आजादी की 75 साल की यात्रा कर हम कहां पहुंचे?
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
‘आजादी ’ एक ऐसा शब्द है जिसका सच्चा अर्थ वहीं समझ सकता है जिसने गुलामी के बंधन को कभी महसूस किया हो। सन् 1947 से पहले हमारे देश पर गुलामी के जो बादल छाए हुए थे उसमें देशभक्तों का दम घुटता था। वे आजाद हवा में सांस लेना चाहते थे। देश को आजाद कराने के लिए उन्होंने लाठियां खाईं, जेल गए, अपने प्राणों की आहुति दी। वे चाहते थे कि देश के लोगों को बोलने की आजादी मिले, लिखने की आजादी मिले, उन्हें ‘थर्ड क्लास के डिब्बे की सवारी मात्र’ न समझा जाए। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सफल हुए और देश आजाद हुआ। इन 75 वर्षों में पूरी दो पीढ़ियां आ चुुकी हैं जिन्होंने गुलामी और आजादी के संघर्ष को नहीं देखा। चूक उन्हीं से हो रही है।
मेरी मां ने आजादी का संघर्ष देखा था। मेरे नानाजी ने आजादी के लिए स्वयं संघर्ष किया था। मैंने नहीं देखा, न तो गुलामी और न आजादी का संघर्ष। मैंने नानाजी और मां से उनके संस्मरण भर सुने। फिर समय के साथ अनेक किताबें पढ़ीं और जाना कि 1947 के पहले का भारत क्या था। यदि आप खुल कर बोल न पाएं, अव्यवस्था के विरुद्ध आवाज न उठा पाएं, अपना अधिकार प्राप्त न कर सकें तो कितना अधिक कष्ट होता है। आज हम राजनीतिज्ञों और सत्ताधारियों को खुल कर कोसने का अधिकार रखते हैं, आज हम उनकी गलतियों की ओर उंगली उठाने का अधिकार रखते हैं लेकिन तब ऐसा नहीं था। प्रतिरोध की हर आवाज़ दबा दी जाती थी और विरोध में उठी हर तर्जनी तोड़ दी जाती थी। यह सच है कि हमारे पूर्वजों से भी कुछ गलतियां हुईं और उन्हीं गलतियों के कारण हमें गुलामी के लम्बे दो सौ साल झेलने पड़े। दुनिया में अपनी सभ्यता का ढिंढोरा पीटने वाले ब्रिटिश यदि सचमुच सभ्य होते तो दूसरों को अपना गुलाम नहीं बनाते। यदि अंग्रेज जनरल डायर सभ्य होता तो निहत्थे स्त्री, पुरुषों और बच्चों पर जलियावालां बाग में गोलियां नहीं चलवाता। यदि ब्रिटिश सचमुच सभ्य होते तो न तो झांसी की रानी लक्ष्मी बाई पर आक्रमण करते और भगत सिंह जैसे न शहीदों के शवों को रात के अंधेरे में चोरी छिपे जलाते। यदि वे सचमुच सम्य होते तो वे अपने क्लबों के दरवाज़ों पर ये न लिखते कि ‘डाॅग्स एंड इंडियन नाॅट एलाउड’। छुरी-कांटे से ब्रेड-बटर खा लेना या कोट-पेंट पहन लेना ही सभ्यता नहीं होती है। हमारे सेनानियों ने उनकी इस कथित सभ्यता को ठुकराया और आजादी हासिल की। किन्तु आजादी के बाद के पचहत्तर सालों में हमने क्या हासिल किया?
