चर्चा प्लस
सम्मान वाया राजनीतिक गलियारा
संदर्भ : डॉ हरीसिंह गौर को भारत रत्न देने की मांग
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
डाॅ हरीसिंह गौर ने अपना तन, मन, धन दे कर इसलिए विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी कि उन्हें कोई सम्मान चाहिए था। वे तो मात्र इतना चाहते थे कि क्षेत्र और क्षेत्रवासियों का बौद्धिक तथा शैक्षिक विकास हो। उनके द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय में पढ़ कर भी हम आज अपने उस महान दानवीर को ‘‘भारत रत्न’’ दिलाने के लिए राजनीतिक गलियारों की खाक छान रहे हैं या इस बात से व्यथित हैं कि भोपाल का मिंटोहाॅल उनके नाम पर क्यों नहीं किया जा रहा है? शायद हमारी इच्छाशक्ति में ही कोई कमी रह गई है जो हम वर्षों बाद भी डाॅ. गौर को ‘‘भारत रत्न’’ नहीं दिला सके हैं।
सागर विश्वविद्यालय के छात्र रहे प्रदेश भाजपा प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल ने भोपाल की पुरानी विधानसभा मिंटो हाॅल का नाम डॉ हरीसिंह गौर के नाम पर किए जाने की मांग की। सागरवासियों एवं विश्वविद्यालय से किसी न किसी रूप से जुड़े हर व्यक्ति को यह मांग स्वागत योग्य लगी। इसके साथ ही कानूनविद, शिक्षाविद, साहित्यकार, दार्शनिक और सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक अर्थात् बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ हरीसिंह गौर को भारत रत्न देने की मांग पहले भी कई बार उठ चुकी है। या यूं कहा जाना चाहिए कि हर साल गौर जयंती पर यह मांग उठती है और फिर वार्षिक सुप्तावस्था में चली जाती है। सभी जानते हैं कि डॉ हरीसिंह गौर भारत के एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने जीवन की पूरी कमाई बुंदेलखंड जैसे पिछड़े क्षेत्र में आजादी के पहले विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए दान कर दी थी। लेकिन उन्हें ‘‘भारत रत्न’’ दिलाने के पक्ष में ज़ोरदार पहल करते हुए कोई अपने पद से त्यागपत्र देने की घोषणा करने की भी वीरता आज तक नहीं दिखा पाया है।
दिलचस्प बात है कि मिंटो हाल का नाम डॉ हरीसिंह गौर के नाम पर करने की मांग सागर विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र और मध्य प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल ने भोपाल स्थित पुरानी विधानसभा के मिंटो हाल का नाम महान शिक्षाविद, सागर में विश्वविद्यालय के संस्थापक डॉ हरीसिंह गौर के नाम पर करने का आग्रह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से कर के एक अच्छी पहल की। लेकिन इसके साथ ही राजनीतिक होड़ शुरू हो गई। ऐसा प्रतीत होने लगा कि यदि मिंटो हाल का नाम डाॅ. गौर के नाम पर कर दिया गया और उन्हें ‘‘भारत रत्न’’ दे दिया गया तो श्रेय किसके झोली में आएगा। यानी परिदृश्य यह कि सूत न कपास और जुलाहों में लट्ठमलट्ठ।
