईं सकत। फेर जो पकरा जाए सो दौरत फिरत आएं के बा को फंसाओ जा रओ आए। जे सई आए के सबई खों अपनो मोड़ा साजो लगत आए। मनो साजो को साजो बना के राखो सो कोनऊं सल्ल काए बींधे?’’ मैंने कई। 
‘‘औ का! आजकाल सो जे दसा होत जा रई के कोऊ चलत रोड पे मोड़ी खों काट छारे मनो कोऊ आगे बढ़ के ऊको रोकबे की कोसिस लौं ने करहे। औ कल्ल खो कओ ऊकी मोड़ी को नंबर आ जाए सो किलबिलात फिरहे। रामधई! पैले घर के मोड़ा नजर से डरात्ते। जो बब्बा ने घरे आंखें तरेर के देख लओ तो कओ पजामो गीलो हो जाए। पर अब मोड़ा अपने बब्बा खों ई कुचर डारे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात सो सई कै रए आप। सबसे पैले तो घरई में सिखाओ जाओ चाइए के अच्छो का आए औ बुरौ का आए? मोड़ियन खों तो बरहमेस टोंको जात आए, तनक मोड़ों खों सोई टोंको जाए सो ऐसो कछू ने घटे। फेर मनो एक घरे के मताई-बाप खुदई लापरवा आएं सो ऐसे में परवार, समाज औ सहर के लोगन खों उने टोकने चाइए। अभईं कोनऊं मोड़ा-मोड़ी अपनी मरजी से ब्याओ करबे खों निकर पड़ें तो सबरी खाप-पंचात बैठ जात आए, ऊंसई मोड़ा खों सुदारबे के लाने बी तो समै रैत में समाज की पंचात खों बैठो चाइए।’’मैंने कई।
‘‘जेई सो हम कै रए के समाज खों जात-पांत की सल्ल छोड़ के पैले बिटियन खों ऐसे अपराध से बचाबे की फिकर करनी चाइए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सई बात आए भैयाजी! जरूरी जे आए के कानून औ समाज दोई मिल के ई खिलाफ मोर्चाबंदी करे तभई ऐसे अपराध रुकहें ने तो लोहरी-लोहरी मोड़ियन के लाने डर बनो रैहे।’’ मैंने कई। फेर हम दोई कछू देर तक जेई पे मूंड़ खपात रए।           
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के ई टाईप के अपराध से मोड़ियन खों कैसे बचाओ जा सकत आए?
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बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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Wednesday, December 10, 2025

चर्चा प्लस | इंडिगो संकट ने याद दिला दिया वह सुनामी-सा सैलाब | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस | इंडिगो संकट ने याद दिला दिया वह सुनामी-सा सैलाब | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर 
चर्चा प्लस
इंडिगो संकट ने याद दिला दिया वह सुनामी-सा सैलाब 
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                          
      हवाई यात्राएं ललचाती हैं समय की बचत के प्रलोभन के रूप में। जहां 9 से 12 घंटे लगते हैं वहां चैक-इन और चैक-आउट मिला कर चार घंटे में यात्रा पूरी हो जाती है। आज के भागमभाग के जीवन में समय की बचत की यह खरीद मंहगी नहीं लगती है बशर्ते उड़ानें रद्द न हो। इंडिगो की हाल की रद्द उड़ानों से उत्पन्न हुई परेशानियों ने मुझे दिल्ली एयरपोर्ट टी-थ्री के सैलाब की यादें ताज़ा कर दीं। मुझे आज भी याद हैं वे परेशान, बदहवास चेहरे जबकि उस समय मात्र दो-तीन उड़ाने ही रद्द हुई थीं।         

