Wednesday, August 4, 2021

चर्चा प्लस | मार्निंग वाॅक पर ऑक्सीजन टैक्स : कहां से आते हैं ऐसे विचार ? | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस           
मार्निंग वाॅक पर ऑक्सीजन टैक्स : कहां से आते हैं ऐसे विचार ?
- डाॅ शरद सिंह
          कोरोना काल की दूसरी लहर ने ऑक्सीजन के महत्व को बखूबी समझा दिया है। उस दौरान मुंह मांगे दाम पर ऑक्सीजन बिकी है और जिसे नहीं मिल सकी वह एक-एक सांस को तरस कर मरा है। क्या उनके परिजन कभी ऑक्सीजन के महत्व को भूल सकेंगे? जिसे प्रकृति ने सबके लिए मुफ़्त में दिया है उस ऑक्सीजन अब एक विश्वविद्यालय परिसर में टैक्स दे कर पा सकेंगे। क्या यह बाज़ारवादी सोच  नहीं है? 

कोरोना संकटकाल ने हमें ऑक्सीजन का महत्व समझाया। एक एक सांस कितनी कीमती हो सकती है, ये बताया। जो ऑक्सीजन पेड़ हमें हमेशा मुफ्त देते आए हैं, वही सिलेंडर में कितनी महंगी साबित हो सकती है ये बात समझना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। इसी बात को और अच्छे से समझाने के लिए उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय प्रबंधन ने एक अनोखा निर्णय लिया है। विश्वविद्यालय परिसर में मॉर्निंग और इवनिंग वॉक करने वालों पर ऑक्सीजन टैक्स लगाने की तैयारी की जा रही है। कुलपति प्रो. पांडेय के अनुसार इसका उद्देश्य विश्वविद्यालय परिसर में ऑक्सीजन लेवल को बनाए रखना और उसमें बढ़ोतरी करना है। यद्यपि ये टैक्स अनिवार्य न होकर स्वैच्छिक रहेगा। लोगों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक करने और पेड़ पौधों का महत्व बताने के लिए ये कदम उठाया जा रहा है। विक्रम विश्वविद्यालय परिसर में सम्राट विक्रमादित्य के नौ रत्नों के नाम पर नौ पर्यावरण संरक्षित क्षेत्र विकसित करने की योजना भी है जहां विभिन्न प्रकार के पौधे लगाए जाएंगे। इस योजना में यहां आने वाले लोगों को भी जोड़ा जाएगा और जो परिसर में वॉक के लिए आते हैं उन्हें पौधे लगाने की जिम्मेदारी दी जाएगी। यहां रोजाना सुबह शाम वॉक करने के लिए करीब पांच हजार लोग आते हैं। इसी के साथ उन्हें साल भर तक उस पौधे की देखरेख भी करनी होगी। विश्वविद्यालय के अधिकारियों, कर्मचारियों और विद्यार्थियों को भी एक पौधा लगाने और उसे सहेजने के लिए प्रेरित किया जाएगा।
योजना का उद्देश्य भले ही अच्छा हो लेकिन जिसे प्रकृति ने मुफ़्त प्रदान किया है उस पर टैक्स लगाया जाना ठीक वैसा ही है जैसे रोज़मर्रा के जीवन में भी ऑक्सीजन सिलेंडर की कीमत अदा करनी पड़े। यदि आप स्वच्छ सांस चाहते हैं तो उन संासों को खरीदें। यह व्यवसायिकता किसी निजी सेक्टर के एम्यूज़मेंट पार्क में भले ही स्वीकार्य लगती लेकिन एक उच्चशिक्षा केन्द्र में ऑक्सीजन की सौदेबाजी यार्मनाक ही लग रही है। जिस केन्द्र में ऑक्सीजन बढ़ाने, उसे बचाने की मुफ़्त जागरूकता शिक्षा दी जानी चाहिए वहां ऑक्सीजन पर टैक्स की बात शिक्षा केन्द्र के उद्देश्यों को ही कलंकित करने के लिए पर्याप्त है। उदाहरण के लिए ज़रा सोचें कि वाटर प्यूरी फायर बनाने वाली प्राईवेट कंपनियां कभी नहीं चाहती हैं कि जनता को प्राकृतिक रूप से स्वच्छ पानी पीने के लिए मिले। यदि जनता को पीने का साफ़ पानी प्राकृतिक रूप से मिल जाएगा तो वह वाटर प्यूरी फायर क्यों खरीदेगी? ऐसी कंपनियों का मुनाफ़ा पेयजल के गंदा होने पर ही टिका होता है। अब यदि एक