Wednesday, May 13, 2020

घर लौट रहे प्रवासी मजदूर... वे मज़बूर हैं ... क्योंकि मज़दूर हैं, मौत क़रीब है और घर दूर है - डॉ. शरद सिंह, दैनिक जागरण में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
घर लौट रहे प्रवासी मजदूर... वे मज़बूर हैं ... क्योंकि मज़दूर हैं, मौत क़रीब है और घर दूर है - डॉ. शरद सिंह
       दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरा यह लेख जो समर्पित है लॉकडाउन में घर लौटते मज़दूरों की दुर्दशा को ...
❗हार्दिक आभार "दैनिक जागरण" 🙏
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लेख-
घर लौट रहे प्रवासी मजदूर....
वे मज़बूर हैं...क्योंकि मज़दूर हैं, मौत क़रीब है और घर दूर है
- डॉ. शरद सिंह
         वे इंसान हैं, वे इस देश के नागरिक हैं, वे मतदाता हैं लेकिन आज वे हज़ारों की तादाद में हज़ारों किलोमीटर के सफ़र में निकल पड़े हैं, अपने छोटे-छोटे बच्चों से ले कर 90-95 साल के माता-पिता को साथ ले कर। वे न तो एक शहर से निकले हैं और ही उन्हें किसी एक गांव जाना हैं। फिर भी सब की एक कहानी है। वे देश के विभिन्न नगरों-महानगरों से निकले हैं और लौट रहे हैं अपने-अपने घरों की ओर। दिल में सिर्फ़ एक उम्मींद लिए कि वे एक दिन अपने गांव, अपने लोगों के पास पहुंच जाएंगे। जिस दिन दुनिया ‘मदर्स डे’ मना रही थी ठीक उसी दिन ‘मदर्स डे’ से अनजान एक प्रौढ़ अपनी नब्बे साल की मां को सायकिल पर बिठा कर हजारों किलोमीटर की यात्रा कर रहा था ताकि अपनी बूढ़ी मां को वापस गांव ले जा सके। उसे न ट्रेन मिली, न बस, उसने अपनी जमापूंजी से सायकिल खरीदी और जीवन के एक और संघर्ष में कूद पड़ा। वह नहीं जानता है कि वह इस संषर्ष में जीतेगा या हारेगा? किन्तु वह यह जरूर जानता है कि हार का मतलब है मौत।

