चर्चा प्लस
वसंत पंचमी एक पौराणिक उत्सव, जिसकी आज आवश्यकता है
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
वसंत पंचमी एक ऐसा उत्सव है जिसका पुराणों में विविध कथाओं के रूप उल्लेख है। आदि से लेकर अद्यतन साहित्य तक मौजूद वसंत पंचमी जो अतीत में एक विराट उत्सव के रूप में मनाया जाता था, आज औपचारिक एवं आभासीय दुनिया तक सिमट कर रह गया है। जबकि आज के मानसिक तनाव भरे जीवन में वसंत पंचमी जैसे उत्सवों की अत्यंत आवयकता है। यदि मानव के जीवन में उत्सवों का उल्लास रहे तो उसे किसी भी तरह का अवसाद घेर नहीं सकेगा और वह दूने उत्साह से अपने कार्यों को कर सकेगा। यूं भी वसंत पंचमी वह त्योहार है जो प्रकृति के सौंदर्य की ओर ध्यान आकर्षित करता है अतः प्रकृति संरक्षण में भी वसंतोत्सव अहम भूमिका निभा सकता है।
वसंत पंचमी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। यह सच है कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में जीवन के अनेक उत्साही मूल्य पीछे छूटते चले गए। रही-सही कसर बाज़ारवाद ने पूरी कर दी। वसंतपंचमी पर अब वैसे उत्सव नहीं होते जैसे पहले हुआ करते थे। इसका कारण एक यह भी है कि इंसान अब भौतिकतावाद की भागमभाग में फंस गया है। वह इंटरनेट और सोशलमीडिया में तो उत्सव का उत्साह प्रकट करता है किन्तु पास-पड़ोस के साथ मिल कर उसे उत्सव में नहीं ढालता। कुछ औपचारिक आयोजनों को छोड़ दिया जाए तो वसंत पंचमी सरस्वती पूजन तक सिमट कर रह गया है। साहित्य समाज महाकवि निराला को याद कर लेता है। महिला समाज पीले रंग के कपड़े पहन कर अपना उत्साह प्रकट कर लेता है किन्तु वसंत पंचमी का वास्तविक मर्म और उत्साह मानो कहीं खो-सा गया है। मुझे अभी भी याद है कि जब मैं प्रायमरी कक्षा में पढ़ती थी तब पन्ना मुख्यालय में स्थित मनहर कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में बड़े धूम-धाम से वसंतपंचमी का उत्सव मनाया जाता था। मेरी मां डाॅ. विद्यावती ‘‘मालविका’’ वहां हिन्दी की व्याख्याता थीं तथा उस समय विमला बैसाखिया मैडम (जिनके पति ‘मानव’ सरनेम लिखते थे और शायद किसी राजनीतिक दल से जुड़े थे) वहां प्राचार्य थीं। बैसाखिया मैडम और मेरी मां परस्पर मिल कर पूरे आयोजन की बागडोर सम्हालती थीं। प्रातः 9-10 बजे के लगभग सरस्वती पूजन होता था। फिर छात्राएं अपना वसंत-नृत्य प्रस्तुत करती थीं। फिर स्कूल प्रांगण में ही भोजन पकाया जाता था और छात्राएं तथा स्कूल के सभी कर्मचारी एक साथ पंगत में बैठ कर भोजन करते थे। उस दिन सभी पीले रंग के कपड़े पहनते थे। यानी छात्राओं को भी यूनीफार्म से छूट रहती थी। सभी छात्राओं को कुछ उपहार भी दिए जाते थे, शायद पेन या पेंसिल। तीन-चार वर्ष तक चली इस परंपरा का तो मुझे स्मरण है फिर यह परंपरा कैसे, कब और क्यों बंद हो गई मुझे पता नहीं है। यह जरूर है कि इस समारोह के कारण सभी छात्राओं को वसंतपंचमी के महत्व का पता चलता था और जाहिर है कि एक छात्रा का परम्पराओं से परिचित होने का अर्थ होता है एक पूरे भावी परिवार का परम्पराओं से जुड़ना। चूंकि यह उत्सव स्कूल में होता था अतः उसका परिष्कृत और शैक्षिक पक्ष ही छात्राओं को ज्ञान के रूप में मिलता था। अंधविश्वास का उसमें तनिक भी अंश नहीं होता था।
