चर्चा प्लस
एक बलिदानी लड़का जो फैशन आईकाॅन बन गया
- डाॅ शरद सिंह
उम्र मात्र 18 माह कुछ महीने अर्थात् पूरे 19 साल का भी नहीं हुआ था। उसने देशभक्ति का ऐसा उदाहरण सामने रखा कि अंग्रेज हुकूमत थर्रा उठी। उस लड़के ने जिस प्रकार धोती-कुर्ता पहन का स्वतंत्रता संग्राम का जयघोष किया था वह धोती-कुर्ता उस समय युवाओं में फैशन की तरह लोकप्रिय हो गया था। उस लड़के नाम था खुदीराम बोस।
आजकल की युवा पीढ़ी टेलीविजन और इंटरनेट पर चल रहे ट्रेंड के अुनसार फैशन अपनाती है। कुछ समय पहले तक सिनेमा से भी पहनाव-पोशाक के फैशन अपनाए जाते थे। लेकिन एक समय ऐसा भी था जब हमारे देश के युवा अपने बलिदानी साथियों की एक झलक मात्र देख कर अथवा तस्वीर देख कर ही उनका पहनावा फैशन के रूप में अपना लेते थे क्यों वह समय था देश के प्रति समर्पण का, आजादी के लिए लड़ने के जुनून का। अनेक कम उम्र युवा देश को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों की बाज़ी लगाने को आगे आए और देश के तत्कालीन युवाओं के आईकान यानी आदर्श बन गए। इनमें एक नाम खुदीराम बोस का है, जिन्हें 11 अगस्त 1908 को फांसी दी गई थी। उस समय उनकी उम्र मात्र 18 साल कुछ महीने थी, पूरे उन्नीस साल भी नहीं हुए थे। अंग्रेज सरकार उनकी निडरता और वीरता से आतंकित हो उठी थी। अंग्रेज सरकार को लगा कि यदि खुदीराम बोस को कठोर दण्ड नहीं दिया गया तो उनसे प्रेरणा ले कर और युवा आगे आएंगे। इसीलिए उनकी इतनी कम उम्र होते हुए भी अंग्रेज सरकार ने क्रूर निर्णय लेते हुए उन्हें फांसी की सजा सुनाई दी। खुदीराम बोस ने न तो माफी मांगी और भयभीत हुए। वे ‘गीता’ का पाठ करते हुए निर्भकता से फांसी के फंदे पर झूल गए। खुदीराम बोस धोती-कुर्ता पहनते थे। उनको फांसी दिए जाने के बाद बंगाल के जुलाहों ने देखा कि युवाओं में खुदीराम बोस की तरह धोती-कुर्ता पहनने का चाव बढ़ गया है। यह देखते हुए जुलाहों ने विशेष धोतियां बुननी शुरू कर दीं जिसकी किनारी पर ‘खुदीराम’ लिखा होता था। यह धोती बंगाल के युवाओं में फैशन की तरह अपना ली गई। खुदीराम का नाम लिखी हुई धोती को पहन कर युवा स्वयं को खुदीराम के की भावना से स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस करते थे। उनमें देश के लिए मर-मिटने की भावना बलवती हो उठती थी।
खुदीराम बोस के बलिदान ने बंगाल ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश में देशभक्ति की लहर दौड़ा दी। जिसे भी पता चला कि इतने कम उम्र युवा को फांसी दी दी गई है, वह सुन कर बौखला उठा। खुदीराम बोस की वीरता के गीत लिखो जाने लगे और ये गीत इतने लोकप्रिय हुए कि इन्होंने धीरे-धीरे लोकगीत का रूप ले लिया। युवा जब अंग्रेज सरकार की नीतियों का विरोध करने के लिए सड़कों पर निकलते तो इन्हीं गीतों को गाया करते।
3 दिसंबर 1889 ई. को बंगाल में मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में खुदीराम बोस का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम त्रैलोक्य नाथ बोस और माता का नाम लक्ष्मीप्रिय देवी था। दुर्भाग्यवश, बाल्यावस्था में ही खुदीराम को अपने माता-पिता की मृत्यु का दुख सहन करना पड़ा। उनका लालन-पालन उनकी बड़ी बहन ने किया। खुदीराम बोस के मन में बचपन से ही देशभक्ति की प्रबल भावना थी। उन्होंने अपने विद्यालयीन दिनों में ही राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना प्रारंभ कर दिया था। सन 1902 और 1903 के दौरान अरविंदो घोष और भगिनी निवेदिता ने मेदिनीपुर में कई जनसभाएं की और क्रांतिकारी समूहों के साथ भी गोपनीय बैठकें आयोजित की। खुदीराम बोस भी अपने शहर के उस युवा वर्ग में शामिल थे जो अंग्रेजी हुकुमत को उखाड़ फेंकने के लिए आन्दोलन में शामिल होना चाहता था।