2019 में आजतक टीवी चैनल के साहित्य महाकुंभ में मुझे चर्चा सत्र में आमंत्रित किया गया था। चर्चा का विषय था ‘‘साहित्य की चुनौतियां’’। शानदार चकाचक व्यवस्था। बेहतरीन लक्जरी होटल में ठहराव। तत्कालीन इंदिरा कला केन्द्र परिसर में सारा आयोजन। होटल के विलासितापूर्ण सुविधाओं के आनन्द के साथ जब आयोजन स्थल पहुंची तो कुछ ही देर में मेरी आंखों में जलन होने लगी। मामला समझ में नहीं आया। नहाते समय साबुन का झाग भी आंखों में नहीं गया था। सच कहूं तो पलकों पर आई लाईनर लगा कर होटल से निकली थी। फिर भी आंखों में जलन। आयोजन स्थल पर कुछ नए-पुराने परिचित मिले। बातों ही बातों में पता चला कि यह जलन पराली के धुंए से उत्पन्न प्रदूषण की देन है। तब मुझे पहली बार पराली के धुंए के दुष्प्रभाव का स्वयं अनुभव हुआ। तीन दिन के प्रवास में उसी धुंए वाली हवा में सांसे लीं और आंखों से आंसू बहने दिए। यह साहित्य के लिए पैदा हुई चुनौतियों से भी बड़ी चुनौती थी। तीन दिनों में न जाने कितनी बार खांसी के ठसके लगे, अब तो उनकी गिनती भी याद नहीं है। चिंता थी कि चर्चा के दौरान खांसी न आने लगे। किन्तु दिल्ली की हवाएं चर्चापसंद हैं, सो उन्होंने मुझे मोहलत दे दी। सब कुछ ठीक-ठाक रहा। पहले दिन पहुंची थी, दूसरे दिन चर्चा-संवाद था और तीसरे दिन दोपहर बाद की रेल से लौटना था। पर मुझे क्या पता था कि एक बड़ी चुनौती मेरी प्रतीक्षा कर रही है।
मेरे आने-जाने की टिकट आजतक चैनल वालों ने ही बुक की थी। कंफर्म टिकट पर दिल्ली पहुंच गई थी किन्तु वापसी की टिकट वेटिंग पर थी। मुझे और मेरे परिचितों को लगा कि आजतक जैसे टीवी चैलन का मामला है तो वापसी तक टिकट कंफर्म हो ही जाएगी। शायद आजतक वालों को भी यही उम्मींद रही होगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वेटिंग क्लियर नहीं हुई। वापसी वाले दिन जब मैं वापसी के लिए अपना सामान पैक कर रही थी मुझे फोन पर सूचना दी गई कि मेरा टिकट कंफर्म नहीं हुआ है। मेरे तो पांवों तले जमीन खिसक गई। अब क्या होगा? मैंने उस कोआर्डिनेटर महिला से पूछा। उसने मुझे सांत्वना दी कि ‘‘हम कुछ न कुछ प्रबंध करते हैं, आप चिंता न करें। मैं थोड़ी देर में आपको बताती हूं।’’
उसकी बात सुन कर कुछ तसल्ली हुई। मैंने तत्काल वर्षा दीदी को फोन लगाया और उन्हें सारी वस्तुस्थिति बताई। उन्होंने भी मुझे समझाया कि मैं चिंता न करूं, वे लोग कुछ न कुछ प्रबंध अवश्य करेंगे। खैर, मैंने अपना सामान पैक करना छोड़ दिया और उस महिला के फोन की प्रतीक्षा में बैठ गई। लगभग आधे घंटे बाद उसने मुझे बताया कि किसी भी रेल में ‘‘तत्काल’’ में भी सागर के लिए कोई कंफर्म टिकट नहीं है, सो उन्होंने दिल्ली से भोपाल तक के लिए मेरा टिकट स्पाईस जेट में बुक कर दिया है। उसकी बात सुन कर मैंने उससे पूछा कि उससे मैं भोपाल कितने बजे पहुंचूंगी? पता चला कि रात्रि साढ़े आठ या पौने नौ तक। मैंने उससे पूछा और फिर भोपाल से सागर कैसे पहुंचूंगी? उसने कहा मैं थोड़ी देर में बताती हूं। फिर प्रतीक्षा के पल। लेकिन जब उस महिला का फोन आया तो मुझे अहसास हुआ कि बड़ेे टीवी चैनल वाले कई मामलों में वाकई जिम्मेदार होते हैं। उस महिला ने मुझे बताया कि भोपाल एयरपोर्ट पर मुझे आजतक चैनल की टैक्सी मिलेगी जो मुझे सागर में मेरे घर के दरवाजे तक छोड़ कर आएगी। उनकी इस व्यवस्था ने मेरा दिल छू लिया। मैंने अपने सामन में से वे सारी चीजें अलग कीं और डस्टबिन में डाल दीं जो मैं रेल से तो ले जा सकती थी लेकिन प्लेन में नहीं। यानी मुझे अपने नए-नवेले हेयर स्प्रे और सेंट स्प्रे को डस्टबिन में डालने का घाटा सहना पड़ा। 
खैर, इसके बाद मुझे नियत समय पर होटल की ओर से सूचना दी गई कि एयरपोर्ट के लिए टैक्सी प्रतीक्षा कर रही है। मैंने होटल से खुशी-खुशी चैक आउट किया। टैक्सी वाले को बताया कि टी-थ्री एयरपोर्ट चलना है। टैक्सी वाले ने मुझे एयरपोर्ट पर पहुंचाया। मैं स्पाईस जेट के काउंटर पर पहुंची। कामर्शियल लोग बड़े प्यारे ढंग से स्वागत करते हैं। स्पाईस जेट वालों ने भी मेरा गर्मजोशी से वैलकम किया। मेरे सामनों पर टैगिंग की। मैंने उन्हें बताया कि मैं आपकी सर्विस पर पहली बार जा रही हूं। इस पर उन्होंने मेरा विशेष ध्यान रखते हुए मुझे अपने एक बंदे के साथ उस जगह को दिखाया जहां से मुझे अपनी फ्लाईट के लिए नीचे फ्लोर में जाना था। उस समय प्रवेश बंद था। लेकिन मैं समझ गई। उस बंदे ने भी मुझे आश्वस्त किया कि यदि कोई परेशानी महसूस करुं तो उन्हें संपर्क कर सकती हूं। एक लंबी प्रतीक्षा के बाद प्रवेश द्वार खोला गया। मैंने चैक-इन की औपचारिकताएं निपटा कर जैसे ही नीचे की ओर देखा तो मेरे हाथ-पांव फूल गए। नीचे परिसर में इंसानों का सैलाब हिलोरें ले रहा था। नीचे पहुंच कर मैंने एक स्टाल पर पानी की एक बोतल खरीदी और उससे ही पूछा कि इतनी भीड़ क्यों है? तो उसने बताया इंडिगो, गो एयर आदि की दो-तीन फ्लाईट्स रद्द हो गई हैं जिसके कारण यहां भीड़ का यह मंज़र है। किसी एयरपोर्ट पर वैसी बदहवास अपार भीड़ मैंने उसके पहले कभी नहीं देखी थी। लोग अनिश्चितता में भरे हुए, बहसें करते घूम रहे थे। अब उनका क्या होगा, उन्हें चिंता थी। इस तरह की चिंता से मैं कुछ घंटों पहले गुजर चुकी थी अतः उनकी व्याकुलता का मैं अनुमान लगा सकती थी। यद्यपि मैं एक बड़े आयोजक की व्यवस्था में थी अतः फिर भी उतनी चिंता नहीं हुई थी जितनी चिंता उन यात्रियों को हो रही थी। किसी का इन्टरव्यू छूट रहा था तो किसी की ज्वाइनिंग खतरे में पड़ रही थी। कोई बच्चों से मिलने के लिए व्याकुल थी तो कोई अपने प्रिय से। सबके बीच बाधा बनी हुई थी उड़ानों के रद्द होने की सूचना। बताया जा रहा था कि पराली के धुंए की सघनता तथा मौसम की खराबी के कारण ऐसा हुआ है। वैसे इस कारण पर विश्वास करना कठिन था क्योंकि स्पाईस जेट के विमान उड़ान भर रहे थे। जिस विमान से मुझे आना था वह भी तैयार हो रहा था। कुछ देर बाद मैं एंट््री गेट के निकट वेटिंग चेयर पर बैठ चुकी थी। मेरे सहयात्री भी वहां आ चुके थे। वहां जितनी शांति एवं संतोष था, उससे कुछ कदम आगे अजीब घबराहट, गुस्से और भीड़ का समुन्दर ऊंची लहरों के थपेड़े ले रहा था। अपार जनसमूह, मानो एक पूरी बस्ती ही वहां आ खड़ी हुई हो। 
‘‘इन लोगों का क्या होगा? यदि मेरी उड़ान भी रद्द हो गई तो?’’ यह विचार आते ही मैंने अपने सिर पर एक चपत लगाई और खुद से कहा कि शुभ-शुभ बोलो। लेकिन कहते हैं न कि बुरे विचार सिर चढ़ कर बैठ जाएं तो एक पल भी चैन नहीं लेने देते हैं। जब तक जहाज पर सवार होने का संकेत नहीं मिला तब तक मन ही मन मैं यही प्रार्थना करती रही कि मेरी उड़ान रद्द न हो, अन्यथा मैं बहुत बड़ी मुसीबत में फंस जाऊंगी। अंततः मैं अपने जहाज पर सवार हो गई। एयर होस्टेस की मुस्कान कुछ ज्यादा ही प्यारी लगी। मेरी सहयात्री एक स्टूडेंट थी। उसने मुझे अपनी कमर पेटी बांधने में मदद की। चूंकि मेरी कमरपेटी का बक्सुआ कहीं फंस रहा था। फिर ‘वेज या नानवेज?’ पूछ कर डिनर भी उसी ने आर्डर कर दिया। लेकिन वह चिपकू नहीं थी। पूरे रास्ते हमारे बीच कोई बात नहीं हुई। बस, एक बार उसने इतना ही कहा कि ‘‘थैंक्स गाॅड, हमारी फ्लाईट कैंसिल नहीं हुई।’’ मैंने भी समर्थन करते हुए कहा,‘‘थैंक्स गाॅड!’’
फिर मैं भोपाल से सागर आते समय टैक्सी में बैठी-बैठी यही सोचती रही कि हमारे देश की फ्लाईट्स भी भगवान भरोसे क्यों चलती हैॅं? माना कि भगवान सब कुछ संचालित करते हैं लेकिन इंसान? उसके भी तो अपने कुछ दायित्व हैं। 
इंडिगो के हाल के मामले ने एक बार फिर सोचने को मजबूर कर दिया है कि इतनी सारी उड़ानें रद्द होने से पहले क्या सचेत हो कर व्यवस्थाएं नहीं सुधारी जा सकती थीं? फिर एक कंपनी की चंद उड़ानें यदि रद्द होती हैं तो बाकी कंपनियां अपनी चांदी पीटने और यात्रियों की मजबूरी का फायदा उठाने में जुट जाती हैं। अनाप-शनाप किराया वसूला जाने लगता है। यहां तक कि उड़ाने रद्द न भी हों फिर भी त्योहार के करीब आते ही यात्रा दरें आसमान छूने लगती हैं। हवाई कंपनियां यह जानती हैं कि आज लोग अपने घरों से, अपनो से दूर रह रहे हैं, उनके पास मिलने का समय भी कम होता है अतः वे कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हो जाएंगे। लेकिन हर कीमत की कोई तो सीमा होनी चाहिए। अतः सरकार ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए कुछ दरें तय कीं। दरअसल, इंडिगो संकट के दौरान कुछ शहरों के लिए हवाई किराया 50,000 रुपये या इससे अधिक तक पहुंच गया था, जिसके चलते सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा। नियम 6 दिसंबर 2025 से तुरंत लागू किया गया जिसके अनुसार 500 किलोमीटर की दूरी के लिए हवाई किराये की सीमा 7500 रुपये, 501 से 1000 किलोमीटर के लिए 12 हजार रुपये, 1001 से 1500 किलोमीटर दूरी के लिए 15 हजार और 1500 किलोमीटर से ज्यादा दूरी के लिए उड्डयन कंपनियां 18 हजार रुपये से ज्यादा किराया नहीं चार्ज कर सकती। लेकिन 500 किलोमीटर की दूरी के लिए हवाई किराये की सीमा 7500 रुपये कुछ अधिक नहीं हैं? सरकार को इस पर एक बार फिर विचार करना चाहिए। है न!
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(दैनिक, सागर दिनकर में 10.12.2025 को प्रकाशित)  
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Tuesday, December 9, 2025

