Dr Sharad Singh |
मेरे कॉलम चर्चा प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में (08.02.2017) .....My Column Charcha Plus in "Sagar Dinkar" news paper
चर्चा प्लस
पं. दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु के अनुत्तरित प्रश्न
- डॉ. शरद सिंह
12 फरवरी, 1968, संध्या सात बज कर छः मिनट पर दीनदयाल जी के ममेरे भाई प्रभुदयाल ने मुखाग्नि दी और दीनदयाल जी की पार्थिव देह को अग्नि को समर्पित कर दिया गया। पंडित दीनदयाल जी की हत्या ने सभी के मन में ये दो प्रश्न जगा दिए थे कि ‘हत्या किसने की?’ और ‘हत्या का उद्देश्य क्या था?’ नानाजी देशमुख ने कहा था, ‘‘इस प्रकार पं. दीनदयाल उपाध्याय की हत्या आज भी भयंकर रहस्य बनी हुई है।’’
यहां मैं अपनी पुस्तक ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व : दीनदयाल उपाध्याय’’ के कुछ अंश साझा कर रही हूं।
10 फरवरी, 1968 को सुबह आठ बजे का समय था। दीनदयाल जी उस समय लखनऊ में अपनी मुंहबोली बहन लता खन्ना के निवास पर थे। देश की तत्कालीन राजनीतिक दशा पर चर्चा चल रही थी कि उसी समय दीनदयाल जी के लिए एक फोन आया। यह फोन किया था बिहार जनसंघ के संगठन मंत्री अश्विन कुमार ने। वे पटना में बिहार जनसंघ की कार्यकारिणी की बैठक आयोजित करने जा रहे थे। अश्विन कुमार एवं बिहार इकाई के सभी पदाधिकारियों की यह हार्दिक इच्छा थी कि दीनदयाल जी इस सम्मेलन में उपस्थित रहें एवं सभी को उचित मार्गनिर्देश दें। इसी सम्बन्ध में अश्विन कुमार ने दीनदयाल जी से निवेदन किया। चूंकि 11 फरवरी, 1968 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ के संसदीय दल की बैठक होनी थी अतः दीनदयाल जी के समक्ष असमंजस की स्थिति थी। उस समय तक उन्हें स्पष्ट निर्देश नहीं मिला था कि उन्हें दिल्ली की बैठक में उपस्थित होना है अथवा नहीं। यही बात उन्होंने अश्विन कुमार से कही, ‘‘यदि सुंदर सिंह भंडारी जी ने दिल्ली की बैठक में भाग लेने को नहीं कहा तो मैं पटना आ सकता हूं।’’
दीनदयाल जी की ओर से इतना अश्वासन अश्विन कुमार के लिए आशाजनक था। उधर अश्विन कुमार दीनदयाल जी के सम्भावित आगमन के समय स्वागत की तैयारी में जुट गये और इधर दीनदयाल जी सुंदर सिंह भंडारी के निर्देश की प्रतीक्षा करने लगे। अंततः पटना जाना तय हुआ। पठानकोट-स्यालदह एक्सप्रेस में प्रथम श्रेणी बोगी में दीनदयाल जी के लिए बर्थ आरक्षित कराई गयी। पठानकोट-स्यालदह एक्सप्रेस शाम सात बजे लखनऊ स्टेशन पहुंचती थी।
यहां मैं अपनी पुस्तक ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व : दीनदयाल उपाध्याय’’ के कुछ अंश साझा कर रही हूं।