वसंत पंचमी की परम्परा पौराणिक काल से चली आ रही है। पौराणिक कथाओं के अनुसार वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है। कवि देव ने वसंत ऋतु का वर्णन करते हुए कहा है कि रूप व सौंदर्य के देवता कामदेव के घर पुत्रोत्पत्ति का समाचार पाते ही प्रकृति झूम उठती है, पेड़ उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते है, फूल वस्त्र पहनाते हैं पवन झुलाती है और कोयल उसे गीत सुनाकर बहलाती है।
वसंत पंचमी के संबंध में ‘‘भविष्य पुराण’’ में उल्लेख मिलता है कि वसंत माघ की पंचमी में उल्लास के देव ‘कामदेव’ और सौन्दर्य की देवी ‘रति’ की मूर्ति बनाकर सामूहिक रूप से पूजन किया जाता है। राजा भोज के ‘सरस्वती कण्ठाभरण’ नामक ग्रंथ में इस उत्सव का बड़े सुन्दर ढंग से चित्रण किया गया है। ‘हरि विलास’ में स्पष्ट ही उल्लेख मिलता है कि वसंत का उद्भव माघ शुक्ल वसंत पंचमी के दिन हुआ। कालिदास के ‘ऋतु संहार’ नामक ग्रंथ में प्रकृति और मानव सौन्दर्य के अनेक पहलुओं का वर्णन किया गया है। ‘रत्नावली’ ग्रन्थ में इसका ‘वसंतोत्सव’ एवं ‘मदनोत्सव’ दोनों ही नामों से उल्लेख मिलता है। कालिदास, माघ, भारवि आदि संस्कृत कवियों से लेकर वर्तमान संस्कृत-हिन्दी कवियों ने भी वसंत-वर्णन किया है। ग्रंथों में वसंत को ऋतुराज, कामसखा, पिकानन्द, पुष्पमास, पुष्प समय, मधुमाधव आदि नामों से सम्बोधित किया गया है।
पुराणों में वसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती के अवतरण की एक रोचक कथा मिलती है। कथा के अनुसार भगवान विष्णु के कहने पर भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की। किन्तु सृष्टि में चारो ओर उदासी छाई हुई थी। जीव थे किन्तु वे मौन थे। उनके जीवन में उल्लास की कमी थी। ब्रह्मा को समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या ऐसा उपाय करें जिससे सृष्टि में उल्लास का वातावरण छा जाए। अपनी इस समस्या को ले कर वे भगवान विष्णु के पास पहुंचे। विष्णु ने उन्हें अपने कमंडल का जल सृष्टि रूपी पृथ्वी पर छिड़कने को कहा। पृथ्वी पर जल छिड़ते ही एक सुंदर देवी प्रकट हुई। जिसकी चार भुजाएं थीें। यह देवी विद्या, बुद्धि और संगीत की देवी थीं। उस देवी के एक हाथ में वीणा दूसरे हाथ में मुद्रा तथा अन्य दो हाथों में पुस्तक व माला थी। देवी ने वीणा वादन किया। वीणा के स्वर के कारण पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवों, मनुष्यों को वाणी प्राप्त हुई। देवी ने जीवों को संगीतमय स्वर दिया। जिससे सारा वातावरण संगीतमय और सरस हो उठा। सृष्टि में स्वर और संगीत की सरसता तथा ज्ञान की गंगा प्रवाहित करने वाली देवी को सरस्वती कहा गया। सृष्टि में उल्लास छाते ही प्रकृति भी प्रफुल्लित हो उठी और चारो ओर फूल खिल गए, भौरें गुनगुनाते लगे। माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को देवी सरस्वती का अवतरण हुआ था। इसलिए वह दिन वसंत पंचमी कहलाया और तभी से सरस्वती का पृथ्वी पर अवतरण दिवस मनाया जाने लगा। वसंत के इस पर्व पर विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती के पूजन का भी विधान है।
