Wednesday, August 30, 2023

पुस्तक समीक्षा | एक फाॅरेस्ट ऑफिसर के रोचक संस्मरणों का रोचक सफ़रनामा | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है 29.08.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक प्रेम नारायण मिश्रा की पुस्तक "उद्गार: एक फाॅरेस्ट  ऑफिसर  का सफ़रनामा" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
एक फाॅरेस्ट ऑफिसर  के रोचक संस्मरणों का रोचक सफ़रनामा
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक     - उद्गार: एक फाॅरेस्ट  ऑफिसर  का सफ़रनामा
लेखक     - प्रेम नारायण मिश्रा
प्रकाशक    - आईसेक्ट पब्लिकेशन ई-7127, एस.बी.आई. अरेरा कॉलोनी भोपाल-462016
मूल्य       - 300/-
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प्रेम नारायण मिश्रा साहित्य जगत के लिए एक नया नाम कहा जा सकता है किन्तु उनके वे अनुभव पुरातन एवं दीर्घकालिक हैं जिन्हें उन्होंने अपनी पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया है। डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से विज्ञान विषय से स्नातक करने के बाद प्रेम नारायण मिश्रा ने फॉरेस्ट रेंजर कॉलेज कोयंबटूर से दो वर्ष की तकनीकी शिक्षा संबंधी डिग्री प्राप्त की। वन विभाग के अधिकारी पद पर रहते हुए उन्होंने पूर्व मध्य प्रदेश में वनों का निकटता से गहन अध्ययन एवं भ्रमण कर वनवासियों का सान्निध्य, वन्य प्राणियों की निकटता से अनुभूति का दीर्घ अनुभव प्राप्त किया। सेवानिवृत्ति के उपरान्त संस्मरण के रूप में अपने अनुभवों को लेखबद्ध किया है ‘‘उद्गार: एक फाॅरेस्ट ऑफिसर का सफरनामा’’ में।
जंगल हमें लुभाते हैं। अपने पास बुलाते हैं। साथ ही रहस्मयमय भी लगते हैं। शहरी क्षेत्र के लोगों के लिए वन, वनोपज, वनवासी ये तीनों सदैव कौतूहल का विषय होते हैं। किन्तु एक बार जिसने वन को करीब से देख लिया, वह उसे कभी विस्मृत नहीं कर पाता है। वन की प्राकृतिक विशेषताएं चेतन मन पर ही नहीं, वरन अवचेतन मन पर भी अपनी छाप छोड़ जाती हैं। ‘‘उद्गार: एक फाॅरेस्ट आफीसर का सफरनामा’’ जब मेरे हाथों में आई तो मेरी अनेक स्मृतियां ताज़ा हो उठीं। मेरा जंगल से विशेष संबंध रहा है। मेरा बचपन पन्ना के सघन वन में घूमते, उसे महसूस करते व्यतीत हुआ। किशोरावस्था में मनेन्द्रगढ़ के निकट के जंगलों विशेषरूप से ग्राम बिजुरी से मनेन्द्रगढ़ के बीच विस्तारित बोरीडण्ड के जंगलों में तेंदू के वृक्षों, फलों और भालुओं के बारे में जानने का अवसर मिला। बुंदेलखण्ड के सागौन के सरसराते वनों से हर्र, बहेरा, आंवला, तेंदू आदि के वृक्षों वाले मनेन्द्रगढ़ के वनों का सफर मेरे जीवन में नए अध्याय जोड़ता गया। सतपुड़ा के जंगल भी निकट से देखे हैं। पन्ना नेशनल पार्क को बनते देखा तो कान्हा नेशनल पार्क को विकसित अवस्था में देखा। इसीलिए