बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
इन्ने सबरे टीचरन की नाक कटा दई
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
‘‘जो शिक्षा विभाग बी गजबई आए!’’ भैयाजी अखबार एक तरफी पटकत भए बोले।।
‘‘अब का हो गओ भैयाजी?’’मैंने पूछी।
‘‘होने का, देखो तनक, कैबे खों स्कूल टीचर, औ करम भड़यां घांईं। इन्ने सबरे टीचरन की नाक कटा दई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कऊं आप ऊ सेरोगेट टीचरन के बारे में तो नईं कै रए?’’ मैंने कई।
‘‘सेरोगेट टीचरों? बे को आं? हम तो उन ओरन के बारे में कै रए जोन अपनी जांगा भाड़े टीचर रखत रए। बताओ तो कभऊं सोची ने हती के जा दिन बी देखने परहें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘उनई के लाने तो मैं कै रई के बे सेरोगेट टीचर आएं।’’ मैंने कई।
‘‘हमें र्नइं आई तुमाई बात समझ में। का कैबो चा रईं? जे सेरोगेट को का मतलब भओ?’’ भैयाजी झुंझलात भए पूछन लगे।
‘‘देखो भैयाजी, आप जानत आओ के जोन लुगाई अपनी कोख से बच्चा नईं जन सकत आए ऊके लाने किराए की कोख ले लई जात आए। जोन को सेरोगेसी कई जात आए। औ जोन लुगाई अपनी कोख किराए पे देत आए ऊको सेरोगेट मदर कओ जात आए। मनो बा अपनी कोख से बच्चा जन के बा लुगाई खों दे देत आए जोन को बा बच्चा रैत आए औ बदले में खर्चा-पानी लेत आए।’’ मैंने भैयाजी खों याद दिलाई।
‘‘हऔ हमें पतो। मनो ई से उन ओरन को का मेल जोन अपनी जांगा भाड़े पे टीचर रखत आएं?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘दोई में मेल जो आए के बे आएं तो टीचर मनो उनसे पढ़ाओ नईं जा रओ सो बे अपनी जांगा दूसरो मानुस रख लेत आएं, किराए पे। सो बे किराए पे रखे जाबे वारे सेरोगेट ने कहाए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘बात तो तुमने सई कई, बिन्ना! मनो देखो तो का जमानो आ गओ। एक तो नौकरियन की ऊंसई सल्ल परी। अपने ज्वान मारे-मारे फिर रए। औ जोन खों ऊपर वारे की किरपा से नौकरी मिल गई, बा ऊकी इज्जत नईं कर रओ। अपनो काम करे में ऊके प्रान कढ़ रए। साठ-सत्तर हजार रुपैया महीना पीट रए औ स्कूल जा के पढाबे में पांव घिसे जा रए।’’ भैयाजी गुस्सा में बोले।
‘‘सई आए भैयाजी! तनक उनकी सोचो जोन साठ हजार पाबे वारे की छः हजार में गुलामी कर रओ। ऊकी नौकरी अपनी कोख में पाल रओ। चाए इंक्रीमेंट को लल्ला होए, चाए परमोशन को लल्ला होए, ऊको बाप-मताई सो पक्को वारो ई कहो जैहे। कच्चे वारे की का, रिजल्ट अच्छो ने दओ तो लातें मार के निकार दओ जैहे। ऊकी जांगा दूसरो किराए पे ले लओ जैहे। अपने इते बेरोजगारन की कोनऊं कमी नईंयां। जेई से बा पांच-सात हजार में अच्छो रिजल्ट दैहे औ असली वारे टीचर को नाम रोशन करहे। रामधई बड़ी जे बड़ी नाइंसाफी आए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, मनो तुमें नाइंसाफी दिखा रई औ हमें पूरी भड़याई दिखा रई। बो का कओ जात आए... पूरो घोटालो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ भैयाजी! जे घोटालो तो आए। का ऐसो हो सकत आए के असली की जांगा नकली पढ़ा रओ होय औ पइसा जाए असली के खाता में और नकली कछू पइसा ले के पढ़ात रए औ कोनऊं खों पतो ने परे? मोय तो नईं लगत।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘तरे-ऊपरे सबई मिले डरे। का ऊ प्रिंसीपल सोत रैत्तो जोन को पता ने परी? ने तो ऊकी मिली-भगत से जे सब चल पा रई ती? अरे, सबरे मिले धरे। दस-पांच हजार उने मिलत रैत हुइएं। जेई से सबरे धृतराष्ट्र घांई अंधरा बने बैठे रए। घरे बैठे-बैठे मनो साठ के चालीस बी परे तो का कम आएं? हर्रा लगो ने फिटकरी, रंग चोखो के चोखो!’’ भैयाजी बोले।
