Friday, August 11, 2023

शून्यकाल | हम जी रहे हैं उत्तर महाभारत काल को | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

मित्रो आज से "दैनिक नयादौर" (सं.श्री काशीराम रैकवार) में पढ़िए प्रति शुक्रवार मेरा कॉलम "शून्यकाल"...
   शून्यकाल
हम जी रहे हैं उत्तर महाभारत काल को 
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                             
         ‘महाभारत’ हमारे देश का एक महत्वपूर्ण महाकाव्य है। हमारे देश के नागरिक ही नहीं वरन पूरी दुनिया इससे परिचित है। यह एक ऐसा महाकाव्य है जो राजनीति की हर सीवन को उधेड़ कर हमारे सामने रख देता है। इसमें एक ऐसे अतीत की गाथा है जो वस्तुतः कभी अतीत बना ही नहीं है। संभवतः जब तक राजनीति है, राजनीतिक लिप्साएं हैं, तब तक महाभारत काल की छाया में ही हम जीते रहेंगे। किन्तु जो समय के साथ थोड़ा-बहुत अंतर आया है, वह जैसा है, उसके आधार पर हम यह मान सकते हैं कि एक कदम आगे बढ़ कर हम उत्तर महाभारत काल को जी रहे हैं।

द्रौपदी की चींख सुन कर भी 
नहीं जागे सभासद
था युधिष्ठिर मौन, सोया धर्म था
उस समय अट्टहास करता
नग्न-नर्तन कर रहा अधर्म था
- यह पंक्तियां मैंने कुछ वर्ष पूर्व लिखी थी ‘महाभारत’ का अध्ययन करने के दौरान। यूं तो बचपन से महाभारत के किस्से पढ़े और सुने थे। जैसा कि हर घर में होता है ‘रामायण’ एवं ‘रामचरित मानस’ तो रखी जाती है किन्तु ‘महाभारत’ नहीं रखते हैं। बच्चों को सिर्फ उसके किस्से सुनाए जाते हैं। यदि घर में इस महाकाव्य को रख भी लिया जाए तो क्रमबद्ध तरीके से इसे पूरा पढ़ा नहीं जाता है। यह माना जाता है कि जिस घर में ‘महाभारत’ का पाठ किया जाए, उस घर में भाई-भाई में टकराव सुनिश्चित है। सच भी तो है, आखिर महाभारत का युद्ध बंधु-बांधवों के बीच लड़ा गया यु़द्ध ही तो था। यह एक ऐसा महाकाव्य है जो महाभारत काल की तस्वीर तो दिखाता ही है, बल्कि हर युग के फ्रेम में सही बैठता है। मात्र हमारे देश में नहीं वरन दुनिया के हर देश में राजनीतिक लिप्सा ने निकृष्टता का इतिहास रचा है। खैर, उस इतिहास से हम सभी भली भांति परिचित हैं कि अतीत में सत्ता हथियाने के लिए क्या-क्या उपाय नहीं किए गए। किन्तु आज महाभारत काल के जिस पक्ष को हम अपने जीवन में जी रहे हैं वह समय-समय पर हमें आकंठ लज्जित करता रहता है। 

महाभारतकाल में स्त्री जितनी स्वतंत्र दिखाई देती है, वस्तुतः उतनी थी नहीं। स्वयंवर का अधिकार था किन्तु विवाह के बाद पांच पतियों को स्वीकार करने की विवशता भी थी। कुन्ती ने अपने नवजात शिशु कर्ण का त्याग क्यों किया? क्योंकि वह अविवाहित मां के रूप में समाज के सम्मुख नहीं आ सकती थी। अंबा, अंबिका और अंबालिका ये तीनों बहनें भीष्म द्वारा अपहृत कर ली गईं ताकि अयोग्य एवं अस्वस्थ राजा से उनका विवाह कराया जाए। अंबा ने विरोध किया और अपने प्रेमी के बारे में खुल कर जानकारी दी तो भीष्म ने उसे उसके प्रेमी के पास भेज दिया। किन्तु अंबा के प्रेमी ने क्या किया? उसे लांछित करके अपने महल से बाहर निकाल दिया। अंबिका और अंबालिका के साथ क्या हुआ? उन्हें परम्परा के दबाव में अनचाहा संबंध बनाना पड़ा। भरे दरबार में द्रौपदी के चीरहरण का प्रसंग तो सभी जानते हैं। यदि कृष्ण का हस्तक्षेप नहीं होता तो द्रौपदी अपना सम्मान गवां बैठती। पांच पतियों के होते हुए भी उसे बहुत-सी मानसिक प्रताड़नाएं सहनी पड़ीं। अज्ञातवास के काल में दासी बनी द्रौपदी को अपने सुख का साधन मानते हुए कीचक ने उसे अपने शयनकक्ष में आने को विवश किया। कहने का आशय है कि स्त्रियां महाभारत काल में जिस तरह असुरक्षित थीं, आज भी असुरक्षित हैं, बल्कि उससे भी अधिक। महाभारत काल में इच्छापूर्ति न होने अथवा पूर्ति होने के उपरान्त किसी स्त्री का वध किए जाने की कोई कथा नहीं मिलती है जबकि आज आए दिन ऐसी घटनाएं घटित होती रहती हैं जिन्हें पढ़-सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जनसेवा का सपना बुनने वाली युवा चिकित्सक को कुछ वहशी अपनी हवस का शिकार ही नहीं बनाते हैं अपितु उसे नृशंसतापूर्वक जला कर मार देेते हैं। प्रेम प्रस्ताव ठुकराने वाली लड़की को सरे आम भरी सड़क पर चाकू से गोद कर मार दिया जाता है। यह तो महाभारत काल में भी नहीं होता था।
राजनीतिक दबंगई दिखाने के लिए महिलाओं को निर्वस्त्र कर सड़कों पर घुमाना, जाति-बिरादरी के नियमों की अवहेलना के नाम पर खाप-पंचायत के द्वारा किसी स्त्री अथवा युवती को निर्वस्त्र कर के गांव में घुमाना और बलात्कार के लिए लड़कियों को ही दोषी ठहराना - यह तो महाभारत के आगे की यानी उत्तर कथा ही कही जा सकती है। मणिपुर की घटना मन को कचोटती है। पीड़ा देते हैं अपराध अन्वेषण ब्यूरो के वे आंकड़े जो बताते हैं कि समूचे देश में हर पांच से पच्चीस मिनट के भीतर एक स्त्री दुव्र्यवहार की शिकार होती है। वह चाहे बलातकार हो, घरेलू हिंसा अथवा मानसिक प्रताड़ना हो ये आंकड़े समाज की बीमार नब्ज़ पर उंगली रखते दिखाई देते हैं। 