जब यह पुस्तक मेरे हाथों में आई तो कई ऐसे परिचितों एवं मित्रों की भी स्मृतियां ताज़ा हो गईं जो वन विभाग में सेवारत थे। इस संदर्भ में प्रेम नारायण मिश्रा की यह पुस्तक जिन्होंने वन को निकट से नहीं देखा उन्हें वनों की सैर कराती है, जिन्होंने वनों को महसूस किया है, उनकी स्मृतियां जगा देती है। इस पुस्तक में वन विभाग में सेवारत रहते हुए आने वाली परेशानियों का भी विवरण है क्योंकि वे सभी उनकी स्वयं की झेली हुई परेशानियां हैं।
प्रेम नारायण मिश्रा के संस्मरण बचपन से आरम्भ होते हैं और शिक्षा, नौकरी के छोटे-बड़े अनुभवों से गुज़रते हुए सेवानिवृत्ति पर समाप्त होते हैं। यथार्थ भी यही है कि कैरियर की नींव अप्रत्यक्ष रूप से बचपन में ही पड़ने लगती है तथा एक नौकरीपेशा व्यक्ति के नौकरीकाल के अनुभवों का दौर उसकी सेवानिवृत्ति के साथ ही विराम की अवस्था में पहुंच जाता है। इसके बाद आरम्भ होता है जीवन का अगला, भिन्न अनुभवों वाला सेवानिवृत्ति का समय। चूंकि लेखक ने ‘‘एक फाॅरेस्ट ऑफिसर का सफरनामा’’ लिखा है अतः स्वाभाविक रूप से सेवानिवृत्ति पर पहुंच कर सफरनामा थम जाता है। लेखक मिश्रा ने अपने संस्मरणों को 16 अध्यायों में लेखबद्ध किया है।
पहले अध्याय में है बचपन, किशोरावस्था, ग्रामीण परिवेश, दादा-दादी का दुलार, वरिष्ठ कुटुम्बियों का सहयोग, कृषि की मोहकता, प्रारंभिक शिक्षा एवं विश्वविद्यालय की शिक्षा एवं माहौल का चित्रण। दूसरे अध्याय में कोयंबटूर वन विद्यालय में प्रशिक्षण के दो वर्षों का विवरण एवं बस्तर में पदस्थिति पर प्रारंभिक क्षेत्रीय प्रशिक्षण के स्थानों एवं कार्यों का विवरण है। इस अध्याय में लेखक ने बड़े सुंदर शब्दों में जानकारी दी है कि -‘‘देहरादून और कोयंबटूर फॉरेस्ट्री के दो ऐसे तीर्थस्थल हैं जहां जितनी बार भी जाओ कुछ नया सीखने को मिलता है। इस दौरान श्रीप्रकाश को समझ में आया कि शैक्षणिक बौद्धिकता और प्रशिक्षण की बौद्धिकता में क्या अंतर है। शैक्षणिकता जमीन है। प्रशैक्षणिक योग्यता आसमान है। जमीन से उठकर आसमान के सितारों का भ्रमण बगैर प्रशिक्षण संभव नहीं है। प्रशिक्षण के बाद बस्तर में वन अधिकारी की पदस्थिति हुई। प्रकृति ने दुत्कारा भी, पुचकारा भी।’’
इसी दूसरे अध्याय में वे अपने कुछ अनुभव इस प्रकार बताते हैं कि-‘‘केशकाल सिर्फ बसों का मेजबान था और कुछ फारेस्ट के उपज के व्यापारियों के मकान थे। रेस्ट हाउस फारेस्ट का अंग्रेजों के समय का था आलीशान। कोंडागाँव, दण्डकारण्य प्रोजेक्ट स्थापित था, रोशनी दिखी और बस्ती भी। बस्तर तो ऐसा गाँव था कि बस भी नहीं रुकती थी, लेकिन जगदलपुर 15 किमी ही था । सड़क बस, बैलगाड़ी के रास्ते से प्रथम श्रेणी ही आगे बड़ी थी। जगदलपुर ही एक ऐसा स्थान था जिसे राजा भंजदेव के पूर्वजों ने बसाया था। एक जिला मुख्यालय जगदलपुर जिसकी सीमा महाराष्ट्र को छूती 300 किमी की दूरी पर, आंध्रा तक 200 से 250 किमी, रायपुर 250 किमी, उड़ीसा 50 किमी थी। इंद्रावती नदी के किनारे बसी यह बस्ती छोटी ही थी। राजा का भवन, रेस्टहाउस, हवाई पट्टी यहाँ के आकर्षण थे। केवल एक्की दुक्की शासकीय बसें ही चारों ओर से संपर्क बनाती थी। भोपालपटनम 200 किमी से अधिक दूर जिससे आगे गोदावरी आंध्रा की एवं महराष्ट्र की सीमा बनती थी। 