आज 19.11.2024 को 'आचरण' में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई श्रीमती शशि दीक्षित (मृगांक) जी के भजन संग्रह की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
भजनों की भक्तिमय धारा का अविरल प्रवाह
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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भजन संग्रह - भावना
कवयित्री - श्रीमती शशि दीक्षित (मृगांक)
प्रकाशक - जे.टी.एस. पब्लिकेशंस, वी-508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली-110053
मूल्य - 100/-
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दुख और सुख दोनों ही वे स्थितियां हैं जब मनुष्य ईश्वर का स्मरण करता है। दुख के समय ईश्वर से सहायता की पुकार करता है तो सुख के समय मांगलिक कार्यों में ईश्वर की उपस्थिति का आग्रह करता है- ‘‘निर्विघनं कुरु में देव सर्वकार्येषु सर्वदा!’’ अर्थात् ईश्वर सभी कार्यों को बिना बाधा के पूर्ण करें। यदि बात साहित्य की हो तो हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक पूरा कालखण्ड ही भक्ति काल के नाम से जाना जाता है। अधिकांश विद्वान इसकी समयावधि 1375 वि.स.से 1700 वि.स. तक मानते हैं। इसे हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ युग भी कहा गया है। इस काल खण्ड को जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘‘स्वर्णकाल’’, श्यामसुन्दर दास ने ‘‘स्वर्णयुग’’, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘‘भक्ति काल’’ एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘‘लोक जागरण’’ काल कहा। क्या विशेषता थी इस कालखण्ड की? सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि इस कालखण्ड में सर्वाधिक भक्ति रचनाएं लिखी गईं। इसी कालखण्ड में निर्गुण और सगुण के नाम से भक्तिकाव्य की दो शाखाएं समानांतर चलीं। निर्गुणमत के दो उपविभाग हुए - ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी। निर्गुण मत के प्रतिनिधि कवि कबीर और जायसी हुए। वहीं सगुणमत दो उपधाराओं में विकसित हुआ - रामभक्ति और कृष्णभक्ति। रारमभक्ति के कवियों में प्रथम नाम आता है तुलसीदास का तथा कृष्णभक्ति में प्रथम नाम सूरदास का लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सूफी, नाथ, सहज आदि अनेक संप्रदायों के अनुरूप भक्तिकाव्य का सृजन हुआ। यदि मोटेतौर पर देखा जाए तो वह मुगलों के शासन का काल था। पारंपरिक मूल्यों पर आक्रमणकारियों की कुचेष्टाएं प्रहार कर रही थीं। ऐसे वातावरण में ईश्वर का स्मरण ही आत्मबल दे सकता था। इसीलिए उस काल में सर्वाधिक भक्ति रचनाएं लिखी गईं।
आज कोई सैन्य आक्रमणकारी नहीं है किन्तु वैश्विक होते वातावरण में सभ्यता, संस्कृति एवं विचारों के लिए संकट पैदा हो गया है। या तो भक्ति का आडंबर रूप है अथवा लोग भक्ति की परंपरा से विमुख हैं। ये दोनों ही स्थितियां पाश्चात्य के अंधानुकरण से उत्पन्न हुई हैं। ऐसे संक्रमणकाल में किसी भजन संग्रह का प्रकाशित होना बहुत मायने रखता है। मध्यप्रदेश के सागर शहर की साहित्य के लिए उर्वर भूमि में निवासरत शशि दीक्षित मृगांक का भजन संग्रह हाल ही में प्रकाशित हुआ है। मिर्जापुर (उ.प्र.) में जन्मीं शशि दीक्षित मृगांक डबल एम.ए., बी.एड, हैं तथा कुछ समय अध्यापन कार्य भी कर चुकी हैं। विवाह के बाद से सागर (म.प्र.) में निवासरत हैं। उन्होंने सुगम संगीत में डिप्लोमा किया है तथा भजन गायकी में रुचि रखती हैं। स्वाभाविक है कि उनकी इस अभिरुचि ने उन्हें भजन लिखने के लिए प्रेरित किया। ‘‘भावना’’ के नाम से प्रकाशित उनके भजन संग्रह में कुल 31 भजन हैं जिन्हें कवयित्री ने अलग-अलग अध्यायों में विभक्त किया है। यथा- गणपति वंदना, देवी गीत, राम भजन, कृष्ण भजन, शिव भजन तथा अन्य भजन।
संग्रह का पुरोवाक प्रो. डॉ सरोज गुप्ता ने लिखा है। उन्होंने शशि दीक्षित के भजनों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ‘‘इन भजन गीतों में हृदय से प्रवाहित सुख-दुख के स्वर नर्तन करते हुए जब झरते हैं तो हृदय वीणा स्पन्दित होने लगती है। भक्ति में तल्लीन लोग जिनके हृदय में भगवान पर अटूट विश्वास है। सरलता और भक्ति के स्वरों के भाव मन को मोह लेते हैं। इन भजनों में स्वाभाविकता, सरलता, स्वच्छंदता स्पष्ट दिखाई देती है।’’
