Wednesday, June 30, 2021

चर्चा प्लस | बड़े और छोटे पर्दे के बेताज बादशाह सईद मिर्जा | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
बड़े और छोटे पर्दे के बेताज बादशाह सईद मिर्जा
               - डाॅ शरद सिंह             
30 जून को जन्मे थे सईद अख़्तर मिर्जा। एक ऐसा निर्देशक और पटकथा लेखक जिसने भारतीय दर्शकों समानांतर सिनेमा के साथ ही समानांतर धारावाहिक भी दिखाया और अपार सफलता प्राप्त की। फिल्म निर्देशन में उन्होंने अपने अलग मायने गढ़े। धारावाहिक ‘‘नुक्कड़’’ का निर्देशन चुनौती भरा था लेकिन ‘‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’’ जैसी फिल्म दे चुके सईद मिर्जा के लिए कोई भी चुनौती बड़ी नहीं थी।
 
धारावाहिक ‘‘नुक्कड़’’ ने भारतीय टेलीविजन को समानांतर धारावाहिक की सौगात दी थी। वर्ष िि और 1987 में टेलीविजन पर इस धरावाहिक ने अपनी खास पहचान बनाई। कुंदन शाह और सईद मिर्जा द्वारा निर्देशित इस धारावाहिक की कहानी प्रबोध जोशी द्वारा लिखी गई थी। कहा जाता है कि नुक्कड़ के निर्देशन के समय कुंदन शाह थोड़े घबराए हुए थे। वे इस धारावाहिक की सफलता को ले कर भी सशंकित थे। लेकिन सईद मिर्जा को पूरा भरोसा था अपने काम पर और वे आश्वस्त थे कि ‘‘नुक्कड़’’ दर्शकों को पसंद आएगा। ऐसा हुआ भी। दिलीप धवन, रमा विज, पवन मल्होत्रा, संगीता नाईक और अवतार गिल की इसके अहम भूमिकाएं थी। अपने प्रदर्शन के दिनों में इसकी लोकप्रियता चरम पर थी। इसके कुछ पात्र जैसे खोपड़ी, कादिर भाई और घंशु भिखारी घर-घर में पहचाने जाने लगे। नुक्कड़ ने 80 के दशक में प्रसारित किए जाने वाले तीन सबसे अधिक लोकप्रिय धारावाहिकों में अपनी जगह बना ली थी। धारावाहिक का पहला सीजन 40 एपीसोड का था। इसके हर अंक में कम कमाने वाले लोगों की दैनिक समस्याओं को मुख्य पात्रों की जिंदगी के द्वारा दिखाया गया था। शहरों में बढ़ती हुई कठिन सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के कारण कम आय वाले लोगों के टूटते सपनों को इसके प्रत्येक एपीसोड्स में प्रस्तुत किया गया। जीवन की कटु सच्चाई पर आधारित इस धारावाहिक को दर्शकों ने बड़े चाव से देखा। उन्हें इसकी हर घटना अपने जीवन की घटना लगती।
गुरु उर्फ रघुनाथ (दिलीप धवन) बिजली सुधारता है और नुक्कड़ समूह का सर्वसम्मति से चयनित मुखिया है। मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहने वाले गुरु में किसी का पक्ष न लेने का गुण हैं और यह अक्सर नुक्कड़ में रहने वाले लोगों के बीच के छोटे झगड़े सुलझाता है। कादर भाई उर्फ कुट्टी (अवतार गिल) - कादर भाई एक छोटा सा रेस्टेरोंट चलाते हैं जहां नुक्कड़ के सदस्य अक्सर मिलते हैं। कादर  भाई दयालु स्वभाव के हैं और नुक्कड़ के गरीब सदस्यों को मुफ्त में चाय और नाश्ता देते हैं। हरी (पवन मल्होत्रा) - हरी की साइकिल सुधारने की दुकान है और एक अमीर लड़की मधु से उसे प्यार है। गुप्ता सेठ, मधु के पिता, इससे चिढ़ते हैं और हमेशा दोनों पर नजर रखते हैं। खोपड़ी (समीर खख्खर) - खोपड़ी उर्फ गोपाल एक शराबी है जिसे नुक्कड़ के सभी सदस्य बेहद पसंद करते हैं। गणपत हवलदार (अजय वाडकर) - गणपत हवलदार नुक्कड़ में कोई भी समस्या आने पर तुरंत आ जाता है। ये सभी धारावाहिक के ऐसे पात्र थे जो बेहद लोकप्रिय हुए और दर्शकों में अपनी अनूठी छाप छोड़ने में सफल हुए।