मिंटोहाॅल का नाम डाॅ. गौर के नाम पर रखे जाने को कई राजनीतिज्ञ डॉ हरीसिंह गौर की हस्ती के मुकाबले इसे बहुत छोटी मांग मान रहे हैं। तो बड़ी मांग अब तक पूरी क्यों नहीं हुई? इस प्रश्न का उत्तर भी उनके पास नहीं है। इधर कांग्रेस के प्रवक्ता संदीप सबलोक का कहना है कि ‘‘सागर विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र और मेरे मित्र रजनीश अग्रवाल की भावनाओं का मैं सम्मान करता हूं। डॉ हरीसिंह गौर हमारी आस्था का केंद्र हैं। लेकिन भारतीय जनता पार्टी उनके नाम के सहारे जो एजेंडा चला रही है, मैं इसको गलत मानता हूं। बेहतर होगा कि डॉ हरिसिंह गौर के नाम पर शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में कार्य किए जाएं, ताकि बुंदेलखंड क्षेत्र के युवाओं को रोजगार हासिल हो. डॉ हरीसिंह गौर को भारत रत्न देने का प्रस्ताव मध्यप्रदेश की विधानसभा में पारित कर केंद्र सरकार को भेजा जाए। डॉ गौर को भारत रत्न देने का प्रस्ताव पास करे सरकार।’’
सागर विश्वविद्यालय के छात्रों और पूर्व छात्रों के संगठन गौर यूथ फोरम के संयोजक विवेक तिवारी का कहना है कि ‘‘डॉ गौर एक ऐसे व्यक्तित्व थे, कि उन्हें अभी तक भारत रत्न मिल जाना चाहिए था। संविधान सभा के उपसभापति रहने के अलावा उन्होंने देश और दुनिया में कानून के क्षेत्र में बहुत नाम कमाया है। उन्होंने अपना सर्वस्व दान कर सागर विश्वविद्यालय बनाकर देश का इकलौता उदाहरण पेश किया है। डॉक्टर गौर को भारत रत्न दिए जाने के लिए गौर यूथ फोरम सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने जा रही है।’’
26 नवम्बर 1870 को जन्मे डॉ. हरिसिंह गौर सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक, शिक्षाशास्त्री, ख्यति प्राप्त विधिवेत्ता, न्यायविद्, समाज सुधारक, साहित्यकार तथा महान दानी एवं देशभक्त तो थे ही, साथ ही वे बीसवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ शिक्षाविद एवं कानूनवेत्ता थे। लेकिन डाॅ. गौर चांदी का चम्मच मुंह में ले कर पैदा नहीं हुए थे। उनका आरम्भिक जीवन संघर्षमय रहा। डॉ. गौर बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। प्राइमरी के बाद इन्होनें दो वर्ष मेँ ही आठवीं की परीक्षा पास कर ली जिसके कारण इन्हेँ सरकार से 2 रुपये की छात्र वृति मिली जिसके बल पर ये जबलपुर के शासकीय हाई स्कूल गये। लेकिन पारिवारिक उलझनों के कारण ठीक से पढ़ाई नहीं कर सके और मैट्रिक में फेल हो गए। इस कारण इन्हें वापिस सागर आना पड़ा। दो साल तक काम के लिये भटकते रहे फिर जबलपुर अपने भाई के पास गये जिन्होने इन्हें फिर से पढ़ने के लिये प्रेरित किया।
डॉ. गौर फिर मैट्रिक की परीक्षा में बैठे और इस बार ना केवल स्कूल मेँ बल्कि पूरे प्रान्त में प्रथम आये। इन्हें 50 रुपये नगद एक चांदी की घड़ी एवं बीस रूपये की छात्रवृति मिली। आगे की शिक्षा के लिये वे हिस्लाॅप कॉलेज में भर्ती हुये। पूरे कॉलेज में अंग्रेजी एव इतिहास मेँ ऑनर्स करने वाले ये एकमात्र छात्र थे। इसके बाद पढ़ने कैम्ब्रिज गए। वहां उन्हें रंगभेद का सामना करना पड़ा। एक बार तो ऐसा भी हुआ कि गणित और अंग्रेजी कविताओं की प्रतियोगिताओं में वे प्रथम आए, पर रंगभेद की नीति के चलते इन प्रतियोगिताओं के परिणाम रोक लिए गए।
लंदन में डाॅ. गौर ने कानून की पढ़ाई की और वहीं से डीलिट की डिग्री भी हासिल की। उन दिनों दादाभाई नौरोजी ब्रिटेन में भारतीय मूल के पहले सांसद निर्वाचित हुए थे। सांसद के चुनाव के लिए हरि सिंह गौर ने उनके पक्ष में प्रचार किया था। भारत आने के बाद डाॅ. गौर कुछ महीने के लिए वे डिप्टी कलेक्टर की नौकरी पर रहे। फिर वकालत करने के लिए नौकरी छोड़ दी और इलाहाबाद, मध्य प्रांत तथा कलकत्ता के उच्च न्यायालयों में वकालत की। बकालत के दौरान ही डाॅ. गौर ने सन् 1918 में नागपुर नगरपालिका का चुनाव लड़ा। चुनाव में विजयी हुए और अध्यक्ष बने। सन् 1920 में उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। तब वे पार्टी के नरम दल के समर्थक थे। 