Sunday, June 26, 2016

पृथक-बुंदेलखण्ड आंदोलन में स्त्री कहां? ... शरद सिंह..-.. आउटलुक (04 July 2016)

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Out Look - 04 July 2016 - Dr Miss Sharad Singh

"आउटलुक" (04 July 2016) में प्रकाशित मेरा लेख - "पृथक-बुंदेलखण्ड आंदोलन में स्त्री कहां?" - शरद सिंह


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Where Woman Is In Separate-Bundelkand Movement ?" my article published in "Outlook" (04 July 2016) - Sharad Singh


लेख
पृथक-बुंदेलखण्ड आंदोलन में स्त्री कहां?

- शरद सिंह    

बुंदेलखण्ड के विकास के लिए उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में वर्षों से पैकेज आवंटित किए जा रहे हैं जिनके द्वारा विकास कार्य होते रहते हैं किन्तु विकास के सरकारी आंकड़ों से परे भी कई ऐसे कड़वे सच हैं जिनकी ओर देख कर भी अनदेखा रह जाता है। जहां तक कृषि का प्रश्न है तो औसत से कम बरसात के कारण प्रत्येक दो-तीन वर्ष बाद बुंदेलखंड सूखे की चपेट में आ जाता है। कभी खरीफ तो कभी रबी अथवा कभी दोनों फसलें बरबाद हो जाती हैं। जिससे घबरा कर कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या जैसा पलायनवादी कदम उठाने लगते हैं। इन सबके बीच स्त्रियों की दर और दशा पर ध्यान कम ही दिया जाता है। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में फैला बुंदेलखंड आज भी जल, जमीन और सम्मानजनक जीवन के लिए संघर्षरत है। यहां महिलाओं की दुखगाथाएं एक अलग ही तस्वीर दिखाती हैं। क्या इन सबके लिए सिर्फ सरकारें ही जिम्मेदार हैं अथवा बुंदेलखण्ड के नागरिक भी अपने दायित्वों के प्रति कहीं न कहीं लापरवाह हैं? यह एक अहम् प्रश्न है। 
Out Look - 04 July 2016 ... Prithak Bundelkhand Andolan me Stri kahan - Dr Miss Sharad Singh
पृथक बुंदेलखण्ड राज्य की मांग करने वालों का यह मानना है कि यदि बुंदेलखण्ड स्वतंत्र राज्य का दर्जा पा जाए तो विकास की गति तेज हो सकती है। यह आंदोलन राख में दबी चिंनगारी के समान यदाकदा सुलगने लगता है। बुंदेलखंड राज्य की लड़ाई तेज करने के इरादे से 17 सितंबर 1989 को शंकर लाल मेहरोत्रा के नेतृत्व में बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया गया था। आंदोलन सर्व प्रथम चर्चा में तब आया जब मोर्चा के आह्वान पर कार्यकर्ताओं ने पूरे बुंदेलखंड में टीवी प्रसारण बंद करने का आंदोलन किया। यह आंदोलन काफी सफल हुआ था। इस आंदोलन में पूरे बुंदेलखंड में मोर्चा कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां हुईं। आंदोलन ने गति पकड़ी और मोर्चा कार्यकर्ताओं ने वर्ष 1994 में मध्यप्रदेश विधानसभा में पृथक राज्य मांग के समर्थन में पर्चे फेंके। कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ा और वर्ष 1995 में उन्होंने शंकर लाल मेहरोत्रा के नेतृत्व में संसद भवन में पर्चे फेंक कर नारेबाजी की। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के निर्देश पर स्व. मेहरोत्रा व हरिमोहन विश्वकर्मा सहित नौ लोगों को रात भर संसद भवन में कैद करके रखा गया। विपक्ष के नेता अटल विहारी वाजपेई ने मोर्चा कार्यकर्ताओं को मुक्त कराया। वर्ष 1995 में संसद का घेराव करने के बाद हजारों लोगों ने जंतर मंतर पर क्रमिक अनशन शुरू किया, जिसे उमा भारती के आश्वासन के बाद समाप्त किया गया। वर्ष 1998 में वह दौर आया जब बुंदेलखंडी पृथक राज्य आंदोलन के लिए सड़कों पर उतर आए। आंदोलन उग्र हो चुका था। बुंदेलखंड के सभी जिलों में धरना-प्रदर्शन, चक्का जाम, रेल रोको आंदोलन आदि चल रहे थे। इसी बीच कुछ उपद्रवी तत्वों ने बरुआसागर के निकट 30 जून 1998 को बस में आग लगा दी थी, जिसमें जन हानि हुई थी। इस घटना ने बुंदेलखंड राज्य आंदोलन को ग्रहण लगा दिया था। मोर्चा प्रमुख शंकर लाल मेहरोत्रा सहित नौ लोगों को रासुका के तहत गिरफ्तार किया गया। जेल में रहने के कारण उनका स्वास्थ्य काफी गिर गया और बीमारी के कारण वर्ष 2001 में उनका निधन हो गया।  