Tuesday, August 22, 2023

पुस्तक समीक्षा | नवगीत की घाटियों में गूंजता भावनाओं की बांसुरी का सप्त स्वर | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 22.08.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई वरिष्ठ गीतकार राजेन्द्र गौतम के काव्य संग्रह "आवाज़ मौसम की" की समीक्षा।

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पुस्तक समीक्षा
नवगीत की घाटियों में गूंजता भावनाओं की बांसुरी का सप्त स्वर
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - आवाज़ मौसम की
कवि       - राजेन्द्र गौतम
प्रकाशक    - अनुज्ञा बुक्स, 1/10206, लेन नं. 1ई, वेस्ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली- 110 032
मूल्य       - 400/-
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राजेन्द्र गौतम हिन्दी की नवगीत विधा के एक वरिष्ठ और स्थापित नाम हैं। उनका ताज़ा नवगीत संग्रह ‘‘आवाज़ मौसम की’’ मात्र 61 नवगीतों का संग्रह नहीं है वरन यह अपने-आप में नवगीत की गीतात्मक यात्रा की कथा है। यह यात्रा राजेन्द्र गौतम के लगभग 1972-73 के नवगीतों से आरम्भ होती है। इनसे नवगीत की उस समय की प्रकृति एवं प्रवृत्ति को समझा जा सकता है जब नवगीत विधा अपने स्वर्णकाल में विस्तार पा रही थी। हिन्दी साहित्य में गीत विधा पहले से विद्यमान थी, फिर भी नवगीत के शिल्प की आवश्यकता को अनुभव किया गया और इस विधा को भरपूर लोकप्रियता भी मिली। नवगीत में गीत की अपेक्षा कुछ छूटें ली गई थीं जिससे इसके कथ्य को चहुंमुखी दिशाएं मिलीं। सन् 2012 में नवगीत विधा पर नवगीतकार वीरेन्द्र आस्तिक का एक लंबा लेख प्रकाशित हुआ था जो आज भी ‘‘पूर्वाभास’’ की इन्टरनेट साईट पर पढ़ा जा सकता है। अपने इस महत्वपूर्ण लेख में वीरेन्द्र आस्तिक ने नवगीत की तत्कालीन सृदृढ़ स्थिति एवं संभावनाओं के साथ ही आवश्यकताओं पर भी प्रकाश डाला था। लेख का शीर्षक था-‘‘नवगीत का संक्षिप्त इतिहास और उसकी मौजूदा समस्याएं’’। अपने इस लेख में उन्होंने एक वाक्य लिखा था-‘‘आज नवगीत एक समृद्ध विधा है। बल्कि मुझे तो ऐसा लगता है कि भविष्य में नवगीत का सुनहरा युग आने वाला है।’’

निश्चित रूप से वह सुनहरा युग आया। यूं तो शंभूनाथ सिंह को नवगीत का प्रणेता माना जाता है, वहीं कुछ लोग राजेन्द्र प्रसाद सिंह को नवगीत का प्रवर्तक मानते हैं। बहरहाल, आरंभ जिसने भी किया हो किन्तु इसे सोपान चढ़ाया उन अनेक नवगीतकारों ने जिनमें से कुछ प्रमुख नाम हैं- त्रिलोचन शास्त्री, केदारनाथ सिंह, गोपालदास नीरज, धर्मवीर भारती, रवीन्द्र भ्रमर, रमेश रंजक, कुमार शिव, वीरेन्द्र मिश्र, कुंवर नारायण, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, बालस्वरूप राही, रामदरश मिश्र, नरेश सक्सेना, ओम प्रभाकर, बुद्धिनाथ मिश्र, अनूप अशेष, नईम, राजेन्द्र प्रसाद सिंह, उमाकांत मालवीय आदि। लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि नवगीत को नेपथ्य में धकेला जाने लगा। इस संदर्भ में मैं फिर वीरेन्द्र आस्तिक के लेख का एक अंश दे रही हूं जिसमें उन्होंने नवगीत के नेपथ्य मे जाने के भावी कारण की मानो पहले ही घोषणा कर दी थी-‘‘यहां मैं आलोचना पर जोर क्यों दे रहा हूं? विगत में डॉ नामवर सिंह जैसे गद्य कविता के आलोचक यह कहते आए हैं कि ‘गीत आलोचना की वस्तु नहीं है।’ यह कहकर वे एक तीर से दो निशाने साधते रहे हैं। एक- गीत इस लायक नहीं कि उसकी आलोचना हो और दो- शैक्षिक जगत में, गद्य कविता का एकाधिकार बरकरार रहे। मेरा मानना है कि यदि गीत पर विमर्श नहीं होगा तो वह मूल्यांकित भी नहीं होगा और यदि उसका मूल्यांकन नहीं होगा तो पाठ्यक्रमों आदि में प्रवेश का रास्ता भी नहीं बन पाएगा। यहां पर मैं बड़े आदर के साथ उन सभी आलोचकों-समीक्षकों को याद करता हूं जिनकी महती भूमिका से नवगीत समृद्ध हुआ। लेकिन बात वहीं की वहीं है कि नवगीत आज साहित्य की मुख्य धारा में नहीं है जिसका वह हकदार है, क्योंकि उसकी वकालत के लिए हमारे पास बड़े आलोचक नहीं है।’’

