Tuesday, August 8, 2023

पुस्तक समीक्षा | मौलिक स्वच्छंदता के साथ गहन भावबोध की कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 08.08.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि मुकेश तिवारी के काव्य संग्रह "पानी रे पानी" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा       
मौलिक स्वच्छंदता के साथ गहन भावबोध की कविताएं
 - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - पानी रे पानी
कवि       - मुकेश तिवारी
प्रकाशक    - निमिष आर्ट्स एंड पब्लिकेशन, सागर, मोबाईल-165812610
मूल्य       - 185/-
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कवि रहीम ने बहुत गहरी बात कही है अपने इस दोहे में-
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी  गए  न ऊबरे, मोती  मानुष  चून।।

यह दोहा सहसा स्मरण हो आया कवि मुकेश तिवारी जी के संग्रह का नाम पढ़ कर -‘‘पानी रे पानी’’। जीवन के लिए पानी की महत्ता निर्विवाद है। जीवन ही क्यों, जड़ पदार्थों को उपयोगी बनाने के लिए भी पानी की आवश्यकता पड़ती है। यही तो कहा है अपने इस दोहे में रहीम ने कि पानी न हो तो समुद्र नहीं रहेगा और समुद्र नहीं होगा तो सीप नहीं होगी, सीप नहीं होगी तो मोती कहां जन्म लेगा? इसी प्रकार जड़ पदार्थ चूने को भी उपयोगी और अनुकूल बनाने के लिए पानी से बुझाए जाने की आवश्यकता होती है। कवि रहीम ने ‘पानी’ का उपयोग दो अर्थों में लेते हुए उसे सटीक व्याख्या दी है कि मनुष्य की सामाजिकता के लिए उसका पानीदार अर्थात् लज्जायुक्त होना आवश्यक है। यदि मनुष्य में लज्जा नहीं है तो इसका अर्थ है कि उसकी संवेदनाएं भी मर चुकी हैं। लज्जा व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा को स्थापित करती है और सामजिक प्रतिष्ठा का ध्यान रखने वाला व्यक्ति कोई भी बुरा कर्म करते समय सौ बार विचार करता है। अंततः उसका मानस उसे बुरा कर्म करने से रोक लेता है। पानी के ये दोनों अर्थ विविध संदर्भों में मुकेश तिवारी जी के इस संग्रह की रचनाओं में भी उपस्थित हैं।
यह आवश्यक नहीं है कि कविता में सदा गूढ़-गंभीर शब्दावली का ही प्रयोग किया जाए। सरल एवं सहज शब्द भी गागर में सागर भरने की क्षमता रखते हैं। अनगढ़-सी दिखने वाली पंक्तियां विचारों की एक पूरी मीनार खड़ी करने का माद्दा रखती हैं। मुकेश तिवारी सागर साहित्यजगत के चिरपरिचित व्यक्ति हैं। भले ही यह उनका प्रथम प्रकाशित काव्य संग्रह है किन्तु उनका सृजनकर्म विगत दीर्घ अवधि से चलता रहा है। अनेक गोष्ठियों में उनकी कविताओं को सुनने का अवसर मिला। वे मधुरकंठ गायक भी हैं, इसलिए उनकी कविताओं में गेयता होना स्वाभाविक है। उनकी छंदमुक्त कविताएं भी वर्षा ऋतु में शिलाओं की दरारों से फूट पड़ने वाली जलधाराओं के समान प्रवाहपूर्ण हैं। एक सरसता है सभी कविताओं में। साथ ही गहन व्यंजना भी है। कवि को जो अनुचित प्रतीत हुआ है, उस पर उंगली उठाने से वे चूके नहीं हैं।
इस संग्रह में माता सरस्वती की वंदना के उपरांत श्री गणेश वंदना़ और फिर गीत ‘‘पानी रे पानी’’ है। इस प्रकार कवि ने ईश्वर की स्तुति के बाद पानी के रूप में प्रकृति का स्मरण किया है जोकि हमारी वैदिक संस्कृति की विशेषता रही है। वैदिक संस्कृति प्रकृति की उपासक रही, इसीलिए वैदिक काल में प्रकृति पर कभी कोई आपदा नहीं आई। हम जिसकी उपासना करते हैं, जिसे अपना पूज्य या आराध्य मानते हैं, उसकी रक्षा करना भी अपना कर्तव्य समझते हैं। हम अपने आदि ग्रंथों और आदि विचारों की मौलिकता से जैसे-जैसे दूर होते गए, वैसे-वैसे प्रकृति के प्रति लापरवाह होते गए। जिसका दुष्परिणाम हम आज जलवायु परिवर्तन, ऋतुओं के चक्र में परिवर्तन, दावानल, बड़वानल, सुनामी आदि के रूप में देख रहे हैं और शनैः शनैः वैश्विक दग्धता (ग्लोबलवार्मिग) से घिरते जा रहे हैं। पानी का संकट पूरी दुनिया में सबसे बड़े संकट के रूप में अपनी जगह बना चुका है। ऐसे समय कवि मुकेश तिवारी अपनी कविता के द्वारा स्मरण कराते हैं कि -
पानी रे पानी, ही है ज़िन्दगानी,
पानी ना फेरो उम्मीदों पे प्रानी।
हर इक बूंद से इसकी, जीवित है ये तन
वरदान  है नीर, इससे  ही जीवन
हम सब बचाएं इक-इक बूंद पानी
पानी रे पानी, ही है ज़िन्दगानी।

