प्रस्तुत है आज 03.08. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक डॉ. राजेश दुबे के व्यंग्य संग्रह "बबूल की छांव" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
पुस्तक समीक्षा
परसाईं एवं आचार्य परम्परा के रोचक व्यंग्यों का संग्रह
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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व्यंग्य संग्रह - बबूल की छांव
लेखक - डाॅ. राजेश दुबे
प्रकाशक - अद्वैत प्रकाशन, ई-17, पंचशील गार्डन, नवीन शहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य - 275/-
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आज जिस व्यंग संग्रह की समीक्षा कर रही हूं, उसका नाम है ‘‘बबूल की छांव में’’। जहां तक व्यंग्य विधा का प्रश्न है तो व्यंग विधा यूं भी चुनौती भरी विधा है, जो लिखे उसके लिए, जो पढ़े उसके लिए और जिस पर लिखा जाए उसके लिए तो चुनौती है ही। मेरे विचार से व्यंग आलेख वह आलेख होता है जो कथात्मक स्वरूप रखते हुए अपने चुटीलेपन से आक्रोश उत्पन्न करने की क्षमता रखता है। यही व्यंग की सबसे बड़ी खूबी होती है। साहित्य की शक्तियों अभिधा, लक्षणा, व्यंजना में हास्य अभिधा यानी सपाट शब्दों में हास्य की अभिव्यक्ति के द्वारा क्षणिक हंसी तो आ सकती है, लेकिन स्थायी प्रभाव नहीं डाल सकती। व्यंजना के द्वारा प्रतीकों और शब्द-बिम्बों के द्वारा किसी घटना, नेता या विसंगितयों पर प्रतीकात्मक भाषा द्वारा जब व्यंग्य किया जाता है, तो वह चिर स्थायी प्रभाव डालता है। हिन्दी के प्रमुख व्यंग्यकार हैं- हरिशंकर परसाई, शंकर पुणतांबेकर, नरेंद्र कोहली, गोपाल चतुर्वेदी, विष्णुनागर, प्रेम जन्मेजय, ज्ञान चतुर्वेदी, विष्णुनागर, सूर्यकांत व्यास, आलोक पुराणिक, सुरेश आचार्य आदि। इन व्यंग्यकारों ने हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा को नई स्थापना दी।
वर्तमान समाज में व्याप्त अव्यस्थाओं को देखकर कभी-कभी मन व्यथित हो जाता है, चाहे वह अव्यवस्था सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक या धार्मिक हो मन इन अव्यवस्थाओं का प्रतिकार करना चाहता है परन्तु किन्हीं व्यक्तिगत कारणों से हम इनका प्रतिकार नहीं कर पाते और ये भावनाएं मन के किन्ही कोने में संचित होने लगती है। व्यंग्यकार इन्ही संचित भावनाओं को व्यंग्य के माध्यम से समाज में लाने का प्रयास करता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, ‘‘व्यंग्य वह है, जब सुनने वाला अधरोष्ठों में हंस रहा हो किन्तु भीतर तिलमला उठा हो और फिर भी कहने वाले को जवाब देना उसके लिए अपने को और भी उपहास का पात्र बनाना हो जाता है।’’
डॉ. बरसाने लाल चतुर्वेदी के अनुसार, ‘‘आलम्बन के प्रति तिरस्कार, उपेक्षा या भत्र्सना की भावना लेकर बढने वाला हास्य व्यंग्य कहलाता है।” शरद जोशी के अनुसार, ‘‘व्यंग्य की पहचान है कि ऐसा साहित्य जो कष्ट सहती सामान्य जिन्दगी के करीब है या उससे जुड़ा है। यदि ऐसा न हो तो कहीं गड़बड़ है।” हरिशंकर परसाई के अनुसार, व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का पर्दाफाश करता है।’’
