चर्चा प्लस
मुख्यमंत्री की पहल ने महामना की याद दिला दी
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने आह्वान किया है ‘दस्तयाब’ जैसे मुगलकालीन शब्दों को बदला जाना चाहिए। मुख्यमंत्री की इस पहल ने पंडित मदन मोहन मालवीय के प्रयासों की याद दिला दी। न्यायालय की कार्यवाही में तथा पुलिसिया लिखा-पढ़ी में आम हिन्दी का प्रयोग किया जाना चाहिए, यह विचार एक छोटी-सी घटना से प्रभावित हो कर महामना पं. मदन मोहन मालवीय के मन में आया था। लेकिन आज भी ‘मुखबिर’, ‘इत्तिला’, ‘हिकमतअमली’, ‘तफ्तीश’, ‘मसरूका’, ‘गुम इंसान’ ‘दस्तयाब’ ‘खात्मा’ जैसे शब्द लकीर के फ़कीर की तरह काम में लाए जा रहे हैं, जो आमजन की समझ से परे हैं।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विगत दिनों कलेक्टर-कमिश्नर कान्फ्रेंस में जिस ‘दस्तयाब’ शब्द को मुगलकालीन बताते हुए सरल शब्दों का उपयोग करने की सलाह दी। यह सलाह महत्वपूर्ण है क्यों कि ऐसे ही उर्दू, अरबी और फारसी के लगभग 350 शब्द पुलिस की रोजमर्रा की कार्रवाई में अभी भी चल रहे हैं और जिनका अर्थ आमजन की समझ से परे है। ‘मुखबिर’, ‘इत्तिला’, ‘हिकमतअमली’, ‘तफ्तीश’, ‘मसरूका’, ‘गुम इंसान’ ‘दस्तयाब’ ‘खात्मा’ जैसे शब्द लकीर के फ़कीर की तरह काम में लाए जा रहे हैं। दिल्ली, राजस्थान और उत्तरप्रदेश में ऐसे कई शब्दों को बदला जा चुका है लेकिन मध्यप्रदेश में यह पहला अवसर था, जब मुख्यमंत्री ने इन शब्दों को बदलने के निर्देश दिए। उल्लेखनीय है कि भारतीय दंड संहिता को ‘‘ताजिरात-ए-हिंद’’ के नाम से ही जाना जाता है। इसमें तमाम अपराध और उनके दंड के प्रावधानों का विवरण है।
यह मानना पड़ेगा कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री व्यावहारिक सुधारों पर हमेशा ध्यान देते हैं। मुख्यमंत्री की इस पहल ने पंडित मदन मोहन मालवीय के प्रयासों की याद दिला दी। न्यायालय की कार्यवाही में तथा लिखा-पढ़ी में हिन्दी का प्रयोग किया जाना चाहिए, यह विचार एक छोटी-सी घटना से प्रभावित हो कर महामना पं. मदन मोहन मालवीय के मन में आया। हुआ यह कि पंडित मदन मोहन मालवीय के पास एक सामान्य पढ़ा-लिखा आदमी न्यायालयीन काग़ज़ ले कर पहुंचा। उसे कोर्ट से नोटिस मिला था किन्तु वह अरबी, फरसी मिश्रित ठेठ उर्दू में होने के कारण उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि नोटिस के जरिए कोर्ट उससे क्या चाहती है। महमना मालवीय ने उस आदमी को नोटिस का सार समझा दिया। लेकिन इसी के साथ महामना को लगा कि न्यायालय में खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग किया जाना चाहिए ताकि आमजन उसे समझ सके। पंडित मदन मोहन मालवीय को हिन्दी का उन्नायक माना जाता है। महामना के प्रयास के पहले परतंत्र भारत में कोई भी सरकारी पत्र हिन्दी में नहीं लिखा जाता था। पत्र सिर्फ अंग्रेजी में ही स्वीकार होते और उन पर कार्रवाई होती। महामना ने 15 अप्रैल, सन् 1919 में इलाहाबाद के न्यायालय में हिन्दी को कार्यालयीन एवं न्यायालयिक भाषा बनाने के लिए जमकर बहस की। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दी को न्यायालय की भाषा बनवाने के लिए संघर्ष किया।