व्यवस्थाओं में कहीं तो चूक है जो स्त्रियां आज भी असुरक्षित हैं। शिथिलता कहीं न कहीं तो है। इसके लिए कोई एक नहीं अपितु पूरी व्यवस्था जिम्मेदार है। जिसमें राजनीति, कानून, न्यायपालिका से ले कर आमजन तक शामिल हैं। ‘‘तारीख पर तारीख’’ के संवाद के तमाचे को भी हंसी-मजाक में ले लिया जाता है। जबकि यह उस तबके से उठा करारा तमाचा है जो भ्रष्टाचार के हर स्याह रंग को झेलता रहता है। एक स्टोरकीपर या एक मामूली पटवारी करोड़ों की संपत्ति का मालिक बन जाता है। सब देखते रहते हैं उसे मालिक बनते हुए। यह कोई रातों-रात होने वाली प्रक्रिया नहीं है न ही उस तरह की कि जैसे राजा ने प्रसन्न हो कर गांव के गांव ईनाम में दे दिए हों। जब किसी भ्रष्टाचारी की अट्टालिका बन रही होती है तब सभी उसे टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं और फिर उसके रुतबे का आतंक मन में स्वतः पाल लेते हैं। ऐसे गिनती के लोग हैं जो आर्थिक अपराध शाखा की शरण में जाते हैं। जनता से वसूले गए टैक्स से सड़कें बनती हैं, मिटती हैं, फिर बनती हैं, फिर मिटती हैं और जनता अच्छी सड़क की बाट जोहती बुढ़ाती रहती है। व्यवस्था का चीरहरण होता रहता है और धर्मराज मौन साधे रहते हैं। 

ऐसा लगता है कि वो देना भूल चुके हैं और हम मांगना भूल चुके हैं। यह लेन-देन कोई भिक्षा वाला लेद-देन नहीं है। यह अधिकारों का लेन-देन है। कभी-कभी लगता है कि आमजन उस अवस्था में जा पहुंचा है कि-‘‘जो दे उसका भला, जो न दे उसका भला!’’ यह कथित निर्लिप्तता अथवा अकर्मण्या ही है जो अपराध के विरुद्ध आवाज उठाने की क्षमता को समाप्त करती जा रही है। कानून व्यवस्था को कोसना एक हद तक सही है किन्तु अपने गिरेबां में झांकना भी जरूरी है कि वे अपराधी भी हमारे ही घरों के हैं जो हमारी ही बेटियों को उनकी तस्वीरे इंटरनेट पर वायरल कर देने की धमकी दे कर उनका जीना मुहाल कर देते हैं। समाज, परिवार यह क्यों नहीं समझ पाता है कि यदि अपराधों पर अंकुश लगाना है तो हमें अपने आस-पास सजग दृष्टि रखनी होगी। हमें अपने बीच मौजूद अपराधी मनोवृत्तियों पर अंकुश लगाना होगा। हम तो धर्मग्रंथों को पढ़ने और उनका मान करने वाले लोग हैं, तो यह याद क्यों नहीं रख पाते हैं कि रामायणकाल में रावण का क्या हश्र हुआ और महाभारतकाल में कौरवों और पांडवों दोनों को क्या परिणाम भुगतने पड़े। सत्ता और अधिकार ही सब कुछ नहीं होते हैं, एक स्वस्थ और निरापद समाज ही सुख एवं शांति का असली स्रोत होता है। 

राजनीति दिन प्रति दिन अभद्रता से परिपूर्ण होती जा रही है। अपशब्द और लांछन की बहती गंगा में हर कोई हाथ धोने को तत्पर दिखाई देता है, यह भूल कर कि कभी छींटे उसके दामन पर भी पड़ सकते हैं। फिर जब चुनावपूर्व का समय निकट आने लगा हो तो गरमाहट और बढ़ जाती है और गरम तवे पर हर कोई अपनी रोटियां सेंक लेना चाहता है। धर्म, समाज, अर्थ, राजनीति, परिवार, कानून, व्यवस्था आदि सभी उत्तर महाभारत काल को जी रहे हैं और हम सोचते हैं कि सब कुछ ठीक चल रहा है। अपने दैनिक जीवन के चैबीस घंटों में कुछ पल शून्यकाल यानी तटस्थता को अपना कर सोचना होगा कि क्या सचमुच सबकुछ ठीक है? बहुत देर हो जाने से पहले यह चिन्तन भी आवश्यक है।  
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