आज 05.11.2024 को 'आचरण' में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई बिहारी सागर जी के काव्य संग्रह की समीक्षा।
-----------------------------
पुस्तक समीक्षा
लोक चिंतन एवं मिठास है बिहारी सागर के गीतों में
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
-------------------
गीत संग्रह - बुंदेली गौरैया
कवि - बिहारी सागर
प्रकाशक - हिमांशी कोरी, बिहार सागर, धर्मश्री पुल के आगे, अंबेडकर वार्ड, कांप्लेक्स रोड, सागर, (म.प्र.) - 470004
मूल्य - 120/-
-------------------
लोक संस्कृति तथा लोक भाषा की अपनी मौलिकता होती है। लोक भाषा लोकसंस्कृति के संवाहक का कार्य करती है। वस्तुतः लोक भाषा की मिठास लोक संस्कृति से ही उपजती है। जो काव्य लोक परंपराओं, लोकाचार एवं लोक व्यवहार को मुखर करता है, उस काव्य में मानो माटी की सोंधी गंध होती है। सागर के कवि बिहारी सागर निरंतर सृजन कर्म से जुड़े हुए हैं। जहां तक मैं जानती हूं। उनका अधिकांश सृजन स्वांतःसुखाय है। वे जमीन से जुड़े व्यक्ति हैं। वे बुन्देलखंडी हैं और बुन्देली लोक व्यवहार से भली-भांति परिचित हैं। उन्होंने जीवन की कठिनाइयों को भी बहुत निकट से देखा है। उनके व्यक्ति में वह जीवटता है जो बुंदेली जन में पाई जाती है। काव्य संग्रह ‘‘बुुन्देली गौरैया’’ संग्रह के नाम ने ही मेरा ध्यान आकर्षित किया। मेरे मन में विचार कौंधा कि आज कहने को तो हम ‘‘ग्लोबल गांव’’ बन गए हैं किन्तु सच्चाई यह है कि हम अपनी ग्रामीण संस्कृति में बसी थाती को खोते जा रहे हैं। चाहे बुन्देली हो या कोई और लोक संस्कृति हो, सभी बाजारवाद की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। लोकाचार की परंपराएं आधुनिकता के अधकचरेपन के तले दबती जा रही हैं। गांव के बाहर बैठे पीपर देव की पूजा का चलन समाप्तप्राय है क्योंकि पीपल के वृक्षों के लिए ही स्थान हम नहीं छोड़ रहे हैं। विवाह संस्कारों की परंपरागत रस्में मात्र रस्म अदायगी बन गई हैं, उसकी जगह ‘‘थीम वेडिंग’’ ने ले ली है। यही हाल गौरैया का है। एक नन्हा पक्षी जो हमारे साथ हमारे घर में एक सदस्य की तरह रहता था। अपना परिवार बसाता था और हमें ढेर सारी खुशियां देता था, उस नन्हें पक्षी को हमने अपने घरों से निष्कासित कर दिया। दीवार पर तिरछी लगी तस्वीरों के पीछे गौरैया का घोंसला हुआ करता था। अब न दीवारों पर वैसी तस्वीरें होती हैं और घर की बैठक में गौरैयें। सीलिंग पंखों के ऊपरी हिस्से में वे अपने तिनके जोड़ती थीं। उनके इस कृत्य पर झुंझलाहट भी होती थी किन्तु आत्मीयता भी जागती थी। एक कोमल रिश्ता हुआ करता था हम इंसानों और गौरैया के बीच।
आज बुंदेली संस्कृति और गौरैया दोनों को सहेजना, संरक्षित करना आवश्यक हो गया है। ऐसे जटिल, खुरदरे एवं संवेदनाओं में शुष्कता ढोते समय में ‘‘बुन्देली गौरैया’’ काव्य संग्रह अपने नाम से ही उस मधुरता का आभास कराता है जिसमें लोकधर्मिता समाई हुई है। यूं भी कवि बिहारी सागर की बुंदेली पर अच्छी पकड़ है। यद्यपि उनके इस संग्रह में आम बोलचाल की हिन्दी की काव्य रचनाएं भी हैं किन्तु उनमें भी ‘‘बुंदेली टच’’ स्पष्ट रूप से आस्वादित किया जा सकता है। इस संग्रह की कविताओं में कथ्य की विविधता है। शिव भजन, श्रीराम भजन, चेतावनी भजन, राधा भजन, संत गुलाब बाबा भजन आदि भजनों के साथ ही कार्तिक गीत, होरी गीत, सोहर गीत, झूला गीत आदि गीत हैं। इसमें कव्वालियां और गजलें भी हैं। इनमें कुछ गीत लोक धुनों पर हैं तो कुछ गीत फिल्मी धुनों पर भी हैं। वस्तुतः कवि बिहारी सागर ने अपनी काव्य रचनाओं की गेयता पर ध्यान केंद्रित रखा है। अतः ये रचनाएं सुगमता से गाई जा सकती हैं।
