"दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम ...
शून्यकाल
वचन और आज्ञाएं हमेशा जनहित में नहीं होतीं
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
हमें अपनी बाल्यावस्था से ही यह शिक्षा दी जाती है कि आज्ञाकारी बनना चाहिए और वचन का पक्का होना चाहिए। यह जीवन में अच्छाइयों को बनाए रखने के लिए ज़रूरी भी होता है। यदि आज्ञाओं की अवहेलना होने लगे तो अपराध और अनाचार बढ़ जाता है। यदि वचनबद्धता न रहे तो हर तरह के पारस्परिक संबंध स्वच्छंद हो जाते हैं। इसलिए हर संस्कृति में आज्ञाकारिता एवं वचनबद्धता को अनिवार्य एवं बुनियादी तत्व माना गया है। किन्तु हमारे प्राचीन ग्रंथ इसी के साथ यह संदेश भी देते हैं कि वचन और आज्ञाएं हमेशा जनहित में नहीं होतीं, अतः इनका पालन सोच-समझ कर किया जाना चाहिए। चलिए इसे विस्तार से देखते हैं वर्तमान संदर्भ में।
चाणक्य नीति में एक बहुत अच्छी बात लिखी है-
एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद् राष्ट्रम सराजकम् ।।
अर्थात - कोई धनुर्धर जब बाण छोड़ता है तो सकता है कि वह बाण किसी को मार दे या न भी मारे, लेकिन जब एक बुद्धिमान कोई गलत निर्णय लेता है तो उससे राजा सहित संपूर्ण राष्ट्र का विनाश हो सकता है।
चलिए चाणक्य नीति के इसी श्लोक को आधार बना कर अतीत के कुछ पन्ने पलटते हैं, कुछ घटनाएं देखते हैं। पुराणों में भगवान शिव अपनी वचनबद्धता के लिए प्रसिद्ध हैं। जब कोई व्यक्ति भगवान शिव की तपस्या करता तो भगवान शिव उसकी तपस्या से प्रसन्न हो कर उसे वरदान देने के लिए वचनबद्ध हो जाते। वे फिर इस बात का आकलन करने की स्थिति में नहीं रहते कि तप करने वाला व्यक्ति सुपात्र है अथवा कुपात्र है? एक पौराणिक कथा है भस्मासुर की। अधिकांश लोगों ने सुनी होगी। फिर भी जो नहीं जानते हैं, उनके लिए इस कथा को पुनः स्मरण किया जा सकता है। एक असुर था। जिसका नाम था भस्मासुर। वह पृथ्वी ही नहीं वरन देवलोक पर भी अपना अधिकार जमाना चाहता था। इसके लिए उसे आवश्यकता थी ऐसी शक्ति की जिससे वह आसानी से किसी को भी मार सके। उसे पता था कि भगवान शिव के पास एक ऐसा कंगन है जिसे किसी के भी सिर पर रख कर उसे तत्काल भस्म किया जा सकता है। भस्मासुर ने वह कंगन प्राप्त करने के उद्देश्य से शिव की तपस्या आरम्भ कर दी। कई वर्ष तक वह तपस्यारत रहा। अंततः भगवान शिव उसकी तपस्या से प्रसन्न हो गए और जैसी कि उनकी वचनबद्धता थी कि वे जिसकी तपस्या से प्रसन्न हो जाते थे उसे उसकी इच्छानुसार वरदान देते थे।
‘‘मांगो भसमासुर, क्या मांगते हो?’’ शिव ने भस्मासुर से वरदान मांगने को कहा तो भस्मासुर ने वरदान के रूप में उनका वह कंगन मांग लिया जिसमें किसी को भी भस्म कर देने की शक्ति थी। शिव तो वचनबद्ध थे। उन्होंने सहर्ष अपना कंगन भस्मासुर को प्रदान कर दिया। कंगन पाते ही भस्मासुर अपनी असली औकात में आ गया और उसने सबसे पहले कंगन को भगवान शिव के सिर पर ही रखने का प्रयास किया। शिव वहां से अदृश्य हो कर बच गए। वह चमत्कारी कंगन सुर, असुर, मनुष्य सभी के लिए घातक था। अब भस्मासुर ने अपने हाथ में कंगन धारण कर के आतंक मचाना शुरू कर दिया। उसने ऋषी-मुनियों को मारना शुरू कर दिया। जो कहीं उसे कोई देवता दिख जाते तो उनके पीछे दौड़ पड़ता। दूसरे असुरों को भी उसने मारना शुरू कर दिया ताकि उसका एकाधिकार हो सके। उसके इस आतंक से सुर, असुर, मनुष्य सभी त्राहि-त्राहि कर उठे। तब सबने मिल कर भगवान विष्णु से मदद मांगी। भगवान विष्णु ने उन्हें मदद का अश्वासन दिया और अप्सरा का रूप धारण कर के भस्मासुर से मिलने चल दिए। भस्मासुर जो शक्ति से मदांध बैठा था, उस रूपवती अप्सरा को देख कर मोहित हो गया। उस अप्सरा को पाने की भस्मासुर के मन में इच्छा बलवती हो उठी। उसने अप्सरा से प्रणयनिवेदन किया। अप्सरा ने इठलाते हुए कहा कि मैंने सोच रखा है कि जो बलशाली व्यक्ति नृत्य में भी पारंगत होगा, उसी को मैं वरण करूंगी। यह सुन कर भस्मासुर तनिक निराश हुआ। उसने कहा कि मैं सर्वबलशाली हूं किन्तु नृत्य में पारंगत नहीं हूं। तब अप्सरा ने कहा कि कोई बात नहीं तुम्हारे बल को देखते हुए मैं तुम्हें