चर्चा प्लस
एक ऐसा शायर जो राष्ट्रपति जियाउल हक़ से नहीं डरा
- डाॅ शरद सिंह
25 अगस्त 2008 को उस शायर ने इस दुनिया से विदा ले ली थी जो भारत और पाकिस्तान की दोस्ती को महत्व देता था और जिसने पाकिस्तानी राष्ट्रपति जियाउल हक़ की हुकूमत के आगे घुटने टेकने से इनकार कर दिया था। बदले में उसे देशनिकाला झेलना पड़ा। उस शायर का नाम है अहमद फ़राज़।
कहते हैं कि जो काम राजनीतिज्ञ नहीं कर पाते हंै वह काम साहित्यकार कर सकता है। हर देश का साहित्यकार अपने देश का अघोषित राजदूत होता है। वह सच्चे अर्थों में जनमत की आवाज़ होता है। पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ भले ही न चाहें कि भारत के साथ उनके देश के संबंध मधुर हो जाएं लेकिन वहां की आम जनता हमेशा भारत के साथ अच्छे संबंध चाहती है। आम जनता की इसी इच्छा को समय-समय पर अभिव्यक्ति देते रहते हैं वहां के शांति पसंद साहित्यकार। ऐसे साहित्यकारों में एक अग्रणी नाम रहा है अहमद फ़राज़ का। रूमानियत के शायर, प्रगतिशीलता के शायर और भावनाओं को एक कलाकृति की तरह अपने शब्दों के ढांचे में उतार देने वाले शायर अहमद फ़राज़।
एक दिलचस्प घटना है जिससे पता चलता है कि अहमद फ़राज़ और एक भारतीय शायर के विचार किस तरह एक जैसे थे। पश्चिम एशिया के अरबी बोलने वाले देशों में एक ‘‘जश्ने-शोरा’’ नाम का एक काव्योत्सव हांेता है। उसमें विभिन्न देशों से अलग-अलग भाषाओं के सुप्रसिद्ध शायर आमंत्रित किए जाते हैं। उसी में पाकिस्तान से उर्दू का प्रतिनिधित्व करने गए थे अहमद फराज और हिन्दुस्तान से उर्दू का प्रतिनिधित्व करने पहुंचे थे शायर रिफ़त सरोश। यह वह समय था, जब इराक की लड़ाई ईरान से चल रही थी। विभिन्न देशों के शायर बगदाद में मौजूद थे। इराकी सरकार को लगा कि यह बढ़िया अवसर है, दुनिया भर के शायरों को ईरान की ज्यादतियों को दिखाने का. इसलिए उन्होंने काव्योत्सव के एक दिन पहले जंग के मोर्चे पर ले जाने के लिए एक बस की व्यवस्था की। सभी को एक-एक यूनीफॉर्म पहनने को दिया। इसका कारण यह बताया गया कि युद्ध के मोर्चे पर जा रहे हैं तो युद्ध की पोशाक होनी चाहिए। सुरक्षा की दृष्टि से यह आवश्यक है। सभी देशों के शायर पोशाक लेकर बस में जा बैठे। जब भारत से पहुंचे रिफत सरोश भी अड़ गए-‘‘आपकी फौजी वर्दी पहनकर हर्गिज नहीं जाऊंगा। कभी अगर फौजी वर्दी पहनने का अवसर आया भी तो अपने देश के लिए पहनूंगा, इराक या ईरान की नहीं।’’ रिफत सरोश को वसपस होटल भेज दिया गया। वे जब होटल पहुंचे तो वहां अहमद फ़राज़ लाॅबी में पहले से बैठे दिखे। रिफत सरोश ने उनसे पूछा कि आपको भी वे लोग साथ नहीं ले गए? तो अहमद फ़राज़ ने हंस कर उत्तर दिया-‘‘निहायत अहमक़ाना ज़िद थी। मैं भी इसी वजह वापस आ गया था। मैं क्यों पहनूं किसी दूसरे मुल्क की वर्दी।’ फिर उन्होंने एक अपना शेर पढ़ा -
जिसको देखो वही जंजीर-ब-पा लगता है
शहर का शहर हुआ दाखिले-जिन्दा जानां।
अहमद फ़राज़ को राष्ट्रपति जियाउल हक की नीतियां पसंद नहीं थीं। उनकी नीतियों को फराज़ जनविरोधी कहते थे। उन्होंने उन नीतियों के विरोध में शायरी भी की। इससे पहले उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान ‘‘हिलाल-ऐ-इम्तियाज’’ से सम्मानित किया जा चुका था। लेकिन सन् 2006 में उन्होंने यह सम्मान सरकार की नीतियों के विरोध में वापस कर दिया। स्थितियां बिगड़ गईं। उन्हें देशनिकाला दे दिया गया। लेकिन इन सबसे उनके प्रशंसकों की संख्या घटी नहीं अपितु और बढ़ गई। प्रशंसकों के सिलसिले में एक दिलचस्प घटना यह भी है कि एक बार अमेरिका में उनका मुशायरा था। मुशायरे के समापन पर एक लड़की उनके पास ऑटोग्राफ लेने आयी। नाम पूछने पर लड़की ने अपना नाम बताया-‘‘फ़राज़ा’’। अहमद फ़राज़ ने चैंककर कहा, ‘‘यह क्या नाम हुआ?” तो उस लड़की ने बताया कि, ‘‘मेरे मम्मी-पापा के आप पसंदीदा शायर हैं। उन्होंने सोचा था कि बेटा होने पर उसका नाम फ़राज़ रखेंगे। मैं पैदा हो गई तो उन्होंने मेरा नाम फ़राज़ा रख दियाए आपके नाम पर।” इस घटना पर अहमद फ़राज़ ने यह शेर कहा था-