200 किमी कोंटा में कोलाव आंध्रा एवं उड़ीसा की सीमा बनाती और आगे भद्राचलम गोदावरी के तट पर आंध्रा का तालुक था। बस्तर बहुत बड़े भूखण्ड वाला इलाका था जिसमें अस्सी प्रतिशत फारेस्ट था और लगभग बीस प्रतिशत वर्जिन फारेस्ट था, जो मानवीय गतिविधि से अछूता था। सभी प्रकार के वन्य जीव प्रजातियाँ यहाँ उपलब्ध थी समूचे भूखंड की आबादी सिर्फ 10 लाख थी।’’
तीसरे अध्याय में जगदलपुर मुख्यालय परिक्षेत्र में पदस्थिति पर वहाँ के कार्यों, भौगोलिकता, क्षेत्रीय जनता एवं सहयोगी कर्मचारियों का विवरण है। चैथे अध्याय प्रथम प्रभारी अधिकारी के रूप में भानपुरी परिक्षेत्र में व्यतीत हुए जीवन की कहानी। वहां लेखक लगभग ढाई वर्ष कर्तव्यस्थ रहे थे। उस समय की एक लोमहर्षक घटना का विवरण इस चैथे अध्याय में लेखक ने दिया है-‘‘एक ठंडी रात की याद, सवारी बुलेट रॉयल एनफील्ड की, दहिकोंगा से मुनगापदर जाकर कैंप करना था। सुबह बाजार के दिन हुर्रा, महुआ की खरीद विभागीय तौर पर करानी थी। साथ में दूसरी बुलेट पर पुलिस सब इन्स्पेक्टर भानपुरी थाना के प्रभारी थानेदार श्री टी.एल. तारन पीछे-पीछे थे। पहाड़ी रास्ता समाप्त होने पर मुनगापदर ग्राम के नजदीक पहुँचने पर श्रीप्रकाश ने कुछ आश्वस्त होकर रफ्तार तेज कर गाड़ी चलाने लगे। रास्ते में रेत वाला एक पेच था। चूँकि रास्ता खाली था, श्रीप्रकाश को ध्यान ही नहीं रहा कि वह कब इस सोच में डूब गए कि कैंप आने वाला है, आराम से रिलेक्स करेंगे, थानेदार से गपशप होंगी, आगे क्या करना है, आदि। ध्यान ही नहीं रहा कि जमीन कैसी है, एक्सेलरेटर खिंचता रहा और ध्यान हटा और दुर्घटना घटीश् कि कहावत असल में चरितार्थ हो गई। रेत में गाड़ी पूरी चारों तरफ घूम गई और बुलेट की डिक्की एक तरफ और श्रीप्रकाश दूसरी तरफ। गाड़ी वजनदार थी और रास्ते पर ही रही। एक विशालकाय वृक्ष के तने से टकराकर श्रीप्रकाश धराशायी हो गए।’’

पांचवें अध्याय में 1972 से 1974 तक गोलापल्ली रिजर्व फॉरेस्ट स्टेट के प्रभारी अधिकारी रहते हुए बिताए गए समय का लेखाजोखा है जिसमें दुरूह-दुर्गम आंतरिक वन क्षेत्रों का लोमहर्षक विवरण है। छठें अध्याय में कोंटावन परिक्षेत्र अधिकारी के रूप में अनूभूत वर्ष 74-75 की जीवन का वृत्तांत है। सातवें अध्याय में वन्यअंचल गीदम परिक्षेत्र के वर्ष 1976 की रोचक घटनाएं सहेजी हैं। आठवें अध्याय में तोंगपाल परिक्षेत्र की भौगोलिक स्थिति एवं कार्य से जुड़े संस्मरण