बिहारी सागर जी ने लोकधुनों पर भक्ति के विविध आयाम प्रस्तुत किए हैं। जैसे उनका एक गीत कार्तिक भजन की धुन पर है किन्तु उसमें उन्होंने श्रीकृष्ण के जन्म का विवरण प्रस्तुत किया है-
हो गओ है बड़ो शोर, कन्हैया प्यारे
हो गओ है बड़ो शोर..... कन्हैया प्यारे ।।
मात याशोदा के भये ललना
नंद के नंद किशोर ..... कन्हैया प्यारे ।।
‘‘रामायण’’ के सीता-स्वयंवर प्रसंग की भांति ‘‘महाभारत’’ महाकाव्य में द्रौपदी के स्वयंवर का प्रसंग महत्वपूर्ण है। इस प्रसंग को लोक-प्रस्तुतियों में प्रायः सम्मिलित किया जाता है। कवि ने गारी की धुन पर द्रौपदी-स्वयंवर के प्रसंग को कुछ इस तरह पिरोया है-
जग में इनको नाम है छाये।
जिनके बलखों पार ना पाये।
बड़े-बड़े जोधा गये हैं हार।
कैसे हुइये मंगलाचार ।
इस प्रकार लोकधुनों पर लिखे गए गीतों का अपना एक मौलिक सौंदर्य है। इनमें छांदासिक व्याकरण गौण हो कर स्वरों की प्रधानता हो जाती है जो लयात्मकता का रूपहला संसार रचती हैं। ये भक्ति की धारा में बहते हुए झूमने और थिरकने को प्रेरित करती हैं।
कवि बिहारी सागर ने अपनी कव्वालियां भी इस संग्रह में रखी हैं। विशेषता यह है कि उन्होंने एक कव्वाली में रामभक्ति की अनुपम गंगा बहाई है जिसमें श्रीराम के द्वारा शबरी के जूठे बेर खाने का प्रसंग है -
आज शबरी की कुटिया में। प्रभु श्री राम आये हैं।।
साथ में है अनुज लक्ष्मण। ये दोनों साथ आये हैं ।।
ये आशा हो गई पूरी जो वर्षों से अधूरी थी ।
देखकर आज प्रभू को हम प्रेम के आंसू आये हैं ।।
संग्रह में विभिन्न रसों में निबद्ध रचनाएं हैं जो यह बताती हैं कि कवि दर्शन और प्रहसन दोनों विषयों पर सुंदर काव्य सृजन करने में सक्षम है। बिहारी सागर जी ने ‘‘चेतावनी’’ के रूप में कई कविताएं इस संग्रह में रखी हैं जिनमें गहन जीवन दर्शन निहित है। एक ‘‘चेतावनी’’ देखिए-
भजन करले राम के, उमरिया रह गई थोड़ी ।
ये दुनियां है आनी जानी। क्यों करता है तू नादानी ।
पहुंचो शरण तुम राम के उमरिया रह गई
थोड़ी चेत सको तो चेत ले प्यारे।
हो जे हो तुम जग से न्यारे ।
महल अटारी नैयां काम के उमरिया रह गई थोड़ी।
जीवन की भंगुरता को पूरी गंभीरता से अपने गीत में समेटने वाले बिहारी सागर जब हास्य रस का गीत लिखते हैं तो उनका एक अलग ही भाव दिखता है। उनके हास्य गीतों को पढ़ते समय इस बात का भान नहीं होता है कि इसी कवि ने संसार की नश्वरता का स्मरण कराया है। अपनी हास्य कविताओं बिहारी सागर एक अलग ही छटा बिखेरते हैं। उदाहरण के लिए एक गीत की पंक्तियां देखिए जिसमें कवि ने एक ऐसी ग्रामीण युवती का वर्णन किया है जो आधुनिक ढंग से सज-धज कर बाजार करने घर से निकली है-
घड़ी बांधे धना जे हाटे चली।
टेरालीन की साड़ी पैरी घेर कमर करधोनी घेरी
मोड़ा मोड़ी खां डांटे चली..... घड़ी बांधे धना जे
दोई पांव पैजनियां नैयां
चटुआ से हाथों में नैयां चुड़ियां
ऐसे लगत जैसे घाटे चली...... घड़ी बांधे धना जे
ठेलम ठेला बीच बजरिया
तिरछी हेरत उनकी नजरिया
दांतों से होठन को काटें चली... घड़ी बांधे धना जे
सोलह बरस की बारी उमरिया
इनखों नैया अपनी खबरिया
‘‘बिहारी’’ के दोंना चाटें चली.....
घड़ी बांधे धना जे
बस, एक बड़ी विसंगति मुखपृष्ठ पर छपे इस शब्द में दिखाई दी -‘‘लोकगीत’’। जब ये कवि के मौलिक गीत हैं तो इसके बारे में लिखा जना चाहिए था ‘‘गीत’’ अथवा ‘‘लोकधुन आधारित गीत’’। ये रचनाएं लोकगीत तो तब सिद्ध होंगी जब ये लोक अर्थात् जन-जन की जुबान पर चढ़ जाएंगी। बहरहाल, कवि बिहारी सागर मात्र काव्य सृजन नहीं कर रहे हैं वरन अपनी काव्य रचनाओं के माध्यम से लोक संस्कारों एवं भावनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे उनका यह संग्रह पाठकों को पसंद आएगा।
----------------------------
#पुस्तकसमीक्षा #डॉसुश्रीशरदसिंह #bookreview #bookreviewer #आचरण #DrMissSharadSingh
No comments:
Post a Comment