Wednesday, May 6, 2020

चर्चा प्लस - कोरोनाकाल की ‘रामायण’ - डाॅ शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस   

कोरोनाकाल की ‘रामायण’
  - डाॅ शरद सिंह

           स्व. रामानंद सागर जी ने यह सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनका ‘रामायण’ धारावाहिक एक दिन दर्शकों का बहुत बड़ा सहारा बनेगा। आज सामान्य व्यक्ति से ले कर बुद्धिजीवी वर्ग तक ‘रामायण’ देखकर अपना समय व्यतीत कर रहा है, और विशेष बात तो यह है कि धारावाहिक के आधार पर मूल ‘रामायण’ और तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ की रामकथा की अपने अलग ढंग से व्याख्या कर रहा है गोया वह कोरोनाकाल की नई ‘रामायण लिख देना चाहता हो।
    एक लम्बा समय हो चला है कोरोना से बचाव के लिए लाॅकडाउन में समय व्यतीत करते। कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाव व सुरक्षा के लिए पहले लाॅकडाउन-एक, फिर लॉकडाउन-टू और अब लाॅेकडाउन- थ्री की बारी है। कोरोना लाॅकडाउन के दौरान घर में क़ैद रहने वालों के मनोरंजन का पूरा ध्यान रखा सरकार और टीवी चैनल वालों ने। अपने समय के बहुचर्चित और अत्यंत लोकप्रिय धारावाहिकों का पुनःप्रसारण कर मनोरंजन के साथ ही धर्म और विचार की भावना को भी जगा दिया जिससे कोरोना के आतंक से उपजने वाला भय तनिक कम हो जाए। स्व. रामानंद सागर का ‘रामायण’ धारावाहिक ऐसा पहला धारावाहिक था जिसने चलती बसों के पहिए जाम कर दिए थे। इस धारावाहिक के प्रसारण के समय स्वतः स्वघोषित लाॅकडाउन हो जाता था। जो जहां रहता, वहीं ठहर जाता और धारावाहिक देख कर ही आगे बढ़ता। यहां तक कि बसयात्री भी बस वहीं रुकवा लेते जहां उन्हें यह धारावाहिक देखने को मिल सके। धार्मिक कथानक पर आधारित होते हुए भी यह धारावाहिक धर्म से परे धर्मनिरपेक्ष था। हर धर्म के लोग इसे बड़े चाव से देखते। श्रीराम का अभिनय करने वाले अरुण गोविल और सीताजी का अभिनय करने वाली दीपिका चिखलिया हर दर्शक के मन-मस्तिष्क में बस गए थे। बाॅक्स आॅफिस पर धमाका करने वाली मार-धाड़, रोमांस से भरपूर काॅमर्शियल फिल्में बनाने वाले रामानंद सागर भी यह देख कर दंग रह गए थे कि उनका यह धार्मिक संदर्भ का धारावाहिक सफलता के सारे रिकाॅर्ड तोड़ता चला गया। इस संबंध में उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा था-‘‘ये सब श्रीराम की कृपा है!’’ संभवतः इसके अतिरिक्त उनका कोई उत्तर हो भी नहीं सकता था।