10 फरवरी, 1968 को सुबह आठ बजे का समय था। दीनदयाल जी उस समय लखनऊ में अपनी मुंहबोली बहन लता खन्ना के निवास पर थे। देश की तत्कालीन राजनीतिक दशा पर चर्चा चल रही थी कि उसी समय दीनदयाल जी के लिए एक फोन आया। यह फोन किया था बिहार जनसंघ के संगठन मंत्री अश्विन कुमार ने। वे पटना में बिहार जनसंघ की कार्यकारिणी की बैठक आयोजित करने जा रहे थे। अश्विन कुमार एवं बिहार इकाई के सभी पदाधिकारियों की यह हार्दिक इच्छा थी कि दीनदयाल जी इस सम्मेलन में उपस्थित रहें एवं सभी को उचित मार्गनिर्देश दें। इसी सम्बन्ध में अश्विन कुमार ने दीनदयाल जी से निवेदन किया। चूंकि 11 फरवरी, 1968 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ के संसदीय दल की बैठक होनी थी अतः दीनदयाल जी के समक्ष असमंजस की स्थिति थी। उस समय तक उन्हें स्पष्ट निर्देश नहीं मिला था कि उन्हें दिल्ली की बैठक में उपस्थित होना है अथवा नहीं। यही बात उन्होंने अश्विन कुमार से कही, ‘‘यदि सुंदर सिंह भंडारी जी ने दिल्ली की बैठक में भाग लेने को नहीं कहा तो मैं पटना आ सकता हूं।’’
दीनदयाल जी की ओर से इतना अश्वासन अश्विन कुमार के लिए आशाजनक था। उधर अश्विन कुमार दीनदयाल जी के सम्भावित आगमन के समय स्वागत की तैयारी में जुट गये और इधर दीनदयाल जी सुंदर सिंह भंडारी के निर्देश की प्रतीक्षा करने लगे। अंततः पटना जाना तय हुआ। पठानकोट-स्यालदह एक्सप्रेस में प्रथम श्रेणी बोगी में दीनदयाल जी के लिए बर्थ आरक्षित कराई गयी। पठानकोट-स्यालदह एक्सप्रेस शाम सात बजे लखनऊ स्टेशन पहुंचती थी।
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प्रथम श्रेणी के तीन कम्पार्टमेंट थे ‘ए’, ‘बी’ और ‘सी’। दीनदयाल जी की बर्थ ‘ए’ श्रेणी में थी। इसी कम्पार्टमेंट में भौगोलिक सर्वेक्षण के सहायक निदेशक ए.पी. सिंह के लिए आरक्षित बर्थ थी। ‘बी’ कम्पार्टमेंट में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के कांग्रेसी सदस्य गौरीशंकर राय के लिए बर्थ आरक्षित थी। यह कहा जाता है कि दीनदयाल जी ने अपनी सुविधा के लिए गौरीशंकर राय से अपनी सीट बदल ली और वे कम्पार्टमेंट ‘बी’ में आ गये। वे गौरीशंकर राय से परिचित थे अतः इस प्रकार से सीट की अदला-बदली में कोई विशेष बात नहीं थी। गौरीशंकर राय भी बिना किसी आपत्ति के कम्पार्टमेंट ‘ए’ में दीनदयाल जी की सीट पर चले गये।
उत्तरप्रदेश के तत्कालीन उपमुख्यमंत्री राम प्रकाश गुप्त एवं उत्तरप्रदेश विधान परिषद के तत्कालीन सदस्य पीताम्बर दास सहित अनेक लोग दीनदयाल जी को विदा देने स्टेशन पहुंचे थे। उस समय दीनदयाल जी ने धोती, खादी की बनियान, बिना बांह का स्वेटर, उस पर एक और स्वेटर और पश्मीना का कुर्ता पहना हुआ था। उत्तरप्रदेश की कड़कड़ाती ठंड से बचने के लिए कुर्ते के ऊपर ऊनी जैकेट पहन रखी थी। कन्धे पर ऊनी शॉल भी थी। उनके साथ कुल तीन सामान थेµसूटकेस, बिस्तर तथा एक थैला जिसमें पुस्तकें थीं।
