Tuesday, June 29, 2021

पुस्तक समीक्षा | खेल पत्रकारिता को समझने के लिए जरूरी है यह पुस्तक पढ़ना | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

पुस्तक समीक्षा
खेल पत्रकारिता को समझने के लिए जरूरी है यह पुस्तक पढ़ना  

समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
-----------------------------
पुस्तक  - खेल पत्रकारिता के आयाम
लेखक  - डाॅ. आशीष द्विवेदी
प्रकाशक - हिन्दी बुक सेंटर, 4/5-बी, आसफअली रोड, नई दिल्ली
मूल्य    - 230/-
--------------------------

आज पत्रकारिता शब्द से ही समाचारों से सनसनी फैलाने वाली पत्रकारिता का विचार आता है। जबकि खेल पत्रकारिता से हमारा पुराना नाता है। लगभग हर समाचारपत्र का एक पन्ना खेलजगत की ख़बरों के लिए तय रहता है। एक समय वह भी था जब खेल कमेंट्री सुनने के लिए कानों से ट्रांजिस्टर चिपकाए लोग नज़र आते थे। मैच के ठीक दूसरे दिन अखबार में खेल का विश्लेषण पढ़ने की आतुरता रहती थी। यह आतुरता अभी भी पाई जाती है। यद्यपि आज अधिकांश लोग टेलीविजन या मोबाईल पर खेल देख लेते हैं और विशेषज्ञों की राय भी सुन लेते हैं लेकिन इससे खेल पत्रकारिता सिमटी नहीं है अपितु इसका विस्तार हुआ है क्योंकि मीडिया में खेल और खेल समाचारों की प्रस्तुति खेल  पत्रकारिता पर ही निर्भर रहती है। विगत दिनों खेल पत्रकारिता पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसका नाम है-‘‘खेल पत्रकारिता के विविध आयाम’’। जैसा कि पुस्तक के नाम से ही अनुमान हो जाता है कि इस पुस्तक में खेल पत्रकारिता पर समग्रता से प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तक के लेखक हैं डाॅ. आशीष द्विवेदी।
लेखक डाॅ. आशीष द्विवेदी लगभग बीस वर्ष से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। उन्होंने डाॅ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर से सन् 1999 में संचार एवं पत्रकारिता में प्रावीण्य सूची में मास्टर डिग्री हासिल की और सन् 2008 में ‘‘राष्ट्रीय दायित्व एवं हिन्दी पत्रकारिता’’ विषय में पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त की। विगत 12 वर्ष से वे सागर में इंक मीडिया इंस्टीट्यूट आॅफ माॅस कम्यूनिकेशन एंड आई टी के निदेशक हैं। पत्रकारिता का इस दीर्घ अनुभव ने डाॅ. आशीष द्विवेदी की इस पुस्तक को प्रमाणिकतौर पर उद्देश्यपूर्ण बना दिया है। हिन्दी में खेल पत्रकारिता पर कम ही पुस्तकें लिखी गई हैं। जो हैं भी उनमें समग्रता कम ही देखने को मिलती है। अपनी पुस्तक ‘‘खेल पत्रकारिता के विविध आयाम’’ में डाॅ. आशीष द्विवेदी ने खेल पत्रकारिता के विविध पक्षों को बारीकी से प्रस्तुत किया है।
 