रहीम की भांति दोनों अर्थों में पानी की आवश्यकता है। जल के रूप में भी और संवेदना के रूप में भी। वर्तमान समय इतना मशीनीकृति हो गया है कि मानो संवेदनाएं भी निश्चेष्ट होती जा रही हैं। दूसरो के दुख से द्रवित होना इंसान भूलता जा रहा है। इसका कटु उदाहरण हमें दैनिक जीवन में आए दिन देखने को मिलता है। जब कोई दुर्घटना घटती है तो लोग घायलों की सहायता करने के बदले अपने मोबाईल पर उनकी पीड़ा का वीडियो बनाने में लिप्त हो जाते हैं। यह संवेदनाओं के हनन की पराकाष्ठा है। यह पराकाष्ठा उस समय भी देखने को मिलती है जब कोई व्यक्ति अपने वृद्ध माता-पिता की उपेक्षा करता है अथवा उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ आता है। वस्तुतः आज पारिवारिक संबंधों की महत्ता तब समझ में आती है जब बहुत देर हो चुकी होती है। एकल परिवार का चलन वृद्ध माता-पिता से उनके बच्चों की दूरी बढ़ाता जा रहा है। जिस देश में मातृसेवा और पितृसेवा की परंपरा थी, वहां अब वृद्धाश्रम बनने लगे हैं। माता-पिता की सेवा से विरत होना दुर्भाग्यपूर्ण है। कई बार व्यक्ति अपनी त्रुटियों को पहचान लेता है और उसकी आंखें खुल जाती हैं, किन्तु अफ़सोस कि तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इसलिए कवि की अभिलाषा है कि रिश्तों को संवारा और सहेजा जाता रहे ताकि कभी कोई पछतावा न रहे। इस तथ्य को कवि मुकेश तिवारी ने अपनी बुंदेली रचना में कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है-
कैसी है जो दुनियां, जो कैसो दाना-पानी।
रिश्तों की बातें, नें जाएं रे बखानी।।
बाप और मतारी तो, बैरी लगत ते
कहां अब चले गए, हमें छोड़ के बे
उनकी सांची कीमत तौ, हमने आज जानी
रिश्तों की बातें, नें जाएं रे बखानी।।

दुख, शोक, संताप के विविध रूप समाज में व्याप्त रहते हैं। कभी दुख अंतर्मन से जन्मता है और कभी मात्र दिखावटी रहता है। इस पर कवि ने बड़ी सूक्ष्म दृष्टि डालते हुए ‘‘अत्यंत दुख’’, ’’शोक व्याप्त मन’’ जैसी रचनाएं सृजित की हैं। इस संग्रह की कविताओं में जागरण का आह्वान है तो दार्शनिकता भी है। ‘‘ भोर भई अब जागो’’ शीर्षक रचना में प्रभाती के स्वर छेड़ते हुए कवि ने ‘‘बिछौना’’ शब्द का विस्तारित भाव ग्रहण किया है। वे सांसारिकता की तुलना बिछौना से करते हुए कहते हें कि -
जागो! भोर भई अब जागो
इस जग में कहीं चैन परे ना
छोड़ बिछौना भागो
जागो! भोर भई अब जागो....  