है। नौवें अध्याय में बुंदेलखंड वनपरिक्षेत्र में वर्ष 1980 में छतरपुर जिले के बक्सवाहा परिक्षेत्र के कार्यकाल का विवरण है। यह वहीं बक्सवाहा परिक्षेत्र है जहां के वनक्षेत्र में हीरों के भंडार पाए जाने का पता चला। सन् 2021 में राज्य सरकार ने एक निजी कंपनी को बक्सवाहा के जंगलों की कटाई करने की अनुमति दे दी है। अनुमान के अनुसार पता चला कि 382.131 हेक्टेयर के इस जंगल क्षेत्र के कटने से 40 से ज्यादा विभिन्न प्रकार के दो लाख 15 हजार 875 पेड़ों को काटना होगा। इससे इस क्षेत्र में रहने वाले लाखों वन्य जीवों के प्राकृतिक आवास पर भी असर पड़ेगा। इस पर पर्यावरणविदों ने विरोध जताते हुए ग्रील ट्रिब्यूनल की मदद ली। लिहाजा कोर्ट के आगामी आदेश तक पेड़ न काटे जाने का आदेश पारित किया गया। इसी बक्सवाहा परिक्षेत्र में लेखक प्रेम नारायण मिश्रा ने वन्यजीवन के अनेक अनुभव प्राप्त किए जिन्हें उन्होंने सहजता से साझा किया है। बक्सवाहा एक ऐसा क्षेत्र है जिसने एक समय डाकुओं के आतंक को भी झेला था। लेखक श्री मिश्रा ने अपने तत्कालीन संस्मरण में लिखा है कि -‘‘मार्च 80 में छतरपुर जिले में बक्सवाहा क्षेत्र के जंगलों की सुरक्षा एवं दोहन कार्यों हेतु एवं तात्कालिक वनसंवर्धन कार्यों के सम्पादन हेतु प्रभारी अधिकारी की नियुक्ति हुई। यह क्षेत्र डाकुओं की स्थली थी। मुख्य डाकुओं के आत्मसमर्पण के पश्चात भी डाकुओं का अंत नहीं हुआ था। गैंग क्षेत्रवार वरदातें करती रहतीं थी। श्रीप्रकाश के इस दौरान ढाई वर्ष लगभग 8 स्थानांतरण हुए, ज्योतिष की जानकारी रखने वाले उनके साथी कहते हैं कि शनि की अढैया की बदौलत यह सब हुआ। इस दरम्यान श्रीप्रकाश ने बच्चों को पत्नी के साथ सागर में पत्नी के पिता के संरक्षण में छोड़ रखा था। पिछले ढाई वर्ष से अकेले ही विभिन्न जगहों पर रहते रहे। भोपाल में लाज होटल में, हरदा में लाज में इसी प्रकार अन्य जगहों में । बक्सवाहा में शासकीय आवास में अकेले ही रहे। विभागीय कालोनी अलग-थलग थी। आवास, रेस्ट हाउस, कर्मचारियों के आवास, कार्यालय, एवं प्रांगण में ही पानी के लिए कुँआ है। यहाँ नायब तहसीलदार, पहले सब इन्स्पेक्टर, फिर इन्स्पेक्टर थानेदार, अस्पताल में दो डॉक्टर ब्लाक ये सब बस्ती से सड़क के दूसरी तरफ थे। अक्सर सभी शाम को, श्रीप्रकाश जब मुख्यालय पर रहते तो इकट्ठे होते। यह बक्सवाहा के अधिकारियों का एक होने का स्वर्णिम काल था। अच्छे लोग भी संयोग से वहाँ इकट्ठे हो गए थे।’’