नियत समय पर गाड़ी ने लखनऊ स्टेशन छोड़ दिया। दीनदयाल जी अपनी बर्थ पर बैठ कर पुस्तक पढ़ने में मगन हो गये। यात्रा के दौरान वे पुस्तकें पढ़ना और लेख इत्यादि लिखना पसन्द करते थे। यह उन्हें यात्रा के समय का सदुपयोग प्रतीत होता था। पर्याप्त समय होने पर इसीलिए कई बार वे पैसेन्जर रेल में यात्रा करना पसन्द करते थे और यात्रा के दौरान वे या तो नया लेख लिख डालते थे अथवा पुराने अधूरे लेख को पूरा कर डालते थे। वे अपने जीवन के एक-एक मिनट को उपयोगी बनाए रखना चाहते थे।
मुगल सराय जंक्शन पर अज्ञात शव
रात्रि दो बज कर पचास मिनट पर दिल्ली-हावड़ा ट्रेन पटना की ओर जा चुकी थी। इसके लगभग चालीस मिनट बाद रात्रि तीन बज कर तीस मिनट पर रेलवे के लाइनमैन ईश्वर दयाल को अपनी ड्यूटी करते समय सूचना मिली कि प्लेटफॉर्म से लगभग एक सौ पचास गज दूर बिजली के पोल नं.1267 से लगभग तीन फुट की दूरी पर गिट्टियों के ढेर पर एक शव पड़ा हुआ है। यह स्थान रेल लाइन से दूर था अतः रेल से कट कर मरने वाले का शव नहीं हो सकता था।
ईश्वर दयाल ने तत्परता दिखाते हुए सहायक स्टेशन मास्टर को फोन पर शव के बारे में सूचना दी। ईश्वर दयाल तथा अन्य कर्मचारियों से पूछताछ करने पर पता चला कि शव को सबसे पहले रात्रि लगभग तीन बजे दिगपाल नाम के पोर्टर ने देखा था। उस समय एक इंजन शंटिंग कर रहा था जिसका ड्राइवर था गफूर और उस इंजन में सुरक्षा गार्ड किशोर मिश्र भी सवार था। किशोर मिश्र ने यह सूचना लाईनमैन ईश्वर दयाल को दी। ईश्वर दयाल ने सहायक स्टेशन मास्टर को इसकी जानकारी फोन पर दी थी।
शव का पंचनामा बनाने से पहले रेलवे चिकित्सक को बुलाया गया जिसने चिकित्सकीय आधार पर शव की पुष्टि की। इसके बाद शव की तस्वीरें लेने के लिए फोटोग्राफर को बुलाया गया। फोटोग्राफर के कैमरे में फ्लैश लाइट न होने सुबह का पर्याप्त उजाला होने की प्रतीक्षा की गयी। सुबह लगभग सात बजकर तीस मिनट पर शव की तस्वीरें खीचीं गयी। चित्र में शव की जो स्थिति दर्ज़ हुई, वह इस प्रकार थी, ‘‘शव पीठ के बल पड़ा था। सिर उत्तर दिशा की ओर तथा पैर पश्चिम की ओर थे। दायां हाथ सिर की ओर था तथा बायां हाथ शॉल के ऊपर से होकर सीने पर था। शॉल से कमर से मुंह तक का भाग ढंका था।’’
एक बात ध्यानाकर्षित करने वाली थी कि शव के बाएं हाथ की कलाई में घड़ी बंधी हुई थी तथा मुट्ठी में पांच रुपये का नोट दबा हुआ था। यह इस तथ्य की ओर संकेत था कि मृतक के साथ लूटपाट नहीं की गयी थी। मृतक के कपड़ों की तलाशी लेने पर 04348 नं. का प्रथम श्रेणी का टिकट प्राप्त हुआ, 47506 नं. की आरक्षण रसीद, कुल 26 रुपये बरामद हुए। कलाई में बंधी घड़ी की पड़ताल करने पर घड़ी के पीछे ‘नाना देशमुख’ नाम लिखा मिला।