आजादी के अमृत महोत्सव के तारतम्य में तुलसी अकादमी की सागर इकाई ने एक कवि गोष्ठी का आयोजन किया था। इस कविगोष्ठी में मैंने भी कविताएं पढ़ीं जिनमें एक छोटी कविता यह भी कि जिसमें मैंने याद दिलाया कि हम कहां से कहां आ गए हैं-
वक़्त जीतता रहा
वो हारता रहा।
एक मरता रहा
राह में तड़प-तड़प
वहीं दूसरा था जो
उसका वीडियो उतारता रहा।
इसी लिए जरूरी हो जाता है कि हम अतीत के संघर्षों को याद करते रहें ताकि हमारे भीतर मानवीय मूल्यों की कमी न होने पाए। हमें याद रखना होगा अतीत के स्याह पलों को और स्वर्णिम संघर्षों को। सिरील रेडक्लिफ नाम के अंग्रेज अधिकारी को देश के बंटवारे का काम सौंपा गया। रेडक्लिफ इससे पहले न कभी भारत आया था। वह भारत की भौगोलिक दशा से ठीक से परिचित भी नहीं था। फिर भी उसने मानवता के विरुद्ध आदेश का पालन किया और नक्शे पर विभाजन की रेखा खींच दी। यह रेखा ऐसी थी जो कई लोगों के घरों के बीच से हो कर गुज़र रही थी। अर्थात् सामने का आंगन भारत में था तो पीछे का आंगन पाकिस्तान में। उस समय जो हिंसा हुई उससे पाकिस्तान से भारत की ओर आने वाली रेलें लाशों से भरी रहती थीं। उन्हें ‘‘शव ढोने वाली रेलें’’ कहा जाने लगा था। ऐसे कठिन दौर से गुज़र कर देश ने स्वतंत्रता की सांस ली। लेकिन इस स्वतंत्रता की सांस के साथ अनंक चुनौतियां मुंह बाए खड़ी थीं।
जिस समय देश आजाद हुआ उस समय देश में 565 छोटी-बड़ी रियासतें मौजूद थीं। इन रियासतों के राजा अपनी स्वतंत्र सत्ता चाहते थे जबकि जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व में गठित देश की प्रथम सरकार चाहती थी कि रियासतें समाप्त कर दी जाएं और सभी एक देश के नागरिक की तरह मिल कर रहें। एक देश और एक राष्ट्रध्वज रहे। किन्तु रियासतों के राजा अपना अधिकार छोड़ने को तैयार नहीं थे। तो सबसे पहले त्रावणकोर के राजा ने अपने राज्य को स्वतंत्र रखने की घोषणा कर दी। उसके बाद फिर हैदराबाद, जूनागढ़, मणिपुर और भी काफी सारी रियासतों ने आजाद रहने की घोषणा कर दी। इससे देश की अखंडता के लिए संकट पैदा हो गया। तब ‘‘लौह पुरुष’’ कहलाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल को यह दायित्व सौंपा गया कि वे रियासतों का विलय कराएं। दृढ़निश्चयी सरदार वल्लभ भाई पटेल ने रियासतों के विलय का अभियान छेड़ दिया। अनेक कठिनाइयों के बाद रियासतों का विलय हो सका। किन्तु कश्मीर ऐसी रियासत थी जिसने विलय की बात इस शर्त पर मानना मंजूर किया कि उसका अपना ध्वज रहेगा और उसका अपना शासन रहेगा। कश्मीर की भौगोलिक स्थिति अतिसंवेदनशील थी। उस पर अधिक दबाव डालने से वह पाकिस्तान के पक्ष में जा सकता था अतः तात्कालिक रूप से उसकी शर्त मान ली गई। धारा 370 के अंतर्गत उसे विशेष राज्य का दर्जा दिया गया। आगे चल कर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस बात का विरोध किया। उन्होंने इस बात का भी विरोध किया कि कश्मीर में दो ध्वज नहीं फहराए जाने चाहिए। अर्थात वहां भी सिर्फ़ तिरंगा फहराया जाए, कश्मीर रियासत का ध्वज नहीं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी। भले ही वे धारा 370 को वापस नहीं करा पाए किन्तु दो ध्वज के बजाए अकेले तिरंगा फहराए जाने के लिए केन्द्र सरकार पर दबाव बनाने में सफल रहे। अंततः सभी रियासतें भारत का अखंड हिस्सा बन गईं और देश एक सुदृढ़ राष्ट्र बनने की राह पर आगे बढ़ने लगा।