दरअसल, देश में हिंदी भाषा को प्राथमिकता की पहल महामना मदन मोहन मालवीय ने की थी। मदन मोहन मालवीय ने वकालत के दौरान जब अंग्रेजी, पारसी और उर्दू भाषा का प्रयोग न्यायालय में देखा तो वे समझ गये की हिंदी भाषा का प्रयोग न्यायालय में करना जरूरी है। अंग्रेजों के शासनकाल में न्यायालय के भाषा के तौर पर सन 1900 में हिंदी को जगह दी गई। महामना मदनमोहन मालवीय जी के प्रयासों से ये संभव हुआ। इसके लिए महामना ने 60 हजार लोगों के हस्ताक्षर वाला एक प्रतिवेदन उस समय के गवर्नर जरनल को सौंपा था। जिसके बाद हिंदी को न्यायालय के भाषा के तौर पर शामिल किया गया।
मदनमोहन मालवीय ने हमेशा वकालत नहीं की लेकिन वे एक उच्चकोटि के वकील थे। वकालत के क्षेत्र में मदनमोहन मालवीय की सबसे बड़ी सफलता चैरी-चैरा कांड के अभियुक्तों को फांसी से बचा लेने की थी। फरवरी 1922 में गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा नाम के स्थान में एक सनसनीपूर्ण घटना घटी। जनता ने पुलिस थाना जला दिया। मुकदमा चलने पर सेशन जज ने सभी अभियुक्तों को फांसी की सजा दे दी। जब मामला हाईकोर्ट में गया तो पैरवी के लिए मालवीय जी को बुलाया गया। मालवीय जी ने इतनी अच्छी बहस की और सबके सब अभियुक्तों को साफ बचा लिया। चौरी-चौरा जनप्रतिरोध ने अंग्रेजों के होश उड़ा दिए थे। 1857 के स्वतंत्रता संघर्ष के बाद यह पहला मौका था, जब सरकारी तंत्र के खिलाफ किसान इतना मुखर हुए। मात्र तीन साल पहले जलियांवाला बाग में निर्दोषों को गोलियों से भूनने की घटना लोगों की स्मृतियों में थी और अंग्रेजी सरकार का बर्बरता बार-बार याद दिला रही थी। इतिहासकारों का मानना हैैं कि चौरी-चौरा की घटना अंग्रेजी सरकार के लिए अप्रत्याशित थी। वह भारतीय के मन में इस बात का डर बनाए रखना चाहती थी कि किसी भी विद्रोह पर वह क्रूर शासनकर्ता ही है, इसलिए घटना की विवेचना पक्षपात पूर्ण तरीके से की गई। 225 लोगों को अभियुक्त बनाया गया। 172 लोगों को मृत्युदंड दे दिया। जागीरदारों से जुड़े लोगों को शक का लाभ देकर छोड़ दिया गया। किसानों की मर्सी अपील भी खारिज कर दी गई।
सेशन कोर्ट के फैसले के विरुद्ध महामना पं. मदनमोहन मालवीय ने हाईकोर्ट में अपील की। इस पूरे मामले की कुल छह सुनवाई हुई। 24 मार्च 1922 को जब फैसला आया तो सेशन कोर्ट द्वारा 172 लोगों की फांसी का फैसला हाईकोर्ट को बदलना पड़ा। हाईकोर्ट ने 19 सेनानियों को फांसी, 14 को आजीवन कारावास, 19 को 8 साल, 57 को पांच साल और बीस को तीन-तीन साल की सजा दी। दो सेनानियों की मौत ट्रायल के दौरान हो गई थी। सेशन कोर्ट ने 172 को सुनाई थी फांसी, 151 को बचा लिया। बाबा राघवदास ने इस मुकदमे के लिए चंदा इकट्ठा किया था ताकि वकालत से जुड़े खर्च को वहन किया जा सके। सब कुछ खो चुके किसानों पर बोझ न पड़े। महामना निःशुल्क मुकदमा लड़े और 151 को फांसी से बचा लिया।