अधिकतर मजदूर अन्य राज्यों में या तो औद्योगिक प्रतिष्ठानों में काम कर रहे थे, घरेलू कार्यों में लगे थे या फिर प्राइवेट कंपनियों में नौकरी कर रहे थे। वहीं दिल्ली की एक मिल में काम करने वाले चित्रकूट के निवासी पन्नालाल को जो भूख और अपमान दिल्ली में मिला उसने उसे दिल्ली छोड़ने को विवश कर दिया। पन्नालाल के मन में तड़प इस बात की है कि जहां वह दस साल से काम कर रहा था, अपने मालिक को लाभ पहुंचा रहा था, उसी मालिक ने हाथ खड़े कर दिए कि जब मिल ही बंद हो गई तो अब मैं तुम्हें पैसे कहां से दूं? मालिक का कहना भी दुरुस्त था लेकिन पन्नालाल को जब उसके उस 10 गुना 10 के कमरे से भी धक्केमार कर बाहर निकाल दिया गया जहां वह अन्य आठ मजदूरों के साथ रहता था, तब उसे अहसास हुआ कि अब तो वह बेरोजगार, बेघर और दाना-पानी से मोहताज़ हो गया है। वह मात्र चार सौ रुपए की अपनी कुल जमापूंजी के सहारे पैदल ही निकल पड़ा दिल्ली से चित्रकूट के लिए। यह स्थिति मात्र पन्नालाल की नहीं है, अपितु उन हज़ारों मजदूरों की है जो सड़कों, खेतों, जंगलों और रेल की पटरियों के रास्ते अपने घरों की ओर निकल पड़े हैं।
एक और मजदूर, उसका नाम रामबलि था। वह मुंबई के पालघर जिले में एक ठेकेदार के टोल नाके पर मजदूरी करता था। मुंबई से निकले अन्य मजदूरों की भांति रामबलि भी अपने घर सिद्धार्थनगर, उ.प्र. के लिए पैदल ही निकल पड़ा था। मुंबई से मध्यप्रदेश के बंडा तहसील तक की यात्रा उसने अपार कष्ट सहते हुए भी सफलतापूर्वक तय कर ली थी। लेकिन बंडा से गुजरते समय वह अचानक गिर पड़ा और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। रिपोर्ट के अनुसार रामबलि की मौत डी-हाइड्रेशन के चलते हुई। उसकी खाली जेब से बस एक आधार कार्ड बरामद हुआ जो तेलगू़ भाषा में था। जो बयान कर रहा था कि पेट की खातिर रामबलि कभी आंध्र प्रदेश भी गया था।    
दुर्दिन भोग रहे इन मज़दूरों में से अनेक ऐसे हैं कि रोटियां भी जिनकी जान नहीं बचा पा रही हैं। औरंगाबाद की रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना इस बात का सबूत है। हजारों किलोमीटर का सफर तय करते हुए थक कर चूर मजदूर रेल की पटरी पर ही सो गए। तब उन्हें क्या पता था कि रेल आएगी और उन्हें कभी जागने नहीं देगी। वे रोटियां भी उनकी जान नहीं बचा पाएंगी जो उन्होंने अपने सीने पर बांध रखी थीं। क्षत-विक्षत शवों पर कपड़ों में बंधी हुई रोटियां जिसने भी घटनास्थल पर पहुंच कर देखीं, वह लौट कर अपने हलक से रोटी का निवाला नहीं उतार सका। उसके आंसू भी उसके गले को इतना तर नहीं कर सके कि निवाला हलक से उतर सके।

इससे पहले 12 साल की एक लड़की की मौत की खबर सबने पढ़ी थी। जो तेलंगाना से पैदल छत्तीसगढ़ अपने गांव आ रही थी। करीब 150 किलोमीटर लंबे रास्ते पर वह तीन दिनों से चल रही थी और घर पहुंचने से महज 14 किलोमीटर पहले उसने दम तोड़ दिया था। अभी हाल ही में नरसिंहपुर जिले की सीमा पर एक बड़े सड़क हादसे में पांच मजदूरों की मौत हो गई। नरसिंहपुर जिले के मुंगवानी थाना क्षेत्र के पास आम से भरा एक ट्रक अनियंत्रित होकर पलट गया. इस हादसे में 5 मजदूर मारे गए जबकि 11 मजदूर घायल हो गए। ट्रक में करीब 20 मजदूर सवार थे। पुलिस के मुताबिक आम के ट्रक में सवार 20 मजदूरों में से 11 मजदूर झांसी के रहने वाले थे जबकि 9 एटा के थे। सभी मजदूर हैदराबाद से अपने घर जाने के लिए निकले थे।
मेहनत कर के पेट भरने वाले मजदूरों की दशा आज भिखारियों और शराणार्थियों जैसी हो गई है। वे आज समाजसेवी संगठनों एवं स्थानीय प्रशासनों की उदारता पर निर्भर हैं। लेकिन चैकिंग और क्वारंटाईन किए जाने को ले कर उनके मन में जो अविश्वास है, उसके चलते वे रेल की पटरियों और जंगलों के रास्ते चुन रहे हैं। जिससे उन्हें हर तरह की सहायता से वंचित होना पड़ रहा है। खाली पेट-खाली जेब सैंकडों किलोमीटर पैदल सफर की असंभव सी दूरियां तय करने निकल पडे हैं वे, सिर्फ़ अपने हौसले के दम पर। जरूरत है उन्हें विश्वास दिलाए जाने की और बड़े पैमाने पर वह सुविधा मुहैया कराने की जिससे वे अपने गंतव्य पर सकुशल पहुंच सकें। अन्यथा लाॅकडाउन के दौरान हो रहे इस विस्थापन के मौत के तांडव को याद कर अनेक सदियां सिहरती रहेंगी।
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(दैनिक जागरण में 12.05.2020 को प्रकाशित)
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