एक स्वतंत्र देश का अपना संविधान होना आवश्यक था। संविधान निर्माण भी एक चुनौती बन कर नवोदित देश के सामने खड़ा था। यद्यपि संविधान की संरचना स्वतंत्रतापूर्व ही तैयार कर ली गई थी। इसकी प्रथम बैठक भी स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व हुई थी। 6 दिसम्बर 1946 केा संविधान सभा की स्थापना हुई। 9 दिसम्बर 1946 संविधान सभागृह (संसद भवन सेंट्रल हॉल) में संविधान सभा की पहली बैठक हुई। संविधान सभा को संबोधित करने वाले प्रथम व्यक्ति जे.बी. कृपलानी थे। इसकी अध्यक्षता सच्चिदानन्द सिन्हा ने की। 11 दिसम्बर 1946 राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष, हरेंद्र कुमार मुखर्जी उपाध्यक्ष निर्वाचित। 22 जुलाई 1947 संविधान सभा ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार किया। 15 अगस्त 1947 भारत को स्वतन्त्रता मिली। 29 अगस्त 1947 संविधान मसौदा समिति बनी, जिसके अध्यक्ष डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर बनाए गए। 26 नवम्बर 1949 संविधान सभा ने भारतीय संविधान को स्वीकार किया और उसके कुछ धाराओं को लागू भी किया गया। 24 जनवरी 1950 संविधान सभा की बैठक हुई जिसमें संविधान पर सभी ने अपने हस्ताक्षर करके उसे मान्यता दी। 26 जनवरी 1950 सम्पूर्ण भारतीय संविधान लागू हुआ।
भारतीय अर्थव्यवस्था स्वतंत्रता प्राप्ति के समय अल्पविकसित अर्थव्यवस्था थी। इसमें प्रतिव्यक्ति आय तथा औद्योगिक विकास का स्तर निम्न था । कृषि पर अधिक निर्भरता थी तथा आधारभूत संरचना बहुत पिछड़ी हुई अवस्था में थी। आयातों पर अधिक निर्भरता थी तथा गरीबी, बेरोजगारी व निरक्षरता जैसी सामाजिक चुनौतियाँ भारत में विद्यमान थीं। देश के विभाजन ने उद्योग-धंधों को गहरी चोट पहुंचाई थी। ऐसी स्थिति में कुटीर उद्योगों के साथ बड़े उद्योगों की भी आवश्कता थी। उस कठिन दौर में जमशेदजी टाटा जैसे उद्योगपति सामने आए और उन्होंने बड़े उद्योगों के द्वारा देश को आर्थिक विकास की दिशा दी। बड़े-बड़े बांध बनाए गए जिससे सिंचाई की सुनिश्चित व्यवस्था हो सके। सरकार ने पंचवर्षीय योजना के आर्थिक माॅडल को अपनाया जिससे देश को आर्थि रूप से आत्मनिर्भर बनने में सहायता मिली।
अंग्रेजों ने साम्प्रदायिक वैमन्स्यता की की जो फसल बोयी थी उसे स्वंतत्र भारत को अपने आरंभिक वर्षों में बड़े पैमान पर झेलनी पड़ी। साम्प्रदायिक दंगे देश की शांति के लिए खतरा थे। एक बार फिर आपसी भाईचारे एवं अपनत्व को मजबूत करने की जरूरत थी। देश के बंटवारे ने एक और साम्प्रदायिक विडम्बना खड़ी कर दी थी। पाकिसतान देश के रूप में पश्चिमी पाकिस्तान था जबकि पूर्वी पाकिस्तान भारत को पार कर के बंगाल की खाड़ी की ओर था। पूर्वी पाकिस्तान के निवासी भी स्वयं को अलग देश के रूप में आकार देना चाहते थे। भारत की सुरक्षा भी इसी में निहित थी कि पूर्वी पाकिस्तान को पाकिस्तान से आजाद होने दिया जाए। इसीलिए जब 1972 में पूर्वी पाकिस्तान ने बांग्लादेश के रूप में अपना देश बनाने के लिए युद्ध किया, जिसमें भारत ने बांग्लादेश का समर्थन किया। बांग्लादेश नया देश बन गया। इससे साम्प्रदायिक दंगों में भी कमी आई और धीरे-धीरे देश में शांति और स्थिरता आने लगी।
जिस समय देश आजाद हुआ उस समय समाज में अनेक कुरीतियां व्याप्त थीं। दासी प्रथा, बाल विवाह, अस्पृश्यता आदि कुरीतियां समाप्त नहीं हुई थीं। समाज के चहुंमुखी विकास के लिए आवश्यक था कि इन सामाजिक बुराइयों को समाप्त किया जाए। स्त्रियों में अशिक्षा का बोलबाला था। उनके कानूनी अधिकारी सीमित थे। इसीलिए डाॅ अंबेडकर ने हिन्दूकोड बिल प्रस्तावित किया। दासी प्रथा समाप्त करने के लिए बनाई गई कमेटी में डाॅ. हरीसिंह गौर भी शामिल थे। दलित वर्ग तथा अल्पसंख्यकों की दशा सुधारने के लिएमहत्वपूर्ण कदम उठाए गए। समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए कुछ कानून पेश किए। जैसे सभी लड़कियों के लिए स्कूली शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया गया तथा दण्ड का प्रावधान निर्धारित किया गया।