दरअसल मुगलकालीन भाषा और शब्दावली का सबसे ज्यादा उपयोग इस समय पुलिस में भी हो रहा है। शुरुआत रोजनामचे से होती है। रोजनामचा एक रजिस्टर होता है, जिसमें पुलिसकर्मियों की दैनिक गतिविधियों के साथ ही अपराधों का जिक्र भी रहता है। किसी थाना क्षेत्र में जब कोई अपराध होता है तब उस घटनास्थल पर पहुंच कर अनुसंधान अधिकारी उस अपराध के संबंध में तथ्यों को जिस प्रथम पत्र में दर्ज करते हैं, उसे ‘‘देहाती नालसी’’ कहते है। दंड प्रक्रिया सहिंता 1973 की धारा 154 के तहत एफआईआर दर्ज की जाती है। अंत में धारा 173 के अंतर्गत चालान अंतिम प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जाता है। चालान जब पेश किया जाता है जब पुलिस को प्रकरण में अपराध के होने के संबंध में साक्ष्य उपलब्ध होते है पर यदि साक्ष्य नहीं होते है तब पुलिस दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 169 के अंतर्गत ‘‘खात्मा’’ पेश करती है।
जब चालान की फाइनल रिपोर्ट में साबित होता है कि रिपोर्ट झूठी है, तो उसे रद्द करने के लिए जो पत्र लगाया जाता है उसे ‘‘खारिजी’’ कहते है। जब भी पुलिस कार्रवाई के लिए जाती है, तो उसकी रवानगी डालने की जो सूचना लिखी जाती है उसे‘‘हवाले साना’’ कहते हैं। इसीतरह माल जप्त होने को ‘‘माल वाजयाफ्ता’’ कहा जाता है।
बंधपत्र को ‘‘मुचलका’’ कहते हैं यह केवल घोषणा भी हो सकता है या प्रतिभूति सहित भी हो सकता है। नोटिस पत्र को परवाना, प्रतिभूति को जमानत, विचाराधीन कारावास में या अभिरक्षा में रखे जाने को हवालाती कहते हैं। विचाराधीन कारावास में या अभिरक्षा में रखा जाने वाला व्यक्ति हवालाती कहलाती है। पुलिस की किसी भी लिखित कार्रवाई को तहरीर कहा जाता है। वह व्यक्ति, जिस पर कोई आरोप लगा हो और उस पर अभियोजन किया गया हो तो उसे मुल्जिम कहते हैं जबकि आरोपी को दोषसिद्ध घोषित कर दिया जाता है, तब वह ‘‘मुल्जिम’’ से ‘‘मुजरिम’’ हो जाता है। परिवाद पत्र को ‘‘इस्तगासा’’ कहा जाता है। किसी भी सूचना की जांच-पड़ताल को ‘‘तफ्तीश’’ तथा गुम हुई वस्तु का मिल जाना ‘‘दस्तयाब’’ होना कहा जाता है। किसी भी सूचना की जांच-पड़ताल को ‘‘तफ्तीश’’ कहा जाता है। लूटा गया माल ‘‘माल मसरुका’ तथा डकैती में लूटा माल "मसरुका" कहलाता है।
ऐसी कठिन शब्दावली को बदल कर आम बोलचाल की हिन्दी को न्यायालय की भाषा बनाए की आवश्यकता को जिस प्रकार पं. मदन मोहन मालवीय ने समझा और पहल की उसी प्रकार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कानूनी मामलों में वह चाहे पुलिस हो या न्यायालय हो भाषाई सुधार लाने के लिए पहल की है जो कि स्वागत योग्य है।
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