दसवें अध्याय में सागर स्थित नौरादेही अभ्यारण के प्रारंभिक कार्यकाल की झलक एवं जिला ग्रामीण विकास परियोजना (डी.आर.डी.ए.) के एक वर्ष की प्रतिनियुक्ति के कार्यकाल के अनुभवों का रोचक प्रस्तुतिकरण है। ग्यारहवें अध्याय में उस समय के संस्मरण है जब श्री मिश्रा गुना जिले में बतौर उप-वनमण्डल अधिकारी कार्यरत थे।  बारहवें अध्याय में शहडोल जिले में बतौर उप-वनमण्डल अधिकारी के कार्यकाल का विवरण है। तेरहवें अध्याय में उप-वनमंडल मनेन्द्रगढ़ जिला सरगुजा के कार्यकाल के दौरान के अनुभवों सहित उस वनपरिक्षेत्र के आंतरिक आंचलों का विवरण है। चैदहवें अध्याय में सागर जिले के सामाजिक वानकी के सेवाकाल के अंतिम समय के संस्मरण तथा उसी काल में किए गए अन्य कार्यों की जानकारियां हैं। चैदहवें अध्याय में लेख ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण टीप की है जो वर्तमान परिदृश्य को सामने रखते हुए मन को झकझोरती है-‘‘ दरअसल कोई सोच नहीं हैं, कोई सिद्धांत नहीं है, देश के विकास की, देश के नागरिकों को संस्कारित करने की। कोई ऐसा आदर्श ही नहीं है देश की युवा पीढ़ी के लिए जिसका अनुसरण वह कर सके। सिनेमा के नायक आदर्श बन रहे हैं। उच्छृंखलता, असंस्कारिता बढ़ रही है। नागरिकता उसूलों की जानकारी शून्य हो गई है। जिसकी लाठी उसकी भैंस पूरी तरह चरितार्थ हो गई है। यदि नौकरशाही किसी प्रकार चाहे भी कुछ   नियमों को पालन करने की तो टुटपुँजिये नेता आड़े आ जाते हैं। जो ओहदों वाले नेताओं की चापलूसी कर अपना पूरा व्यवसाय अनैतिक ही चलाते हैं। चाहे किसी प्रकार हो और इस प्रकार जो होना चाहिए, उसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती। शॉर्टकट हर जगह जैसे भी संभव हो। इस कारण देश की बुनियादी तरक्की न होकर आडंबरी और कँगूरे चमकने वाली उन्नति हो रही थी।’’

पंद्रहवां अध्याय पूर्वावलोकन का है जिसमें महत्वपूर्ण एवं सुरम्य स्थलों के प्रति अपने अनुभवों एवं दृष्टिकोण को लेखक ने प्रस्तुत किया है। अंतिम सोलहवें अध्याय में उपसंहार के रूप में वर्ष 2020-22 तक के आने वाले बदलाव का एहसास तथा अन्य सामयिक विचारों को पिरोया है।

वन्यजीवन तथा वन्य जीवन से जुड़े अनुभवों में रुचि रखने वालों के लिए यह पुस्तक विशेष महत्व रखती है। यूं भी संस्मरण सच्चाई की देहरी से हो कर गुज़रते हैं अतः उनमें एक गहरा यथार्थबोध होता है जो किसी छायाचित्र के सामन पाठक के सामने प्रस्तुत होता है और खट्टे, मीठे, कड़वे अनेक स्वाद का रस्वादन करा देता है। लेखक प्रेम नारायण मिश्रा एक परंपरागत लेखक नहीं हैं अतः अपने अनुभवों को लेखबद्ध करने में उनकी प्रस्तुतिकरण की शैली वाचिक प्रतीत होती है, गोया कोई अपने अनुभव कह कर सुना रहा हो। इससे यह पुस्तक और अधिक रोचक हो उठी है। आज जब वनसंपदा गहरे संकट में है, पर्यावरण और जलवायु भी वनों के घटते क्षेत्रफल के कारण संकट से घिर गए है, ऐसे दौर में यह पुस्तक पाठकों को जंगलों से जोड़ने का काम कर सकती है।  इस पुस्तक को कम से कम एक बार जरूर पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि क्योंकि इसमें आत्मावलोकन का तीव्र आग्रह भी है।     
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