इन परिभाषाओं की छांव में देखा जाए तो डॉक्टर राजेश दुबे का व्यंग संग्रह ‘‘बबूल की छांव’’ सटीक बैठता है। इस संग्रह में कुल 36 व्यंग हैं। जैसे की प्रस्तावना में डॉ. सुरेश आचार्य ने बड़े मार्के की बात कही है कि-‘‘व्यंग संशोधन या सुधार नहीं बदलाव चाहता है।’’ यानी थोड़े-बहुत से समझौता करना व्यंग्य की प्रवृत्ति नहीं है। वह पूर्ण परिवर्तनगामी होता है। इसी परिवर्तन की आकांक्षा रखते हुए डॉ राजेश दुबे ने अपने 36 व्यंग्यों को अपने संग्रह में संग्रहीत किया है। यह ठीक वैसे ही है कि जैसे सुव्यवस्था चाहने वालों और इन व्यंग्यों के 36 के 36 गुण आपस में मिल जाए तो अव्यवस्था की जड़ें आसानी से खोदी जा सकती हैं और अव्यवस्था को समूल नष्ट किया जा सकता है। बालेन्दु शेखर तिवारी ने व्यंग्य को प्रयोजनशील अभिव्यक्ति का साधन माना है, उनके अनुसार, ‘‘व्यंग्य किसी लेखक की निजी टिप्पणी नहीं है। वह प्रयोजनशील सघनता से निःसृत यथार्थ की अभिव्यक्ति है। व्यंग्य परिवेश की बहुस्तरीय जटिलताओं को उघाड़ते हुए उस बिन्दु तक अपने पाठकों को पहुंचाने में समर्थ हैं, जहां छद्मपराण तौर-तरीकों के बीच अपने होने का एहसास पाठक को बुरी तरह आन्दोलित कर डाले।’’
पतनोन्मुख व्यक्ति व समाज व्यंग्यकार के लिए पीड़ा का विषय है। वह इस पीड़ा का अनुभव करता है तथा उसे अपनी रचना द्वारा उस पतन को समाज के समक्ष लाता है। इस संग्रह में एक व्यंग है ‘‘तेरे द्वार खड़ा भगवान’’ भी आचार संहिता की शानदार परिभाषा की गई है- ‘‘हमारे वाग्वीर जनप्रतिनिधि जो जन के नहीं, निधि के प्रति समर्पित रहते हैं। अपने भविष्य के सुंदर सपने देखने में व्यस्त रहते हैं। राजनीति का विषदंत धारण किए हुए रहते हैं, कालियादह के इन वंशजों को आज भारतीय निर्वाचन आयोग के सपेरे ने उन्हें दंत विहीन आचार की जिस पिटारी में बंद कर दिया है उस पिटारी को आचार संहिता कहते हैं।’’
सितंबर मास आते ही हिंदी के प्रति हमारा प्रेम और हमारी जागरूकता अचानक बढ़ जाती है। बड़े-बड़े आयोजन समारोह होने लगते हैं। चर्चा-परिचर्चा परिसंवाद सभी कुछ होने लगता है और उस मास सप्ताह यह दिवस में हिंदी के प्रति सारी चिंताएं सारी संभावनाएं और सुखद भविष्य की कल्पनाएं की जाने लगती हैं। मौसमी चिंता पर कटाक्ष करते हुए अपने व्यंग्य ‘‘हिंदी का हाजमा’’ में व्यंग्यकार में लिखा है कि ‘‘हिंदी दिवस पर भांग खाए लोगों ने अपने उद्बोधनों में हिंदी के खूब प्रशस्ति गान गाय हैं। हिंदी भाषियों ने, हिंदी भाषियों को, हिंदी भाषा में सुनाया कि हिंदी को अब बैसाखियों की जरूरत नहीं है। अब वह अपने पैरों पर खड़ी है।’’
हमारे दैनिक जीवन में बाज़ारवाद ने हमें बुरी तरह प्रभावित कर रखा है। कभी हम उसके रंग में रंगे हुए दिखाई देते हैं तो कभी भयाक्रांत। बाज़ारवाद का असर अंतरिक्ष पर भी जा पहुंचा है। वहां भी बाज़ार के मोल भाव और बंटवारे होने लगे हैं। लेकिन बाजार तभी बाज़ार होता है, जबकि ग्राहक मौजूद हो और ग्राहक को लुभाने के लिए बाज़ार हर हथकंडे अपनाता है। ग्राहक भी सब कुछ जानते समझते उन हथकंडों में आसानी से फंस जाता है और फिर भी मुस्कुराता रहता है जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। बाजार और ग्राहकी इस प्रवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए लेखक ने लिखा है-‘‘आजकल सब बाजार में व्यस्त हैं। अभी भी मेनका विश्वामित्र को रिझाने में लगी हैं और शकुंतला की अंगूठी हो गई है। इतना सब कुछ होते हुए भी हमारे जीवन में अंतःसलिला सरस्वती प्रवाह मान है।’’