पुस्तक की कुल सामग्री पांच खण्डों में विभक्त है। प्रत्येक खण्ड में विभिन्न अध्यायों में जानकारी सहेजी गई है। प्रथम खंड में प्रथम खंड में ‘‘भारत में खेलों की स्थिति का अवलोकन’’ विषय के अंतर्गत भारत में खेल, हॉकी में भारत, फुटबॉल में भारत, खेल अनुवांशिकी और भारत, भारतीय शिक्षा व्यवस्था में खेल, खेलो इंडिया कार्यक्रम और इसके उद्देश्य, खेलों में राजनीति, खेलों में लैंगिक भेदभाव, खेल में सामाजिक बदलाव, खेल में नस्लवाद, खेल मनोविज्ञान, खेल भावना का लोप, खेल से सन्यास और भारतीय खिलाड़ी, राष्ट्रीय खेल नीति और उसका यथार्थ, राष्ट्रीय खेल संहिता, अखिल भारतीय खेल परिषद, खेल संबंधी अवार्ड और उनसे जुड़े विवाद, खेलों के स्याह पहलू, भारत के खेल परिवार, भारत के ब्रांड खिलाड़ी, भारत की प्रमुख खेल अकादमी, खिलाड़ियों की आत्मकथा और जीवनियां, खेलों से व्यक्तित्व विकास, खेल अर्थव्यवस्था व कैरियर, भारत में खेल उत्पाद उद्योग, खेल केंद्रित सिनेमा, खेलों में लीग संस्कृति, कैसे सुधरेंगे खेलों के हालात, ऑनलाइन गेम्स का खेलों पर दुष्प्रभाव जैसे 29 अध्याय इस प्रथम खंड में विवेचन सहित सामने रखे गए हैं।

दूसरे खंड में ‘‘खेल पत्रकारिता: प्रायोगिक पहलू’’ इस विषय के अंतर्गत जो अध्याय रखे गए हैं वे हैं- खेल पत्रकारिता का विकासक्रम, खेल पत्रकारिता का अर्थ, खेल के लिए कैसे लिखें, मैगजीन के लिए  खेल लेखन, खेल फीचर लेखन, खेल साक्षात्कार का महत्व, खेल प्रेस वार्ता, खेल संपादकीय, खेल स्तंभ लेखन, रेडियो में खेल संबंधी लेखन, टेलीविजन में खेल संबंधी लेखन, खेल संबंधी अनुवाद, खेल फोटोग्राफी, खेल संबंधी कार्टून, खेल पेज और उसका लेआउट, खेल पत्रकार की योग्यताएं, प्रेरक खेल पत्रकारिता, खेल पत्रकारिता दूसरा पहलू, खेल के रोचक समाचार, देश के प्रमुख खेल पत्रकार, खेल आधारित चैनल, खेल संबंधी मैगजीन और ब्लॉग खेल पत्रकारिता में कैरियर।

तीसरे खंड में ‘‘प्रमुख खेल संस्थाएं व उनका संक्षिप्त परिचय’’ शीर्षक के अंतर्गत जिन बिंदुओं पर चर्चाएं की गई हैं, वह हैं- प्रमुख खेल संबंधी आयोजन व संस्थाएं, भारतीय खेल प्राधिकरण, भारत के खेल आधारित विश्वविद्यालय/महाविद्यालय, भारत के प्रमुख खेल संघों का परिचय, भारत के प्रमुख खेल स्टेडियम।

चौथे खंड में खेल पत्रकारों से संवाद को संजोया गया है जिसके अंतर्गत जी. राजारमन, चंद्रशेखर लूथरा, प्रवीणचंद्र, विक्रांत गुप्ता, राजेश राय, राजेंद्र सजवान, विमल कुमार, माला तातरवे, हेमंत रस्तोगी, अभिषेक त्रिपाठी, उमेश राजपूत, राजकिशोर, रोशन झा, विजय कुमार, इंद्रजीत मौर्य, मुकेश विश्वकर्मा, ललित कटारिया, बी.पी. श्रीवास्तव, डॉ. प्रेम प्रकाश पंत और संजीव पंगोत्रा के संवाद हैं।

पांचवा और अंतिम खंड परिशिष्ट का है जिसमें कुछ और महत्वपूर्ण तथ्य एवं सामग्रियां प्रस्तुत की गई हैं। जैसे प्रधानमंत्री के ‘‘खेलो इंडिया’’ और ‘‘खेल दिवस’’ पर दिए गए उद्बोधन प्रभाष जोशी का लेख शारदा उगरा का लेख, सानिया मिर्जा का इंटरव्यू, रानी रामपाल का साक्षात्कार तथा सचिन तेंदुलकर के विचार आदि शामिल किए गए हैं।

इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसमें ग्रामीण स्कूलों के हाल और ग्रामीण स्कूलों में खेल की स्थिति पर भी दृष्टि डाली गई है। जहां अफ्रीका महाद्वीप के देशों में गांव से खिलाड़ी ओलंपिक तक पहुंचते हैं, वहीं भारत में ग्रामीण क्षेत्रों से खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर तक बड़ी मुश्किल से पहुंच पाते हैं। इसके लिए कौन-सी दशा और दिशा जिम्मेदार है, इस पर भी इस पुस्तक में विचार किया है।

खेल से जुड़ी खबरें भी कभी-कभी सनसनी फैला देती हैं जब उनमें ड्रेसिंग रूम की खबरें भी शामिल हो। इस प्रसंग पर लेखक डॉ आशीष द्विवेदी ने रोचक ढंग से उदाहरण देते हुए लिखा है- ‘‘ड्रेसिंग रूम की खबरें भी कई बार चर्चा का विषय बनती है। हालांकि इनकी रिपोर्टिंग में सतर्कता की जरूरत होती है, कारण कई बार यह महज अफवाहें ही निकलती है। अब तो कवरेज का दायरा खिलाड़ियों की पत्नी, बच्चों उनकी फैशन और स्टाइल तक जा पहुंचा है। धोनी की बेटी जीवा का जन्मदिन हो या विराट अनुष्का का हनीमून यह सभी कवरेज का हिस्सा बनते हैं। मैच समाप्त होने के बाद खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों की प्रतिक्रिया, मैन ऑफ द मैच की घोषणा ट्रॉफी के साथ शैंपेन की बोतल खोलते हुए टीम का फोटो भी उतना ही महत्वपूर्ण है। आप उस पल को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।’’

जब खेल पत्रकारिता की बात हो तो एक प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर खेल पत्रकारिता का उद्देश्य क्या है? क्या यह सिर्फ खेल संबंधी मनोरंजक तथ्य या आंकड़े प्रस्तुत करने का माध्यम है अथवा इसका कोई और भी उद्देश्य है? इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए लेखक ने खेल पत्रकारिता के उद्देश्य निरूपित किए हैं। इसमें जो प्रमुख बिंदु होने रखे हैं, वे हैं- खेलों के प्रति समाज की मानसिकता में बदलाव लाना, खेलों के लिए एक स्वस्थ माहौल का निर्माण करना, ग्रामीण वह आदिवासी अंचलों से प्रतिभाओं की तलाश करना, परंपरागत खेलों को प्रोत्साहित करना, खेलों में मौजूद राजनीति क्षेत्रवाद और जातिवाद पर प्रहार करना, लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाना, खेलों में एकाधिकार जमाने वाले खेल और खिलाड़ियों के प्रभाव से खेल को मुक्त करने की दिशा में पहल करना, खेल नीति और खेल बजट पर चर्चा करना, बौद्धिक स्तर पर खेलों में भारत की स्थिति और कारणों का पड़ताल करना जैसे अनेक उद्देश्य लेखक ने प्रस्तुत किए हैं।