पुस्तक समीक्षा | अशोक कुमार ‘नीरद’ की उम्दा ग़ज़लों का बेहतरीन संपादन | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | अशोक कुमार ‘नीरद’ की उम्दा ग़ज़लों का बेहतरीन संपादन | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा
अशोक कुमार ‘नीरद’ की उम्दा ग़ज़लों का बेहतरीन संपादन
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह-अंधेरे बहुत सर उठाने लगे हैं
कवि        - अशोक कुमार ‘नीरद’
संपादक     - हरेराम ‘समीप’
प्रकाशक     - लिटिल बर्ड पब्लिकेशन्स, 4637/20, शॉप नं.-एफ-5, प्रथम तल, हरि सदन, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
मूल्य       - 595/-
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हिन्दी ग़ज़ल दुष्यंत कुमार से पहले भी थी, बस, दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों से उसे एक नई पहचान मिली। किन्तु इस आधार पर दुष्यंत के पहले की हिन्दी ग़ज़लों को कमतर नहीं माना जा सकता है। वे ग़ज़लें तो नींव थीं हिन्दी ग़ज़ल की। इसी तारतम्य में देखा जाए तो अशोक कुमार ‘नीरद’ वे कवि हैं जिन्होंने सन 1968 से ही हिन्दी ग़ज़ल लिखना शुरू कर दिया था। हर कवि को ‘ब्लाकबूस्टर’ नेम-फेम मिले यह जरूरी नहीं होता किन्तु इससे उसकी रचनाधर्मिता की मूल्यवत्ता भी कम नहीं हो जाती है। निष्ठावान रचनाधर्मिता का मूल्यांकन करने के लिए समय स्वयं मार्ग ढूंढ लेता है। अर्थात उचित समय आने पर कोई न कोई सुधी संपादक रचनाकार की रचनाओं को पुनः प्रकाश में लाने का माध्यम बनता है। इससे एक और नई पीढ़ी उन रचनाओं से हो कर गुजर पाती है जो सराही तो गईं किन्तु ‘बिलबोर्ड’ पर चमक नहीं सकीं। यह सब लिखने का आशय यह नहीं है कि अशोक कुमार ‘नीरद’ कोई गुमनामी में खोए हुए कवि रहे हों, वे तो सदा अपनी ग़ज़लों के माध्यम से चर्चा में बने रहे हैं किन्तु उनकी चयनित ग़ज़लों का संपादन कर के एक महत्वपूर्ण कार्य किया है साहित्यकार, ग़ज़लकार एवं संपादक हरेराम ‘समीप’ ने। आज के समय में जब हिन्दी साहित्य खुद को हाशिए पर धकेले जाने से बचने के लिए संघर्ष कर रहा है, किसी भी वरिष्ठ ग़ज़लकार की लोकप्रिय ग़ज़लों को एक ज़िल्द में पिरोकर सहेजना एक महत्वपूर्ण कार्य है।

नरसिंहपुर मध्यप्रदेश में सन 1951 में जन्मे अब फरीदाबाद निवासी हरेराम ‘समीप’ अब तक 32 पुस्तकों का संपादन कर चुके हैं। उनके स्वयं के सात ग़ज़ल संग्रह, आठ दोहा संग्रह, कविता, हायकु, कहानी संग्रह सहित साठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पुस्तक संपादन का उन्हें दीर्घ एवं सफल अनुभव है जो उत्कृष्ट साहित्य को सहेजने की उनकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है। हरेराम ‘समीप’ की शिक्षा नई दिल्ली में हुई जबकि बुरहानपुर में 1945 में जन्में अशोक कुमार ‘नीरद’ की शिक्षा मध्यप्रदेश के सागर विश्वविद्यालय से हुई। अब मुंबई में रह रहे अशोक कुमार ‘नीरद’ 12 वर्ष की आयु से साहित्य सृजन से जुड़ गए थे। उनके सात ग़ज़ल संग्रह एवं दो गीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘नीरद’ एक समर्थ गीतकार होने के साथ ही प्रतिष्ठित हिन्दी ग़ज़लकार भी हैं। यदि यह कहा जाए कि उनकी ग़ज़लों ने उन्हें विशेष पहचान दी, तो यह कहना गलत नहीं होगा।