इसी प्रकार सेवानिवृत व्याख्याता सुनीला चैरसिया ने भजनों एवं कवयित्री की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए लिखा है कि ‘‘शब्दों में जब भाव आते हैं, तभी भजन लेखनी में उतरते हैं, इनके भजन सुर लयबद्ध और गेय हैं स्वयं भी बहुत अच्छी गायिका हैं, जिसका इनको बचपन से ही शौक रहा है। जैसे बीज से अंकुरण, पौधे से पुष्पन और पल्लवन, फूलों से महकन की प्रक्रिया होती है वैसे ही इनके अंतस में, गायन, लेखन वाकपटुता की आग है, जो अब दावानल बनने जा रही है। लेखनी के प्रति समर्पण संगीत के प्रति राग आध्यात्म में रुचि इनकी विशेषता है। विदुषी कवयित्री से मेरा परिचय पिछले 20 वर्षों से रहा है, इनकी लेखनी सशक्त, मौलिक और नई चेतना के प्रति दिनों दिन प्रगति की ओर उन्मुख है। इनका भजन संग्रह दिव्य है, उसमें आध्यात्मिक महक है और रागिनी से संबंध है और भावों से कूट-कूट कर भरी है।’’
निःसंदेह, किसी भी भजन की पहली शर्त होती है उसकी गेयता। यह गेयता तभी सहज हो पाती है जब उसमें सरल और आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया गया हो। भजन प्रायः गुनगुनाते हुए स्वरों के साथ स्वतः आकार लेते हैं। शशि दीक्षित मृगांक के भजन भी स्वतः जन्मे हैं जैसा कि उन भजनों की प्रकृति से पहचाना जा सकता है। सप्रयास गढ़े गए काव्य में वह मौलिकता एवं लालित्य नहीं रहता है जो स्वतः निर्मित काव्य में होता है। शशि दीक्षित मृगांक के भजनों में सरलता एवं स्वाभाविकता है। उन्होंने गोया ईश्वर से संवाद के रूप में भजन लिखे हैं। जैसीकि परंपरा है कि नूतनकार्यों का आरंभ श्रीगणेश के स्मरण तथा आह्वान से होती है, उसी प्रकार संग्रह के भजनों का प्रथम अध्याय श्रीगणेश की वंदना से आरम्भ हुआ है। बानगी देखिए जिसमें ‘‘हे! प्रथम पूज्य’’ शीर्षक से कवयित्री ने प्रथम पूज्य श्रीगणेश की वंदना की है-
हे! प्रथम पूज्य गणपति देवा
हो विनती अब स्वीकार मेरी
मैं जनम जनम से प्यासी हूँ
प्रभु दर्शन देकर तार मुझे
हे! एकदंत गज बदन प्रभु
तुम सब देवों में श्रेष्ठ हुए
कोई काज तेरे बिन होता नहीं
हम प्रथम नमन तुम्हें करते हैं
हे! रिद्धि सिद्धि के स्वामी
शुभ लाभ का दो वरदान मुझे।
कवयित्री ने श्रीगणेश के प्रथमपूज्य रूप को ही नहीं वरन देवी पार्वती के पुत्र अर्थात ‘‘गौरा के लाल’’ के रूप में भी स्मरण किया है। वे लिखती हैं-
हे! गौरा के लाल गजानन
तेरी शरण में आया हूँ
विघ्न हरण मंगल मूर्ति प्रभु
मन की मुरादें लाया हूँ....
बिगड़े काज संवारो मेरे हे!
शंकर सुत हृदयेश्वर
दूर करो सब बाधाएं प्रभु
राह दिखा दो लंबोदर......
संग्रह के दूसरे अध्याय में देवी गीत हैं। इन भजनों में कवयित्री शशि दीक्षित ने ‘‘शैलपुत्री’’, ‘‘भवानी’’, ब्रह्मचारिणी’’ आदि विविध नामों से देवी का स्मरण करते हुए विनती के रूप में भजन लिखे हैं। जैसे यह भजन देखिए-
मेरी विनती सुनो हे! भवानी हे!
मैया जग कल्याणी
तेरे चरणों का दास है ये सारा संसार
तेरी माया किसी ने न जानी ....
तू ही शैलपुत्री मैया! तू ही ब्रह्मचारिणी !
देती धन्न-धान मैया कोटि फलदायिनी
तेरी महिमा है जग से निराली
हम भक्तों पे करो मेहरबानी
तेरे चरणों का दास ।
कवयित्री ने देवी के एक स्वरूप राधा रानी का भी स्मरण किया है। राधा पर लिखे गए भजन में सुंदर गेयता है। ‘‘ओ! राधे रानी’’ भजन की शब्दावली देखिए-
ओ! राधे रानी
हम पर कृपा कीजिए
हमें भी अपने चरणों में रख लीजिए।
मोहन के मुरली की तान
राधे-राधे
वृंदावन की गलियों में गूंज
राधे-राधे .......।
‘‘आ गए आ गए मेरे राम’’ भजन द्वारा श्रीराम की स्तुति मनभावन है-‘‘आ गए आ गए मेरे राम आ गए /आज खुशियां बहुत हैं नहीं कोई गम’’। वहीं, श्रीकृष्ण भक्ति में लिखे गए भजन में अपने रंग में रंग लेने का कृष्ण से आग्रह है- ‘‘कन्हैया अपने रंग में ही रंग ले मुझे’’।
‘‘शिव शंकर तेरा ही सहारा’’ में भगवान शिव को याद किया है तो अंतिम अध्याय के भजनों में जीवन की निस्सारिता एवं भजन की महत्ता को प्रतिपादित किया है।
जीवन के दिन चार हैं
रीत रहा संसार है
जप ले हरि का नाम, जप ले।
जब आज लोग वैचारिक भ्रम की अवस्था में जीवन से जूझ रहे हैं, ऐसे समय में शशि दीक्षित मृगांक के भजन कड़ी धूप में शीतल छांह और कड़ाके की ठंड में अलाव की गर्माहट के समान सुखदायक हैं। इन भजनों में भक्तिमय धारा का अविरल प्रवाह है। जिन पाठकों को भजनों में रुचि है, उनके लिए इस संग्रह की उपादेयता सर्वाधिक है क्योंकि संग्रह के सभी भजन सहज स्मरण रह जाने योग्य एवं गेयता से भरपूर हैं।
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