खेलों में लैंगिक भेदभाव विषय पर लेखक ने बेबाकी से अपनी बात सामने रखी है वह लिखते हैं - ‘‘खेलों में आधी दुनिया को लगभग हाशिए पर रखा गया है दुनिया के कई देशों में महिलाओं को लेकर दोहरे मापदंड है भारत में भी स्थिति विकट है कई सारे खेल ऐसे हैं जहां महिलाओं का प्रतिनिधित्व ना के बराबर है जिन खेलों में महिलाएं हैं थी उनमें वे पुरुष या वर्चस्व के आगे कहीं नहीं ठहरती खेल के मैदान की पारंपरिक छवि मर्दानगी की रही है और भारतीय समाज पर काबिज सदियों की पितृसत्ता नहीं से दरकने नहीं दिया ।’’
लेखक को खेल पत्रकारिता पर पुस्तक लिखने का विचार क्यों आया इस बात को उनके इस विचार से भलीभांति समझा जा सकता है - ‘‘वस्तुतः खेल पत्रकारिता में हम उस की रिपोर्टिंग संपादन लेखन फोटोग्राफी और साक्षात्कार की बात करते-करते अपनी बात समाप्त कर देते हैं जबकि मैंने यह पाया कि इसके हाय हम इतने विविध पूर्ण हैं कि अगर उन पर संपूर्णता से बात हो तो एक ग्रंथ कम पड़ सकता है इन सब में भी मुझे जो हम बात नजर आती है वह खेलों के प्रति मानस बदलने की जो एक पुरानी कहावत है ‘खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब’ ‘पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब’ इस कहावत ने खेलों के प्रति लोगों के रुझान को घटाने में महती भूमिका निभाई है। खेल पत्रकार सिर्फ इसी कहावत के विरुद्ध अगर अपना मिशन चलाएं तो मुझे लगता है खेलों के प्रति एक स्वस्थ माहौल पैदा किया जा सकता है। इसके अलावा खेलों में हावी राजनीति क्षेत्रवाद, लैंगिक असमानता, खेल नीति, बजट, प्रोत्साहन ऐसे अनेक मुद्दे हैं जिन पर भी खेल पत्रकार बहुत ज्यादा कलम चलाते नहीं दिखते।’’ वे आगे लिखते हैं- ‘‘मैं इस बात को लेकर भी चिंतित हूं कि खेलों के प्रति एक उदासीन और कमोवेश उपेक्षा पूर्ण माहौल होने के कारणों की पड़ताल करने में खेल पत्रकारों की ज्यादा दिलचस्पी क्यों नहीं है। गुमनाम खेल प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने खेलों में व्याप्त आला दर्जे की पक्षपात पर खेल पत्रकारिता मौन क्यों है? राष्ट्रीय खेल के मायने बदलते जा रहे हैं। एक खेल विशेष की मोनोपोली ने बाकी खेलों को लगभग उपेक्षित जा कर रखा है तो ओलंपिक में हमें एक पदक के लाले पड़ जाते हैं। मीडिया के कवरेज में भी सौतेलापन है और सरकार के नजरिए में भी। हम आज तक फुटबॉल की एक विश्व कप लायव थीम नहीं दे पाए। इन सब वज़हों की खोजबीन करना कितना जरूरी है यह कौन समझाए।’’

पुस्तक की प्रस्तावना लिखते हुए प्रो. संजीव भानावत ने बहुत सही लिखा है कि ‘‘पत्रकारिता के विद्यार्थियों को यह पुस्तक खेल पत्रकारिता के अनेकानेक पक्षों को समझने की दिशा में सहायक साबित होगी डॉ द्विवेदी ने श्रम और निष्ठा के साथ काम करते हुए इस पुस्तक का लेखन किया है। इस अछूते विषय पर उनका यह ग्रंथ खेल पत्रकारिता को रोचक बनाने की दिशा में भी मील का पत्थर साबित होगा ऐसा विश्वास है।’’
 
डाॅ आशीष द्विवेदी ने यह पुस्तक लिख कर अपने पत्रकारिता के दायित्व को पूरी ईमानदारी से निभाया है। यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि यह पुस्तक खेल-प्रेमियों एवं खेल-पत्रकारों के साथ-साथ इस विषय के विद्यार्थियों का भरपूर ज्ञानवर्द्धन करेगी क्योंकि यदि कोई व्यक्ति खेल पत्रकारिता को सम्पूर्णता से समझना चाहता है तो उसके लिए ‘‘खेल पत्रकारिता के विविध आयाम’’ पुस्तक को पढ़ना ज़रूरी है।
         ---------------------------
#पुस्तकसमीक्षा #डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह #BookReview #DrSharadSingh #miss_sharad #आचरण #खेल_पत्रकरिता

No comments:

Post a Comment