"दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम ...
शून्यकाल
अतीत में मौज़ूद हैं वर्तमान और भविष्य के उत्तर
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह हम मानव विवाद पसंद हैं। कोई यह कहे कि मुझे विवाद पसंद नहीं, तो वह झूठ बोल रहा होता है। विवाद का स्वरूप बड़ा या छोटा हो सकता है लेकिन विवाद हर व्यक्ति के विचारों का अभिन्न हिस्सा है। जिस तरह वर्तमान विवाद का विषय है कि देश को किसने बिगाड़ा और किसने सुधारा? बड़ा मन लगता है सभी का इस बहस में। इसी तरह एक और विवाद का विषय हुआ करता है कि महाभारत के युद्ध के लिए कौन जिम्मेदार था द्रौपदी या महारथी? वर्तमान और अतीत के इन दोनों विवादों का आपस में घनिष्ठ संबंध है, चलिए तनिक बारीकी से विचार करें।
बुंदेलखंड में ही नहीं वरन् देश के सभी हिस्से में विवाह के अवसर पर अपने-अपने ढंग की गारी गाने का रिवाज़ है। ‘गारी’ यानी वह गीत जिसमें एक पक्ष दूसरे पक्ष पर सीमाएं तोड़ता हुआ कटाक्ष करता है। लगभग गाली देने के समान। शायद इसीलिए इसे ‘गारी’ शब्द कहा गया। मजे की बात ये है कि इन गारियों का कोई बुरा नहीं मानता है। कई गारियों में चुभता हुआ हास्य होता है जिस पर यदि कोई चाहे तो दुश्मनी पाल सकता है किन्तु सभी जानते हैं कि यह शत्रुभाव से नहीं गाया जाता है बल्कि छेड़खानी के उद्देश्य से गाया जाता है। बुंदेलखंड में एक गारी गीत है जो वधुपक्ष की ओर से वरपक्ष के लिए गाया जाता है। इसके बोल हैं-
मोरे नए जजमान कुत्ता पाल लेओ
कुत्ता पूंछ जैसे समधी की मूंछ
कुत्ता पाल लेओ।
कुत्ता की पीठ जैसे समधन की छींट
कुत्ता पाल लेओ।
ये गीत कुछ दशक पहले खूब गए जाते थे और इन पर खूब हंसी ठहाके लगते थे। कोई बुराई नहीं, कोई बैर नहीं। जरा सोचिए कि यही गीत अगर आज कोई एक राजनीतिक दल दूसरे राजनीतिक दल के लिए गा दे तो क्या अंजाम होगा? निःसंदेह, गीत गाने वाले को सोशल मीडिया पर बुरी तरह ट्रोल किया जाएगा। उस के विरुद्ध एफआईआर दर्ज़ करा दी जाएगी। उसके खानदान तक को गरियाया जाएगा। उसे पकड़ कर जेल भेज दिए जाने की पुरजोर मांग की जाएगी। इस उदाहरण पर समीक्षक कहेंगे कि यह होना ही चाहिए क्योंकि राजनीति आखिर राजनीति है कोई वैवाहिक संदर्भ नहीं। लेकिन इसे कैसे भुला दिया जा सकता है कि राजनीति में ही ‘गठबंधन’, ‘परिणय’, ‘सुहागरात’ जैसे शब्दों का राष्ट्रीय स्तर पर प्रयोग किया जा चुका है और समय-समय पर होता रहता है।
परिवार में कुछ रिश्तों को हंसी-मज़ाक और ठिठोली की छूट दी गई है। जैसे जीजा-साली के बीच मज़ाक, देवर-भाभी के बीच मज़ाक। यह अपेक्षा रखी जाती है कि इन मजाकों में सीमाएं नहीं लांघी जाएंगी। लेकिन हर समय क्या इस तरह का संयम संभव है? प्रावधान है किन्तु समाधान नहीं। जब समाधान नहीं होता है तो टकराव तथा मनमुटाव होना सुनिश्चित होता है। द्रौपदी कौरवों की भाभी थी। दुर्योधन की भी। दुर्योधन जल और थल में अन्तर नहीं समझ सका और गिर गया पानी में। द्रौपदी ने हंस कर कह दिया,‘‘अंधे के पुत्र अंधे होते हैं।’’ यदि देवर और भाभी के बीच के माजक के रूप में इसे देखा जाए तो यह कोई बहुत गंभीर कथन नहीं था, लेकिन यदि उचित और अनुचित की कसौटी पर कसा जाए तो यह अनुचित ही था। क्या मात्र यह कथन था जिसने कौरवों और पांडवों को परस्पर एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर दिया? क्या यही एक बड़ा और बुनियादी कारण था महाभारत के युद्ध का? कितना कंट्रास्ट है, कितना विरोधाभास। एक स्त्री का कथन इतना अधिक चुभ गया कि उसे गांठ बंाध लिया गया, जबकि न जाने कितनी स्त्रियों को बलात उठा कर अपने रनिवास में शामिल कर लिया जाता था। स्वयं द्रौपदी के साथ कितना बड़ा अन्याय हुआ। उसने वरमाला डाली अर्जुन के गले में। वह पत्नी बनी अर्जुन की। किन्तु धर्मराज युधिष्ठिर ने उसे ‘भिक्षा’ कहा। यदि द्रौपदी को भिक्षा न कहा गया होता तो शायद कुन्ती भी ‘‘आपस में बांट लो!’ की आज्ञा नहीं देती। फिर आज्ञा भी कैसी अकाट्य मान ली गई। स्त्री कुन्ती की आज्ञा को पांडवों द्वारा अकाट्य रूप से शिरोधार्य मान लिया गया। कुन्ती ने जब द्रौपदी को देखा तो उसे अपनी आज्ञा पर पछतावा हुआ, किन्तु उसके पांचों आज्ञाकारी पुत्र उसके कथन को अकाट्यमान कर चले और द्रौपदी को पांच पतियों की पत्नी बनना पड़ा। एक ऐसी स्त्री जो एक पुरुष के साथ जीवन व्यतीत करने का स्वप्न ले कर राजकुमारी होते हुए भी उत्साहपूर्वक एक सामान्य सी कुटिया में चली आई थी, उसे पल भर में पांच पतियों के बीच बंट जाना पड़ा। क्या उससे किसी सामान्य व्यवहार की आशा रखी जा सकती थी? जो उसके साथ हुआ क्या वह सब सामान्य था? संबंधित कथाओं में कहा गया है कि उसने अपनी तपस्या के दौरान पति की मांग करते हुए पांच बार ‘‘पति’’ शब्द का उच्चारण कर दिया था अतः देवता ने उसे प्रसन्न हो कर पांच पति दे दिए। उसी देवता ने कौरवों को उस समय बुद्धि क्यों नहीं दी जब भरी सभा में द्रौपदी का चीरहरण किया जा रहा था? तर्क अनेक हैं किन्तु अंतिम तर्क यहीं नहीं ठहरता है।
महाभारत की कथा राजसत्ता के संघर्ष की कथा है। दुर्योधन ने पांडवों को पांच गांव दे दिए जाने के प्रस्ताव पर ताल ठोंक कर कहा था-‘‘मैं पांडवों को सुई की नोंक के बराबर भी जमीन नहीं दूंगा।’’
शायद किसी को याद हो पिछले साल यानी 2022 की घटना। महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद के बीच सीएम बसवराज बोम्मई ने एकनाथ शिंदे को कहा था कि ‘‘राज्य की एक इंच भी जमीन नहीं देंगे।’’ दरअसल, महाराष्ट्र के दोनों सदनों में 865 विवादित गांवों की जमीन राज्य में मिलाने का प्रस्ताव पास हुआ था। इस पर बोम्मई ने आपत्ति जताते हुए कहा था, ‘यह सिर्फ एक नौटंकी है। हम राज्य की एक इंच भी जमीन महाराष्ट्र को नहीं देंगे।’’
विवाद, जमीन पर विवाद, जमीन पर राजनीति। एक इंच जमीन हो या सुई की नोंक बराबर, बात तो एक ही है। कटुता भरा विवाद। कौरवों-पांडवों के समय और वर्तमान समय के विवाद में अंतर मात्र इतना है कि उस समय तात्कालिक दल-बदल नहीं हुआ करते थे। आज तात्कालिक लाभ सर्वोपरी माना जाता है। ऐसी भी घटनाएं हुई हैं कि एक छोटा किन्तु पूरा का पूरा दल अपना ‘‘मातृदल’’ छोड़ कर दूसरे सशक्त दल से जा मिला है। खैर, मुद्दा यह नहीं है। प्रकरण एक अदद कथन का है कि क्या द्रौपदी के कथन ने युद्ध का वातावरण निर्मित कर दिया था? यदि यह संभव होता तो भीष्म द्वारा काशी नरेश की अपहृत तीन पुत्रियों में सबसे बड़ी अंबा का प्रलाप, उसका श्राप शायद युद्ध का पहला कारण गिना जाता। किन्तु उसे तो हाशिए पर रखा गया और उसके साथ भ्रम जोड़ दिया गया कि अंबा अपने तीसरे जन्म में शिखण्डी के रूप में थर्ड जेंडर थी। जन्म-जन्मान्तर तक बल, छल, मिथ्या कथन की शिकार होती रही एक स्त्री। क्यों दबाया गया इस बात को कि टेस्टट्यूब बेबी की जन्म प्रक्रिया की भांति घड़ों में सौ पुत्रों को जीवन देने वाले तत्कालीन विज्ञान ने ही स्त्री शिखण्डी को सर्जरी द्वारा लिंग परिवर्तन कर यु़द्ध के मैदान में जा सकने योग्य पुरुष बनाया था। तत्कालीन वैज्ञानिक उत्कृष्टता के उस पक्ष को बार-बार दोहराया गया जो सुविधाजनक लगा। वहीं उस पक्ष को भ्रम की चादर में लपेट दिया गया, जो असुविधाजनक लगा। यही तो है कि राजनीति की वास्तविकता को जान पाना बहुत कठिन होता है। कम से कम समकालीन स्थिति में अनेक सच बहुत गहरे दबे रहते हैं। भविष्य में उनमें से कुछ पुनर्आकलन में उभर कर सामने आ जाते हैं और कुछ और आगे के समय की प्रतीक्षा में दबे रहते हैं। फिर भी कुछ हमेशा के लिए विस्मृति की तलछठ में सो जाते हैं। यदि किसी भी युग की राजनीति का रंच मात्र भी समझना है तो अतीत की रोचक कथा में जा कर मात्र यही समझना पर्याप्त होगा कि महाभारत के लिए द्रौपदी का कथन जिम्मेदार था या कौरवों-पांडवों जैसे महारथियों की राजनीतिक लिप्सा? कई बार अतीत में वर्तमान और भविष्य के उत्तर भी मौजूद होते हैं, जरूरत होती है तो सिर्फ उन्हें समझने की।
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