Sunday, August 8, 2021

व्यंग्य लेख | ‘अ’ से अधिकारी, जा पे लक्ष्मी करे सवार | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत में प्रकाशित, 08.08.2021

Dr (Miss) Sharad Singh

 व्यंग्य लेख                                

   ‘अ’ से अधिकारी, जा पे लक्ष्मी करे सवार                                                       

        - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


हिन्दी माध्यम के सरकारी स्कूलों में जब ककहरा सिखाया जाता है तो पहले अक्षर की पहचान कराई जाती है अनार के ‘अ’ से। भले ही ज़िन्दगी में उसे अनार का स्वाद चखने को न मिले। ‘ग’ से ‘गऊ’ रटाया जाता है, यह डांटते हुए कि ‘अबे गधे ‘ग’ गऊ’ होता है।’ 

अब ‘ग’ से गधा ही रख देते तो क्या जाता? खैर, ‘ग’ से चाहे गधा हो या न हो लेकिन ‘अ’ से ‘अनार’ के बदले ‘अ’ से ‘अधिकारी’ अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार, ज्ञान का पहला अक्षर अधिकारी से ही शुरू होना चाहिए। क्योंकि इस अधिकारी नामक जीव से जीवन भर पीछा नहीं छूटता है। ये अधिकारी नामक जीव ‘साहब जी’ के सम्बोधन से पुकारे जाते हैं। जीवन के हर क़दम पर छोटे साहब, बड़े साहब, बड़े से बड़े साहब, बड़े से बड़े से बड़े साहब यानी अधिकारियों की एक लम्बी कतार मिलती है। किसी भी काम से चाहे नेता के पास जाओ या अभिनेता के पास, अंततः जाना पड़ता है किसी न किसी अधिकारी के पास। वैसे अधिकारी वह दो-पाया जीव होता है जो शेर जैसे दमदार कर्मचारियों को भी गीदड़ बना देता है। इस दो पाए प्राणी की कार्यप्रणाली सरकस के ‘रिंग मास्टर’ जैसी होती है। इसके हाथ में अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की ‘सी.आर.’ यानी कॅान्फीडेन्शल रिपोर्ट यानी गोपनीय चरित्रावली का चाबुक होता है। इसी चाबुक के संकेत पर सभी कर्मचारी करतब दिखाते रहते हैं।   

अधिकारी प्रायः धनसम्पन्न प्राणी होता है। इस अधिकारी नामक जीव की जीवनी अर्थात् इसकी जीवन संगिनी भी धन की सम्पन्नता बटोरने के लिए इसे सदा प्रेरित करती रहती है। अधिकारी नामक प्राणी की कृपादृष्टि पाने वाले स्वयं का जीवन धन्य समझते हैं और अधिकारी की कृपादृष्टि स्वयं पर बनाए रखने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद से काम लेते रहते हैं। क्यों कि वे जानते हैं कि यदि अधिकारी मेहरबान तो कर्मचारी पहलवान। अधिकारी चाहे तो प्रसन्न हो कर खाऊ-पिऊ अनुभाग दे सकता है अन्यथा अप्रसन्न होने पर काला-पानी कहलाने वाले दुर्गम स्थानों पर स्थानान्तरित कर सकता है। 

आप नौकरी करें या न करें, अपने जीवन में आप अधिकारी से बच कर नहीं रह सकते हैं।  कर्मचारियों को ही नहीं गैरकर्मचारियों को भी इस अधिकारी नामक प्राणी का मुंह जोहना पड़ता है और चरणवंदना करनी पड़ती है। क्योंकि, यदि राशन चाहिए तो अधिकारी से राशनकार्ड बनवाओ, दूकान खोलना है तो अधिकारी से अनुमति लो, मकान बनाना है तो अधिकारी के चक्कर लगाओ। यदि गज़टेड अधिकारी से सत्यापित कराए हुए काग़ज़ात आपके पास नहीं हैं तो आपके काग़ज़ातों की कोई क़ीमत नहीं है।  हर व्यक्ति को अपने जीवन में कभी न कभी किसी न किसी अधिकारी के दर्शन करने ही पड़ते हैं। यदि आय अच्छी है तो आयकर अधिकारी के दर्शन करने पड़ते हैं, विदेश भ्रमण करना है तो स्थानीय अधिकारी से ले कर दूतावास अधिकारी तक के दर्शन करने पड़ते हैं। चोर-डकैतों से पाला पड़े तो पुलिस अधिकारी का मुंह देखना पड़ता है। और, जो कहीं दुर्योग से कवि-लेखक बन गए तो साहित्य अकादमी के अध्यक्षनुमा अधिकारी को सलाम करने में ही भलाई नज़र आती है।  

इस मानव जीवन में अधिकारी के बिना कोई गति प्राप्त नहीं होती है, बस, दुर्गति ही दुर्गति  रहती है। कुल मिला कर हाल ये है कि यदि जन्म लो तो पंजीयन अधिकारी के पास दर्ज़ हो जाओ और मरो तो पंजीयन अधिकारी के पास दर्ज़ रहो। वरना आपको कोई ज़िन्दा या मुर्दा मानेगा ही नहीं। अर्थात् बिना अधिकारी के आपका कोई अस्तित्व नहीं है।

अच्छा तो यही है कि जब भगवान जी के आगे अगरबत्ती जलाने का मन करे तो उससे पहले अधिकारी जी का स्मण अवश्य कर लेना चाहिए। साथ ही यह आरती भी कंठस्थ कर लेना चाहिए क्यों कि याद रहे अधिकारी प्रसन्न हो जाए तो मंदिर में भवान के दर्शन भी वी.आई.पी. कोटे से हो सकते हैं। तो सब मिल कर गाइए-

               ‘अ’ से अधिकारी, जा पे लक्ष्मी करे सवारी,

               जाकी हरकत कारी-कारी, 

               जो है सिर से पांव कटारी,

              वा से बचे न जन संसारी, 

               तो बोलो, जय-जय-जय अधिकारी।।

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(नवभारत में प्रकाशित, 08.08.2021)

Vyang- Dr (Miss) Sharad Singh, Navbharat, 08.08.2021


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