‘‘अंधेरे बहुत सर उठाने लगे हैं’’ अशोक कुमार ‘नीरद’ की चयनित ग़ज़लों का संपादन करते हुए अपने सम्पादकीय लेख ‘‘समकालीन गीत और कविता के समीप आती गजलें’’ में हरेराम ‘समीप’ ने लिखा है कि -‘‘अशोक कुमार ‘नीरद’ हिन्दी गीतिकाव्य के एक समर्थ गीतकार और दुष्यंतकुमार के समकालीन गजलकार हैं। वस्तुतः वे दुष्यंत से पूर्व सन् 1968 से गजल लेखन कर रहे है। इन्होंने गीत और गजल को नए आयाम प्रदान किये हैं, जिससे गजल को ताजगी और नयी चेतना मिली है। गजल पर निरंतर लेखन करते हुए उसमें विषयवस्तु की नूतनता तथा समकालीन सन्दर्भों के द्वारा गजल-विधा को आज की कविता-विधा के समानांतर प्रस्तुत कर दिया है। अपने विपुल गजल-लेखन और पांच दशकों से काव्यमंचों की प्रस्तुतियों ने उन्हें एक संजीदा और लोकप्रिय कवि के रूप में प्रतिष्ठा दी है। कुछ वर्षों से मुम्बई विश्वविद्यालय के बी.ए. के कोर्स में एक गजल-संकलन में नीरद की पाँच गजलें भी शामिल हैं।’’

अपने सम्पादकीय लेख के और अंत में ‘समीप’ लिखते हैं कि - ‘‘अर्थात नीरद ने गजल के परम्परागत लहजे को आधुनिक हिन्दी गजल के तेवर में ढालने का उल्लेखनीय कार्य किया है। विशेष बात यह भी है कि प्रारम्भसे अब तक उनकी रचनात्मकता में जो नैरन्तर्य है, वह स्तब्ध करता है। नीरद की गजलों में भाव और भाषा का वही हिंदी रूप दिखाई देता है, जो हिंदी के नवगीत या जनकविता का उभरता है। उन्होंने जाने-अनजाने कविता, गीत और गजल को, उनके विन्यास और माध्यम की भिन्नताओं के बावजूद एक दूसरे के बहुत समीप लाकर खड़ा कर दिया है। उनकी ये गजलें हिंदी कविता की इसी यथार्थवादी प्रकृति और मिजाज से पूर्णतः मेल खाती हैं। अतः कह सकते हैं कि नीरद के इस प्रतिनिधि संग्रह ‘अँधेरे बहुत सर उठाने लगे हैं’ की गजलें समग्र हिन्दी कविता की श्रीवृद्धि करते हुए हिन्दी-गजल का बहुआयामी विकास करती हैं।’’

जब हरेराम ‘समीप’ जैसा समीक्षक संपादक ऐसी टिप्पणी करता है तो वह बहुत अर्थ रखती है। उन्होंने ‘नीरद’ की 145 गजलों का चयन कर के इस संग्रह में सहेजा है। हर ग़ज़ल ‘नीरद’ ग़ज़लगोई की विविधापूर्ण विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करती है। ‘नीरद’ की ग़ज़ल में ज़िन्दगी के कअु यथार्थ का अनुभव खुल कर बोलता है। जैसे यह बानगी देखिए-
थपेड़ों पर  थपेड़े   खा रहा हूँ
किनारा बन के मैं पछता रहा हूँ
दिलासों के थमाकर झुनझुने कुछ
अपाहिज सत्य को बहला रहा हूँ
जगत कुरुक्षेत्र था, कुरुश्रेत्र अब भी
मैं अर्जुन क्यों नहीं बन पा रहा हूँ
जो संवेदनशील है उसे वे सारे मुद्दे व्याकुल करते हैं जिनसे इंसानियत हताहत होती दिखाई देती है। जैसे धर्म के नाम पर बहुत शोर होता रहता है किन्तु दुखी, पीड़ित, शोषित इंसानों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। इस स्थिति से असहज हो कर ‘नीरद’ कहते हैं कि-
कभी है राम का मुद्दा कभी रहमान का मुद्दा
उठेगा तो उठेगा कब दुखी इन्सान का मुद्दा
बढ़ाये हाथ उसने तो सुनामी कह टूटा है
समंदर ने किया कब हल है रेगिस्तान का मुद्दा
जतन लाखों किये फिर भी न सुलझी दर्द की गुत्थी
ये जीवन है कि हिन्दुस्तान - पाकिस्तान का मुद्दा
‘नीरद’ की ग़ज़लों में कबीर का लहज़ा दिखाई देता है जब वे धर्म के नाम पर छलने और छले जाने पर चोट करते हैं। वे इस ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि मानवता पर वहशीपन हावी होता जा रहा है जिसे दूर करने के लिए अब गंभीरता से यत्न किया जाना आवश्यक है -
पुण्य कहलाती ठगी, कुछ कीजिये
सोच को दीमक लगी, कुछ कीजिये
बज रहें घड़ियाल-घंटे बोध के
पर नहीं गैरत जगी, कुछ कीजिये
किस तरह वहशी हुआ मानव, उसे
लग रही नफरत सगी, कुछ कीजिये
अशोक कुमार ‘नीरद’ कटाक्ष करने में भी माहिर हैं। राजनीति का मोहपाश हो या ब्रेनवाश करने वाले केन्द्र हों, कोई भी उनकी पैनी दृष्टि ये ओझल नहीं हो पाते हैं। ‘नीरद’ उन सबको अपनी ग़ज़लों के माध्यम से आड़े हाथों लेते हैं। जैसे इस ग़ज़ल को देखिए-
सियासत है नगर ऐसा जहाँ बस, जाया जाता है
गये तो लौटकर वापस नहीं फिर आया जाता है
बड़ी ही सुर्खियों में हैं मिलन की पाठशालाए
कि जिनमें प्यार से नफरत का फन सिखलाया जाता है
भौतिकता और बाज़ारवाद की अंधी दौड़ ने भ्रष्टाचार और स्वार्थ को बेतहाशा बढ़ावा दिया है। सच क्या है, झूठ क्या है? इसे जानने का कोई साधन नहीं बचा है सिवाय स्वविवेक के। किन्तु भौतिक लिप्सा स्वविवेक को भी रौंदने लगती है। ऐसी स्थिति में ‘नीरद’ कहते हैं-
नजारे नजर कैसे आने लगे हैं
सितमगर पयंबर कहाने लगे हैं
तिजारत में डूबी हुई है मुहब्बत
दिलों को कपट गुदगुदाने लगे हैं
समय के हुए पारखी लोग कितने
मिले जो भी अवसर भुनाने लगे हैं