पृथक्करण की मांग ले कर राजा बुंदेला भी सामने आए। आज भी पृथक बुंदेलखण्ड की मांग सुगबुगाती रहती है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि बुंदेलखण्ड ने अपनी स्वतंत्रता एवं अस्मिता के लिए लम्बा संघर्ष किया है और इस संघर्ष के बदले बहुत कुछ खोया है। अंग्रेजों के समय में हुए बुंदेला संघर्ष एवं स्वतंत्रता आंदोलन के कारण इस भू-भाग को विकास के मार्ग से बहुत दूर रखा गया। यहां उतना ही विकास कार्य किया गया जितना  अंग्रेज प्रशासकों अपनी सैन्य सुविधाओं के लिए आवश्यक लगा। जब कोई क्षेत्र विकास की दृष्टि से पिछड़ा रह जाता है तो उसका सबसे बुरा असर पड़ता है वहां की स्त्रियों के जीवन पर। अतातायी आक्रमणकारी आए तो स्त्रियों को पर्दे और सती होने का रास्ता पकड़ा दिया गया। उसे घर की दीवारों के भीतर सुरक्षा के नाम पर कैद रखते हुए शिक्षा से वंचित कर दिया गया। यह बुंदेलखण्ड की स्त्रियों के जीवन का सच है। मानो अशिक्षा का अभिशाप पर्याप्त नहीं था जो उसके साथ दहेज की विपदा भी जोड़ दी गई। नतीजा यह हुआ कि बेटी के जन्म को ही पारिवारिक कष्ट का कारण माना जाने लगा। अशिक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों की बालिकाएं अपने छोटे भाई-बहनों को सम्हालने और अर्थोपार्जन के छोटे-मोटे तरीकों में गुज़ार देती हैं। इन्हें शिक्षित किए जाने के संबंध में इनके माता-पिता में रुझान रहता ही नहीं है। लड़की को पढ़ा कर क्या करना है?’ जैसा विचार इस निम्न आर्थिक वर्ग पर भी प्रभावी रहता है। छोटी आयु में घर-गृहस्थी में जुट जाने के बाद शिक्षित होने का अवसर ही नहीं रहता है।
यह एक स्याह सच है कि बुंदेलखण्ड में पिछले दशकों में पुरुषांे की अपेक्षा स्त्रियों का अनुपात तेजी से घटा। इसके लिए जिम्मेदार है वह परम्परागत सोच कि बेटे से वंश चलता है या फिर बेटी पैदा होगी तो उसके लिए दहेज जुटाना पड़ेगा। नतीजा यह कि बुंदेलखण्ड में भी लड़कियों की कमी होने लगी है। अन्य प्रदेशों की भांति यहां भी ओडीसा तथा अन्य प्रदेशों के आदिवासी अंचलों से लड़कियांे को ब्याह कर लाया जा रहा है। आमतौर पर यह विवाह सामान्य विवाह नहीं है। ये अत्यंत ग़रीब घर की लड़कियां होती हैं जिनके घर में दो-दो, तीन-तीन दिन चूल्हा नहीं जलता है, ये उन घरों की लड़कियां हैं जिनके मां-बाप के पास इतनी सामर्थ नहीं है कि वे अपनी बेटी का विवाह कर सकें, ये उन परिवारों की लड़कियां हैं जहंा उनके परिवारजन उनसे न केवल छुटकारा पाना चाहते हैं वरन् छुटकारा पाने के साथ ही आर्थिक लाभ कमाना चाहते हैं। ये ग़रीब लड़कियां कहीं संतान प्राप्ति के उद्देश्य से लाई जा रही हैं तो कहीं मुफ़्त की नौकरानी पाने की लालच में खरीदी जा रही हैं। इनके खरीददारों पर उंगली उठाना कठिन है क्योंकि वे इन लड़कियों को ब्याह कर ला रहे हैं। इस मसले पर चर्चा करने पर अकसर यही सुनने को मिलता है कि क्षेत्र में पुरुष और स्त्रियों का अनुपात बिगड़ गया है। लड़कों के विवाह के लिए लड़कियों की कमी हो गई है। माना कि यह सच है कि सोनोग्राफी पर कानूनी शिकंजा कसे जाने के पूर्व कुछ वर्ष पहले तक कन्या भ्रूणों की हत्या की दर ने लड़कियों का प्रतिशत घटाया है लेकिन मात्र यही कारण नहीं है जिससे विवश हो कर सुदूर ग्रामीण एवं आदिवासी अंचलों की अत्यंत विपन्न लड़कियों के साथ विवाह किया जा रहा हो। यह कोई सामाजिक आदर्श का मामला भी नहीं है। वस्तुतः जब बेटियां ही नहीं होंगी तो बेटों के लिए बहुएं कहां से आएंगी?  
एक सर्वे के अनुसार प्रति हजार लड़कों के अनुपात में लड़कियों की संख्या पन्ना में 507, टीकमगढ़ में 901, छतरपुर में 584, दमोह में 913 तथा सागर में 896 पाया गया। यह आंकड़े न केवल चिंताजनक हैं अपितु ओडीसा से लड़कियों को ब्याह कर लाने की विवशता की जमीनी सच्चाई भी उजागर करते हैं।  
बुंदेलखण्ड में किए गए लगभग सभी आंदोलनों एवं विकास की तमाम मांगों के बीच स्त्रियों के लिए अलग से कभी कोई मुद्दा नहीं उठाया गया जिससे विकास की वास्तविक जमीन तैयार हो सके। पृथक बुंदेलखण्ड राज्य के ऐजेंडे में स्त्रीपक्ष को एक स्वतंत्र मुद्दा बनाया जाना जरूरी है ताकि भविष्य में बुंदेलखण्ड की स्त्रियों को अपने अधिकारों के लिए पहली सीढ़ी से संघर्ष न करना पड़े। राजनीतिक मुद्दों के बीच स्त्री के अधिकारों का सामाजिक मुद्दा बेहद जरूरी है।  

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