खुदीराम बोस ने नौंवी कक्षा के बाद स्कूल छोड़ दिया और सक्रिय रूप से जनआंदोलनों में भाग लेने लगे। वह समय बंगाल विभाजन का था। इस विभाजन का लोग विरोध कर रहे थे। सैंकड़ों जानें जा रही थीं। श्ह सब देख-देख कर किशोरवय खुदीराम बोस का खून खौलने लगता था। सन् 1905 ई. में बंगाल विभाजन के बाद खुदीराम बोस स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने अपना क्रांतिकारी जीवन सत्येन बोस के नेतृत्व में शुरू किया था। मात्र 16 साल की उम्र में उन्होंने पुलिस स्टेशनों के पास बम रखा और सरकारी कर्मचारियों को निशाना बनाया। वे रिवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हो गए और ‘वंदेमातरम’ के पर्चे वितरित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन 1906 में पुलिस ने बोस को दो बार पकड़ा। 28 फरवरी, सन 1906 को एक पर्चा बांटते हुए पकडे गए जिस पर लिखा था ‘‘सोनार बांग्ला’’। पुलिस उन्हें जेल में डालना चाहती थी लेकिन वे पुलिस को चकमा दे कर भाग निकले। इस मामले में उनपर राजद्रोह का आरोप लगाया गया और उन पर अभियोग चलाया परन्तु गवाही न मिलने से खुदीराम निर्दोष छूट गये। दूसरी बार पुलिस ने उन्हें 16 मई को गिरफ्तार किया पर कम आयु होने के कारण उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। 6 दिसंबर 1907 को खुदीराम बोस ने नारायणगढ़ नामक रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया। परन्तु गवर्नर साफ-साफ बच निकला। वर्ष 1908 में उन्होंने वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर नामक दो अंग्रेज अधिकारियों पर बम से हमला किया लेकिन किस्मत ने उनका साथ दिया और वे बच गए। बंगाल विभाजन के लिए दोषी तानते हुए लोग कलकत्ता के मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड से बदला लेना चाहते थे। किंग्जफोर्ड भी क्रूर प्रवृत्ति का था। वह क्रान्तिकारियों को कठोर से कठोर दण्ड सुनाया करता था। अंग्रेज सरकार ने किंग्जफोर्ड पदोन्नत कर मुजफ्फरपुर जिले में सत्र न्यायाधीश बना दिया। तब क्रांतिकारियों ने किंग्जफोर्ड को मारने का निश्चय किया और इस कार्य के लिए चयन हुआ खुदीराम बोस और प्रफुल्लकुमार चाकी का। मुजफ्फरपुर पहुंचने के बाद इन दोनों ने किंग्जफोर्ड के बंगले और कार्यालय की निगरानी की। 30 अप्रैल 1908 को चाकी और बोस बाहर निकले और किंग्जफोर्ड के बंगले के बाहर खड़े होकर उसका इंतजार करने लगे। खुदीराम ने अंधेरे में ही आगे वाली बग्गी पर बम फेंका पर उस बग्गी में किंग्स्फोर्ड नहीं बल्कि दो यूरोपियन महिलायें थीं जिनकी मौत हो गयी। अफरा-तफरी के बीच दोनों वहां से नंगे पांव भागे। किन्तु रेलवे स्टेशन पर पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए। वहां से उन्हें से मुजफ्फरपुर लाया गया।
उधर प्रफ्फुल चाकी पुलिस से छिपते-छिपाते जब हावड़ा के लिए ट्रेन बदलने के लिए मोकामाघाट स्टेशन पर उतरे तब तक पुलिस को उनके बारे में भनक लग चुकी थी। पुलिस ने मोकामाघाट स्टेशन पर प्रफुल्ल कुमार चाकी को घेर लिया। तब चाकी ने ‘‘भारत माता की जय’’ का नारा लगाते हुए खुद को गोली मार ली और शहीद हो गए। जबकि खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर, उन पर मुकदमा चलाया गया और फिर फांसी की सजा सुनाई गयी। 11 अगस्त सन 1908 को उन्हें फांसी दे दी गयी। उस समय उनकी उम्र मात्र 18 साल और कुछ महीने थी। खुदीराम बोस इतने निडर थे कि हाथ में गीता लेकर खुशी-खुशी फांसी चढ़ गए।
11 अगस्त 1908 की सुबह जब खुदीराम बोस को फांसी स्थल की ओर ले जाया जा रहा था। उस वक्त उनके दोनो हाथ पीछे की ओर रस्सियों से बांध दिया गया था। चार पुलिसकर्मी आगे-पीछे चल रहे थे। खुदीराम बोस जैसे ही वे फांसी के तख्ते पर चढे, ऊंची आवाज में वंदे मातरम् का नारा लगाया। उनकी ऊंची आवाज सुनकर बगल में स्थित जेल अस्पताल में सोए कैदियों की नींद खुल गई और वे भी खिडकी से झांकते हुए खुदीराम के सूर में सूर मिलाकर वंदे मातरम् का जयघोष कर शहीद होते वीर सपूत को अंतिम विदाई दिए। इसके पूर्व शहीद के मृत शरीर पर चाकू से गोदकर वंदे मातरम् लिखा गया। हजारों लोगों की भीड के बीच बूढ़ी गंडक नदी के तट पर उनका दाह-संस्कार किया गया। मुजफ्फरपुर के दो अधिवक्ता एवं तीन बंगाली युवकों ने सामूहिक रूप से शहीद को मुखाग्नि दी थी। खुदीराम बोस के बलिदान ने युवाओं में आक्रोश के साथ नया जोश भर दिया। जहां अंग्रेज सरकार ने सोचा था कि खुदीराम बोस को फांसी देने से युवा भयभीत हो जाएंगे और क्रांतिकरियों का साथ देना बंद कर देंगे, वहीं इसका विपरीत असर हुआ। अनेक युवा प्रत्यक्ष रूप से क्रांतिकारी आंदोलनों में सक्रिय हो गए और कई युवा भूमिगत कार्य करते हुए क्रांतिकारियों की मदद करने लगे। अपने प्राण दे कर जो मशाल खुदीराम बोस ने जलाई थी, उसके प्रकाश में स्वतंत्रता संग्राम ओर तेजी से आगे बढ़ता गया।
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(सागर दिनकर, 11.08.2021)
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