उच्चशिक्षा केन्द्र उसके परिसर में घूमनेवालों पर ऑक्सीजन टैक्स लगाएगा तो इससे होने वाले मुनाफ़े पर शोधकार्य भी उसी उच्चशिक्षा केन्द्र के शोधार्थियों को करना पड़ेगा। शोध कर के जांचना पड़ेगा कि यह मुनाफ़ा ऑक्सीजन के प्रति जागरूकता बढ़ाने की दिशा में हुआ अथवा विश्वविद्यालय के आर्थिक मद में मुनाफ़ा हुआ? इसके साथ ही इस छोटे से अव्यवहारिक मुनाफ़े से क्या ऑक्सीजन बढ़ पाई? इसी तरह के कई बिन्दु रहेंगे शोधकार्य के। वैसे आम जीवन में भी ऑक्सीजन मुफ़्त नहीं मिलती है। बेशक़ हम ऑक्सीजन टैक्स के नाम से सांसों का टैक्स नहीं देते हैं लेकिन नगर की स्वच्छता के लिए नगरपालिका और नगरनिगम को जो टैक्स अदा करते हैं उसमें स्वच्छ हवा का टैक्स स्वतः शामिल रहता है।
वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा अन्य गैसों की तुलना में लगभग 20.95 प्रतिशत आयतन है। यह मात्रा पहले की अपेक्षा कम हो गई है क्योंकि पिछले दशकों में जंगल तेजी से नष्ट हुए हैं। जबकि एक पेड़ एक दिन में करीब 230 लीटर ऑक्सीजन देता है जिससे लगभग 7 व्यक्ति सांस ले सकते हैं। जानने का विषय यह भी है कि सरकार ऑक्सीमीटर से लेकर ऑक्सीजन पर कितना वसूलती है टैक्स? ऑक्सीजन पर 12 प्रतिशत जीएसटी, ऑक्सीजन कंसंट्रेटर-जेनरेट पर 12 प्रतिशत जीएसटी, पल्स ऑक्सीमीटर पर 12 प्रतिशत जीएसटी, मास्क (छ-95 मास्क, ट्रिपल-लेयर मास्क और सर्जिकल मास्क) पर 5 प्रतिशत जीएसटी, वेंटिलेटर पर 12 प्रतिशत जीएसटी, आरटी एंड पीसीआर मशीन पर 18 फीसदी (जीएसटी), आरएनए निष्कर्षण मशीन पर 18 प्रतिशत जीएसटी। ये आंकड़े कोरोना की दूसरी लहर के दौरान के हैं। वह दौर था कि कोरोना पीड़ित ऑक्सीजन के लिए तड़प रहे थे।  ऑक्सीजन   सिलेंडर की कालाबाज़़ारी तक शुरू हो गई थी। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए पंजाब और दिल्ली जैसे राज्यों ने ऑक्सीजन कंसंट्रेटर, वेंटिलेटर और जीवनरक्षक दवाओं पर टैक्स घटाने की मांग की थी। इन राज्यों ने कहा था कि जीएसटी काउंसिल की बैठक में इनपर गंभीरता से चर्चा होनी चाहिए।
सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की हो, हर सरकार ने वृक्षारोपण को बढावा दिया। जिससे सांस लेने लायक ऑक्सीजन आज भी वायुमंडल में मौजूद है। यह अवश्य है कि प्रदूषण बढ़ने से विषाक्त गैसों का प्रतिशत हवा में बढ़ा है और वहीं दूसरी ओर जहां जंगलों में वृक्षों की अवैध कटाई हुई है वहीं शहरों के फैलने और आधुनिकीकरण के कारण दशकों पुराने वृक्षों को काट कर सड़कें चैड़ी की गईं, बस्तियों का विस्तार किया गया और पुराने विशाल वृक्षों की अपेक्षा कम आॅक्सीजन दे पाने वाले सजावटी पेड़ों की कतारें रोप दी गईं। एक शोध के अनुसार हर 50 मीटर की दूरी पर एक पेड़ लगाने से पर्यावरण संतुलित रह सकता है। लेकिन वे वृक्ष कौन से होने चाहिए और उनसे आॅक्सीजन की यह मात्रा कितने वर्षों में मिल सकती है, यह भी विचारणीय है।
