बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
जो का हो रओ औ काए हो रओ?
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
‘‘का हो गओ भैयाजी? इत्ते उदासे से काए दिख रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी। बे अपने घर के बाहरे चैंतरे में बैठे हते और उनके हाथन में अखबार हतो।
‘‘कछू नईं! जे खबरें पढ़ के अच्छो सो नईं लगत।’’ भैयाजी ऊंसई दुखी-दुखी से बोले।
‘‘हऔ भैयाजी, आप सांची कै रए। आजकाल मानुस की जान को कोनऊं मोल नई रै गओ। कोऊ दारू पी के रस्ता चलत पे गाड़ी चढ़ा देत आए तो कोऊ लुगाइयन औ बच्चियन खों नुकसान पौंचात आए। ऐसईं खबरे पढ़बे से जी सो दुखहे ई।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ बिन्ना! ने तो मानुस की जिनगी को कोनऊं मोल आए औ ने शेर औ हाथियन की जिनगी को। अबे कछू दिनां पैले हम अपने इते के बृंदाबन बाग मंदिर गए रए, हमने उते एक हाथी देखो। ऊको एक पांव जंजीर से बंधो रओ। जा देख के हमें पीरा-सी भईती, के देखो तो जंगल में घूमबे वारो हाथी कैसो बंधो खड़ो। मनो अब जब से हमने बा दस हाथियन के मरबे की खबरें पढ़ीं तब से हमें लगन लगो के बा बृंदाबन बाग को हाथी मनो जिंदा को आए। भले बा जंजीर से बंधो ठाड़ो पर ऊको खाबे को दओ जात आए। ऊकी देख-भाल करी जात आए। पर बे जंगल के हाथी बे कीड़ा-मकोड़ा से मर गए। कोऊ जे बताबे वारो नइयां के बे मरे काय से? देख तो बिन्ना, कैसी जिनगी पाई उन ओरन ने। उन्ने कभऊं ने सोची हुइए के बे ऐसी मौत मरहें।’’ कैत-कैत भैयाजी को गलो भर आओ।
‘‘दुखी ने हो भैयाजी! जे दुनिया आए। जे एसई चलत आए। आप तो हमसे बड़े हो, हमसे ज्यादा सयाने हो। आप अपनो जी छोटो ने करो। काए से के अपन ओरें कछू नईं कर सकत।’’मैंने भैयाजी खों समझाओ।
‘‘हऔ बिन्ना! सई कई। अपन ओरें का कर सकत आएं? जोन खों करने चाइए, बे जिम्मेदार हरें तो पइसा की पल्ली ओढ़ के सोत रैत आएं।’’ भैयाजी गुस्सा करत भए बोले।
‘‘गम्म खाओ भैयाजी! गम्म खाओ!’’ मैंने भैयाजी खों सहूरी बंधाबे की कोसिस करी।
‘‘जे देखो, आजई पढ़ी के सबसे ज्यादा शेर अपने इते मरे। कैसे मरे? कोनऊं खों पतो नईं। कोनऊं खों उनकी फिकर नईं। जोन शेर देखबे के लाने पइसा खरच कर के पार्कन में जात आएं बे बी नईं सोचत के उते के शेर काए मर गए? उने तो शेर दिखे तो ठीक, ने तो पेड़-पौधा के संगे सेल्फी ले के बढ़ा गए अपनी दुकान।’’ भैयाजी गुस्सा में हते, सो उने सबई पे गुस्सा आ रओ हतो।
‘‘भैयाजी! इत्तो ने सोचो! का हुइए अपनो जी दुखा के?’’ मैंने उने फेर के समझाई।
‘‘हऔ बिन्ना, कछू ने हुइए। अबे जांच के लाने कमेटी बैठहे। जो इंसान को मामलो होतो तो उनके घरवारन खों मुआवजा दे के सहूरी बंधा दई जाती। इते तो बा बी नई करने परहे।’’ भैयाजी बोले। उनको बोलबो सई हतो।
इत्तो बड़ो कोरोना को समै गुजरो। मुतके लोग मरे। मोरी तो सोई जिनगी मिट गई। मने का कओ गओ के ‘‘आपदा में अवसर’’! जा सुन के ऐसो लगत्तो मनो कोनऊं की कबर पे कोऊ पार्टी करे के नच रओ होय के हम तो बच गए। रामधई! ऐसोई लगत्तो मोय जा सुनके। जां हजारों-लाखों लोग मरे उते कोऊ बी खुसी कैसी मानाई जा सकत आए? मगर ऐसो खूब भओ! जब कभऊं बुद्धिजीवी कहाबे वारे मूंड़ ऊंचो कर के कैत आएं के ‘‘हमने कोरोना लाक डाउन को फायदो उठाओ औ जा-जा लिख डारो, बा-बा लिख डारो, सो बा समै हमाए लाने अच्छो रओ।’’ सई में ऊ टेम पे ऐसो लगत आए के बे ओरें कोविड वायरस से कम नोईं जो दूसरों के मरे में अपनी जिनगी की शान ढूंढत आएं। सो, भैयाजी को जा सोचबो का गलत नईं आए के उन हाथियन की, उन शेरन की कोनऊं खों फिकर नईं।
