Wednesday, December 22, 2021

चर्चा प्लस | लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु और लैंगिक समानता | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु और लैंगिक समानता
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

देर आयद- दुरुस्त आयद! बेटियों की भलाई के बारे में सोचने में वर्षों का अंतराल लगा दिया गया। शारदा एक्ट सन् 1929 में आया जिसमें लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 14 वर्ष की गई। लगभग 49 साल बाद सन् 1978 में शारदा एक्ट में संशोधन करके लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 18 वर्ष की गई और अब 43 साल बाद 21 वर्ष की जाने वाली है। यह संशोधन लैंगिक समानता की सोच को भी सुदृढ़ बनाएगा जिसकी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक हर स्तर पर आज आवश्यकता भी है।  
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार ने लड़कियों के विवाह की न्यूनतम कानूनी आयु को 18 साल से बढ़ाकर लड़कों के बराबर 21 साल करने का फैसला किया है। केंद्रीय कैबिनेट ने लड़कों और लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र एक समान, यानी 21 साल करने के विधेयक को मंजूरी दे दी है। अब इस विधेयक को कानून का रूप देने के लिए वर्तमान कानून में संशोधन किया जाएगा। यह नया कानून लागू हुआ तो सभी धर्मों और वर्गों में लड़कियों के विवाह की न्यूनतम उम्र बदल जाएगी। वर्तमान कानूनी प्रावधान के तहत लड़कों के विवाह लिए न्यूनतम आयु 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल निर्धारित है। विवाह से जुड़ी न्यूनतम आयु एक समान करने का यह निर्णय उस समय किया गया है जब इससे एक साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि सरकार इस बारे में विचार कर रही है कि महिलाओं के लिए न्यूनतम आयु क्या होनी चाहिए। यह निर्णय समता पार्टी की पूर्व अध्यक्ष जया जेटली की अध्यक्षता वाले कार्यबल की अनुशंसा के आधार पर लिया गया है। पूरी संभावना है कि सरकार बाल विवाह (रोकथाम) अधिनियम, 2006  को संशोधित करने संबंधी विधेयक संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में ला सकती है। यह प्रस्तावित विधेयक विभिन्न समुदायों के विवाह से संबंधित पर्सनल लॉ में महत्वपूर्ण बदलाव का प्रयास कर सकता है ताकि शादी के लिए आयु एक समान सुनिश्चित की जा सके। इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट 1872, पारसी मैरिज एंड डिवोर्स एक्ट 1936, स्पेशल मैरिज एक्ट 1954, मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम, 1937, हिंदू मैरिज एक्ट 1955 और द हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट, 1956, सभी के अनुसार शादी करने के लिए लड़के की उम्र 21 साल और लड़कियों की 18 वर्ष होनी चाहिए। इसमें धर्म के हिसाब से कोई बदलाव या छूट नहीं दी गई है। फिलहाल बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 लागू है, जिसके मुताबिक 21 और 18 से पहले की शादी को बाल विवाह माना जाएगा। ऐसा करने और करवाने पर 2 साल की जेल और एक लाख तक का जुर्माना हो सकता है।
