चर्चा प्लस
तालिबान शासन में क्या होगा अफ़गानी स्त्रियों का भविष्य ?
- डाॅ शरद सिंह
अफगानिस्तान में सत्ता की बागडोर तालिबान के हाथ में आने से यदि सबसे बड़ा नुकसान किसी का हो रहा है तो, वह वहां की आधी आबादी यानी स्त्रियों का। बिना बुर्के के दिखाई देने वाली स्त्रियों को गोली मार देना, स्त्रियों के घर से बाहर निकलने पर हज़ार पाबंदियां और घर के भीतर उनके साथ ऐसा सुलूक कि जैसे वे इंसान ही न हों। क्या होगा अफगानिस्तान में स्त्रियों का भविष्य? राजनीति की अंगीठी में सुलग रहे हैं यह प्रश्न। फिलहाल, अंतर्राष्ट्रीय माॅनीटरिंग ज़रूरी होगी अफ़गानी स्त्रियों की दशा की।
अफ़गानिस्तान से भारत का नाता पुराना है। किसी जमाने में कांधार भी भारत का हिस्सा हुआ करता था। भारत से चल कर बौद्ध धर्म अफ़गानिस्तान तक जा पहुंचा था। बामयान की भगवान बुद्ध की वे प्रसिद्ध मूर्तियां इस तथ्य का साक्ष्य थीं। चौथी और पांचवीं शताब्दी में बनी बुद्ध की दो खडी मूर्तियां थीं जो अफगानिस्तान के बामयान में स्थित थीं। मार्च 2001 में अफगानिस्तान के जिहादी संगठन तालिबान के नेता मुल्ला मोहम्मद उमर के कहने पर डाइनेमाइट से मूर्तियों को उडा दिया गया था।
सन् 2005 में एक आत्मकथात्मक उपन्यास प्रकाशित हुआ था-‘‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’’। बंगाली ब्राह्मण परिवार की लड़की का एक अफगानी लड़के से प्रेम, फिर विवाह और फिर आठ साल तक अफगानिस्तान में यातनाओं के कुचक्र पर आधारित था यह उपन्यास। इस आत्मकथ्य में जहां तालिबानी पृष्ठभूमि की निरंकुश धार्मिकता कट्टरताओं को सामने लाया गया था। उस बंगाली स्त्री का अपने देश वापस लौटने का प्रयास उसके जीवन-मरण का प्रश्न बन गया था। सुष्मिता ने हार नहीं मानी अंततः 1995 में वे स्वदेश लौटने में सफल हो गई थीं। लेखिका सुष्मिता वंद्योपाध्याय की स्वयं की भोगी हुई यातना का एक ऐसा दस्तावेज है यह उपन्यास जो आज भी अफगानिस्तान में स्त्रियों की दशा के प्रति चिन्तित कर देता है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस बात को लेकर चिंता जताई जा रही है कि तालिबानी शासन आने के बाद अफगानिस्तान में महिलाओं की जिंदगियों पर क्या असर पड़ेगा? पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश से लेकर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटरेश ने महिलाओं की स्थिति को लेकर चिंता व्यक्त की है? संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटरेश ने ट्वीट किया कि ‘‘गंभीर रूप से मानवाधिकार उल्लंघन की ख़बरों के बीच अफगानिस्तान में जारी संघर्ष हजारों लोगों को भागने पर मजबूर कर रहा है। सभी तरह की यातनाएं बंद होनी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून और मानवाधिकारों, विशेष रूप से महिलाओं और लड़कियों के मामले में बहुत मेहनत के बाद जो कामयाबी हासिल की गई है, उसे संरक्षित किया जाना चाहिए।’’
वहीं तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में बताया है कि आने वाली सरकार में महिलाओं को काम करने और पढ़ाई करने की आजादी होगी। बीबीसी संवाददाता याल्दा हकीम से बातचीत करते हुए सुहैल शाहीन ने विस्तार से तालिबानी शासन के अंतर्गत न्यायपालिका, शासन और सामाजिक व्यवस्था पर बात की। लेकिन सवाल ये है कि क्या इस तालिबानी शासन में पिछले दौर के तालिबानी शासन की अपेक्षा महिलाओं की स्थिति बेहतर होगी। सुहैल शाहीन ने कहा कि ‘‘ये भविष्य की सरकार पर निर्भर करेगा. स्कूल आदि के लिए यूनिफॉर्म होगी। हमें शिक्षा क्षेत्र के लिए काम करना होगा. इकोनॉमी और सरकार का बहुत सारा काम होगा। लेकिन नीति यही है कि महिलाओं को काम और पढ़ाई करने की आजादी होगी।’’ सुहैल शाहीन की बातें सुनने में लुभावनी लग सकता हैं, आश्वस्त भी कर सकती हैं लेकिन उस सच्चाई का उत्तर क्या है जिसमें महिलाओं को घर से अकेले निकलने पर तालिबानी धार्मिक पुलिस द्वारा पीटा जाता था। महिलाओं को पिता, भाई और पति के साथ ही घर से बाहर निकलने की इजाजत थी। कहीं खाने के दांत और दिखाने के दांत में अंतर तो नहीं?
