Tuesday, June 22, 2021

पुस्तक समीक्षा | स्त्री-अतीत की गौरव गाथा: ब्रह्मवादिनी | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण में प्रकाशित

मित्रो, प्रस्तुत है आज 22.06.2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री डॉ. सरोज गुप्ता के काव्य संग्रह "ब्रह्मवादिनी" की  पुस्तक समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
स्त्री-अतीत की गौरव गाथा: ब्रह्मवादिनी 
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - ब्रह्मवादिनी
कवयित्री - डाॅ. सरोज गुप्ता
प्रकाशक - जे.टी.एस. पब्लिकेशन्स, वी-508, गली नं. 17, विजय पार्क, दिल्ली-110053
मूल्य - रुपए 595/-
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प्राचीन भारतीय संस्कृति में स्त्रियों को समाज में जो उच्चस्थान दिया गया था उसका वर्तमान संदर्भ में अनुमान लगाना कठिन है। विशेष रूप से भारतीय इतिहास में जो आक्रांताओं का युग आया उसने स्त्रियों की गौरवशाली स्थिति को पददलित कर दिया। वेदों में नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान किया गया है। वेदों में स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का! सुन्दर वर्णन पाया जाता है। वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय, वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली, सुख, समृद्धि लाने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इन्द्राणी, उषा आदि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं। वेदों में स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है। उसे सदा विजयिनी कहा गया है। उनके हर काम में सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है। वैदिक काल में नारी पठन-पाठन से लेकर युद्धक्षेत्र में भी जाती थी। जैसे रानी कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी। कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार था। अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा थीं- अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति-दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि। अतीत की इसी गौरवशाली परम्परा को काव्य रूप में प्रस्तुत किया है कवयित्री डाॅ. सरोज गुप्ता ने अपने काव्य संग्रह ‘‘ब्रह्मवादिनी’’ के रूप में। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण संग्रह है। इसमें उन स्त्रियों के बारे में काव्यात्मक जानकारी दी गई है जो अपने ज्ञान एवं कौशल के कारण ब्रह्मवादिनी ऋषिकाएं कहलाईं।


‘‘ब्रह्मवादिनी’’ काव्य संग्रह में इस संग्रह के अवतरण की भी एक समृद्ध परम्परा देखी जा सकती है। संग्रह की ‘‘पुरोचना’’ में आचार्य पं. दुर्गाचरण शुक्ल ने इस काव्य संग्रह की मूल कथाओं के संदर्भ को स्पष्ट करते हुए मानो गुरु-शिष्य परम्परा की एक नई प्रस्तावना लिखी है। वे लिखते हैं कि ‘‘ब्रह्मवादिनी दृष्टमंत्रभाष्य के प्रणयन के समय मन में यह प्रबल आकांक्षा उत्पन्न हुई थी कि इस ग्रंथ को आज की प्रगतिशील नई पीढ़ी की महिलाएं पढ़ें, समझें, तो ही मैं अपने को कृत कार्य मानूंगा। ग्रंथ लेखन की ये चाह आज पूरी हो रही है। मेरी कनिष्ठा शिष्या डाॅ. सरोज ने मेरे इस ग्रंथ को पढ़ा है, गुना है। यही नहीं ब्रह्मवादिनियों के दिव्य विचारों ने चित्त पर जो प्रभाव डाला है, उसे मुक्त रूप से कविता में अभिव्यंजित किया है।’’ अर्थात् इस काव्य संग्रह में गुरु के ज्ञान को आधार बना कर उनकी गुणी शिष्या ने काव्यात्मक संरचना बुनी है। वर्तमान समय में यह अपने आप में एक सुंदर अनूठा उदाहरण है कि गुरु-शिष्य परम्परा इस प्रकार भी निभाई जा सकती है। इसीलिए संस्कृतिविद डाॅ. श्याम सुंदर दुबे ने इसे ‘‘एक महनीय कृति’’ कहा है।