‘‘भैयाजी, तनक जे सोचो के जोन लोग जे ऐसो काम कर सकत आएं बे औ को जाने का-का गुल खिला रए हुइएं? काय से के बे तो चार सौ बीसी वारे कहाने।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई कई बिन्ना। इनकी सो पूरी बखिया उधेड़ी जानी चाइए तभई पता परहे के जे औ का-का नासमिटा रए?’’ भैयाजी गुस्सा में भर के गिरयान लगे।
बाकी बात गरियाबे वारी आए। हो सकत के सट्ट-पट्ट कर के नौकरी पाई होय, तभईं तो नौकरी की इज्जत नईं कर रए। सरकार से धोखो कर रए, बच्चा से धोखो कर रए औ समाज में खुद खों टीचर कै के समाज से धोखो कर रए।
‘‘औ बिन्ना, जे ओंरे जो स्कूले पढ़ाबे नईं जा रए सो ठलुआ तो बैठे ने हुइए? कऊं राजनीति कर रए हुइएं, तो कऊं कोनऊं औ काम कर रए हुइएं। मनो बे ओरें एक टिकट पे दो फिलम देख रए कहाने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘इने छूट देबे वारों खों बी कटघरा में खड़ो करो जाने चाइए। बिगर छूट के जे ओरें इत्ती हिम्मत कैसे कर पाते? आपई बताओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘जेई तो हम कै रए बिन्ना के ईकी तो नैंचे से ऊपर तक की जांच करी जाने चाइए। जो अच्छे से जांच करी जाए तो मुतकी जांगा जेई घोटालो निकरहे। एक तो जा शिक्षा विभाग ऊंसई प्रयोगशाला बनो रैत आए। कभऊं जा योजना चलाई, सो कभऊं बा योजना चलाई। मध्यांन्ह भोजन दए जाबे को चलन भओ तो ओई में बच्चा हरों को दलिया भड़या खान लगे। डिरेस को नियम बनत आए तो ओई में स्कूल वारन की दूकानदारी होन लगत आए। कैबे को पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी, मनो सारी बुद्धि लगा देत आएं भड़यागिरी में। तुमई सोचो बिन्ना कि तुम पिरीन्सपल की कै रईं औ उन स्कूलन को सगरो स्टाफ को का? का उन ओरन को पतो नई रओ के उनके संगे कोनऊं भाड़े को टीचर पढा रओ?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘काए ने पतो हुइए भैयाजी! कओ बे ओरें सोई जे जुगत में रए होंए के उनके लाने बी कोनऊं मिल जाए औ बे अपनी टीचरी भाड़े पे दे के घरे पल्ली ओढ़ के सोएं।’’ मैंने कई।
‘‘जेई से तो अपने गांवन के सरकारी स्कूलन के बच्चा हरों के भाग नईं खुल पात। बे जबे दूसरे स्कूल वारों के आगूं ठाड़े होत आएं तो ऊदबिलाव घांई दिखात आएं। बिचारे अपनी जिनगी में का कर पाहें? चोर-चकार के इते पड़हें सो भड़याई तो सीखहें, कलेक्टर थोड़े बनहें।’’ भैयाजी भौतई दुखी दिखान लगे।
मनो जे मामलो ई ऐसो आए के भैयाजी को दुख मिटाबे को मोए कोनऊं बतकाव ने सूझी। उनको दुख तो तभई दूर हुइए जबे मछरियन के संगे मगरमच्छ सोई पकरे जाएं। मने तरे से ऊपरे लौं के अपराधी। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के स्कूल वारे शिक्षा विभाग में खुल्लम-खुल्ला ऐसो कैसे होत रओ?
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