वसंत ऋतु के बारे में ऋग्वेद में भी उल्लेख मिलता है- ‘‘प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।’’ इसका अर्थ है सरस्वती परम् चेतना हैं। वे हमारी बुद्धि, समृद्धि तथा मनोभावों की सुरक्षा करती हैं। ‘‘श्रीभगवद गीता’’ में भगवान श्रीकृष्ण ने वसंत को अपनी विभूति माना है और उसे ‘ऋतुनां कुसुमाकर’ कहा है।
प्राचीन पुराणों में ‘‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’’ के प्रकृति खंड में सरस्वती के स्वरूप के बारे में वर्णन मिलता है। जिसके अनुसार दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री और राधा ये पांच देवियां प्रकृति कहलाती हैं। ये श्रीकृष्ण के विभिन्न अंगों से प्रकट हुई थीं। उस समय उनके कंठ से प्रकट होने वाली वाणी, बुद्धि, विद्या और ज्ञान की जो अधिष्ठात्री देवी हैं उन्हें सरस्वती कहा गया है। ‘‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’’ के अनुसार वसंत पंचमी को श्रीकृष्ण ने देवी सरस्वती को प्रसन्न होकर वरदान दिया था।
वसंत पंचमी से जुड़ी अनेक महत्वपूर्ण कथाएं मिलती हैं। एक कथा में विवरण मिलता है कि वसंत पंचमी के दिन भगवान शिव ने मां पार्वती को धन और सम्पन्नता की देवी होने का वरदान दिया था। इसलिए मां पार्वती का नाम ‘नील सरस्वती’ पड़ा। कहा जाता है कि इस दिन भगवान श्रीराम शबरी के आश्रम में पधारे थे। इसी दिन वाल्मीकि को सरस्वती मंत्र मिला था तथा कालिदास द्वारा भगवती उपासना की थी। ‘‘मत्स्य पुराण’’ में सरस्वती विवाह के प्रसंग हैं तो दूसरी ओर ज्ञान की देवी के रूप में सरस्वती की आराधना विधान है।
वसंत पंचमी पर सबसे महत्वपूर्ण प्रसंग मिलता है ‘‘शिव पुराण’’ में। जो देवी सती से संबंधित है। इस पौराणिक कथा के अनुसार, अपने पति महादेव का अपने पिता दक्ष द्वारा तिरस्कार किए जाने से क्षुब्ध हो कर देवी सती ने हवन कुंड में कूदकर आत्मदाह कर लिया। इस घटना से महादेव विचलित हो उठे। वे शोकाकुल हों कर तपस्यालीन हो गए। उस समय तारकासुर ने ब्रह्मा जी की तपस्या की और उन्हें प्रसन्न कर वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु सिर्फ शिव के पुत्र के हाथों से ही हो। तारकासुर जानता था कि शिव सती के वियोग में तपस्यालीन हैं। न तो उनका ध्यान भंग करना संभव है और न ही शिव का आसानी से दूसरा विवाह हो सकता है। ब्रह्मा भी तारकासुर का उद्देश्य समझ गए किन्तु वे वर देने के लिए वचनबद्ध हो चुके थे अतः उन्होंने तारकासुर को वरदान दे दिया। तारकासुर को लगा कि शिव का पुत्र ही उसे मार सकता है,जोकि कभी जन्म ही नहीं लेगा। अतः वह निर्द्वन्द्व हो कर देवताओं और ऋषियों पर अत्याचार करने लगा। देवता तथा ऋषि तारकासुर के अत्याचरों से त्राहि-त्राहि कर उठे और भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे। तब विष्णु ने देवताओं को बताया कि तारकासुर का विनाश तभी संभव है जब महादेव की तपस्या भंग हो और वे संतानोत्पत्ति के लिए मान जाएं। विष्णु ने देवताओं से कहा कि इस संबंध में वे कामदेव से सहायता मांगे।