1921 से लेकर 1935 तक डाॅ. गौर सेंट्रल असेंबली के सदस्य रहे। उसी दौरान साइमन कमीशन भारत आया था। डाॅ. गौर ने कमीशन के सामने भारत को डोमिनियन दर्जा देने का प्रस्ताव रखा। इसका अर्थ यह था कि आंतरिक मामलों में भारतीयों को स्वशासन का अधिकार दिया जाए। ब्रिटिश सरकार को यह किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं था। अतः ब्रिटिश सरकार ने इसे नामंजूर कर दिया।
भारतीय दंड संहिता की तुलनात्मक विवेचना पर डाॅ. गौर के द्वारा लिखी गई पुस्तक अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुई। लगभग 3000 पृष्ठ की दो भागों में विभाजित यह पुस्तक अंग्रेजी भाषा में इस विषय पर लिखी पहली पुस्तक थी जो आज भी बकीलों के उपयोग में आती है। हिंदू कोड बिल पर उनका काम आज भी एक प्रामाणिक दस्तावेज माना जाता है। इस किताब में उन्होंने लगभग 500 अन्य किताबों और लगभग सात हजार केसों का हवाला दिया है। ऐसा कोई हिंदू शास्त्र और केस नहीं छोड़ा, जो इसमें नहीं मिलता हो। हिंदू की परिभाषा से लेकर विवाह, संपत्ति, तलाक सहित वे सारी बातें जो किसी हिंदू के जीवन में घटित हो सकती हैं, उनका कानूनी पक्ष इस किताब में मिलता है। उस दौर में बहुविवाह को लेकर हिंदू पुरुष और महिलाओं के बीच अंतर था। डाॅ. गौर ने पुरुषों के लिए बहुविवाह जायज और महिलाओं के लिए गैरकानूनी माना था।
1921 में जब दिल्ली विश्वविधालय की स्थापना हुई तो डॉ. गौर इसके प्रथम कुलपति बने 1924 तक वो इस पद पर रहे। 1928 एवं 1936 में वह नागपुर विश्वविधालय के कुलपति रहे। इंग्लैंड में ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले 27 विश्वविधालयों का महाधिवेशन भी उनकी अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। लेकिन उनके मन में अपनी जन्मभूमि और समूचे बुंदेलखंड में शिक्षा की अलख जगाने की ललक थी। अतः उन्होंने अपनी निजी संपत्ति दान कर डाॅ. गौर ने सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की। इस विश्वविद्यालय के संस्थापक, उपकुलपति तो थे ही। डॉ. सर हरीसिंह गौर एक ऐसा विश्वस्तरीय अनूठा विश्वविद्यालय है, जिसकी स्थापना एक शिक्षाविद् के द्वारा दान द्वारा की गई थी। उन्होंने इसका नामकरण ‘‘सागर विश्वविद्यालय’’ इसलिए किया था क्योंकि वे इसे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की भांति शिक्षा का उच्चकेन्द्र बनाना चाहते थे। वर्ष 1983 में इसका नाम डाॅ. गौर के नाम पर ‘‘डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय’’ कर दिया गया। अब यह विश्वविद्यालय केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा पा चुका है।
चर्चित लेखक पी राजेश्वर राव ने अपनी किताब ‘द ग्रेट इंडियन पेट्रियट्स’ में डाॅ. गौर के बारे में बिलकुल सही लिखा है कि ‘‘कुछ ही लोग अपने औचित्य को साबित कर पाते हैं, कानूनविद डॉ. हरि सिंह गौर उनमें से एक थे।’’ ऐसे महान व्यक्तित्व को ‘‘भारत रत्न’’ दिलाने के लिए केवल सामयिक प्रयास और राजनीतिक बवाल की नहीं अपितु एक ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति की ज़रूरत है जो ‘‘भारत रत्न’’ घोषित कर दिए जाने पर ही शिथिल हो।
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