पारंगत होने की शर्त से मुक्त करती हूं फिर भी मैं चाहती हूं कि तुम मुझे देख-देख कर मेरे साथ नृत्य करो। यदि यह तुम्हें स्वीकार है तो मैं नृत्य के बाद तुम्हारा वरण कर लूंगी। भस्मासुर तो बल और वासना के मद से अंधा हो चुका था। उसने अप्सरा की बात तत्काल मान ली। अप्सरा ने अपने दोनों हाथ हिलाते हुए नृत्य शुरू किया। भस्मासुर उसका अनुसरण करने लगा। पहले तो वह अपना एक ही हाथ हिलाता रहा किन्तु अप्सरा के उकसाने पर उसने अपने दोनों हाथ उठा कर नाचना आरम्भ कर दिया। नृत्य में एक मुद्रा ऐसी आई जिसमें भस्मासुर ने अपने भस्मकंगन वाला हाथ अपने ही सिर पर रख लिया और तत्काल भस्म हो गया। तब विष्णु अप्सरा का रूप त्याग कर अपने असली रूप में आ गए। इस तरह भस्मासुर का अंत हुआ तथा विष्णु ने भगवान शिव को सलाह दी कि सोच-समझ कर वरदान दिया करें। पर शिव तो अपनी वचनबद्धता से जकड़े हुए थे। कई बार ऐसा हुआ कि शिव ने तपस्या से प्रसन्न हो कर आसुरी गुणों वाले व्यक्तियों को वरदान दे दिया। भस्मासुर की यह कथा शायद इसीलिए सृजित हुई कि मनुष्यों को यह सीख दी जा सके कि बिना सोचे समझे वरदान अर्थात समर्थन या वोट न दिया जाए। क्या पता कौन तपस्वी के वेश में भस्मासुर निकल आए और जनहित का बंटाढार कर दे।
आजकल हम राजनीति में एक शब्द बहुतायत सुनते हैं, वह शब्द है ‘‘हाईकमान’’। हाईकमान के आदेश का पालन करने वाले जमीनीनेताओं एवं कार्यकर्ताओं को आदर्श माना जाता है। जबकि कई बार यह भी देखने में आता है कि जमीनी सच्चाई और हाईकमान के आदेश अथवा अपेक्षा में बहुत अंतर होता है। यह मसला टिकटों के वितरण के समय भी देखने में आता है। हाईकमान के पास जो सूचना पहुंचती है उसके आधार पर चुनावी टिकटों का वितरण कर दिया जाता है। यदि सूचनाएं पक्षपाती पहुंच गईं तो वह उम्मीदवार टिकट पाने से वंचित रह जाता है जिसकी पकड़ अपने क्षेत्र में तगड़ी होती है। किन्तु या तो वह आज्ञा को चुपचाप शिरोधार्य कर लेता है अथवा विद्रोह का रास्ता अपना लेता है। दोनों ही स्थितियों में राजनीतिक दल को ही नुकसान पहुंचता है। यदि आज्ञा शिरोधार्य कर ली जाए तो आंतरिक कलह के बीज पड़ने लगते हैं और विद्रोही तेवर तो विद्रोही होते ही हैं। इस तरह कई बार आज्ञाकारिता समूचे दल को मंहगी पड़ जाती है। आज्ञाकारिता के अनेक रूप हो सकते हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथ हमें उन विविध रूपों के बारे में बताते हैं। साथ ही बताते हैं दुष्परिणामों को भी। रामकथा को ही लें। यदि राम ने अपने पिता दशरथ की आज्ञा को तार्किकता से ठुकरा दिया होता तो वे भले ही एक आदर्श पुत्र साबित न होते किन्तु अयोध्या को रामराज्य चौदह वर्ष पहले ही मिल गया होता। पुत्र के लिए आज्ञाकारिता उत्तम थी किन्तु प्रजा के हित में नहीं थी। यह तो गनीमत कि भरत ने अपना सिक्का चलाने के बजाए राम की अनुपस्थिति में भी उनकी उपस्थिति बनाए रखी जिससे राम प्रजा की स्मृति में निरंतर बने रहे और प्रजा उत्सुकता से उनकी वापसी की राह देखती रही। तनिक सोचिए कि यदि भरत राजसिंहासन पर राम की चरणपादुका रखने के बजाए स्वयं बैठ जाते तो प्रजा उनकी ही आदी हो जाती। श्रीराम की आज्ञाकारिता प्रजा पर भारी पड़ सकती थी।
द्वापर में तो यही हुआ। भीष्म की वचनबद्धता और आज्ञाकारिता ने मानवता की अनेक बार धज्जियां उड़ाईं। परिणाम में महाभारत का युद्ध हाथ आया जिसमें उस जनहानि को रेखांकित ही नहीं किया गया है जो आम नागरिकों ने झेला। युद्धकाल में लगभग हर घर से वयस्क युवा पुरुषों को सेना में बलात भर्ती कर लिया जाना तत्कालीन समय का नियम था। अतः सोचने की बात है कि महाभारत का युद्ध भले ही कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर लड़ा गया किन्तु युद्ध में शामिल हर राज्य के हर घर का युवा पुरुष युद्ध की बलि चढ़ गया। उन आम परिवारों पर कैसा संकट टूटा होगा, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है।
इसलिए आवश्यक है कि नीति वाक्य जैसी प्रतीत होने वाली स्थितियों को भी जांचा और परखा जाए और फिर जो जनहित में उचित हो वही किया जाए।
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