लगभग 22 प्रतिशत अफगान लोग शहरी हैं और शेष 78 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। लड़कियों का अधिक पढ़ाने की परम्परा नहीं रही। स्कूली शिक्षा भी बडी मुश्क़िल से ही वे पूरी कर पाती हैं। छोटी आयु में ही उनका विवाह कर दिया जाता है। उसके बाद उनका जीवन घर-गृहस्थी में सिमट कर रह जाता है। बीमार परंपराएं उनके कंधों पर लाद दी जाती हैं। ऐसा नहीं है कि कभी किसी ने उनके बारे में सोचा ही नहीं। अफगानिस्तान के शासकों में राजा अमानुल्लाह थे, जिन्होंने 1919 से 1929 तक शासन किया और देश को आधुनिकीकरण के साथ-साथ एकजुट करने के प्रयास में कुछ और उल्लेखनीय बदलाव किए। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित किया। समय-समय पर अफगानिस्तान का सामाजिक परिदृश्य करवटें लेता रहा। अफगान संसद के सदस्यों के रूप में शुक्रिया बराकजई, फौजिया गेलानी, निलोफर इब्राहिमी, फौजिया कोओफी, मलालाई जॉय जैसी कई महिलाएं सत्ता तक पहुंचीं। सुहेला सेदिक्की, सिमा समर, हुसैन बनू गजानफर और सुराया दलील सहित कई स्त्रियों ने मंत्रीपद भी सम्हाले। हबीबा सरबी पहली महिला गवर्नर बनीं। उन्होंने महिला मामलों के मंत्री के रूप में भी कार्य किया। आजरा जाफरी पहली महिला महापौर बनीं। अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति देखते हुए यह सब कपोलकल्पित का की भांति लगता है कि कभी वहां स्त्रियां सत्ता के उच्च पदों तक भी पहुंची थीं। आज घरों की कैद में और पर्दों में रहने वाली महिलाएं 70 के दशक तक पेंसिल स्कर्ट और फैशनेबल बालों में नजर आती थीं। छात्राएं अपने गले में स्टाइलिश स्कार्फ और फ्रिली ब्लाउज पहनती थीं। पुरुष धारीदार शर्ट और ब्लेजर में नजर आते थे। लगभग 50 साल पहले अफगान महिलाएं मेडिकल में अपना करियर बनाती थीं। लड़के-लड़कियां मूवी थिएटेर और यूनिवर्सिटी कैंपस में आजादी से मिलते थे। कानून व्यवस्था थी और सरकार बड़े प्रोजेक्ट्स को शुरू करने में सक्षम थी। लोग शिक्षा के प्रति आकर्षित थे क्योंकि उन्हें लगता था कि यह उनके रास्ते खोल सकती है। तीन दशकों के युद्ध ने यहां सब कुछ खत्म कर दिया है।
पिछले तीन दशक में क्या अफगानिस्तान में महिलाओं के लिए कुछ बदला है? उत्तर यही होगा कि - बहुत कम। जनवरी 2015 में फरयाब प्रांत में एक महिला रेजा गुल के पति ने पारिवारिक कलह के बाद उसकी नाक और होंठ का ऊपरी हिस्सा काट दिया था। इसके बाद उसका पति तालिबान के नियंत्रण वाले इलाके में चला गया और उसे अब तक गिरफ्तार नहीं किया जा सका है। नवंबर 2015 में मध्य अफगानिस्तान में व्यभिचार के आरोप में एक युवा महिला रुखसाना की हत्या पत्थर मार-मारकर कर दी गई। 30 सेकंड के इस वीडियो को ऑनलाइन भी पोस्ट किया गया। जिस पुरुष के साथ वह कथित रूप से भागी, उसे भी कोड़े लगाए गए। अफगान मानवाधिकार आयोग का कहना है कि ‘‘ऑनर किलिंग’’ के मामले बढ़े हैं। साल भर में जो 150 महिलाओं की हत्या हुई, उनमें 101 को इसलिए मारा गया कि उनके परिजनों का मान ना था कि उनसे परिवार की बदनामी हुई थी। इनमें एक लड़की 18 साल की थी। पिता ने उसकी हत्या कुल्हाड़ी से कर दी थी, क्योंकि वह उनकी ‘आज्ञा’ नहीं मान रही थी। अफगानिस्तान में 2015 में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के 5,000 से अधिक मामले दर्ज हुए। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार लगभग 90 प्रतिशत अफगान महिलाओं के साथ मारपीट या यौन हिंसा होती है।
अफगानिस्तान में आज सिर्फ हिंसा और अराजकता है। घर से बाहर निकलने, बुर्का पहनने और पढ़ाई-लिखाई पर प्रतिबंध जैसी कई बंदिशें पहले से लागू हो चुकी हैं। हालांकि हमेशा से अफगानिस्तान इतना असुरक्षित, अशांत और अराजक नहीं था। एक समय पर अफगानिस्तान अपने फैशन, रोजगार, करियर और कानून-व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध था। पुरानी तस्वीरों में अफगान महिलाएं और पुरुष यूरोप के किसी देश की तरह फैशनेबल लग हैं लेकिन आज यह सब किसी सपने की तरह है। एक कट्टरपंथी आतंकवादी संगठन ने हर चीज की परिभाषा को बदलकर रख दिया है। आज अफगानिस्तान की सड़कों पर जो अराजक भीड़ दिखाई देती है उसमें हाथों में अत्याधुनिक हथियार लिए हुए पुरुष ही नज़र आते हैं। एक बार फिर सड़कें स्त्रियों के लिए प्रतिबंधित कर दी गई हैं। यह परिदृश्य भयावह है। अफगानी स्त्रियों के भविष्य के प्रति चिंता पैदा करने वाला है। संयुक्तराष्ट्र संघ को ही नहीं वरन दुनिया के सभी देशों को चाहिए कि वे अफगानिस्तान में स्त्रियों की दशा की माॅनीटरिंग करते रहें और समय रहते संयुक्त रूप से हस्तक्षेप भी करें।
--------------------------------------- (सागर दिनकर, 18.08.2021)
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