यही कारण है कि ‘नीरद’ खुले शब्दों में भी बयान करते हैं वर्तमान दशा का और कहते हैं कि ‘‘अंधा है इन्साफ सिंहासन बहरा है/सच वालों पर सख़्त सितम का पहरा है।’’ साथ ही, वे कहीं-कहीं विक्षुब्ध हो कर दार्शनिक स्वर में कह उठते हैं-
हीरा तजकर पत्थर अर्जित करता है
थोथा क्यों जग को आकर्षित करता है
जीवन है सद्भावों का संगम फिर क्यों
सभ्य मनुज विघटन संवर्धित करता है
अचरज है वो शामिल है विद्वानों में
पाखंडों को जो संदर्भित करता है

जब अंधेरे बहुत सर उठाने लगते हैं तो कवि अपने काव्य की मशाल ले कर आगे आता है। कवि अशोक कुमार ‘नीरद’ भी अपनी ग़ज़लों के माध्यम से समस्त अव्यवस्थाओं एवं मानसिक पंगुता को ललकारा है। उनकी इस प्रकार की ग़ज़लों का चयन कर उन्हें सहेजने का जो कार्य हरेराम ‘समीप’ ने किया है, वह ‘नीरद’ की ग़ज़लों को एक दीर्घकालिक समय यात्रा पर ले जाने में सक्षम है। देखा जाए तो यह भी एक विशेष सौजन्यता एवं साहित्यधर्मिता की मिसाल है कि एक ग़ज़लकार अपने समकालीन दूसरे ग़ज़लकार की ग़ज़लों की मुक्तकंठ पैरवी करे। इससे हिन्दी साहित्य का भविष्य दृदृढ़ होता दिखाई देता है। साथ ही उस दीर्घ परंपरा से भी जुड़ने का अवसर इस गंज़ल संग्रह के द्वारा मिलता है जो दुष्यंत के पहले से और दुष्यंत के बाद तक सतत चली आ रही है। निश्चित रूप से यह एक महत्वपूर्ण ग़ज़ल संग्रह है जो शोधार्थियों एवं पाठकों के लिए समान रूप से उपयोगी है।  
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Saturday, December 6, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | चलो, आवारा पशुअन खों सोई मताई-बाप मिल जैहैं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | चलो, आवारा पशुअन खों सोई मताई-बाप मिल जैहैं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
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चलो, आवारा पशुअन खों सोई मताई-बाप मिल जैहैं
       - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

         जे अपने ई सहर में रोडन की तीन पिराबलम बरहमेस बनी रैत हैं- एक तो जे बनत हैं फेर खुदत हैं, बनत हैं खुदत हैं, बनत हैं खुदत हैं। दूसरी पिराबलम जे के इनपे टिरेफिक की अत्ते मची रैत हैं। को कब कां से निकर आए ईको कोनऊं ठिकानों नईं। कब कोऊं फर्राटा भरत भओ बाजू से कढ़ जाए, कछू कओ नईं जा सकत। गलियन-कुलियन में कछू रोडें सो बच्चा हरों के खेलबे को मैदान बनी रैत आएं तो कछू स्पीड ब्रेकरन से पटी रैत आएं। जेई से तो जे चुटकुला चलत आए के जोन ने सागर की रोडन पे गाड़ी चला लई बा देस के कोनऊं बी सहर में गाड़ी चला सकत है। खैर, तीसरी सबसे बड़ी पिराबलम आए आवारा पशुअन की। बे छुट्टा-छोर घूमत रैत आएं। कऊं बी पसर गए, कऊं बी ठाड़़े हो गए। औ कभऊं बी आपस में लड़ परत आएं। जबें भरी रोड पे दो सांड लड़ परें, सो आपई सोंस लेओ के का होत हुइए। दो-चार जने के हात-गोंड़ तो टूटतई आएं।
     अब जे अच्छो होबे जा रओ के आवारा पशुअन खों गोद ले लौ जैहे। रामधई, कित्तो नोनों आइडिया आए जे। उन पशुअन खों ठिकानों मिल जाहे औ रोडन खों उनसे छुटकारो। मनो जे तो प्लान बनाओ गओ आए आवारा गइया, बैलवा के लाने, बाकी कुत्तन खों को गोद ले रओ? काए से के शहर में कुत्ता सोई मुतके आएं जो ईको, ऊको काटत फिरत हैं। बाकी जित्ते आवारा पशुअन खों गोद लओ जा रओ उनखों औ उनको गोद लेबे वारों खों बधाई! उमींद आए के ईको रिजल्ट अच्छो रैहे।
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Friday, December 5, 2025

शून्यकाल | अटल जी के विचार धर्मस्थलों के राजनीतिक उपयोग पर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | अटल जी के विचार धर्मस्थलों के राजनीतिक उपयोग पर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
शून्यकाल
अटल जी के विचार धर्मस्थलों के राजनीतिक उपयोग पर
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

     ‘‘जो राजनीति को सम्प्रदाय के साथ जोड़ते हैं या सम्प्रदाय को राजनीति के साथ सम्बद्ध करते हैं, वे अंतःकरण से असाम्प्रदायिकता के सिद्धांत में विश्वास नहीं करते। फिर चाहे वे साम्प्रदायिकता के विरुद्ध कितने ही भाषण दें, अधिवेशन में बैठ कर लम्बे-लम्बे प्रस्ताव पास करें। आज राजनीति और सम्प्रदाय को मिलाने के फिर से प्रयत्न हो रहे हैं। अगर इनको रोका नहीं जा सका तो देश में साम्प्रदायिकता फिर से सिर उठाएगी और हमारी स्वतंत्रता और राष्ट्रीय एकता के लिए एक भयंकर संकट खड़ा हो जाएगा।’’- यही तो कहा था अटल बिहारी वाजपेयी ने जो सर्वकालिक सटीक आग्रह कहा जा सकता है।
 

