Friday, September 3, 2010

क्यों लगाई जाती हैं प्रतिमाएं?

- डॉ शरद सिंह

मगहर में संत कबीर की प्रतिमा के नीचे लगा पोस्टर
          किसी चौराहे या किसी महत्वपूर्ण परिसर में किसी महापुरुष, महास्त्री या किसी विशेष व्यक्ति की प्रतिमा क्यों लगाई जाती है? इस प्रश्न का उत्तर बहुत सीधा सरल है और जिसे रि व्यक्ति जानता है कि जब हम किसी व्यक्ति विशेष को विशेष सम्मान देना चाहते हैं अथवा उसके कार्यों के प्रति आभार प्रकट करना चाहते हैं तो उसकी प्रतिमा किसी चौराहे अथवा किसी परिसर पर लगा दी जाती है। किन्तु क्या यह शतप्रतिशत सच है? ऐसा लगता तो नहीं है क्योंकि लगभग हर चौराहे पर या लगभग हर महत्वपूर्ण परिसर में किसी न किसी महान व्यक्ति की प्रतिमा खड़ी की जाती है जिसे लगाने के लिए सरकार से मंाग की जाती है, प्रस्ताव रखा जाता है, बजट पारित होते हैं और किसी राजनीतिक महानुभाव के द्वारा पहले उस प्रतिमा को लगाए जाने वाली भूमि का पूजन कराया जाता है और फिर प्रतिमा लगा दिए जाने के बाद प्रतिमा का अनावरण कराया जाता है। इसके बाद क्या होता है?
           किसी व्यक्ति के प्रति हमारी सम्मान की वास्तविक भावना कितनी संक्षिप्त होती है इसे उन प्रतिमाओं की दशा देख कर सहज ही पता लगाया जा सकता है। धूल की पर्त से अटी या पक्षियों की बीट से सनी स्थिति को अनदेखा कर भी दिया जाए तो उनके बारे में क्या कहेंगे जो इन प्रतिमाओं के सिर, गरदन या हाथों से विज्ञापन, चुनाव अथवा समारोही पर्चियांे की रस्सियां बांधा करते हैं। गोया प्रतिमा सम्मानसूचक स्मारक न हो अपितु अलगहनी का बंास या खम्बा हो। भला उन लोगों के बारे में क्या टिप्पणी की जाए जो ऐसी प्रतिमाओं तथा उनके चबूतरों (पैडस्टल्स) को पोस्टर चिपकाने के लिए उपयोग में लाते हैं। उत्तर प्रदेश में स्थित मगहर में जहंा संत कबीर ने अंतिम विश्राम किया, वहां ऐसा ही एक दृश्य देखने को मिला। यह दृश्य पीड़ा पहुंचाने वाला अवश्य था किन्तु यह ठीक वैसा ही था जैसा लगभग हर प्रदेश के हर दूसरे चौराहे पर देखने को मिल जाता है। संत कबीर स्मारक के रूप में एक कलात्मक चबूतरे पर खड़ी संत कबीर की प्रतिमा भी अत्यंत कलात्मक है किन्तु उसके चबूतरे (पैडस्टल) को चुनावी पोस्टरों ने ढांक रखा था। स्वाभाविक है कि अन्य समय पर उपभेक्ता वस्तुओं के विज्ञापन या फिल्मों के पोस्टर चिपका दिए जाते होंगे।  मगहर में संत कबीर की दो समाधियां हैं एक हिन्दू पद्धति का स्मारक तथा दूसरी मुस्लिम पद्धति की मज़ार। दो पृथक कमेटियां दोनों स्मारकों की अलग-अलग देखभाल करती हैं किन्तु शायद दोनों में से किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं जाता है कि उस परिसर के बाहरी भाग में उद्यान में लगी संत कबीर की प्रतिमा का चबूतरा अकसर पोस्टरों से ढंका रहता है। यही हाल अन्यत्रा लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप, शिवाजी, प्रेमचंद या फिर किसी भी महान व्यक्ति की प्रतिमा का देखने को मिल जाता है।
             सम्मानसूचक प्रतिमाओं की यह दशा देख कर सोचने को विवश होना पड़ता है कि आखिर हम क्यों लगाते हैं प्रतिमाएं जबकि हम उन प्रतिमाओं के सम्मान की रक्षा भी नहीं कर पाते हैं अथवा उनके प्रति ध्यान भी नहीं दे पाते हैं। इससे तो अच्छा है कि इस प्रकार प्रतिमाएं लगाई ही न जाएं या फिर उसी स्थिति में लगाई जाएं जब कोई समिति, कोई विभाग या कोई व्यक्ति-समूह प्रतिमाओं के सम्मान की रक्षा करने की जिम्मेदारी ले और इस जिम्मेदारी को निभाए।

1 comment:

  1. सामयिक मुद्दआ है
    कथा-कविता पर इस विषय पर मेरा एक छोटा लेख जो मसि-कागद के सम्पादकीय में भी था समय मिले तो ब्लॉग पर देखे

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