प्रस्तुत है आज 14.12. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई संपादक महावीर अग्रवाल द्वारा संपादित पुस्तक "सापेक्ष 60" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
कृष्णा सोबती के कृतित्व पर केन्द्रित एक अनूठी पुस्तक ‘‘सापेक्ष 60’’
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - सापेक्ष 60 (कृष्णा सोबती के कृतित्व पर केन्द्रित)
संपादक - महावीर अग्रवाल
प्रकाशक - सापेक्ष, ए-14, आदर्श नगर, दुर्ग (छ.ग.)
मूल्य - 200/-
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‘‘सापेक्ष 60’’ एक पुस्तक के रूप में जब मुझे डाक से मिली तो मैं यह देख कर अवाक् रह गई कि हार्डबाउन्ड पुस्तक, सुंदर छपाई, पृष्ठ संख्या 472 और मूल्य मात्र 200 रुपये। क्या आज के समय में यह संभव है? मेरे हाथों में इसका प्रमाण था ‘‘सापेक्ष 60’’ के रूप में। वस्तुतः यह ‘‘सापेक्ष’’ पत्रिका का 59 और 60 संयुक्तांक है किन्तु एक हार्डबाउन्ड पुस्तक के रूप में प्रकाशित है। इतनी मोटी पुस्तक का मूल्य 600 रुपये से अधिक ही होता। उस पर इस पुस्तक में संग्रहीत सामग्री की मूल्यवत्ता देखें तो इसकी कीमत हज़ारों में जाएगी। किन्तु यह संपादक महावीर अग्रवाल का ही साहस है जो उन्होंने पत्रिका के उस संयुक्तांक को जो हिन्दी की प्रतिष्ठित लेखिका कृष्णा सोबती पर केन्द्रित है, एक हार्डबाउन्ड पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। इस तरह के उदाहरण धार्मिक पत्रिकाओं के महत्वपूर्ण अंकों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने के सिलसिले में ही मिलते हैं। कम से कम हिन्दी साहित्य जगत में यह अपने आप में एक अनूठी पुस्तक है। बेशक़ इसे प्रकाशित करने के लिए रज़ा फाउन्डेशन से आर्थिक अनुदान प्राप्त हुआ है किन्तु अनुदान ले कर भी कोई संपादक इस प्रकार का साहस नहीं कर पाता है। यह सचमुच प्रशंसनीय कार्य है।
रज़ा फाउन्डेशन के संबंध में यहां उल्लेखनीय है कि हिंदी के प्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी कृष्णा सोबती के सबसे निकट एवं विश्वसनीय रहे हैं। इसी मित्रता के आधार पर कृष्णा सोबती ने अपने और अपने पति शिवनाथ के जीवन की सारी जमा पंूजी जो एक करोड़ रुपए थी और दिल्ली के मयूरविहार इलाके में स्थित उनका फ्लैट रजा फाउंडेशन के नाम करते हुए अशोक वाजपेयी को सौंप दिया था। कृष्णा सोबती की अभिलाषा थी कि रज़ा फाउंडेशन इस पैसे और संपत्ति का उपयोग भारतीय लेखकों और सृजनात्मक कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए करे। अपने एक साक्षात्कार में अशोक वाजपेयी ने यह स्पष्ट शब्दों में कहा था कि- ‘‘ ऐसा कोई दूसरा भारतीय लेखक नहीं, जिसने इतनी दरियादिली से दूसरे लेखकों और उनके सृजन के लिए पैसे दिए हों।’’
महावीर अग्रवाल ने कृष्णा सोबती के कृतित्व पर केन्द्रित ‘‘सापेक्ष 60’’ को पुस्तक के रूप में प्रकाशित कर कृष्णा सोबती की अभिलाषा को भी पूरा किया है क्योंकि इतने कम मूल्य में उन पर केन्द्रित समग्र सामग्री किसी भी शोधार्थी अथवा कृष्णा सोबती के कृतित्व के प्रति जिज्ञासा रखने वाले व्यक्ति की ज़ेब पर कतई भारी नहीं पड़ेगी।