      ‘‘ब्रह्मवादिनी’’ में लोपामुद्रा, रोमशा, विश्ववारा आत्रेयी, अपाला अत्रिसुता, शश्वती, नद्यः ऋषिका, यमी वैवश्वती, वसुक्रपत्नी, काक्षीवती घोषा, अगस्त्यस्वसा, दाक्षयणी अदितिः, सूर्या सावित्री, उर्वशी, दक्षिणा प्राजापत्या, सरमा देवशुनी, जुहूः ब्रह्मजाया, वाग आम्भृणी, रात्रि भारद्वाजी, गोधा, इंद्राणी, श्रद्धा कामायनी, देवजामयःइंद्रमातरः, पौलोमी शची, सार्पराज्ञी, निषद उपनिषद, लाक्षा, मेधा तथा श्री नामक ऋषिकाओं का सुंदर विवरण दिया गया है। वस्तुतः काव्य संग्रह में संग्रहीत प्रत्येक कविता ब्रह्मवादिनियों  से साक्षात्कार कराती है। ऋषिका लोपामुद्रा के व्यक्तित्व वैभव को लक्षित करते हुए कवयित्री भावपूर्ण शब्दों में लिखती है-
यज्ञ पूजन करते-करते मन की आंखों ने
अगस्त्य प्रिया लोपामुद्रा का दर्शन किया।
हम सबकी आराध्या, पूजनीया, प्रातः स्मरणीय
भारतीय वैदिक नारी की अलौकिक छवि लिए
असाधारण व्यक्तित्व की धनी, तेजस्वी मनस्वी
निजत्व का लोप करने वाली अनुपम सृजन शक्ति
आलापन में गुरु महर्षि दुर्वासा से दीक्षित
श्रीविद्या को साधने वाली, पराशक्ति स्वयंसिद्धा
विश्वासमयी ऋषिका लोपामुद्रा का दर्शन किया।

‘‘नद्यः ऋषिका’’ कविता में इस तथ्य का पता चलता है कि जलप्रवाहिनी नदियों को भी ऋषिका स्वरूप माना जाता था तथा ज्ञान का प्रवाह बनाए रखने वाली ऋषिका को नदी की भांति प्रवाहमान माना जाता था। इस कविता की यह पंक्तियां देखिए जिनमें नद्यः ऋषिका उद्घोष करती है -
मैं नदी हूं
द्युलोक अंतरिक्ष से धरती तक
प्राणशिराओं को अपने में समेटे
लहरों, धाराओं से वत्सलता छलकाती
अनन्त करुणा सहेजे, अहर्निश बह रही हूं
मैं नदी हूं।

इसी संग्रह में ऋषिका सरमा देवशुनी का काव्यात्म विवरण प्रस्तुत किया गया है जिसमें ऋषिका सरमा देवशुनी के अस्तित्व की विशेषताएं बड़े सुंदर ढंग से बताई गई हैं। ये पंक्तियां परिचयात्मक होते हुए भी प्रवाहपूर्ण एवं लयात्मक हैं-
सरमा देवशुनी साक्षात् वाक रूपा दिव्यप्रकायामयी
सूर्यरश्मि, ज्ञान शक्ति खोजती अमरत्व की देवी।
पणि मेघों ने असुर रूप में, प्रकाश किया आच्छादित
वाक् सरस्वती वृहस्पति की गौएं, मेघपणियों ने कर ली लुप्त
इन्द्र लोक में अंधकार से मच गई खलबली
अंधकार ही अंधकार से सर्वत्र आसुरी वृत्ति बढ़ी
श्यामल मेघों के पीछे बाधाएं हरती
सरमा देवशुनी दिवयप्रकाशमयी।

कवयित्री डाॅ. सरोज गुप्ता की संस्कृतनिष्ठ भाषाई पकड़ ने इस संग्रह की कविताओं को अर्थवान बना दिया है। भाषाई सौष्ठव का आनंद लेने वाले पाठकों के लिए यह काव्य संग्रह पूर्ण उपादेय है। संग्रह की कविता ‘‘ऋषिका रात्रि भारद्वाजी’’ में शब्दों का चयन विशेष आकर्षित करता है-
देदीप्यमान, प्रकाशवती विश्वाःश्रियाः
सृष्टि के मूल की रात्रिरूप महाबीज
विशिष्ट नक्षत्र, रूपनेत्रों से सब ओर झांकती
तमरूप ओजस्वी ओढ़ती सारी चमक
जीवरात्रि, ईशरात्रि, महाप्रलयकालरात्रि
सृष्टि की अव्यक्तशक्ति
ब्रह्ममयी एकार्णव चितशक्ति
ऋषिका रात्रि भारद्वाजी।

यह काव्य संग्रह स्त्री-अतीत की गौरवमयी गाथा कहता हुआ भारतीय संस्कृति और उसमें स्त्री के स्थान को समझने का प्रबल आग्रह करता है। गहरे सामाजिक सरोकारों के साथ ऋषिकाओं के जीवन को बड़े प्रभावी ढंग से और सुंदर शब्दों में व्यक्त किया गया है। इसीलिए इस संग्रह की कविताओं में भी प्राचीन वैदिक काव्य की ध्वन्यांत्मकता स्पष्ट अनुभव की जा सकती है। कवयित्री डाॅ. सरोज गुप्ता ने अपने मन के भावों को कागज पर उकेरते हुए जो अंतः सलिला प्रवाहित की है वह पठनीय एवं संग्रहणीय है। यह काव्यसंग्रह स्वतः ही पाठकों की बुकशेल्फ में जगह बनाने सक्षम है। भारतीय स्त्री के गौरवमयी अतीत में रुचि रखने वाले पाठकों द्वारा इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। 
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