धार्मिक स्थलों का राजनीतिक मामलों के लिए उपयोग किया जाना चाहिए या नहीं? यह एक विवाद का प्रश्न रहा है। एक पक्ष सहमत होता है तो दूसरा असहमत। इस ज्वलंत प्रश्न पर अटल बिहारी वाजपेयी ने 17 फरवरी, 1961, लोकसभा में धर्मस्थलों का राजनीतिक उपयोग करने से रोकने के सम्बन्ध में प्रस्ताव के अंतर्गत भाषण देते हुए अपने जो विचार प्रकट किए थे, वे इस प्रकार थे-
‘‘सभापति जी, 
मैं इस प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए खड़ा हुआ हूं, यद्यपि चाहता हूं कि प्रस्ताव के अंतर्गत प्लेसस आॅफ पिलग्रिमेज का,े तीर्थ के जो स्थान हैं, उनको लाने के सम्बन्ध में प्रस्तावक महोदय को फिर से विचार करना चाहिए। जहां तक पूजा के स्थानों का राजनीतिक प्रचार के लिए दुरुपयोग रोकने का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में दो मत नहीं हो सकते और अगर हम भारतीय गणराज्य के असाम्प्रदायिक स्वरूप को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो इस सम्बन्ध में हमारे सामने अंतिम निर्णय लेने की स्थिति आ गई है। जिन परिस्थितियों में देश का विभाजन हुआ, विभाजन के जिन दुष्परिणामों को हम अभी तक भूल नहीं सके हैं, उनको ध्यान में रख कर हमें ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकना है जो राष्ट्रीय एकता को दुर्बल करती हैं, भारतीय गणराज्य के असाम्प्रदायिक स्वरूप पर कुठाराघात करती हैं और देश में फिर से साम्प्रदायिकता के उन्माद का जागरण करती हैं।
‘‘हमने एक असाम्प्रदायिक राज्य का निर्माण किया है। इसका स्वाभाविक पर्याय यह है कि राजनीति और सम्प्रदाय को अलग-अलग रखा जाना चाहिए। जो राजनीति को सम्प्रदाय के साथ जोड़ते हैं या सम्प्रदाय को राजनीति के साथ सम्बद्ध करते हैं, वे अंतःकरण से असाम्प्रदायिकता के सिद्धांत में विश्वास नहीं करते। फिर चाहे वे साम्प्रदायिकता के विरुद्ध कितने ही भाषण दें, अधिवेशन में बैठ कर लम्बे-लम्बे प्रस्ताव पास करें। आज राजनीति और सम्प्रदाय को मिलाने के फिर से प्रयत्न हो रहे हैं। अगर इनको रोका नहीं जा सका तो देश में साम्प्रदायिकता फिर से सिर उठाएगी और हमारी स्वतंत्रता और राष्ट्रीय एकता के लिए एक भयंकर संकट खड़ा हो जाएगा। 
‘‘हमने लोकतंत्रात्मक मार्ग का अवलम्बन किया है। किसी भी सम्प्रदाय को स्वतंत्रता है कि वह राजनीतिक दल का निर्माण करे, खुले मैदान में आकर चुनाव लड़े, अपनी आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याओं पर विचार करे। इसके लिए मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे या गिरजाघर में जाकर आंदोलन चलाने की क्या आवश्यकता है? मुझे ताज्जुब हुआ कि श्री सरहदी साहब ने जहांगीर के काल का उदाहरण दिया। समय बीत गया है। यह केवल सिख बन्धुओं के लिए ही सही नहीं है। अतीत काल में स्वतंत्रता के लिए जितने संघर्ष हुए, वे सब धर्म के साथ जुड़े हुए थे लेकिन आज पूजा की पद्धति को और राजनीति को जोड़ने का कोई औचित्य नहीं है। हां, गुरुद्वारे में बैठकर, मंदिर में बैठकर अगर पूजा करने में कोई कठिनाई उत्पन्न होती है, राज्य की ओर से कोई भेद-भाव की नीति बरती जाती है, शुद्ध धार्मिक मामलों में, तो उसका विचार हो सकता है लेकिन मस्जिदों में चुनावों के सम्बन्ध में फतवे दिए जाएं, गुरुद्वारों से एक पृथक राज्य के निर्माण का राजनीतिक और साम्प्रदायिक आंदोलन चलाया जाए, गिरजाघरों को भारत की एकता को खंडित करने का केन्द्र बनाया जाए और फिर उसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप लोग मंदिरों में भी राजनीतिक गतिविधियों को ले जाने का प्रयत्न करें, इसका समर्थन नहीं किया जा सकता। तेरह वर्ष हुए देश का विभाजन हुए।’’
(सांसद नवल प्रभाकर के इस हस्तक्षेप पर कि, ‘आर. एस. एस. की मीटिंगें मंदिरों में ही होती हैं।’)
‘‘आर.एस.एस. कोई राजनीतिक दल नहीं है और मेरा निवेदन है कि अगर होता हैं तो वह भी गलत हैं और वह चीज भी बंद होनी चाहिए, और जब मैं इस बात का समर्थन करता हूं तो आर. एस. एस. भी बचने वाला नहीं है मगर कांग्रेस के माननीय सदस्यों में यह नैतिक साहस होना चाहिए कि इस प्रस्ताव का वे समर्थन करें, मगर यह वे नहीं कर सकते। वे साम्प्रदायिकता के विरुद्ध भाषण दे सकते हैं मगर चुनाव लड़ने के लिए साम्प्रदायिक तत्वों से समझौता करते हैं। वे राष्ट्रीयता की बात करते हैं मगर दलों के स्वार्थों को बलि पर नहीं चढ़ा सकते। यही कारण है कि तेरह वर्ष के बाद भी साम्प्रदायिकता फिर से पनप रही है और यह तब तक नहीं मिटेगी जब तक कि हम इस साम्प्रदायिकता के सम्बन्ध में कभी न समझौता करने वाला दृष्टिकोण नहीं अपनाएंगे।
‘‘कोई भी दल हो, पूजा का कोई भी स्थान हो, उसको अपनी राजनीतिक गतिविधियां वहां चलाने की छूट नहीं होनी चाहिए। अभी कहा गया है कि राजनीतिक गतिविधियों की परिभाषा क्या हो, किसे कहा जाए कि यह राजनीतिक गतिविधि है और किसे कहा जाए कि यह नहीं है। मेरा निवेदन है कि केन्द्रीय सरकार ने अपने कर्मचारियों के लिए नियम बना रखे हैं कि वे राजनीति में भाग नहीं ले सकते। यह परिभाषा की कठिनाई उनके सामने तो नहीं आती है। सरकार का कोई कर्मचारी अगर राजनीतिक गतिविधि में भाग लेता है तो उसे दण्ड भोगना पड़ता है और अगर कोई परिभाषा की कठिनाई है भी तो उस पर बैठ कर विचार किया जा सकता है। उसके सम्बन्ध में लोगों की राय ली जा सकती है और एक ऐसी सर्वसम्मत परिभाषा बनाई जा सकती है, जिसके अंतर्गत सत्ता प्राप्ति को या राजनीतिक चुनाव लड़ने को इसमें शामिल करते हुए बाकी के सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकारों पर किसी प्रकार का प्रतिबंध न लगे। 