कामदेव जानता था कि महादेव का तप भंग करना उसकी मृत्यु का कारण बन सकता है किन्तु देवताओं और ऋषियों की रक्षा तथा तारकासुर के वध के लिए वह तप भग करने को तैयार हो गया। कामदेव ने शिवजी का तप भंग करने के लिए बंसत ऋतु को उत्पन्न किया और अपनी पत्नी रति के साथ मिल कर इंद्रजाल रचा।। जिससे ऋतु में परिवर्तन हो गया। ठंडी व सुहावनी हवाएं चलने लगीं, पेड़ों में नए पत्ते आना शुरू हो गए, सरसों के खेत में पीले फूल खिलने लगे, आम के पेड़ों पर बौर आ गए। फिर कामदेव ने तपस्यालीन शिव पर काम बाणों की वर्षा की, इससे शिव का तप भंग हो गया। तप भंग होने पर शिव को भयानक क्रोध आया और क्रोध में उनका तीसरा नेत्र खुल गया, जिससे कामदेव भस्म हो गया। कुछ समय बाद जब महादेव का क्रोध शांत हुआ तब देवताओं ने उन्हें बताया कि कामदेव को ऐसा क्यों करना पड़ा। इसके बाद कामदेव की पत्नी रति ने महादेव से निवेदन किया कि किसी तरह वे कामदेव को पुनः जीवित कर दें। तब शिव ने कामदेव को पुनः जीवन देते हुए रति को वरदान दिया कि द्वापर युग में कामदेव श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में जन्म लेंगे। इसके कुछ समय बाद पार्वती की तपस्या से शिव प्रसन्न हुए और उनका विवाह पार्वती के साथ हो गया। शिव और पार्वती के पुत्र के रूप में कार्तिकेय ने जन्म लिया। इसी शिवपुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध करके देवताओं को उसके अत्याचार से रक्षा की।
वसंत ऋतु को प्रकृति के यौवन के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह ऋतु सर्दी और गर्मी के मध्य का आनन्ददायक समय होता है। प्राचीन और मध्यकाल में वसंतोत्सव एक महत्वपूर्ण उत्सव हुआ करता था। इसका विवरण छठी शताब्दी ईस्वी में हर्ष लिखित ‘‘रत्नावली’’ में मिलता है। इस रचना में रत्नावली उस उन्मुक्तता का आग्रह करती है जो इस त्योहार की विशेषता है और प्रेम देवता काम की अनुष्ठानिक पूजा के बारे में बताती है। कालिदास ने ‘‘कुमारसंभव’’ में लिखा है कि वसंत काम की प्रभावशीलता में सहायक होता है। "विक्रमोर्वशीयम्" ‘(विक्रमचरित) में भी वसंतोत्सव का उल्लेख है।
आज के मानसिक तनाव भरे माहौल में वसंतोत्सव जैसे पौराणिक उत्सवों की शालीन वापसी आवश्यक है जिससे लगभग यांत्रिक हो चुकी मानवीय दिनचर्या में सरसता का संचार हो सके तथा उसे अपने सांस्कृतिक उत्सवधर्मिता का अहसास हो सके। यूं भी वसंत पंचमी वह त्योहार है जो प्रकृति के सौंदर्य की ओर ध्यान आकर्षित करता है अतः प्रकृति संरक्षण में भी वसंतोत्सव अहम भूमिका निभा सकता है। वसंत पर कवि पद्माकर का यह छंद स्वतः याद आने लगता है -
कूलन में केलिन कछारन में कुंजन में,
क्यारिन में कलिन-कलीन किलकंत है।।
कहै पद्माकर परागन में पौन हूं में,
पानन में पिकन पलासन पगंत है।।
द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में,
देखो दीप-दीपन में दीपत दिगंत है।
बीथिन में ब्रज में नबेलिन में बेलिन में,
बनन में बागन में बगरो बसंत है।।
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