कृष्णा सोबती हिन्दी की लेखिकाओं में वह क्रांतिकारी नाम है जिसने खुल कर, साहस के साथ कलम चलाई और वे कभी डरी या घबराई नहीं। वे अपने लेखन के साथ समाज के कट्टरपंथियों के सामने डट कर खड़ी रहीं। कृष्णा सोबती का जन्म पंजाब प्रांत के गुजरात नामक उस हिस्से में 18 फरवरी 1925 को हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। उन्होंने आरम्भ में लाहौर के फतेहचंद कॉलेज से अपनी उच्च शिक्षा की शुरुआत की थी, परंतु जब भारत का विभाजन हुआ तो उनका परिवार भारत लौट आया। कृष्णा सोबती की शिक्षा दिल्ली और शिमला में हुई।
कृष्णा सोबती को अपने कथापात्रों के मनोविज्ञान को अपने उपन्यासों और कहानियों में उतारने में महारत हासिल थी। उनके सभी पात्र प्रखर होते थे। विशेषरूप से उनकी कहानियों के स्त्री पात्र अपने अस्तित्व के लिए आवाज़ बुलंद करने वाले होते थे, जिसके कारण वे कई बार विवादों में भी रहीं। उन्होंने जिंदगीनामा, डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, यारों के यार, तिन पहाड़, समय सरगम, जैनी मेहरबान सिंह, गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान, ऐ लड़की, दिल-ओ-दानिश और चन्ना जैसे उपन्यास लिखें।
लेखन में निर्भीकता, खुलापन और भाषागत प्रयोगशीलता ये तीन विशेषताएं कृष्णा सोबती को अपने समकालीन लेखिकाओं से अलग करती हैं। सामाजिक बंदिशों के समय में अपने स्त्री समाज के प्रति मुखर होना उनके आंतरिक साहस को रेखांकित करता है। सन् 1950 में कहानी ‘‘लामा’’ से अपनी साहित्यिक यात्रा आरंभ करने वाली कृष्ण सोबती स्त्री की स्वतंत्रता और न्याय की पक्षधर थीं। उन्होंने समय और समाज को केंद्र में रखकर अपनी रचनाओं में एक युग को गढ़ा। अपने लेखन के बारे में उनका कहना है कि ‘‘मैं बहुत नहीं लिख पाती हूं। मैं तब तक कलम नहीं चला पाती हूं, जब तक अंदर की कुलबुलाहट और उसे अभिव्यक्त करने का दबाव इतना अधिक न बढ़ जाए कि मैं लिखे बिना न रह सकूं।’’
उन पर यह आक्षेप लगाया जाता रहा है कि एक स्त्री होने के बाबजूद ‘‘यारों के यार’’ और ‘‘मित्रों मरजानी’’ में उन्होंने उन्मुक्त भाषा (बोल्ड) का प्रयोग किया जबकि वे भली-भांति जानती थीं कि उन पर ‘‘अश्लील लेखन’’ के आरोप लगेंगे। अपने एक विदेशी रेडियो साक्षात्कार में उन्होंने ‘‘अश्लील लेखन’’ के आरोप पर खुल कर अपने विचार रखे थे। उन्होंने कहा था कि - ‘‘भाषिक रचनात्मकता को हम मात्र बोल्ड के दृष्टिकोण से देखेंगे तो लेखक और भाषा दोनों के साथ अन्याय करेंगे। भाषा लेखक के बाहर और अंदर को एकसम करती है। उसकी अंतरदृष्टि और समाज के शोर को एक लय में गूंथती है। उसका ताना-बाना मात्र शब्द कोशी भाषा के बल पर ही नहीं होता। जब लेखक अपने कथ्य के अनुरूप उसे रुपांतरित करता है तो कुछ ‘नया’ घटित होता है। मेरी हर कृति के साथ भाषा बदलती है। मैं नहीं, वह पात्र है जो रचना में अपना दबाव बनाए रहते हैं। ‘ज़िन्दगीनामा’ की भाषा खेतिहर समाज से उभरी है। ‘दिलोदानिश’ की भाषा राजधानी के पुराने शहर से है, नई दिल्ली से नहीं। उसमें उर्दू का शहरातीपन है। ‘ऐ लड़की’ में भाषा का मुखड़ा कुछ और ही है। उसकी गहराई की ओर संकेत कर रही हूं।’’