‘‘इसके लिए आवश्यक है कि इस प्रस्ताव की मूल भावना से सब सहमत हों। राजनीतिक गतिविधियों की परिभाषा नहीं हो सकती, इसलिए धार्मिक स्थानों में राजनीति चलती रहे, इस चीज को स्वीकार करने के लिए मैं तैयार नहीं हूं। सिद्धांत के रूप में मैं चाहता हूं कि हम स्वीकार कर लें कि समय आ गया है कि पूजा के स्थान राजनीति के अड्डे न बनाए जाएं और फिर इसके लिए कैसा कानून बनाया जाए, उसकी परिभाषा क्या हो, उसकी परिधि क्या हो, ये विचार के विषय हो सकते हैं। इन पर मिल बैठ कर गम्भीरता से सोच सकते हैं। 
‘‘मेरा निवेदन है कि राष्ट्रीय एकता पर जो संकट है, कोई भी राष्ट्रवादी उसकी ओर से आंखें नहीं मूंद सकता और यह संकट भिन्न-भिन्न रूपों में खड़ा है। मेरा निवेदन है कि हम किसी भी सम्प्रदाय की साम्प्रदायिकता को बर्दाश्त न करें। चाहे वह कम संख्या वालों की हो, चाहे अनेक संख्या वालों की। जो नियम बनते हैं, वे सबके लिए एक से होते हैं मगर देखा गया है कि पंजाब में गुरुद्वारों में पुलिस नहीं जा सकती पर चंडीगढ़ के आर्यसमाज मंदिर में पुलिस प्रवेश कर सकती है। अगर नियम बने हुए हैं तो सभी के लिए एक से होने चाहिए। अभी जालंधर में आर्यसमाज मंदिर में प्रवेश पर रोक लगा दी गई थी, जबकि महीनों तक गुरुद्वारों का उपयोग क्या एक साम्प्रदायिक आंदोलन को चलाने के लिए नहीं होता रहा है?
‘‘वह रोक उठा ली गई है, इसका मैं स्वागत करता हूं। मैं इस बात का समर्थन नहीं करता कि आर्यसमाज के मंदिरों में राजनीतिक गतिविधियां चलें। मैं कहता हूं कि किसी को भी इस तरह की कार्रवाई करने का अधिकार नहीं होना चाहिए, फिर चाहे वो गुरुद्वारे हांे, चाहे आर्यसमाज मंदिर हों या दूसरे धर्मस्थान हों। इस सम्बन्ध में हमें कट्टरता और कठोरता की नीति अपनाने की आवश्यकता है। अगर हमने इस नीति को नहीं अपनाया तो असाम्प्रदायिक राज्य स्थापित करने का हमारा स्वप्न कभी भी सत्य नहीं हो सकेगा। 
‘‘देश के विभाजन से भी अगर हम शिक्षा नहीं लेंगे, राजनीति को मजहब से अलग नहीं रखेंगे, इस सम्बन्ध में जनमत की भावना का कानून के रूप में प्रयोग नहीं करेंगे तो केवल यह कह कर कि जनमत जाग्रत किया जाए, कोई अधिक परिणाम नहीं निकल सकता। मैं पूछना चाहता हूं कि हिन्दू कोड बिल के बारे में जनमत कितना जाग्रत किया गया था? हिन्दू कोड बिल तो बन गया मगर सिविल कोड बिल अभी तक नहीं बना है। गुरुद्वारों में पुलिस प्रवेश नहीं कर सकती, आर्यसमाज मंदिरों में कर सकती है। मस्जिदों में चुनाव जीतने के लिए फतवे दिए जा सकते हैं, विदेशी मिशनरी गिरजाघरों में बैठकर राष्ट्रीय एकता विच्छेदन करने के षड्यंत्र कर सकती हैं और इन सब चीजों को आज बर्दाश्त किया जाता है। अगर इन संकटों को हम आज भी नहीं समझेंगे तो हमारी स्वतंत्रता और हमारी राष्ट्रीयता की रक्षा नहीं हो सकेगी।
‘‘मैं कहना चाहता हूं कि यह प्रस्ताव नहीं है, यह शासन को कसौटी पर कसा जा रहा है और एक-एक कांग्रेसी की राष्ट्रीयता को मानो आज चुनौती दी जा रही है। अगर वे चाहते हैं कि राजनीति का साम्प्रदायिकता में प्रवेश नहीं होना चाहिए तो इस प्रस्ताव का उनको समर्थन करना चाहिए, वरना कहा जाएगा कि वे राष्ट्रीय एकता की बातें तो कर सकते हैं मगर उसके निर्माण के लिए कदम नहीं उठा सकते। धन्यवाद!’’
अटल बिहारी वाजपेयी के लोकसभा में इस भाषण से साफ पता चलता है कि वे धार्मिक स्थलों को समान राजनीतिक दृष्टि से देखे जाने के पक्षधर थे तथा धार्मिक स्थलों का राजनीति से दूर रहना उचित समझते थे।
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Thursday, December 4, 2025

बतकाव बिन्ना की | अब तो शहर सोई छूटत जा रए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बतकाव बिन्ना की | अब तो शहर सोई छूटत जा रए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम
बतकाव बिन्ना की   
         
अब तो शहर सोई छूटत जा रए                             
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