विभाजन के बाद नवोदित भारत के समक्ष शरणार्थियों को बसाने और उन्हें रोजगार देने की बहुत बडी चुनौती थी। देश के अन्य नागरिकों के साथ उन्हें सम्मानजनक जीवन देना तथा आर्थिक सहायता देना आवश्यक था। इसके लिए एक बड़ी पूंजी की आवश्यकता थी। क्योंकि अनेक शराणार्थी अपना सब कुछ छोड़ कर जैसे-तैसे जान बचा कर भारत आए थे। उनके पास किसी भी प्रकार का धंधा शुरू करने के लिए पैसा नहीं था। अतः नवोदित सरकार ने स्थाई शरणार्थी शिविर बनाए जहां उन्हें बसाया गया। उनके बच्चों के लिए सकूल खोले गए और उन्हें रोजगार के अवसर प्रदान किए गए।
पाकिस्तान एक पड़ोसी देश का रूप ले चुका था। वह अधिक से अधिक भारतीय भूमि हथिया लेना चाहता था। उसने कश्मीर पर अपना दावा किया। बात अंतर्राष्ट्रीय संस्था यूनाईटेड नेशन्स तक पहुंची किन्तु यूनाईटेड नेशन्स ने भारत का साथ देते हुए कश्मीर के मामले में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया। पाकिस्तान शांति से बैठने वालों में से नहीं था। वह निरंतर भारत की सीमावर्ती भूमि को हथियाने के प्रयास करता रहा जोकि आज तक जारी हैं। दूसरा अवसरवादी पड़ोसी चीन था जो संकट बन कर उभरा। भारत-चीन मैत्री का नारा लगाते हुए वह आक्रमणकारी बन बैठा। 29 अप्रैल 1954 को पंचशील समझौते हस्ताक्षर हुए थे। ये समझौता चीन के क्षेत्र तिब्बत और भारत के बीच व्यापार और आपसी संबंधों को लेकर ये समझौता हुआ था। लेकिन चीन ने उस समझौते को भुला कर भारतीय भू-भाग पर हमला कर दिया। चीनी सेना ने 20 अक्टूबर 1962 को लद्दाख में और मैकमोहन रेखा के पार एक साथ हमले शुरू कर दिए। भारत चीन के बीच युद्ध का मुख्य कारण अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों की संप्रभुता को लेकर विवाद था। नवोदित भारत की सामरिक स्थिति चीन के सामने अत्यंत कमजोर थी, फिर भी भारतीय सेना के वीरों ने डट कर सामना किया।
इस प्रकार अपनी स्वतंत्रता के बाद नवोदित भारत ने अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए स्वयं को न केवल स्थापित किया बल्कि आर्थिक, सामाजिक, एवं सामरिक दृष्टि से निरंतर विकास करता गया। विभाजन के रक्त की नदी से नहा कर मिली स्वतंत्रता, भाईचारे के नाम पर आक्रमण, आर्थिक एवं सामरिक निर्बलता, सामाजिक कुरीतियां आदि सभी चुनौतियों का डट कर सामना करते हुए नवोदित भारत ने स्वयं को आज ‘‘विश्व गुरु’’ के मुकाम तक पहुंचा दिया है। वस्तुतः भारत का विकट चुनौतियों से शांति एवं धैर्य के साथ डट कर किया गया संघर्ष एक आदर्श उदाहरण है पूरी दुनिया के लिए। लेकिन वहीं संवेदनाओं में आती गिरावट हमें पूरी दुनिया के सामने बार-बार लज्जित करती है। इन 75 सालों में हमने चहुंमुखी प्रगति की है लेकिन साथ ही वाचाल, असभ्य और असंवेदनशल हो चले हैं। इस तरह आजादी का दुरुपयोग करने का भी हमें अधिकार नहीं है। कम से कम युवा पीढ़ी को इस तथ्य को समझना होगा। उन्हें याद रखना होगा कि देश की सम्यता उसके नागरिकों की हरकतों के आधार पर आंकी जाती है, संस्कृति की प्राचीनता का अतीत हमेशा ढाल नहीं बन सकेगा। इसलिए याद रखना होगा कि-
लाठी खाई रक्त बहाया
तब मिल पाई आजादी
अपने जीवन-प्राण लुटा कर
हमें दिलाई आजादी।
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