कृष्णा सोबती को सन 1980 में जिंदगीनामा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन 1981 में शिरोमणि पुरस्कार के अतिरिक्त मैथिली शरण गुप्त सम्मान से सम्मानित किया गया। सन 1982 में कृष्णा सोबती को हिंदी अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। सन 1996 में कृष्णा सोबती को साहित्य अकादमी फेलोशिप से पुरस्कृत किया गया। सन 1999 में, लाइफटाइम लिटरेरी अचीवमेंट अवार्ड के साथ कृष्णा सोबती प्रथम महिला बनीं जिन्हें कथा चूड़ामणि अवार्ड से नवाजा गया। सन 2008 में हिंदी अकादमी दिल्ली का ‘शलाका अवार्ड’ भी उनको मिला तथा सन 2017 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
एक दिलचस्प बात जिसके बारे में उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में बताया था कि उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ सन् 1952 में लिख कर प्रकाशक के पास भेजा किन्तु प्रकाशक ने उसकी भाषा पर आपत्ति करते हुए उसमें परिवर्तन करने को कहा। कृष्णा सोबती को यह स्वीकार्य नहीं हुआ और उन्होंने उसे प्रकाशक से वापस ले लिया। अंततः वह उपन्यास सन् 1979 में प्रकाशित हुआ और उस पर उन्हें 1980 साहित्य अकादमी अवार्ड दिया गया। यद्यपि कुछ दशक बाद उन्होंने असहिष्णुता के मुद्दे पर साहित्य अकादमी अवार्ड सहित हिंदी अकादमी का ‘शलाका सम्मान’ और ‘व्यास सम्मान’ भी लौटा दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने ‘पद्मभूषण’ लेने से भी मना कर दिया था। ऐसी दृढ़ और जीवट लेखिका के बारे जानने की जिज्ञासा हर साहित्यकार के मन में होना स्वाभाविक है। इस दृष्टि से ‘‘सापेक्ष 60’’ को महत्वपूर्ण कहा जा सकता है।
‘‘सापेक्ष 60’’ में कृष्णा सोबती के कृतित्व पर आधारित समस्त सामग्री को कुल 17 अध्यायों में रखा गया है। इन अध्यायों के पूर्व कृष्णा सोबती के वे हस्तलिखित पत्र हैं जो उन्होंने महावीर अग्रवाल को लिखे थे। ‘‘सापेक्ष 60’’ के पहले अध्याय में ‘‘दांपत्य की जुगलबंदी’’ शीर्षक से चार साक्षात्कार है - पहला साक्षात्कार है ‘‘कृष्णा सोबती और शिवनाथ ढाई आखर का घरौंदा है दांपत्य’’। कृष्णा सोबती के जीवन और साहित्य पर चर्चा है साधना जैन और कांति कुमार जैन की ‘‘किस्सागोई के अनूठे पन में लिपटी संवेदना’’। सुमन सेठी और अनूप सेठी ने चर्चा की है ‘‘चन्ना’’ पर- ‘‘पहला और अंतिम उपन्यास चन्ना’’। संतोष अग्रवाल और महावीर अग्रवाल ने चर्चा की है कृष्णा सोबती के व्यक्तित्व पर -‘‘आत्मीय बोध की गर्माहट से भरी कृष्णा जी’’। दूसरा अध्याय है ‘‘बुद्ध का कमंडल’’। इस अध्याय में राजन शर्मा, मैनेजर पांडे, निरंजन देव शर्मा के लेखों के साथ ही एक संपादकीय भी है, जिसका शीर्षक है- ‘‘खरगोश के दिल में शेरनी’’। तीसरा अध्याय है-‘‘संस्कार से संवेदना’’। इस अध्याय में कृष्णा सोबती के कृतित्व एवं व्यक्तित्व का आकलन करते पांच लेख दिए गए हैं। इसके बाद ‘‘धरोहर’’ के अंतर्गत पांच महत्वपूर्ण साहित्य पुरोधाओं के लेख है। जो हैं त्रिलोचन शास्त्री, देवेंद्र सत्यार्थी, कमलेश्वर, सत्येन कुमार और नामवर सिंह।
‘‘मनीषियों की दृष्टि में कृष्णा सोबती’’ इस शीर्षक के अंतर्गत अशोक बाजपेयी, निर्मल वर्मा, प्रयाग शुक्ल, गिरधर राठी, सुधीश पचौरी, नंदकिशोर नवल, रघुवीर सहाय, बच्चन सिंह, विजय मोहन सिंह, विजयेंद्र स्नातक, गोपाल राय, बीबा सोबती, कुंवर नारायण, अनामिका तथा ओम थानवी के विचार है।
