- डाॅ. शरद सिंह
मित्रो, आज दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरा यह लेख जो समर्पित है लॉकडाउन में मुबंई से उ.प्र. ऑटो से घर लौटते मज़दूरों की दुर्दशा को...
❗हार्दिक आभार "दैनिक जागरण" 🙏
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लेख-
प्रवासी मजदूरों की घर वापसी :
तीन पहियों पर सवार जीने की ज़द्दोज़हद
- डाॅ. शरद सिंह
दृश्य 1:- सागर के भैंसा नाका के पास लम्बी कतार सोशल डस्टेंसिंग के साथ भोजन पाने के लिए। गुरुद्वारा कमेटी का लंगर भरसक प्रयास में जुटा हुआ है कि कोई भी मजदूर और उसका परिवार वहां से भूखा न गुज़रे। प्रतिदिन 10 से 12 हज़ार प्रवासी मज़दूर सागर से गुज़र रहे हैं जो महाराष्ट्र से उत्तर प्रदेश की ओर जा रहे हैं। सायकिल और पैदल के साथ ही सैंकड़ों आॅटोरिक्शा से भरी हुई हैं हाईवे। जिस हाईवे पर लम्बी दूरी की आॅटोरिक्शा चलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, उस हाईवे पर महाराष्ट्र के रजिस्ट्रेशन वाली आॅटोरिक्शा की लम्बी कतार देख कर अपनी आंखों पर यक़ीन करना कठिन हो जाता है।
दृश्य 2:- सागर के लेहदरा नाके पर लगभग दो घंटे से अधिक समय तक लगी रही लम्बी कतार। लगभग एक-सी कहानी है सागर से हो कर गुज़रते हर मजदूर परिवार की, चाहे वह किसी फैक्ट्री में काम करता रहा हो, वह होटल में बरतन धोता रहा हो, साग-सब्जी की रेहड़ी लगाता रहा हो या फिर आॅटोरिक्शा चलाता रहा हो।
जगप्रसाद मुंबई में आॅटो चलाते थे। लाॅकडाउन लागू होते ही उनकी आॅटो चलना बंद हो गई। लाॅकडाउन के पहले चरण में इस उम्मींद में वे वहीं टिके रहे कि शायद संकट जल्दी टल जाए। पर ऐसा हुआ नहीं। अपनी कमाई का आधा हिस्सा वे पहले ही अपने गंाव सीतापुर (उ.प्र.) भेज चुके थे। बचे हुए पैसों से कुछ दिन जैसे तैसे कटे। मुंबई जैसे शहर में जहां बिना पैसों और बिना रोजगार के एक पल टिकना कठिन हो वहां अपने चार बच्चे और पत्नी के साथ जगप्रसाद भला कितने दिन काट पाते। जमापूंजी खत्म होते-होते उन्होंने अपने साथियों की सलाह मानी और मुंबई छोड़ कर अपने गांव लौटने का फैसला किया। तब तक बस, ट्रेन पर लाॅडडाउन पूरी तरह लागू हो चुका था। कुछ ट्रकें चोरी-छिपे मजदूरों को महाराष्ट्र से बाहर पहुंचा रही थीं। लेकिन वे जितने पैसे मांगती थीं उतने जगप्रसाद के पास नहीं थे। सौभाग्य से जगप्रसाद का अपना आॅटोरिक्शा था। वे और उनके पांच साथी अपने-अपने आॅटोरिक्शा पर अपने परिवार ले कर मुंबई से निकल पड़े। वहां से निकलना आसान नहीं था। निकलने के पहले खोली (एक कमरे का मकान) मालिक ने खोली का किराया मांगा। उसने शर्त रखी कि या तो वे आॅटोरिक्शा छोड़ जाएं या फिर किराया चुका दें। जगप्रसाद और उसके साथियों ने किराया चुकाना उचित समझा। नतीजन उनके पास बच्चों के लिए दूध खरीदने के पैसे भी नहीं बचे। जो बचे थे उसे बचा कर रखना था आॅटोरिक्शा के ईंधन के लिए। चार छोटे बच्चे और उन बच्चों की कमजोर-सी मां। पांचों का दायित्व जगप्रसाद पर। मगर घर पहुंच कर अपने परिवार की जान बचाने की ललक ने उन्हें