विवाह की आयु में एकरूपता लाने का विचार कोई आज ही पैदा नहीं हुआ है। वर्ष 2021 के फरवरी माह में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली और राजस्थान उच्च न्यायालयों में विवाह के लिये ‘‘समान न्यूनतम उम्र’’ घोषित करने के लंबित मामलों को अपने यहां स्थानांतरित करने की एक याचिका की जांच का फैसला किया था। भारत के मुख्य न्यायाधीश  की अगुवाई वाली एक बेंच ने ‘‘सुरक्षित लैंगिक न्याय, लैंगिक समानता और महिलाओं की गरिमा’’ के लिये दायर याचिका पर सरकार को नोटिस जारी किया। इस याचिका में विवाह की न्यूनतम आयु में विसंगतियों को दूर करने और इसको लिंग और धर्म से परे सभी नागरिकों के लिये एक समान बनाने के लिये केंद्र सरकार को निर्देश देने की मांग की गई थी। विवाह की न्यूनतम उम्र अभी तक लड़की के लिये 18 और लड़कों के लिये 21 वर्ष निर्धारित है। यह तर्क दिया गया था कि विवाह के लिये अलग-अलग उम्र मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 21) तथा महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभावों को समाप्त करने हेतु अभिसमय पर भारत की प्रतिबद्धता के विरुद्ध है।
विवाह की न्यूनतम आयु में एकरूपता लाने के पीछे यह ठोस तर्क दिया गया था कि इससे मातृ मृत्यु दर में कमी आएगी। पोषण स्तर में सुधार हो सकेगा। इससे लडत्रकियों को को उच्च शिक्षा और आर्थिक प्रगति के अधिक अवसर प्राप्त होंगे। इस प्रकार एक अधिक समतावादी समाज का निर्माण हो सकेगा। विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ने से उन लड़कियों को भी स्नातक तक पढ़ाई करने का अवसर मिल जाएगा जिनसे विवाह के आधार पर पढ़ाई छुड़ा दी जाती है। इसका सकारात्मक पहलू यह भी होगा कि स्नातक करने वाली युवतियों की संख्या में वृद्धि होगी जिससे महिला श्रम शक्ति भागीदारी के अनुपात में सुधार होगा। लड़का और लड़की दोनों आर्थिक तथा सामाजिक रूप से लाभान्वित होंगे। महिलाएं आर्थिक रूप से सशक्त होकर अपने हित में निर्णय ले सकेंगी।
नीति आयोग में जया जेटली की अध्यक्षता में साल 2020 में बने टास्क फोर्स की सिफारिश के अनुसार पहले बच्चे का जन्म देते समय उम्र 21 वर्ष होनी चाहिए। विवाह में देरी का परिवारों, महिलाओं, बच्चों और समाज के आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उल्लेखनीय है कि इस टास्कफोर्स को मातृत्व की आयु से संबंधित मामलों, मातृ मृत्यु दर को कम करने, पोषण स्तर में सुधार और संबंधित मुद्दों की जांच करने के लिए गठित किया गया था। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2020-21 के अपने बजट भाषण के दौरान टास्क फोर्स के गठन का जिक्र करते हुए कहा था, ‘‘1929 के तत्कालीन शारदा अधिनियम में संशोधन करके 1978 में महिलाओं की शादी की उम्र 15 साल से बढ़ाकर 18 साल कर दी गई थी। जैसे-जैसे भारत आगे बढ़ रहा है, महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा और कैरियर बनाने के अवसर खुल रहे हैं। मातृ मृत्यु दर को कम करने के साथ-साथ पोषण स्तर में सुधार की अनिवार्यता है। एक लड़की के मातृत्व में प्रवेश करने की उम्र के पूरे मुद्दे को इसी रोशनी में देखने की जरूरत है।’’
देखा जाए तो लड़कियों की विवाह की न्यूनतम आयु की स्थिति सदियों से असंगत रही है। सन् 1927 में न्यायाधीश और समाज सुधारक राय साहब हरबिलास शारदा ने बाल विवाह रोकने के लिए संसद में विधेयक पेश किया था जिसमें लड़कों के लिए शादी की उम्र 18 और लड़कियों के लिए 14 तय की गई। न्यूनतम आयु की कोई सीमा न होने से एक सीमा होने की दिशा में ‘शारदा एक्ट’ एक महत्वपूर्ण कदम था लेकिन यह मातृत्व की शारीरिक क्षमता की दृष्टि से अनुपयुक्त था। इसके साथ ही इसमें दण्ड का प्रावधान भी बहुत कम था। कानून तोड़ने वाले को केवल 15 दिन जेल या हजार रुपये जुर्माना या दोनों हो सकते थे। यद्यपि उस जमाने में हज़ार रुपए की कीमत आज की मौद्रिक तुलना में बहुत अधिक थी, फिर भी दोषियों के लिए यह दण्ड हल्का ही था।
