Tuesday, June 16, 2015

लेखिकाओं के जोखिम : संदर्भ स्त्री विमर्श - डॉ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh

         




हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श की धारणा बहुत पुरानी नहीं है। यह समाज में स्त्रियों की जागरूकता एवं उनकी   अपने    अधिकारों के  प्रति सजगता के साथ विकसित हुई है। 21 वीं  सदी  के  आरम्भ  तक लेखिकाओं के सृजन की महत्ता को साहित्य जगत ने एक स्वर से स्वीकार कर लिया। विडम्बना यह कि इसके बावजूद लेखिकाओं को उस संकीर्ण मानसिकता का सामना करना पड़ता है जो उसके लेखन मार्ग में जोखिम बन कर प्रस्तुत होती रहती है। यहां मात्र बिन्दुवार चर्चा कर रही हूं -

          1. लेखिका जब किसी अन्य स्त्री की पीड़ा का वर्णन करती है तो उसे उसकी अपनी पीड़ा मान लिया जाता है और उसी के आधार पर लेखिका के प्रति दृष्टिकोण रच लिया जाता है।


         2. यदि लेखिका की नायिका ‘बोल्ड’ है तो अधिकांश पाठक यही मान कर चलते हैं कि लेखिका की जीवनचर्या भी ‘बोल्ड’ होगी। वे उससे मिलने का अवसर पाने पर उससे उसकी नायिका जैसी ‘बोल्डनेस’ की आशा रखते हैं।


        3. जहां तक ‘बोल्ड’ का मामला है तो यदि कथानक स्त्रीजीवन  की   गहराइयों   को  उजागर  कर  के  उसकी समस्याओं को सामने रखने वाला है तो उसे आंखमूंद कर ‘बोल्ड’ का तमगा पहना दिया जाता है। यानी कथानक की गहराई में उतरने का  कष्ट करने से  पहले ही  धारणा का निर्माण। 


       फिलहाल ये तीन जोखिम विचार-विमर्श के पटल पर रख रही हूं शेष अगली कड़ी में।




10 comments:

  1. Thoughtful ....and very true ....
    Sunita Kaushik

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  2. आपको ऐसा क्यों लगा की बोल्ड होना कोई बुरी बात हैI जब किसी के बोलडनेस से किसी को किसी प्रकार की क्षति पहुंचती है तब वोह बुरा होता हैI स्त्री को स्वयं का नजरिया बदलना चाहिए, पुरुषों से अपेक्षा में थोड़ा समय तो जरूर लगेगा पर वक्त जरूर बदलता रहा हैI हाँ बोलडनेस का मतलब कोई अपने जिस्म के नुमाइश से समझता है तो वो केवल अपना स्वयं का मजाक बना रहा होता है, चाहे वो स्त्री हो या पुरुष होI

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  3. दिवाकर जी,
    टिप्पणी के लिए आभार...
    "आपको ऐसा क्यों लगा की बोल्ड होना कोई बुरी बात है" - के तारतम्य में निवेदन है कि बोल्ड का टैग लगाने वालों की धारणा को मैंने यहां रेखांकित किया है। इस मामले में स्त्री, पुरुष दोनों को नज़रिया बदलने और अपने दृष्टिकोण को विस्तृत करने की आवश्यकता है।

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  4. शरद जी , लिखिका ही क्यों ? जब कोई लेखक भी किसी सामाजिक सरोकार और यथार्थ , सार्वजनिक और भोगे हुये से लगे विषय पर लिखता है तो भी उसे उसकी पीड़ा , मान ही लिया जाता है और लोग उसे पढ़कर सहानुभूति की भावना मे बह जाते है और इसमे बुरा कुछ भी नहीं है । लेखन तो कहीं अंदर तक पैठ कर ही हो सकता है

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  5. सहमत दी , पर स्त्रियों के संदर्भ में ये बात
    ज्यादा मानस पर पैठ करती है , महेश जी

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    1. रजनी जी आपकी बात सही है , स्त्री लेखन ,पुरुष लेखन समाज के बनाए हुये है और ये भी सच है स्त्री लेखन को इन विषयों पर बोल्ड कहा जाता है और पुरुष को उश्च्ख्श्रंग/उथला .

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  6. ये सब नारी विमर्श में आये " नकारात्मक पहलू" ही हैं जो नारी होने के नाते नारी को झेलना पड़ता
    है , यदि पर्दा से बाहर नही आएगा तो कुंठा जैसे नासूर समाज में और नारी के प्रति व्यवहार में
    जैसी की तैसी बनी रहेगी ...

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    1. दीदी आपके दूसरे पोस्ट की टिपण्णी भूल वश यहाँ
      छप गयी

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