Wednesday, July 12, 2017

चर्चा प्लस ... पीड़ित बेटियां और विषपान करते शिव ... डॉ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh
बैलों के स्थान पर जुती हुई दो बेटियों की अखबारों में छपी तस्वीर ने सोचने पर विवश कर दिया है कि प्रत्येक समुदाय में धर्मध्वजा उठाए रखने वाली और संस्कृति को प्रवाहमान बनाए रखने वाली बेटियां कब तक असुरक्षित रहेंगी?
पढ़िए "पीड़ित #बेटियां और #विषपान करते #शिव" मेरा कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 12.07. 2017) ..My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper...

चर्चा प्लस
 पीड़ित बेटियां और विषपान करते शिव
 - डॉ. शरद सिंह

आए दिन समाचारपत्र भरे रहते हैं बेटियों के प्रताड़ित होने के समाचारों से। कभी हत्या तो कभी बलात्कार तो कभी किसी अन्य तरह का शारीरिक उत्पीड़न। उस पर बैलों के स्थान पर जुती हुई दो बेटियों की अखबारों में छपी तस्वीर ने सोचने पर विवश कर दिया है कि प्रत्येक समुदाय में धर्मध्वजा उठाए रखने वाली और संस्कृति को प्रवाहमान बनाए रखने वाली बेटियां कब तक असुरक्षित रहेंगी? आज के सामाजिक एवं सुरक्षा संबंधी समुद्र मंथन में बेटियों का शोषण रूपी विष बढ़ता जा रहा है और मानो शिव का कण्ठ उसे धारण करने के लिए छोटा पड़ता जा रहा है। क्या हम शिव के तांडव की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
Charcha Plus ..  Dr (Miss) Sharad Singh

सावन का महीना और सोलह सोमवार के व्रत का घनिष्ठ संबंध है। हिन्दू परिवारों की बेटियां बड़े उत्साह से सोलह सोमवार का व्रत रखती हैं और मनचाहे जीवन साथी तथा सुखद जीवन की कामना करती हैं। ये बेटियां भगवान शिव की पूजा-आराधना करती हैं। वही भगवान शिव जिन्होंने जगत् कल्याण के लिए विषपान किया था और नीलकण्ठ कहलाए थे। ‘शिवपुराण’ के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान जब देवतागण एवं असुर पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए मंथन कर रहे थे, तभी समुद्र में से कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएं जलने लगीं और देवताओं और दैत्यों सहित ऋषि, मुनि, मनुष्य, गंधर्व और यक्ष आदि उस विष की गर्मी से जलने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शिव ने भयंकर विष को अपने शंख में भरा और भगवान विष्णु का स्मरण कर उसे पी गए। भगवान विष्णु अपने भक्तों के संकट हर लेते हैं। उन्होंने उस विष को शिवजी के कंठ (गले) में ही रोक कर उसका प्रभाव समाप्त कर दिया। दुख तो इस बात का है कि आज के सामाजिक एवं सुरक्षा संबंधी समुद्र मंथन में बेटियों का शोषण रूपी विष फैलता जा रहा है और मानो शिव का कण्ठ उसे धारण करने के लिए छोटा पड़ता जा रहा है। क्या हम भगवान शिव के तांडव की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के गृह ज़िले सीहोर में आर्थिक तंगी से जूझ रहे किसान द्वारा खेत जोतने के लिए बैल की जगह बेटियों से हल खिंचवाने की तस्वीरें सामने आने के बाद से सोशल मीडिया से ले कर विपक्षी दलों तक में जागरूकता की लहर दौड़ गई। प्रिंट मीडिया ने तो अपना दायित्व निभाया लेकिन ऐसा लगा जैसे विपक्षी दलों को कोई खज़ाना हाथ लग गया हो। यह घटना राज्य के सीहोर ज़िले के बसंतपुर पांगड़ी गांव का है। रविवार को समाचार एजेंसी एएनआई ने कुछ तस्वीरें जारी की जिसमें एक किसान बैल की जगह बेटियों से खेत की जुताई करवाता नज़र आ रहा था। सरदार बारेला नाम के इस किसान का कहना है कि उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह बैल खरीद सके और उनका पालन पोषण कर सके। इतना ही नहीं उस ग़रीब किसान का कहना है कि आर्थिक तंगी की वजह से उसकी 14 वर्षीय बेटी राधिका और 11 वर्ष की कुंती को कक्षा आठ के बाद अपनी पढ़ाई भी छोड़नी पड़ी।