जीवटता प्रदान की और वे अपने ईष्टदेव का नाम ले कर मुंबई से निकल पड़े। जगप्रसाद ने मीडिया को बताया कि मध्यप्रदेश में प्रवेश करने के बाद उन्हें जगह-जगह पर सहायता मिली और भोजन-पानी मिलता रहा। सागर के बाद वे उत्तर प्रदेश की सीमा में प्रवेश कर जाएंगे। उन्हें पूरी उम्मींद है कि वे अपने गांव सकुशल पहुंच जाएंगे। वहां पहुंचने के बाद उनकी रोजी-रोटी का क्या होगा, इस सवाल का उत्तर फिलहाल उनके पास नहीं है क्योंकि घर लौटने वालों की संख्या अधिक है और गांव वही हैं जिन्हें वे रोजगार न मिलने के कारण छोड़ कर मुंबई गए थे। अब मुंबई ने उन्हें छोड़ दिया है, शायद गंाव उन्हें अपना ले। देश के प्रधानमंत्री द्वारा घोषित पैकेज के बारे में अभी उन्हें कोई जानकारी नहीं है लेकिन शायद अपने गांव पहुंचने पर उन्हें कोई सहारा मिल जाए। अभी तो एक-एक आॅटो में पांच से सात लोग सवार हो कर दूरियां तय कर रहे हैं इनके साथ कई दुधमुंहे बच्चे भी हैं जिन्होंने अभी दुनिया को ठीक से देखा ही नहीं है।
सागर से गुज़रने वाले सैकड़ों आॅटोरिक्शा में सभी आॅटो मालिक नहीं हैं कुछ जान-परिचय में ‘लिफ्ट’ ले कर साथ चल पड़े हैं। ऑटो से उत्तर प्रदेश जाने वाले मजदूरों ने पत्रकारों को बताया कि महाराष्ट्र की बाॅर्डर पर चेक पोस्ट पर ऑटो नहीं निकलने दे रहे हैं। कुछ ऑटो में पुलिस ने लाठी मारी तो लौट गए, हम लोग यह सोचकर निकल आए कि यहां कोरोना से मरें या घर पहुंचने की ज़द्दोजहद में भूख-प्यास से मरें। एक बार किस्मत आजमा कर देख लें। शायद खुद को और अपने परिवार को बचा पाएं। तन और मन की टूटन के आगे हार रहे हैं कुछ मजदूर। निजी और प्रशासनिक सहायता भी उनकी हताशा को सम्हाल नहीं पा रही है। वेे घर से निकले थे अपना गांव छोड़ कर। कुछ अपनों को साथ ले कर तो कुछ अपनों को वहीं छोड़ कर। मुंबई, देश की औद्यौगिक राजधानी का दर्ज़ा रखने वाली मुंबई। सपनों को पूरा करने वाली नगरी मुंबई। उसी मुंबई की ‘लाईफ लाईन’ का एक बड़ा अभिन्न हिस्सा वहां से विस्थापित हो गया है। वे जहां से भी गुज़रते हैं, वहां ऐसा दृश्य निर्मित हो जाता है मानो किसी एक देश के शराणार्थी किसी दूसरे देश जा रहे हों। गनीमत यही है कि इन विस्थापितों को दूसरे देश में नहीं अपितु अपने ही देश में प्रवासी मजदूर के रूप में दूरी नापनी पड़ रही है। अपना देश, अपने लोग होने के कारण उन्हें रास्ते में सहायता भी मिल रही है। कहीं भोजन, तो कहीं पानी तो कहीं दवाएं। लेकिन ये सब सहायताएं उनके घाव पर ठंडक तो रख रही हैं लेकिन घाव नहीं भर पा रही हैं। नाकाफी है यह सब कुछ इन प्रवासी मजदूरों की संख्या के सामने।
जिस मुंबई ने उन्हें सहारा दिया था उसी ने उन्हें बेसहारा कर दिया। यह चुभन उनके दिल के घाव को नासूर बनाती जा रही है। फिर भी यह अच्छी बात है कि हौसला देने वाले उन्हें हौसला दे रहे हैं कदम-कदम पर सहायता के रूप में।
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(दैनिक जागरण में 14.05.2020 को प्रकाशित)
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