‘‘कां हो आईं बिन्ना?’’ भैयाजी ने मोसे पूंछी।
‘छतरपुर गई रई। आपके लाने बताओ तो रओ के जाने है।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘अरे हऔ, तुमने बताई तो रई। उते कछू सेमिनार-वेमिनार हतो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, उते राष्ट्रीय सेमिनार रओ। बड़ो अच्छो टापिक रखो गओ रओ।’’ मैंने बताई।
‘‘का टापिक हतो?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘बुंदेली कविताओं में पर्यावरण को टापिक रओ।’’ मैंने बताई।
‘‘भौतई अच्छो! ई टाईप के टापिकन पे बतकाव होने बी चाइए। तुमने उते का करो?’’ भैयाजी ने पूछी। 
‘‘मैंने उते ‘बुंदेली कविताओं में जल और नदियां’ वारे सत्र की अध्यक्षता करी। सो शोध करबे वारन को शोधपत्र बी सुनबे खों मिलो। अच्छो रओ सब कछू। ऊंसई जां भैया बहादुर सिंह परमार जू को इंतजाम होए, उते सब अच्छोई रैत आए। बे सबको बरोबरी से खयाल रखत आएं। बाकी उनको जी अच्छो नईं रओ फेर भी उन्ने अपनी पीरा की कोनऊं खों भनक नई लगने दई औ सब काम करत रए।’’ मैंने बताई।
‘‘काए का हो गओ रओ उनको?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘उनको ऊ टेम तक पता पर चुकी रई के उनकी माताराम के बचबे की कोनऊं उमींद नइयां। बे अपने जी दाबे फेर भी सब काम करत रए। औ उधनई रात की दस बजे माताराम शांत हो गईं। तनक सोचो आप के उनपे का गुजरी हुइए।’’ मैंने कई।
‘‘अरे, राम-राम! जेई तो एक बात आए जी पे कोनऊं को बस नईं चलत। बाकी सई में बड़ी हिम्मत दिखाई उन्ने। बे नाटक वारे का कैत आएं के ‘शो मस्ट गो आॅन’ मने चाए कछू हो जाए मंच पे सब कछू चलत रैन चाइए। जिम्मेवारी इंसान को सब कछू सहना सिखा देत आए। बाकी, बड़ो दुख भओ जा खबर जान के। जो उनसे बात होए तो हमाई तरफी से बी उने ढाढस बंधाइयो। ने तो हमें नंबर दइयो, हम खुदई बात कर लेबी।’’ भैयाजी दुखी होत भए बोले। 
‘‘हऔ, अभई व्हाट्सएप्प कर देबी। बात कर लइयो।’’ मैंने कई।
मताई-बाप चाए कित्ते बी उम्मर के हो जाएं, चाए कित्ते बी बुढ़ा जाएं मनो उनको साया सिर पे बनो रए सो अपनो बालपन बचो रैत आए। फेर मताई सो मताई होत आए। 
‘‘औ, छतरपुर को रस्ता कैसो आए? रोडे बन गईं उते की?’’ भैयाजी ने पूछी। काए से के बे समझ गए के मोए अपनी मताई की याद आन लगी हुइए औ अभईं मोरो जी फटन लगहे। सो उन्ने बात पलटी।
‘‘सागर से छतरपुर की रोडें? सई बताएं तो आधी फर्राटा आएं औ आधी घर्राटा आएं।’’ मैंने कई।
‘‘का मतलब? फर्राटा सो समझ में आई, बाकी घर्राटा समझ में नई आई।’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मतलब जे के जां तक रोड बन गई है, उते तक तो गाड़ी फर्राटा सी भग रई हती। फेर जां-जां अबे बी काम चल रओ आए उते सम्हर-सम्हर के चलबे की रई। औ ऊपे उते काम करबे वारे डम्पर अंधरन घांई दौड़ रए हते। उनसे सोई बच-बुचा के चलने हतो। बाकी जे आए के जित्ती रोड बन गई, उत्ती तो चकाचक आए। मनो मक्खन घांई।’’ मैंने बताई।
‘‘खैर बाकी बी बनई जैहे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, काम तो मनो बड़ो आए पर उते रात औ दिन काम हो रओ सो सालों ने लगहें।’’ मैंने कई।
‘‘फेर, ई दफे फेर बंडा रुकी रईं? बे शायर साब से मिलबे के लाने?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मायूस सागरी जू से? नईं ई दफे तो बंडा ई नई मिलो तो बे कां से मिलते?’’ मैंने कई।
‘‘बंडा नईं मिलो? का मतलब? जे आज तुम कोन टाईप से गोलमोल बोल रईं?’’ भैयाजी झुंझलात भए बोले।
‘‘मैं कछू गोलमाल नई बोल रई। सूदी बात आए के ई बेर बंडा नईं मिलो। मोरे संगे जो भैयाजू गए रए उनसे मैंने कई के कर्रापुर के बाद बंडा परहे। मनो काए खों? कर्रापुर से चलत-चलत शाहगढ़ आ गओ मनो बंडा ने मिलो।’’ मैंने बताई।
‘‘ऐं? ऐसो कैसे हो सकत आए?’’ भैयाजी खों भारी अचरज भओ।
‘‘बो का आए के अब जे जो रोडें बन रईं बे फोर लेन, सिक्स लेन वारी बन रईं, सो बे शहर से बायरे बाईपास से कढ़ जात आएं। जेई में शहर छूटत जा रए। ई दफा बंडा छूटो, अगली बेरा जाबे में कओ शाहगढ़ ने मिले। बा रोड सोई बायरे से कढ़ रई।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘सो जे बात आए। सई कई तुमने। देखो पैले अपने ओरे लखनऊ जात्ते तो रस्ते में कानपुर के भीतरे से जाने परत्तो। भौतई तो जाम लगत्तो औ परदूषन से जी मचलान लगत्तो। बाकी उते शहर औ चैराए की गदर देख के मजो बी आउत्तो। पर अब बायरे-बायरे से कढ़ जाओ, सो पतई नईं परत के कबे कानपुर कढ़ गओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मनो ईसे टेम सोई बचत आए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ टेम सो बचत आए, मनो असल शहर छूटत जा रए। काए से के फोर लेन होए चाए सिक्स लेन होए, उनके लिंगे सगरे खेत मिटा के नई बस्तियां बसन लगीं। धंदा-रुजगार सो चलत रोड पे ई चलहे। मनो जे नईं बस्तियां बजार वारी ठैरीं। चमक-दमक वारीं। जे अपनी सी कोन लगत आएं।’’ भैयाजी बोले। बात उन्ने पते की कई।
‘‘हऔ भैयाजी! बात सो आप सई कै रए मनो जां बिकास हुइए उते कछू खोने बी परहे। जे तो हमेसई से चलत आ रओ।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘खोने तो परत आए मनो अब कछू ज्यादई तेजी से अपन खोत जा रए। चैड़ी रोडन के लाने खेत बिकत आएं, जंगल कटत आएं औ पहाड़ मिटत आएं। ई सब को कित्तो हर्जा होत आए। तनक सोचो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जा तो सई कै रए आप। मैंने सोई उते रोड के कनारे-कनारे बूढ़े पुराने पेड़न के कटे ठूंठ डरे देखे। उने देख के लग रओ तो के उते कोनऊं कत्लेआम भओ रओ होए। बे पेड़ सौ-दो सौ साल पुराने रए हुइएं। औ बदले में नए पेड़ बी नई लगाए जा रए। बाकी होटलें औ सरकारी आउटलेट मुतकींे खुल गईं। बाकी इन ओरन को दिल्ली की दसा से कछू सबक लेओ चाइए। जेई-जेई में सो दिल्ली नरक बनी जा रई। औ जेई ढंग को बिकास होत रओ तो इते बी हवा साफ करबे वारी मशीन ले के रैने परहे।’’ मैंने कई।
‘‘जेई तो बाजार को फंडा आए बिन्ना! पैले पब्लिक वारो पानी सुकाओ औ फेर बोतलन में भर-भर के पानी बेचों। ऐसई हवा खों बिषैली बनाओ और फेर ऊको साफ करबे वारी मशीन बेचों। जैसे गंदे पानी को साफ करबे वारी मशीने बिकत आएं। पैले तो ऊंसई पियत्ते, ने तो कपड़ा से छान लेओ तो काम चल जात्तो अब तो आरो पे बी बीमार परत रैत आएं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, काए से के डाक्दरन और दवा वारों को बी तो खयाल राखने।’’ मैंने हंस के कई।   
‘‘चलो तुम ओरें कां की ले के बैठे! इते आओ इते गुरसी तप गई। चलो तापो तुम ओरें।’’ भौजी हम ओरन के लिंगे गुरसी धरत भईं बोलीं। 
रामधई! जड़कारे में गुरसी से साजो कछू नईं।    
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के जो मेन रोडन से शहर कटत जा रए उनपे का असर हुइए?
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बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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