78 एपीसोड्स के ‘रामायण’ धारावाहिक की पहली कड़ी 25 जनवरी 1987 को प्रसारित की गई थी तथा इसकी अंतिम कड़ी 31 जुलाई 1988 को प्रसारित हुई थी। लगभग डेढ़ साल से अधिक चलने वाले ‘रामायण’ धारावाहिक ने दर्शकों को मानो सम्मोहित किए रखा। एक बार फिर यह सम्मोहन शत प्रतिशत नहीं तो साठ प्रतिशत तक सिर चढ़ कर बोल रहा है। दिलचस्प बात यह है कि आज जो दर्शक उससे जुड़े हैं वे टेलीविजन धारावाहिकों के संबंध में मानसिक परिपकवता को प्राप्त कर चुके हैं। एकता कपूर के रंगारंग, चटकीले, रंगेचुंगे ग्लैमरस धारावाहिकों के सामने फीके रंगों वाला यह ‘रामायण’ धारावाहिक आज भी प्रासंगिक बन गया है। इससे भी अधिक दिलचस्प बात यह है कि सोशल मीडिया पर रामकथा के जानकारों, मीमांसाकारों ओर व्याख्याकारों की भीड़ उमड़ पड़ी है। जिसे सोशल मीडिया की ही भाषा में कहें तो इन दिनों रामकथा पर चर्चा ‘‘ट्रेंड’’ पर है। हर व्यक्ति स्वयं को रामकथा का जानकार साबित करना चाहता है गोया रामकथा की जानकारी इससे उसे थी ही नहीं। वही राम, वही सीता लेकिन ट्रेंडिंग रामकथा के नित नए समीकरणों की। कोई लिख रहा है कि श्रीराम को कटघरे में खड़ा किया जाए क्यों कि उन्हीं के कारण सीता को दुख और परित्याग झेलना पड़ा तो कोई इसके उलट पोस्ट करता है कि सीता का दुख ही प्रमुख क्यों? श्रीराम का दुख प्रमुख क्यों नहीं? यह कमाल है सोशलमीडिया कमेंट बटोरो अभियान का कि बहुपरिचित रामकथा पर अनर्गल टिप्पणियां भी की जा रही हैं। ऐसा लगता है जैसे सब कमर कसे हुए हैं एक ‘‘नई रामायण’’ लिखने के लिए। जिसमें स्त्री विमर्श वाले बुद्धिजीवी श्रीराम के व्यक्तित्व पर आक्रमण करते मिलेंगे तो वहीं दूसरी ओर पुरुष विमर्श वाले कैकयी और सीता को एक ही पलड़े पर बिठा कर दोनों को समान रूप से कोसते हुए, दोषी ठहराते हुए श्रीराम को ‘बेचारा’ और ‘सहानुभूति का पात्र’ बताते नज़र आएंगे। यह ‘टाईमपास’ तक सीमित हो तो कोई बात नहीं लेकिन यदि इसी के आधार पर आगे चल कर ‘कोरोनाकाल की रामायण’ का सृजन कर दिया गया तो रामकथा का भगवान ही मालिक है। 

रामकथा केवल एक आख्यान नहीं है, वह श्रीराम और सीता के माध्यम से मानव-जीवन के उच्च नैतिक आदर्शों को, मर्यादाओं को दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करने का माध्यम भी है। श्रीराम को एक आदर्श के रूप में उत्तर से लेकर दक्षिण तक जनमानस ने स्वीकार किया है। उनका चरित्र लोकतंत्र का प्रहरी और निर्माता भी है। वहीं सीता का एक स्त्री के रूप में त्याग और स्वाभिमान का अद्भुत चरित्र सामने आता है जो स्त्री के सम्पूर्ण गुणों को सामने रखता है। श्रीराम और सीता के आदर्शों का जनमानस पर प्रभाव इतना गहरा है, जो युगों-युगों तक रहेगा। भारतीय संस्कृति के व्याख्याकार डाॅ श्रीराम परिहार रामकथा की उपादेयता और प्रासंगिकता की चर्चा करते हुए कहते हैं कि ‘‘विदेश में रहने वाला अप्रवासी भारतीय रामनवमी के दिन अपने देश को याद करता है। अपने परिजनों को याद करता है। एकता का तार देश-विदेश के व्यक्ति को जोड़ता है। रामकथा की सांस्कृतिक यात्रा मंदाकिनी की तरह वेगवती होकर बह रही है। अनवरत बह रही है।’’ अतः रामकथा पर बौद्धिकता की अनावश्यक परत चढ़ाने से पहले गहन अध्ययन किया जाना चाहिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि साक्ष्य और सटीक तर्क से कही गई बातें ही मान्यता प्राप्त करती हैं। अतः कोरोनाकाल की रामकथा पर विवेक का अंकुश जरूरी है, कहीं अतिरेक करोड़ों लोगों की भावनाओं को ठेस न पहुंचाने लगे।        
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(दैनिक सागर दिनकर में 06.05.2020 को प्रकाशित)
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