एक कारण और भी रहा है जिसका अनुमान लेख लिखने के समय आस्तिक जी को नहीं रहा होगा कि भविष्य में साहित्य सृजन के प्रति श्रम में घोर कमी आने लगेगी। नवगीत भी श्रम की मांग करता है अर्थात् नवगीत सृजन उन कवियों के लिए धैर्य चुका देने वाला कार्य था जो रातों-रात कवि कहलना जाना चाहते हैं। नवगीतकार  माहेश्वर तिवारी ने नवगीत की खूबी बताई थी कि-‘‘नवगीत अपने समय की आधुनिकता बोध से सम्पन्न संपृक्त छांदसिक रचना है।’’
नवगीत के लिए शुजालपुर मंडी के इशाक अश्क तथा भोपाल के राम अधीर जी ने वर्षों मेहनत की और नवगीत विधा पर पत्रिकाएं निकालीं। लोगों ने ‘‘घर फूंक तमाशा’’ कहा इसे। पर वे दोनों डिगे नहीं। नरेन्द्र दीपक ने भी नवगीत को सहेजने के लिए अपने संपादन में एक पत्रिका को जीवित रखा हुआ है। इंटरनेट पर भी कुछ ग्रुप हैं जो नवगीत लेखन कोे श्वास देने का कार्य कर रहे हैं। नवगीत के ऐसे कठिन दौर में राजेन्द्र गौतम का नवगीत संग्रह ‘‘आवाज़ मौसम की’’ आना शुभ संकेत है। वे सृजन की त्रुटियों एवं कमियों से वर्षों पहले बहुत आगे निकल आए हैं। इस संग्रह में उनके सभी नवगीत परिपक्व हैं, सधे हुए हैं।

संग्रह में अपने गीतों को राजेन्द्र गौतम ने पांच उपशीर्षकों में विभक्त किया है- लपटों भरा आकाश, मेघदूत आया, शरद की भोर, शीत लहर, नंगी डालें तथा देह थिरकती है मौसम की। सभी नवगीतों में प्रकृति की प्रधानता है। कवि ने प्रकृति को लक्ष्य कर के अपनी तमाम अभिव्यक्ति को शब्दबद्ध किया है। एक नवगीत है ‘‘दहकते छन्द’’। इसमें समसामयिक व्यंजना को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है-
बचा कर भी
कहां ले जायें
हम ये झुलसती कलियां
सुलगती आग है अब झील-तल में
या कमल-वन में।
हुआ सम्बन्ध गहरा
आंधियों से
और अब इसका
तवे-सी तप रही जो
जेठ की दोपहर पल-पल है
क्षितिज पर
दूर धुंधले में
विवश मंडरा रहीं चीलें
न जाने कब गिरे भू पर भू
थका हर पंख निर्बल है
घटाओं के सपन ढोता फिरे
आकाश बंजारा
रचें पर दग्ध तलवे रेत की छुवनें,
चुभन तन में।

राजेन्द्र गौतम समय की नब्ज़ को पकड़ना बखूबी जानते हैं। वे स्थितियों पर कटाक्ष करते हैं, दुख प्रकट करते हैं, असंतोष जताते हैं। इन सबमें उनके शब्दों का चयन अपनी महत्ता स्वयं प्रकट कर देता है। उदाहरण के लिए संग्रह का नवगीत ‘‘पथरा चुकीं झीलें’’ को ही लें-
कभी मौसम के पड़ें कोड़े
कभी हाकिम जड़े सांटे खाल मेरे गांव की
कब तक दरिन्दों से
यहाँ खिंचती रहेगी!
दूर तक जो
भूख से सहमे हुए
सीवान ठिठके हैं
कान में उनके सुबकतीं
प्यास से पथरा चुकीं झीलें
रेत के विस्तार में
यों ठूंठ दिखते हैं करीलों के
ज्यों ठुकीं गणदेवता की
काल-जर्जर देह में कीलें
खुरपियों को कब इजाजत
धूप में भी रुक सकें पल भर
जाड़ियां भिचती अगर हैं
प्यास से भिंचती रहेंगी!

नवगीत की यह विशेषता रही है कि उसने जहां यथार्थवाद के गुणों को अपनाया, वहीं छायावाद के प्रकृति के मानवीय करण को भी आत्मसात किया। इससे नवगीत में कठोरता और कोमलता संतुलित रूप में एक साथ बनी रही। आंचलिक भाषा एवं बोलियों को भी नवगीत में पर्याप्त स्थान मिलता रहा है ताकि उनका लोक एवं जनमूल्य बना रहे। राजेन्द्र गौतम के नवगीत ‘‘हिम-सी जमी है’’ के एक बंद से नवगीत की इन खूबियों को भली-भांति समझा जा सकता है-
सांझ की
यह वृद्ध बेला
लौटती पगडण्डियों से
मौन की थामें उंगलियां।
ओस की
बूंदों सरीखी की
दूब पातों पर उतरती
जा रही है नम उदासी
एक-
अनजानी विकलता
साथ अपने खे रही है
यह नदी क्यों विफलता-सी
ये बुरुसों
की कतारें
दूर तक हिलतीं, डुलातीं-
हों तटों को ज्यों बिजनियां।

‘‘आवाज़ मौसम की’’ संग्रह की भूमिकाएं वेद प्रकाश शर्मा ‘‘वेद’’ तथा डाॅ. कुसुम सिंह ने लिखी हैं। नवगीतकार राजेन्द्र गौतम का यह नवगीत संग्रह नवगीत के भाषिक संस्कार, शिल्प के सौष्ठव एवं प्रवाह लहरियों से ठीक उसी प्रकार परिचित कराता है, मानो नवगीत की सुरम्य घाटियों में भावनाओं की बांसुरी का सप्तक स्वर गूंज रहा हो जिसमें अव्यवस्था के प्रति रोष का भारी मंद सप्तक स्वर भी है और प्रकृति के सौंदर्य का पंचम मधुर सप्क स्वर भी। वस्तुतः नवगीत विधा के शोधार्थियों तथा नवगीत सृजनधर्मियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण संग्रह है।      
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