‘‘हम हशमत के सिलसिले में’’ इस शीर्षक के अंतर्गत ‘‘हम हशमत’’ पर केंद्रित उमाशंकर जोशी, बसंत त्रिपाठी, सर्वमित्रा सुरजन तथा साधना अग्रवाल के लेख हैं। ‘‘तूलिका और रंगमंच’’ अध्याय में नामवर सिंह का लेख ‘‘पुरुष प्रधान रूढ़ियों को तोड़ती मित्रो’’, देवेंद्र राज अंकुर का लेख ‘‘यादगार प्रस्तुति में रची बसी पाशो’’ तथा ‘‘कृष्णा सोबती पुनर्सृजन का उत्सव’’ लेख रखे गए हैं।
‘‘कवित्त’’ अध्याय में कृष्णा सोबती पर केंद्रित कविताएं हैं। ‘‘स्मृतियों का अंतरिक्ष’’ इस अध्याय में अनिता सभरवाल, रचना यादव, निर्मला जैन और रवींद्र कालिया के कृष्णा सोबती से संबंधित संस्मरण रखे गए हैं। ‘‘साहित्य संस्कृति’’ अध्याय में रमेश नैयर तथा ललित सुरजन के लेख हैं। कृष्णा सोबती के उपन्यासों को पढ़ते हुए जो विचार मन में आए उन पर आधारित कमल कुमार और मृदुला गर्ग के लेख हंै। ‘‘कहानी और कहानी’’ अध्याय में विनोद शाही, धनंजय वर्मा, मधुरेश के लेखों के जरिए कृष्णा सोबती की कहानी कला पर समुचित सामग्री उपलब्ध है। इसमें ‘‘आख्यान और गल्प की कहानी’’ तथा ‘‘आल्हादित करता है कहानी का शंखनाद’’ ये दो लेख भी मौजूद हैं। एक अध्याय है ‘‘अधूरी बातचीत’’ जो कृष्णा सोबती से महावीर अग्रवाल का साक्षात्कार है।
‘‘जिंदगीनामा’’ और ‘‘यारों के यार’’ इन दो कृतियों पर दो महत्वपूर्ण लेखकों के लेख हैं। जिनमें से एक लेख है प्रदीप कुमार का ‘‘जिंदगी के किस्सों का दस्तावेज कृष्णा सोबती’’ और दूसरा लेख है डॉ. विमल लोदवाल का ‘‘कृष्णा सोबती कृत यारों के यार उपन्यास में शासकीय कार्मिकों की मानसिकता’’।
कृष्णा सोबती के उपन्यासों ‘‘समय सरगम’’, ‘‘जैनी मेहरबान सिंह’’ और ‘‘सूरजमुखी अंधेरे के’’ पर तीन महत्वपूर्ण लेख हैं। पहला लेख है रमेश दवे का ‘कृष्णा सोबती सूफियाना रागत्व की कथाकार’’। दूसरा लेख है डॉ शरद सिंह का (यानी मेरा) ‘‘समाज में वृद्धों की दशा को खंगालता समय सरगम’’। तीसरा लेख है डॉ. संध्या प्रेम का ‘‘सूरजमुखी अंधेरे के एक पुनर्पाठ’’।
अध्याय ‘‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’’ के अंतर्गत देश के विभाजन के समय विस्थापन पर सियाराम शर्मा के लेख के साथ ही स्वयं कृष्णा सोबती के आत्मकथात्मक दो लेख शामिल किए गए हैं जिनमें पहला लेख है ‘‘मेरा सामाजिक व राजनैतिक वक्तव्य’’ तथा दूसरा लेख है ‘‘इंद्रधनुषी रंगों-सा मोहक जीवन। पुस्तक के अंतिम अध्याय में ‘‘परिशिष्ट’’ के रूप में कृष्णा सोबती से तीन दशक की बातचीत दी गई है। साथ ही इस पुस्तक में संग्रहीत लेखों के लेखकों एवं चर्चाओं के चर्चाकारों के नाम और पते दिए गए हैं। साथ ही ‘‘सापेक्ष’’ एवं ‘‘कथायन’’ के उपलब्ध विशेष अंकों की जानकारी भी दी गई है।
कुल मिलाकर ‘‘सापेक्ष 60’’ एक महत्वपूर्ण पुस्तक बन गई है जो कृष्णा सोबती के रचना कर्म को समग्रता से प्रस्तुत करती है। यह एक संग्रहणीय पुस्तक है।
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कृष्णा सोबती की रचनाओं पर आधारित पुस्तक की सार्थक व सुंदर समीक्षा
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