और ‘‘फ़राज’’ चाहिए कितनी मोहब्बतें तुझे
मांओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया
14 जनवरी 1931 को जन्मे अहमद फ़राज़ का असली नाम सैयद अहमद शाह था। उनका जन्म पाकिस्तान के नौशेरां शहर में हुआ था। उन्होंने पेशावर विश्वविद्यालय में फारसी और उर्दू विषय का अध्ययन किया था। अहमद फराज ने रेडियो पाकिस्तान में भी नौकरी की और फिर अध्यापन से भी जुड़े। फ़राज़ बचपन में पायलट बनना चाहते थे। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि उन्हें बचपन में पायलट बनने का शौक था पर उनकी मां ने इसके लिए मना कर दिया। वे अंत्याक्षरी की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया करते थे। लेखन के प्रारंभिक काल में वे इकबाल की रचनाओं से प्रभावित रहे। फिर धीरे धीरे प्रगतिवादी कविता को पसंद करने लगे। अली सरदार जाफरी और फैज अहमद फैज के पदचिन्हों पर चलते हुए उन्होंने जियाउल हक के शासन के समय कुछ ऐसी गजलें लिखकर मुशायरों में पढ़ीं जिनके कारण उन्हें ग़िरफ़्तार किया गया। गिरफ्तारी के बाद वे आत्म-निर्वासन में ब्रिटेन, कनाडा और यूरोप में 6 साल तक रहे। उन्हें क्रिकेट खेलने का भी शौक था। लेकिन शायरी का शौक उन पर ऐसा छाया कि वे अपने समय के गालिब कहलाए। उन्होंने नज़्में भी लिखीं लेकिन उनकी ग़ज़लों ने उन्हें भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में ख्याति दिलाई।
अहमद फ़राज़ भारत को अपना दूसरा घर कहते थे। हिन्दुस्तानी मुशायरों में उन्हें जो सम्मान दिया जाता था, उसकी प्रशंसा करते वे नहीं थकते थे। वे कहते थे-‘‘भारत आ कर मुझे लगता है कि मैं अपने भाइयों के बीच बैठा हूं।’’ एक बार एक पत्रकार ने उनसे कश्मीर विवाद को ले कर भारत और पाकिस्तान के संबंधों के बारे में प्रश्न किया तो अहमद फ़राज़ ने पूरी गंभीरता से उत्तर देते हुए कहा-‘‘भले ही खूबसूरत है लेकिन है तो ज़मीन का एक टुकड़ा ही, उसे ले कर आपस में लड़ना सही नहीं है। अम्न और चैन का रास्ता ही सबसे सही रास्ता होता है।’’
अहमद फ़राज़ की शायरी में जो नज़ाकत और नफ़ासत है, वह उन्हें एक अलग ही मुक़ाम देती है। अनेक पाकिस्तानी एवं भारतीय ग़ज़ल गायकों ने उनकी ग़ज़लें गाई हैं। उनकी एक प्रसिद्ध ग़ज़ल है-
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फा है तो जमाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ
जैसे तुझे आते हैं न आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज न जाने के लिए आ
अहमद फ़राज़ अविभाजित भारत में जन्में थे और उनकी शायरी की लोकप्रियता भी अविभाजित रही। वे जितने पाकिस्तान में पसंद किए गए, उतने ही भारत में भी। उनके एक मशहूर शेर देखिए-
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
25 अगस्त 2008 को किडनी फेल होने के कारण इस्लामाबाद के एक अस्पताल में अहमद फ़राज़ का निधन हो गया। लेकिन वे अपनी शायरी के दम पर सभी के दिलों में ज़िन्दा हैं। उनके ये दो शेर आज भी लोगों की जुबान पर रहते हैं -
तुम तकल्लुफ को भी इख़लास समझते हो ‘फराज’
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला।
और दूसरा शेर -
किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा।
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(सागर दिनकर, 25.08.2021)
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