‘‘बिन्ना का सोचन लगीं?’’ भैयाजी ने मोय सोचत भए देखों सो पूछ बैठे।
‘‘कछू नईं भैया! कोरोना वारे दिन याद आ गए।’’ कैत भए मोरो बी जी भारी हो गओ।
‘‘अब तुम दुखी ने हो बिन्ना! अभईं तुमई कै रईं हतीं के जा दुनिया ऐसई चलत आए औ अब तुमई सोस-फिकर में पर गईं।’’ भैयाजी अब मोय समझान लगे।
‘‘भैयाजी, मैंने जोन दिनां बा वारी खबर पढ़ी रई के अपने दस साथियन को मरत भए देखे रए हाथी ने सोई दम तोड़ दओ, सांची कै रई, ऊ दिनां मोए लगो रओ के मोरो करेजा सई में पथरा को हो गओ आए ने तो मोए सोई....’’ भैया जी ने मोय बात पूरी ने करन दी।
‘‘ऐसो उल्टो-सूदो ने सोचो बिन्ना! जित्ती जिनगी उते से लिखी गई, बा तो जीनई परत आए औ जीनी चाइए। हम तो जे सोच रए हते के सबने हाथियन के मरबे की खबर पढ़ी हुइए औ ने तो टीवी पे तो देखी हुइए। मनो पब्लिक को ऊनसे कोनऊं लेबो-देबो नइयां। जबके अभईं दिवारी निकरी आए, जोन पे सबई ने अपने-अपने घरे लछमी जी के संगे उनके हाथियन की पूजा करी हुइए, फेर बी इत्तो नई हो रओ के मरबे वारे हाथियन के लाने अपने शहर के चैराहा पे एक ठइया मोमबत्ती जला देवें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘खूब कई भैयाजी! इते इंसान के मरे पे ऊ टेम तक कोनऊं माचिस की तिली लौं नईं जलाऊत आए जब लौं ऊपे राजनीति ने होन लगे। सो, इते हाथियन के लाने मोमबत्ती को जलाहे?’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘बिन्ना, तुमें याद हुइए के स्कूल टेम पे अपन ओरन खों एक निबंध लिखाओ जात रओ के ‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं’, मने गुलामी में रैबे वारो सपनों में बी सुखी नईं रै सकत आए। पर अब मोय जा खबरें पढ़ के लगत आए के बा निबंध फिजूल को रओ। काए से के जोन हाथीं कऊं पले डरे, उते बे जिंदा तो आएं। कछू तो सुखी आएं। उनके मरबे पे कोनऊं जे तो ने कैहे के बे कोदो-कुटकी खा के मर गए। मने तनक सोचियो के अकसर जे होत के सरकार मामले को ढांकत फिरत आए, मगर इते तो सरकार ने बी कओ के जे झूठी रिपोर्ट ने सुनाओ। ऐसो कभऊं ने भओ के कोदो-कुटकी खाए से हाथी मर गए होंए। सो अब तो लगत आए के पराधीन में सुख की तनक तो भरोसो करो जा सकत आए, ने तो इते तो बेमौत की मौत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात तो सांची कै रए आप! मनो ऊ टेम के निबंधन को रियल लाईफ से कोनऊं खास लेबो-देबो नईं रैत्तो।’’ मैंने कई।
‘‘मने?’’भैयाजी ने पूछी।
‘‘मने जे, के ऊ टेम पे तो जे निबंध बी लिखाओ जात्तो के ‘‘यदि मैं प्रधानमंत्री होती या होता’’। अब आपई बताओ के ई निबंध को असल की जिनगी में कोऊ का करहे? सो आप ईमें ने परो के स्कूल टेम पे का पढ़ाओ गओ औ अब का पढ़ने पड़ रओ! राजी खुसी रओ औ भौजी खों खुस राखो! जिनगी आसानी से कट जैहे।’’मैंने भैयाजी खो समझाई।
भैया जी मोरी बात सुन के मुस्काए। उन्ने अखबार मोड़-माड़ के एक तरफी धरो औ बोले-‘‘सई कई के जो तुमाई भौजी खुस रए तो हमाई जिनगी तो ऊंसई मजे में कट जैहे।’’
सो, बतकाव कर के भैयाजी को जी हल्को हो गओ। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के जे का हो रओ औ काए हो रओ। हाथी बी अपने घांई जीव आएं। उने सोई जिए को अधिकार आए। सो बोलो, ऐरावत जू की जै!
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