प्रश्न यह उठता है कि यदि उन दो बेटियों और उनके लाचार पिता की तस्वीर अखबारों में नहीं छपती तो क्या पंच, सरपंच आदि स्थानीय प्रशासन उस लाचार किसान के आत्महत्या करने की प्रतीक्षा करता रहता? ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ का नारा उछालना तो आसान है, चंद स्कूली बच्चों की रैलियां निकाल कर ऐसी योजनाओं को समर्थन देना तो और भी आसान है, लेकिन कठिन है तो बेटियों की वास्तविक दशा को सुधारना। लाचार पिता को यह नसीहत दे कर कि वह अपनी बेटियों से इस तरह का काम न कराए, दायित्वों की इतिश्री नहीं मानी जा सकती है और यदि बेटियों की जगह बेटे हल में जुते होते तो क्या इस मामले को अनदेखा किया जा सकता था? सवाल यहां दायित्वों के निर्वहन और खोखली व्यवस्थाओं का है। ‘मामा शिवराज के राज में भांजियां पीड़ित’ कह कर मुख्यमंत्री को दोषी ठहराना तो आसान है किन्तु यदि दो पल के लिए राजनीतिक चश्मा उतार कर मानवता की दृष्टि से देखें तो स्थानीय व्यवस्था के जिम्मेदारों ने अपना कर्त्तव्य किस तरह निभाया अथवा समाज ने उन दोनों बेटियों के पक्ष में कितनी आवाज़ उठाई इस पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। जब राधिका और कुंती को पढ़ाई छोड़नी पड़ी तो क्या किसी स्कूलशिक्षा, विकासखण्ड कार्यालय अथवा पंचायत की ओर से कोई रिपोर्ट बना कर राज्य शासन के सामने रखी गई? क्या किसी ने उसी समय यह जानने का प्रयास किया कि दो बेटियां अपनी शिक्षा अधूरी क्यों छोड़ रही हैं? क्या सर्वेयर ने उन दोनों बेटियों की माली हालत को जानने या उन्हें सहायता पहुंचाने का प्रयास किया? इस तरह के अनेक प्रश्न हैं जिनकी ओर ध्यान देना ही हमने लगभग छोड़ दिया है। प्रत्येक प्रशासन विभिन्न विभागों से मिल कर ही बनता है लेकिन विभागों और घोटालों के गठबंधन के चलते दायित्वों का सही निर्वहन हो कहां सकता है?
बेटियों के प्रति यह अनदेखी का रवैया सिर्फ़ मध्यप्रदेश में नहीं बल्कि लगभग हर प्रदेश में है। एसिड अटैक की शिकार हो चुकी युवती पर बार-बार एसिड फेंकने की घटना हैरान कर देने वाली है। पीड़िता के लखनऊ स्थित हॉस्टल में घुसकर किसी अनजान शख्स ने यह जघन्य अपराध किया। स्मरण रहे कि यह वहीं युवती है, जिस पर मार्च 2017 में ट्रेन में एसिड अटैक हुआ था। पीड़िता पर मार्च माह में ट्रेन में उस वक्त एसिड अटैक किया गया था, जब वह गंगा गोमती एक्सप्रेस से रायबरेली से लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पहुंची थी। तेजाब से झुलसी युवती को जीआरपी ने अस्पताल में भर्ती कराया। पीड़िता ने बताया था कि ट्रेन में दो युवकों ने उसे जबरदस्ती तेजाब पिलाया और ट्रेन से कूदकर भाग गए। घटना की जानकारी मिलते ही यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ पीड़िता से मिलने अस्पताल पहुंचे थे। उन्होंने पीड़िता को उचित कार्रवाई का आश्वासन दिया था। साथ ही पीड़िता के मुफ्त इलाज और 1 लाख रुपये के मुआवजे का एलान भी किया था।