देश की स्वतंत्रता के लगभग 30 वर्ष बाद लड़कियों की मातृत्व वहन करने की शारीरिक क्षमता और स्वस्थ प्रसव के आधार पर शारदा एक्ट में संशोधन किए जाने पर विचार किया जाने लगा। सन् 1978 में शारदा एक्ट में संशोधन किया गया जिसके अंतर्गत लड़कों के लिए विवाह की न्यूनतम उम्र 21 और लड़कियों के लिए 18 तय की गई। जो आज तक लागू है। अब लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 18 से बढ़ा कर 21 किए जाने के प्रस्ताव पर सोशल मीडिया की ‘टाईमपास’ किस्म के लोगों द्वारा मताधिकार की आयु का तर्क दिया जा रहा है कि जब मतदान की आयु 18 वर्ष हो सकती है तो विवाह की आयु 21 वर्ष क्यों? इसका सीधा उत्तर यही है कि सरकार चुनने में यदि गलती हो जाए तो पांच साल बाद या मध्यावधि चुनाव के द्वारा सरकार बदली जा सकती है। किन्तु अपरिपक्व मातृत्व के जोखिम में पत्नी की मृत्यु होने पर, बेरोजगारी की स्थिति में परिवार न पाल सकने पर अथवा अपरिपक्व अवस्था में जन्मे कमजोर अथवा शारीरिक दोषपूर्ण बच्चे को आप कैसे बदलेंगे? लड़कियों की विवाह की न्यूनतम आयु वैज्ञानिक एवं आर्थिक दोनों दशाओं को ध्यान में रखते हुए तय किया जाना ही सबसे अच्छा कदम होगा।
जब लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु की चर्चा की जाए तो इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि यह विषय मात्र पढ़े-लिखे शहरी तबके से जुड़ा हुआ नहीं है। यह विषय उन लोगों के लिए भी है जो आदिवासी एवं ग्रामीण अंचलों में अत्यंत सीमित स्वास्थ्य सुविधाओं साथ रहते हैं। यह विषय उन लोगों से भी जुड़ा हुआ है जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं और जिनमें साक्षरता का प्रतिशत कम है। यह विषय उन लोगों से भी जुड़ा हुआ है जो बेटी को बोझ समझते हैं और उसकी शिक्षा पर ध्यान देने के बजाए उसका जल्द से जल्दी विवाह कर के ‘‘भारमुक्त’’ हो जाना चाहते हैं। समूचे समाज को ध्यान में रख कर ही ऐसे मुद्दों पर कानूनी संशोधन किए जाते हैं और तभी ऐसे संशोधन हितकारी सिद्ध होते हैं। यूं भी हमारे देश में दण्ड के भय के बिना स्वविवेक से पूर्ण सुधार संभव ही नहीं है। ऐसे लोगों का प्रतिशत कम ही है जो बेटी की वैवाहिक आयु को ले कर व्याकुल नहीं होते हैं वरन् समाज का एक बड़ा प्रतिशत बेटी के शीघ्र विवाह की हड़बड़ी में रहता है। ऐसे लोगों पर कानूनी बंदिश ही कारगर सिद्ध हो सकती है और बेटियों को बेटों के समान अपना व्यक्ति निर्मित करने का भरपूर अवसर मिल सकेगा। शारीरिक दृष्टि (बायोलाॅजिकली) भी वह मातृत्व धारण के करने और मातृत्व की जिम्मेदारी निभाने में अधिक सक्षम हो सकेगी। वर्तमान एकल परिवार पद्धति में यह और भी अधिक जरूरी है कि लड़की अपने विवाह और मातृत्व के बारे में निर्णय लेने के लिए मानसिक रूप से भी परिपक्व अर्थात् बालिग हो चुकी रहे। भावी स्वस्थ समाज की संरचना की दिशा में लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाया जाना लाभप्रद ही रहेगा, साथ ही लैंगिक समानता की भावना का भी विकास करने में भी सहायक होगा।
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