अवतार गिल और पवन मल्होत्रा जैसे कलाकारों को इस धारावाहिक से पहचान मिली और आगे चल कर उन्हें बड़े पर्दे पर भी काम मिलता रहा। ‘‘नुक्कड़’’ और इसके सभी कलाकारों की सफलता का श्रेय अगर किसी को दिया जाना चाहिए तो वह नाम है सईद अख़्तर मिर्जा उर्फ़ सईद मिर्जा।
30 जून 1943 को मुंबई, महाराष्ट्र में अख्तर मिर्जा के घर जन्मे पटकथा लेखक और हिंदी फिल्मों और टेलीविजन के निर्देशक सईद मिर्जा के पिता स्वयं एक प्रसिद्ध पटकथा लेखक थे। ‘‘नया दौर’’ और ‘‘वक्त’’ जैसी फिल्मों में उन्होंने निर्देशन का काम किया था। सईद मिर्जा के भाई अजीज मिर्जा ने सन् 1989 के टेलीविजन धारावाहिक ‘‘सर्कस’’ के निर्देशन के के साथ ही शाहरुख खान को लांच किया। सईद मिर्जा ने भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए बड़े और छोटे दोनों पर्दें पर अपनी धाक जमाई और सिद्ध कर दिया कि टेलीविजन पर सच्चाई पर आधारित धारावाहिक दिखाया जा सकता है और दर्शक उसे पसंद भी करते हैं। कुछ समय के लिए विज्ञापन में काम करने के बाद सईद मिर्जा ने फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया पूना में दाखिला लिया। जहां से उन्होंने 1976 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। सईद अख्तर मिर्जा ने 1976 में एक वृत्तचित्र फिल्म निर्माता के रूप में अपना करियर शुरू किया, एक सामंती धन संस्कृति के जाल में फंसे एक आदर्शवादी युवा की कुंठाओं के बारे में प्रशंसित अरविंद देसाई की अजीब दास्तान (1978) के साथ फिल्मों में स्नातक किया। इसने वर्ष के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड जीता। इसके बाद अल्बर्ट पिंटो को गुसा क्यूं आता है (1980), एक गुस्से में युवा के बारे में, अपने वर्ग और जातीय पहचान की तलाश में था। इसने सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड भी जीता। इसके बाद सन् 1984 में सईद मिर्जा ने न्यायव्यवस्था की बिगड़ी दशा पर कटाक्ष करती फिल्म निर्देशित की जिसका नाम था- ‘‘मोहन जोशी हाजिर हो!’’ इस फिल्म में एक अधेड़ आयु दम्पति जो रियल-एस्टेट डेवलपर के साथ न्यायालय में संघर्ष करता रहता है ताकि वह अपने कानूनी अधिकार पा सके। इस फिल्म में न्यायव्यवस्था और भ्रष्टाचार के गठजोड़ को बखूबी दिखाया गया। इसके अलावा सईद मिर्जा ने सन् 1980 में ‘‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’’, 1989 में ‘‘सलीम लंगदे पे मत रो’’ और 1995 में ‘‘नसीम’’ बनाई। फिल्म ‘‘सलीम लंगड़े पे मत रो’’ में एक कट्टर मुस्लिम युवक की कहानी थी जो परिस्थितिवश अपराध के शिकंजे में फंस जाता है और उससे निकलने के लिए हरसंभव प्रयास करता है। इस फिल्म में पवन मलहोत्रा ने कट्टर मुस्लिम युवक की भूमिका अदा की थी। यह एक अत्यंत संवेदनशील फिल्म थी जिसने दर्शकों को झकझोर दिया। उन्होंने 1996 में दो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते। सईद मिर्जा को 2020 में इंटरनेशनल कल्चरल आर्टिफैक्ट फिल्म फेस्टिवल में ‘‘लाईफटाइम अचीवमेंट अवार्ड’’ से सम्मानित किया गया।