घटना के बाद हॉस्टल की वार्डन नीरा सिंह ने महिला सुरक्षा के मुद्दे पर चिंता जताई और कहा कि ‘‘यदि हॉस्टल के भीतर  लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं तो फिर महिलाओं के लिए सुरक्षित जगह कौन सी होगी?’’ वहीं सीएम योगी ने एक टीवी चैनल से खास बातचीत में कहा कि ‘‘रेप पीड़िता को सुरक्षित जगह रखा गया था। ये देखना होगा कि एसिड अटैक हुआ है या नहीं।’’
यदि एक पल के लिए यह मान लिया जाए कि उस युवती ने स्वयं को घायल किया तो इस पर भी यह जानना जरूरी हो जाता है कि ऐसी कौन सी विवशता पैदा हो गई जिसके कारण उसे ऐसा स्वयं को पीड़ा देनेवाला कृत्य करना पड़ा। क्या उसने पहली बार भी छद्म गढ़ा था? क्या कोई युवती स्वयं को तेजाब से जलाने का साहस कर सकती है? देखा जाए तो हर घटना पर अनुत्तरित प्रश्नों का अंबार लग जाता है।
देश की राजधानी दिल्ली में घटित निर्भया-कांड इतना भी पुराना नहीं हुआ है कि उसके घटनाक्रम को हम भूल जाएं। निर्भया अपने ब्वायफ्रेंड के साथ बस में चढ़ी थी, यानी एक जवान लड़का उसके साथ था जो उसकी सुरक्षा कर सकता था किन्तु दरिंदे भेड़ियों के सामने वह भी टिक नहीं सका। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह लड़का कमजोर था या उसमें निर्भया को बचा पाने की चाह नहीं थी। वह तो अपनी जान पर खेल गया लेकिन भेड़ियों के समूह से हार गया। विचार करने की बात तो यह है कि ये भेड़ियों का समूह पनपा ही क्यों? क्या लचर कानून व्यवस्था इसकी जिम्मेदार है? क्या औरातों के प्रति सम्मान की भावना का ग्राफ निरन्तर गिरता जा रहा है? या फिर हम अपने भारतीय संस्कार जिसमें मनुष्य को मनुष्य का सम्मान करना सिखाया जाता है, भूलते जा रहे हैं।
अधिक नहीं मात्र दो दषक पहले, कॉलेज की एक घटना। पान की दूकान पर खड़े कुछ आवारा किस्म के लड़के एक छात्रा को देख कर फिकरे कसने लगे। इस पर पहले तो दूकानदार ने उन्हें ऐसा करने से मना किया। वे नहीं माने तो उसी पान की दूकान पर खड़े दो-तीन अन्य आदमियों ने उन लड़कों की धुनाई कर दी और फिर उसे पुलिस के हवाले कर दिया। उस दिन के बाद से उस पान की दूकान के सामने से बेखौफ लड़कियां गुजरती रहीं, मजाल है कि कोई उन्हें परेशान कर सके। ऐसा लगता है गोया नागरिकों की यह जिम्मेदारी कहीं खो-सी गई है। अब तो ट्रेन की बोगी में सहयात्री लड़की को कोई छेड़ता है, उससे झगड़ता है और फिर उसे चलती ट्रेन से बाहर फेंक देता है, तब भी निन्यान्बे प्रतिशत पुरुष यात्री खामोष रहते हैं। उस पल शायद उन्हें अपने परिवार की बेटियों, स्त्रियों की याद नहीं आती है या फिर सब के सब किसी अज्ञात भय से जकड़ जाते हैं और खामोश रहते हैं।
बेटियां चाहे किसी भी जाति, किसी भी धर्म की हों, बेटिया तो आखिर बेटियां ही होती हैं और उनकी सुरक्षा तथा उनके सुखद-सुरक्षित जीवन का दायित्व भी शासन, प्रशासन, परिवार एवं समाज सभी पर संयुक्त रूप से होता है। किसी एक को जिम्मेदार ठहरा कर शेष अपनी अयोग्यता को ढांक नहीं सकते हैं। अपनी अकर्मण्याताओं से उपजे विष को कब तक भगवान भरोसे छोड़ते रहेंगे? दरअसल, बेटियों की ज़िन्दगी को राजनीतिक मोहरा बनाने की नहीं बल्कि उन्हें हर पायदान पर मदद देने की जरूरत है।
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