हमारे कर्मों और प्रयासों में भ्रष्टाचार इस तरह रच बस गया है कि हम उससे अलग होकर जीवन जीने की कल्पना ही नहीं कर पाते हैं। हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार में लिप्त होता है। चाहे वह एक कप चाय पिला कर अपना काम करवाने का भ्रष्टाचार क्यों ही न करें, भ्रष्टाचारी तो कहलाएगा ही। इस भ्रष्टाचार में नोटों का सबसे अधिक महत्व होता है नोटों का लेन-देन ही भ्रष्टाचार के आधार का काम करता है। जिस पर तंज करते हुए राजेश दुबे अपने व्यंग्य ‘‘भ्रष्टाचार हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’’ में लिखते हैं-‘‘गांधीजी ने जिस रास्ते पर हमें चलने का संदेश दिया है हम उन्हें लेकर ही आगे बढ़ा सकते हैं। जब गांधी जी हमारे पास होते हैं। जब वे हमारे जेब में होते हैं, वह हमारे बैंक खातों में होते हैं, वे हमारी तिजरियों में रहते हैं, तब हम सुखी रहते हैं।’’
व्यंग्यकार अपने व्यंग्य रचना द्वारा भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, अशिक्षा पर व्यंग्य कर नैतिक मूल्यों को पुनस्र्थापित करने का प्रयास करता है। व्यंग्यकार शिक्षा, राजनीति या धार्मिक सभी क्षेत्र में आई अनावश्यक विसंगति को समाज के समक्ष लाने का प्रयास करता है। नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए व्यंग्यकार अनैतिक पक्षों को समाज व पाठकों के समक्ष रखता है। इस संदर्भ में ‘‘लोकतंत्र की नाव’’ व्यंग्य इस संग्रह का एक महत्वपूर्ण व्यंग है जिसमें लोकतंत्र की बहुत ही पैनी परिभाषा दी गई है। हम लोकतंत्र में रहते हैं हमें गर्व है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हमारा लोकतंत्र है लेकिन इस लोकतंत्र के करो को बनाए रखने के लिए शायद हम सचेत नहीं रहते हैं इसीलिए लोकतंत्र अक्सर कटघरे में खड़ा दिखाई देता है इसी तथ्य को आधार बनाते हुए लेखक ने लोकतंत्र को इन शब्दों में परिभाषित किया है- ‘‘लोकतंत्र, धृतराष्ट्र की सभा में खड़ी द्रोपदी है। जिसे सब लोलुप निगाहों से भोगने को आतुर हैं।’’ लोकतंत्र को परिभाषित करने के बाद लेखक ने आगे लिखा है कि -‘‘कितने धीर वीर अपने सिंहासन पर बैठे मौन हैं। सारे उपस्थित महानुभावों के बीच उठे सारे निवेदन के स्वर, न्याय पूर्ण कथन और सिफारिशों ने आत्महत्या कर ली है। परिणामतः लोकतंत्र की दयनीय हो रही स्थिति पर हम शर्मसार हैं। राजनीतिक अराजकता की इस परिस्थिति में हम छेद वाली नाव में सवार हैं और वैतरणी पार करने के हौसले बनाए हुए हैं।’’ वस्तुतः व्यंग्य की भाषा उसकी प्रहारक क्षमता को दुगुना करता है। व्यंग्य विसंगतियों के प्रति सहानुभूति नहीं दिखाता बल्कि वह कठोर व तीक्ष्ण भाषा का प्रयोग करता है।
‘‘बबूल की छांव’’ के कुछ व्यंग्यों में बुंदेली शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। जिसे लोकतत्व का रोचक समावेश माना जा सकता है। जैसे एक व्यंग्य है-‘‘ डूबते जहाज के तैरते यात्री’’। इस व्यंग्य का एक अंश देखिए-‘‘ अपनो घर आंगन छोड़ कें पराय मंडप भात खा रय हैं। काय का घरबारों ने लात मार कें भगा दओ का। अरे कल्लू कैसी बात करत हो। इते राजा की मान मर्यादा का सवाल है और दरबारियों की निष्ठा का सवाल है।’’
व्यंगकार राजेश दुबे के व्यंग हरिशंकर परसाई और डॉक्टर सुरेश आचार्य की परंपरा के व्यंग है। यह एक पठनीय व्यंग संग्रह है इसे पढ़कर आनंद की अनुभूति के साथ ही विचारों का उद्वेलन होना सुनिश्चित है।
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