पेट के सवाल का जानलेवा जवाब
- डाॅ शरद सिंह
पेट की ख़ातिर घर से निकले,
पेट की ख़ातिर धोखा खाया।
पेट ने जब न साथ दिया, तब,
मौत ने आ कर गले लगाया।
आज अपनी ही ग़ज़ल की यह लाईनें मुझे झकझोर रही हैं। मेरी आंखों के सामने घूमती रहती है लाॅकडाउन के दौरान राज्यों, शहरों और गांवों के बीच मज़दूरों की भीड़। चप्पलें टूट चुकी हैं। जेबें खाली हो चुकी हैं। पांव थक चले हैं लेकिन हौसले खत्म नहीं हुए है। मन में उम्मींद है वापस अपने गांव पहुंच जाने की। वे उस गांव की ओर जा रहे हैं जिसे उन्हें छोड़ना पड़ा था पेट की ख़ातिर। गांव उनके परिवार का पेट नहीं भर पा रहा था। काम का अभाव उन्हें महानगरों की ओर खींच ले गया। मेहनत-मजदूरी करने पर बहुत तो नहीं, मगर इतना तो मिल ही जाता था कि अपने दो वक़्त की रोटी के लिए बचाकर बाकी अपने गांव अपने परिवार के पास भेज सकें। बहुत से मजदूर तो दस-बीस साल पहले ही अपना गंाव छोड़ कर दिल्ली, मुंबई आदि महानगरों में अपना पसीना बहा रहे थे। उनके साथ उनकी पत्नी और बच्चे भी वहीं थे। किसी-किसी के बूढ़े मां-बाप भी उनके साथ थे। लाॅकडाउन शुरू हुआ तो मिल, फैक्ट्री और कारखाने बंद हो गए। निर्माणकार्य थम गए। हजारों मजदूर एक झटके में बेरोज़गार हो गए। मालिकों और ठेकेदारों ने उनसे मुंह मोड़ लिए। पूरी तरह दोषी वे भी नहीं हैं क्योंकि यदि आमदनी नहीं है तो वे मजदूरी कहां से दें? लाॅकडाउन ने उन्हें कठोर और निर्दयी बना दिया। ठीक यही रवैया अपनाया मकानमालिकों ने। उन्होंने मजदूरों से उनकी खोलियां और कमरे खाली करवा लिए। यह भी नहीं सोचा कि बेरोजगार मजदूर अपना परिवार ले कर कहां जाएगा? यह भी नहीं सोचा कि उनके द्वारा खाली करवाए गए कमरों और खोलियों में रहने के लिए इस दौरान कोई दूसरा किराएदार भी नहीं आएगा। मजदूरों को बाहर धकेल दिया गया उनकी किस्मत के सहारे। उस किस्मत के सहारे जो पहले ही उनका साथ छोड़ चुकी है।
सरकार ने ट्रेन और बसें चलाईं लेकिन मज़दूरों की तादाद के आगे यह नाकाफी निकलीं। अफ़वाहों की गर्म हवाओं ने चिलचिलाती धूप को भी फ़ीका कर दिया। मज़दूरों से यात्री किराया वसूले जाने की बात, क्वारंटाईन किए जाने का भय और चैकपोस्ट पर चैकिंग से उपजे अज्ञात भय ने उन्हें धकेल दिया जंगलों, खेतों और रेल की पटरियों की ओर। उन्हें लगा कि जो रेल की पटरियां उन्हें उनके गांव से महानगर की ओर ले गई थीं, वे ही पटरियां वापस उन्हें उनके गंाव पहुंचा देंगी। रेल और रेल की बेजान पटरियां मजदूरों की भावनाओं को समझ नहीं सकीं और आए दिन एक न एक मजदूर के कट कर मरने के समाचार आने लगे। सन्नाटा तब छा गया जब औरंगाबाद की घटना हुई। जिसमें कई मजदूर एक साथ रेल से कट कर मर गए। वे सैंकड़ों किलोमीटर का सफ़र तय कर के अपने गंाव लौट रहे थे। रास्ते में स्वयंसेवियों के सौजन्य से कुछ रोटियां मिल गईं। जिनमें से कुछ रोटियां खाईं और कुछ आगे के रास्ते के लिए अपने सीने पर बंाध लीं। थकान से टूट चला शरीर और रोटी के चंद निवालों का सुकून। उन्हें रेल की पटरी पर ही नींद आ गई। वे गहरी नींद में सो गए। रेल आई तो उन्हें काटती हुई गुज़र गई। रोटियां सीने पर बंधी रह गईं और इहलीला समाप्त हो गई। घटनास्थल पहुंच कर जिसने भी वह हृदयविदारक दृश्य देखा वह सकते में आ गया। पेट का सवाल उन मजदूरों की दर्दनाक मौत के रूप में अपना उत्तर दे चुका था।
12 साल की एक नन्हीं-सी लड़की अपने मजदूर मां-बाप के साथ तेलंगाना से पैदल छत्तीसगढ़ अपने गांव जा रही थी। लगभग 150 किमी लंबे रास्ते पर वह तीन दिनों से चल रही थी और घर पहुंचने से महज 14 किलोमीटर पहले उसने दम तोड़ दिया। वह भी हल नहीं कर पाई अपने पेट का सवाल।
रोंगटे खड़े कर देने वाली हृदयविदारक घटनाओं के अनवरत सिलसिले में एक घटना मध्यप्रदेश के सागर जिले की बंडा तहसील की भी जुड़ गई। उस अभागे मजदूर का नाम था रामबलि। सिद्ध़ार्थनगर उत्तर प्रदेश का रहने वाला। वह मुंबई के पालघर जिले में एक ठेकेदार के टोल नाके पर मजदूरी करता था। मुंबई से निकले अन्य मजदूरों की भांति रामबलि भी अपने घर सिद्ध़ार्थनगर के लिए पैदल ही निकल पड़ा था। बंडा से गुज़रते समय वह अचानक गिर पड़ा और मर गया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार रामबलि की मौत डी-हाइड्रेशन के चलते हुई। पैसे तो दूर, पीने का पानी भी नहीं था उसके पास। वह नहीं झेल पाया अपनी थकान, भूख और प्यास। हाड़ तोड़ मेहनत करने वाला एक मजदूर पेट के इस सवाल पर फेल हो गया। परिणाम में मिली उसे मौत।
देश के बंटवारे के दौरान जिस आग के दरिया के दर्दनाक किस्से पढ़े हैं, कुछ वैसी ही आग की आंच अब महसूस होने लगी है सभी को। जो महानगरों से लौट कर सकुशल अपने गंाव-घर पहुंच रहे हैं, वे क्वारंटाईन के बाद क्या अपने और परिवार के पेट का सवाल एक बार फिर हल कर पाएंगे? यह एक बहुत बड़ा और चुनौती भरा सवाल मुंह बाए खड़ा है प्रशासन और मजदूरों दोनों के सामने। जिसका जवाब समय रहते पाना होगा वरना मौत निगलती रहेगी संभावनाओं को। ------------------------------
(दैनिक सागर दिनकर में मेरे चर्चा प्लस कॉलम में 13.05.2020 को प्रकाशित)
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