वायु पृथ्वी पर जीवन का एक आवश्यक तत्व है। लेकिन धीरे-धीरे पृथ्वी में हो रहे बदलाव के कारण ऑक्सीजन की मात्रा कम होती जा रही है, इसमें कई प्रकार की विषैली गैसे घुल रही है। साधारण शब्दों में कहें तो स्वच्छ वायु में रसायन, सूक्ष्म पदार्थ, धूल, विषैली गैसें, जैविक पदार्थ, कार्बन डाइऑक्साइड आदि के कारण वायु प्रदूषण होता है। वायु प्रदूषण दिन-प्रतिदिन भयानक रूप लेता जा रहा है। पिछले कई सालों से हर नगर में कारखानों की संख्या में बहुत वृद्धि हुई है जिसकी वजह से वायुमंडल बहुत अधिक प्रभावित हुआ है। स्वस्थ रहने के लिए स्वच्छ पर्यावर्णीय हवा का होना बहुत जरूरी होता है। जब हवा की संरचना में परिवर्तन होने पर स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा हो जाता है। संसार की बढती हुयी जनसंख्या ने प्राकृतिक संसाधनों का अधिक प्रयोग किया है। औद्योगीकरण की वजह से बड़े-बड़े शहर बंजर बनते जा रहे हैं। वाहनों और कारखानों से जो धुआं निकलता है उसमें सल्फर-डाई-आक्साइड की मात्रा होती है जो पहले सल्फाइड और बाद में सल्फ्यूरिक अम्ल में बदलकर बूंदों के रूप में वायु में रह जाती है। कुछ रासायनिक गैसे वायुमण्डल में पहुंचकर वहाँ के ओजोन मंडल से क्रिया करके उनकी मात्रा को कम कर देते हैं जिसकी वजह से भी वायु प्रदूषण बढ़ जाता है। अगर वायुमंडल में लगातार कार्बन-डाई-आक्साइड, कार्बन-मोनो-आक्साइड, नाईट्रोजन, आक्साइड, हाईड्रोकार्बन इसी तरह से मिलते रहंगे तो वायु प्रदूषण अपनी चरम सीमा पर पहुंच जायेगा।
वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण कपड़ा बनाने के कारखाने, रासायनिक कारखाने, तेल शोधक कारखाने, चीनी बनाने के कारखाने, धातुकर्म और गत्ता बनाने वाले कारखाने, खाद और कीटनाशक कारखाने होते हैं। इन कारखानों से निकलने वाले कार्बन-डाई-आक्साइड, नाईट्रोजन, कार्बन-मोनो-आक्साइड, सल्फर, सीसा, बेरेलियम, जिंक, कैडमियम, पारा और धूल सीधे वायुमंडल में पहुंचते हैं जिसकी वजह से वायु प्रदूषण में वृद्धि होती है। प्रदूषण पूरे पारिस्थितिक तंत्र को लगातार नष्ट करके पेड़-पौधों और पशुओं के जीवन को बहुत ही प्रभावित किया है और अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका है। वायु में उपस्थित सल्फर-डाई-आक्साइड की वजह से दमा रोग होने की संभावना बढ़ जाती है। जब सल्फर-डाई-आक्साइड बूंदों के रूप में वर्षा के समय भूमि पर गिरती है तो उससे भूमि की अम्लता बढ़ जाती है और उत्पादन क्षमता घट जाती है। जब वायु में आक्सीजन की कमी हो जाएगी तो प्राणियों को साँस लेने में तकलीफ होगी। जब कारखानों से निकलने वाले पदार्थों का अवशोषण वृक्षों के द्वारा किया जायेगा तो प्राणियों के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। वायु प्रदूषण का सबसे अधिक प्रभाव महानगरों पर पड़ता है।
पर्यावरण के संरक्षण के लिए निजी संस्थानों को बाध्य करने पर नियंत्रित करना होगा। पैट्रोल, डीजल की जगह पर सौर, जल, गैस और विद्युत ऊर्जा से चलने वाले वाहनों का आविष्कार और उत्पादन करना होगा। सीसा रहित पेट्रोल के प्रयोग पर नियंत्रण करना होगा। वाहनों के दुरुपयोग पर नियंत्रण करना होगा। जंगलों की कटाई को हतोत्साहित करना होगा। यदि ऑक्सीजन टैक्स वसूलना ही है तो वायु प्रदूषित करने वाले कारखानों से वसूलना चाहिए, न कि स्वच्छ सांस पाने के लिए सुबह-शाम घूमने वाले आम नागरिकों से। माॅर्निंग-ईवनिंग वाॅक वालों से ऑक्सीजन टैक्स वसूलने की विश्वविद्यालय प्रशासन की बाज़ारवादी सोच पर यही पूछने को दिल करता है कि क्या उन्हें शर्म भी नहीं आती? इससे तो बेहतर है कि वे परिसर में आम जनता के लिए ‘‘प्रवेश निषेध’’ का बोर्ड लगा दें।
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(सागर दिनकर, 04.08.2021)
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