‘अज्ञात मृतक’ के रूप में शव का पंचनामा तैयार किया गया। शव को पोस्टमार्टम के लिए भेजा जाना था। भीड़ देखकर स्टेशन के एक कर्मचारी बनमाली भट्टाचार्य का ध्यान आकृष्ट हुआ। वह भी उत्सुकतावश वहां आ गया और उसने जैसे ही शव को देखा तो वह स्तब्ध रह गया। उसके मुंह से निकला,‘‘ये तो जनसंघ के प्रधान पंडित दीनदयाल जी हैं।’’
मुगलसराय के जनसंघ के कार्यकर्ताओं के बीच यह सूचना जंगल में आग की तरह फैल गयी। आरक्षण कार्यालय से मिली जानकारी ने इस बात की पुष्टि कर दी कि जिस शव को पुलिस ‘अज्ञात व्यक्ति का’ मान रही थी, वह राष्ट्रीय स्तर के ख्यातिप्राप्त राजनीतिज्ञ पंडित दीनदयाल उपाध्याय का शव था।
चन्द्रचूड़ आयोग और अनुत्तरित प्रश्न
माननीय चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता में गठित ‘चन्द्रचूड़ आयोग’ ने पं. दीनदयाल उपाध्याय की हत्या के कारणों एवं परिस्थितियों को नये सिरे से जांचना आरम्भ किया। आयोग ने वाराणसी के विशेष जिला एवं सत्र न्यायाधीश मुरलीधर द्वारा दिए गये कई बिन्दुओं पर अपनी असहमति जताई। आयोग ने नवीन दृष्टिकोण से घटना का स्पष्टीकरण सामने रखा। आयोग ने विवेचना करते हुए लिखा, ‘‘यदि श्री उपाध्याय की मृत्यु के साथ उनके सामान की चोरी भी हुई और यदि हत्या और चोरी किसी एक योजना के अंग हैं तो यह निष्कर्ष निकालना युक्तिसंगत है कि इस हत्या का राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं है। हत्या कुछ लाभ के उद्देश्य से की गयी और हत्या का कुछ तत्कालीन कारण या तो चोरी करते समय पकड़े जाने से बचना था या यह कि चोरी सुविधा से की जा सके।’’
पं. दीनदयाल उपाध्याय के एक हाथ में पांच रुपए के नोट का पाया जाना एक अहम बिन्दु था। इस बिन्दु पर आयोग की ओर से टिप्पणी की गई, ‘‘केवल इस बात के अलावा मेरी समझ में बिलकुल नहीं आया कि कौन और क्यों उनके हाथ में नोट रखेगा? हत्यारे, विशेषकर राजनीतिक हत्यारे, अपना काम करने के बाद घटनास्थल पर ठहरते नहीं। यह भी समझ में आ सकता है, यद्यपि मैंने इस सम्भावना को नहीं माना है, लाश खम्भे के पास रखी गयी ताकि वह एक दुर्घटना जान पड़े परन्तु यह मैं नहीं मान सकता कि दुर्घटना सिद्ध करने के प्रयास में षड्यंत्रकारियों ने इत्मीनान से काम किया कि उसमें कोई त्रुटि न रह जाए। अतः नोट उनके हाथ में रखने की बात सर्वथा अमान्य है।’’
इसी तारतम्य में आयोग का मत था, ‘‘पहले वाले निष्कर्ष से यह युक्तियुक्त परिणाम निकलता है कि मृतक अपनी मुत्यु के समय नोट अपने साथ लिए हुए था।’’
उपरोक्त दोनों बिन्दुओं के निष्कर्षतः परिणाम न निकल पाने तथा जांच के दौरान रह जाने वाली कमियों के कारण ‘चन्द्रचूड़ आयोग’ भी पं. दीनदयाल उपाध्याय की हत्या के वास्तविक कारणों की तह तक नहीं पहुंच सका। आयोग के निष्कर्षों पर टिप्पणी करते हुए नानाजी देशमुख ने कहा था, ‘‘इस प्रकार पं. दीनदयाल उपाध्याय की हत्या आज भी भयंकर रहस्य बनी हुई है।’’
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