बड़े पर्दे पर उनकी आखिरी फिल्म थी ‘‘नसीम’’ (1995) जो बाबरी मस्जिद ढहने के बाद के माहौल पर आधारित थी। इस फिल्म को अविजीत घोष की किताब ‘‘40 रीटेक, बॉलीवुड क्लासिक्स यू मे हैव मिस्ड’’ में भी शामिल किया गया। इसके बाद उन्होंने बड़े पर्दे को छोड़ कर अपना समय यात्रा, लेखन और वृत्तचित्र बनाने में लगा दिया। साथ ही उन्होंने आत्मकथात्मक काम आरम्भ किया।  सईद मिर्जा ने उपन्यास भी लिखे। सन् 2008 में उनका पहला उपन्यास आया जिसका नाम था -‘‘अम्मी: लेटर टू ए डेमोक्रेटिक मदर’’। इस उपन्यास में उन्होंने सूफी कथाओं के साथ ही अपनी मां की यादों को भी संजोया। उनकी मां की मृत्यु सन् 1990 में हो गई थी। वे अपनी मां को बहुत चाहते थे और उनकी मृत्यु पर सईद को बहुत सदमा पहुंचा था। इसके बाद उन्होंने एक और उपन्यास लिखा ‘‘द मोंक, द मूर एंड मोसेस बेन जालौन’’ यह सन् 2012 में प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास जानबूझ कर भुला दिए गए इतिहास के बारे में है।

सईद मिर्जा ने जिन कला फिल्मों, धरावाहिकों एवं वृत्तचित्रों का निर्माण तथा निर्देशन किया उनमें प्रमुख हैं-स्लम एविक्शन (1976), हत्या (1976), घासीराम कोतवाल (1976), एक अभिनेता तैयार करता है (1976), शहरी आवास (1977), अरविंद देसाई की अजीब दास्तान (1978), अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है (1980), पिपरसोद (1982), मोहन जोशी हाजीर हो! (1984), जबलपुर के रिक्शा खींचने वाले (1984), नुक्कड़ (1986), कोई सुन रहा है? (1987), वी शेल ओवरकम (1988), इंतज़ार (1988), सलीम लंगड़े पे मत रो (1989), अजंता और एलोरा (1992), नसीम (1995), कर्मा कैफे (2018), छू लेंगे आकाश (2001)।
सईद मिर्जा को अनेक पुरस्कारों से नवाज़ा गया। फिल्म ‘‘अरविंद देसाई की अजीब दास्तान’’ (1978) के लिए उन्हें सन् 1979 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड दिया गया। सन् 1981 सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड ‘‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’’ (1980), सन् 1984 परिवार कल्याण पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार ‘‘मोहन जोशी हाजिर हो!’’ (1984), सन् 1996 सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार ‘‘नसीम’’ को दिया गया।
सईद अख्तर मिर्जा एशियन एकेडमी ऑफ फिल्म एंड टेलीविजन के इंटरनेशनल फिल्म एंड टेलीविजन क्लब के आजीवन सदस्य हैं। वह अपनी पत्नी जेनिफर के साथ मुंबई में रहते हैं। गोवा में भी उनका एक घर है। उनके बेटे सफदर और जहीर क्रमशः न्यूयॉर्क और दुबई में रहते हैं। आज भी जब समानांतर फिल्मों और धारावाहिकों की चर्चा आती है तो सईद मिर्जा का नाम पहली पंक्ति में आता है।
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(सागर दिनकर, 30.06.2021)
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