हिन्दी कविताओं के बीच बुंदेली रचनाओं का समावेश पाठकों को बार-बार खांटी ज़मीन से जोड़ने में सक्षम है। इन बुंदेली रचनाओं में मौलिक सौंदर्य है और चंचलता भी है। जैसे ‘‘आज जुद्दईया छाई है’’ शीर्षक गीत में दार्शनिकता के साथ ही एक नटखट संवाद भी है-
नेन मटक्का करबे वारे
तुमें काय गड़रये हैं प्यारे
बाहर झांक रओ मन तोरो
भीतर झांक ने पाई रे
विरथा वन-वन भटक रओ मन....

तुम दुनिया की चिंता छोड़ो
अपने घर तुम खुद ने फोरो
अपनी-अपनी करनी के फल
भोगत लोग-लुगाई रे
विरथा वन-वन भटक रओ मन....

एक और बुंदेली कविता है जिसमें कथा-कहन का सुंदर प्रयोग कवि द्वारा किया गया है। कुछ पंक्तियां देखिए-
सुन ले मोरे भैया, जा तुम एक कहानी।
एक हते राजा और एक हती रानी।।
राजा गए चना तोड़बे खों
रानी ने खीर बनाईती खाबे खों
जल्ली तुम खा लो खीर, आ ने जाए रानी
एक हते राजा और एक हती रानी।।

मुकेश तिवारी की रचनाओं की यह विशेषता है कि वे एक ही बंद में सहजता से व्यष्टि और समष्टि दोनों की बातें कह जाते हैं। अर्थात्, निज की और जग की, दोनों की बात एक बराबर और एक साथ। यही तो मानव जीवन है जिसमें सामाजिक समूह है तो व्यक्तिगत इकाई भी है। दोनों पक्ष परस्पर पूरक हैं। अतः अनुभूत की हुई, आंखों की देखी हुई बातें ही अर्थवत्ता रखती हैं, मात्र लिखी हुई नहीं। इस प्रसंग पर स्वाभाविक रूप से कबीर की ये पंक्तियां याद आती हैं-
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी।
मैं  कहता  सुरझावन  हारि,  तू  राख्यौ  उरझाई  रे।।

यदि बात स्पष्टता से कही गई हो तो कहीं कोई उलझन नहीं रहती है। उलझन तभी होती है जब बातों को घुमा-फिरा कर गोल-मोल ढंग से कहा जाए। कवि मुकेश तिवारी के काव्य में स्पष्टता है। वे बातों को घुमाफिरा कर नहीं, वरन सीधे-सीधे कहते हैं। ‘‘पर्दा हूं पर्दा’’ कविता में यह स्पष्टता देखी जा सकी है जिसमें कवि ने अपनी तुलना एक पर्दे से करते हुए पर्दे की स्थिति और परिस्थिति को स्वयं से बेहतर ठहराया है।
‘‘पानी रे पानी’’ एक ऐसा काव्य संग्रह है जिसकी कविताएं जीवन के हर पक्ष से हो कर गुज़रती हैं। कवि ने सप्रयास कुछ भी नहीं लिखा है, जो कुछ है अनायास है, जैसाकि उनकी रचनाओं में साफ़ दिखाई देता है। एक मौलिक स्वछंदता के दर्शन होते हैं संग्रह की रचनाओं में, जो पाठकों को निश्चित रूप से पसंद आएगा।
         संग्रह की रचनाओं का अपना एक विशिष्ट शिल्प सौंदर्य है। भावनाओं और बिम्ब विधान का एक सहज संतुलन है जो रचनाओं में वैशिष्ट्य जगाता है। पांडित्य से परे इन रचनाओं में एक सरलता है जिससे प्रत्येक पाठक इनका रसास्वादन सुगमता से कर सकता है और उसके कच्चेपन की सौंधी सुगंध भी ग्रहण कर सकता है।   
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