Wednesday, February 28, 2024

चर्चा प्लस | बुंदेली जिंकड़ी भजनों की कथात्मकता एवं दार्शनिकता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
बुंदेली जिंकड़ी भजनों की कथात्मकता एवं दार्शनिकता
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      बुंदेलखंड का लोक साहित्य जीवनदर्शन से परिपूर्ण है। दुख की बात यह है कि यह साहित्य लोक से ही दूर होता जा रहा है। इसीलिए जीवन से भी दार्शनिकता कम होती जा रही है। आधुनिकता के नाम की शुष्कता लोक के चिंतन को किसी सोख़्ते की भांति सोखती जा रही है जिसमें भौतिकवाद की अंधी, अंतहीन दौड़ है। जीवन के प्रति सार्थक चिंतन की आती जा रही कमी ने आत्मघात के प्रतिशत को बढ़ा दिया है। जीवन का यथार्थ चिंतन क्या है, यह जान सकते हैं बुंदेली के जिंकड़ी भजनों के माध्यम से।    
लोक भजन जन सामान्य के मानस, चरित्र एवं दर्शन के द्योतक होते हैं। बुन्देलखण्ड लम्बे समय तक संघर्ष के साए में जूझता रहा। कभी मुगल शासकों से संघर्ष तो कभी अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष। देश की स्वतंत्रता के बाद आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए संघर्ष । ऐसे वातावरण में व्यक्ति का अपने आराध्य के प्रति घनीभूत मानसिक समर्पण स्वाभाविक है। जब कोई व्यक्ति किसी त्रासद स्थिति से गुजर रहा हो तो ऐसे समय में उसे उस व्यक्ति की तलाश रहती है जो उसके दुख-दर्द सुने और उसकी त्रासदी का उन्मूलन कर के उसे आंतरिक एवं बाह्य पीड़ा से छुटकारा दिलाए। त्रासदी के समय ढाढस पाने के लिए व्यक्ति को आवश्यकता होती है एक अतिविश्वस्त सहारे की और ऐसा सहारा कभी उसे ईश्वर में दिखाई पड़ता है, तो कभी किसी महानायक में दृष्टिगत होता है। वही विश्वस्त सहारा उसका आराध्य बन जाता है। अपने इसी आराध्य से अपना दुख- दर्द कहने, उसे सहायता के लिए पुकारते हुए उसकी प्रशंसा करने तथा उसके प्रति अपनी आस्था व्यक्त करने की लयात्मक-गेय शैली ही वस्तुतः मनन है।    
विश्व की प्रत्येक भाषा एवं प्रत्येक बोली में भजन गाए जाते हैं। बुंदेलखण्ड में भी भजनों के आगार अपनी मौलिक विशिष्टताओं के साथ विद्यमान है। बुन्देलखण्ड के कुछ प्रमुख भक्तिगान हैं- भगते, जस, बीरौठी, पुंवारे, सुमरनी, आरती, मंगल आदि। इनमें भगतें मूलतः देवी के भक्ति गीत हैं, जस में देवीमां का यशोगान रहता है, बीरौठी में देवी मां के वीर रूप की स्तुति की जाती है तथा पुंवारे देवी स्तुति से युक्त कथात्मक गीत होते हैं।
सुमरनी, भगतें जस, पुंवारे, आरती, मंगल आदि के ही क्रम में अद्भुत दार्शनिकता एवं कथात्मकता से परिपूर्ण हैं जिंकड़ी भजन। इन्हें महाराष्ट्र में गाए जाने वाले लावनी की भांति गया जाता है। इसीलिए इन भजनों के गायन में स्वरों का सुंदर उतार-चढ़ाव सुनने को मिलता है। जिंकड़ी भजनों के गायन में टेक का बहुत महत्व है। लगभग प्रत्येक चार- पांच पद के बाद टेक का प्रयोग किया जाता है। इन भजनों में विभिन्न देवी देवताओं की स्तुति रहती है। जैसे, संकट से उद्धार करने के लिए दीनबंधु ईश्वर के शक्तिशाली रूप का स्मरण किया जाता है तो कार्य के निर्विघ्न सम्पन्न हो जाने के लिए विघ्नविनाशक गणेश जी की स्तुति की जाती है। चूंकि ये भजन भक्त के हृदय से निकले सहज उद्गार के रूप में होते हैं अतः इनमें कथात्मक तत्व भी सहज और सरल होते हैं। इनमें न तो शायन की दुरूह शास्त्रीयता होती है और कथ्य का घुमाव फिराव।
जिकड़ी भजनों में विषय की विविधता मनोदशा पर निर्भर रहती है। जिस समय मन शांत है और अपने आराध्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना चाहता है उस समय भजन में आराध्य की स्तुति एवं प्रशंसा की प्रधानता रहती है। उदाहरण देखिए -
जिनको गनेश हैं प्यारे,
बे कभऊ नइयां हारे ।।
प्रथम सुमरि गनपति खों गायें,
ताके काम सिद्ध हो जायें।
अंत समय गति देत हैं बेई,
चंदा-सूरज उनपे वारे ।।
सदा करे मूसा पे सवारी,
देत दान दीनन हितकारी।
बेई पार लगाबे वारे,
बेई तो हैं जग रखवारे।। जिनको गनेश।।
आराध्य की प्रशंसा एवं विनती का सम्मिलित स्वरूप जिंकड़ी की कथात्मकता में देखने को मिलती है। यह कथात्मकता कभी-कभी ‘‘हनुमान चालीसा’’ की भांति आराध्य के द्वारा किए गए जनकल्याण के कार्यों एवं शौर्य गाथा के रूप में उद्घाटित होती है। जैसे -
1... लाज मोरी राखो गिरधार,ी आज सभा के बीच।।
अंसुओं ढारत कहे द्रौपदी, सुनियो श्री महाराज।
जब भक्तन पे भीर परी, तुमई संवारे काज।।
मारे लंका के रावन खों, दिये विभीषन राज।
ध्रुव प्रहलाद हरीचंद राजा, सबकी राखी लाज।। .....
2... भेजा तपसी ने हनुमान जब संजीवनी लेवे खों।।
कालनेमि सुनि बात मेरी चित लाके मारग में माया रचो
अभी तुम जा के चोरी से ले गये बैद
यहां से आ के तुमई हो मीत भारी,
जे लाने अरण गुजारी रखियो मोरी लाज,
सिद्ध कर काज लंक में तोसा नई बलवान भेजा
तपसी ने हनुमान।।  
3... मोरी अरज सुनो सरकार,
मोरी नैया कर देओ पार ।।
राम नाम से लगो लओ
भगत प्रहलाद ने ध्यान हिरनाकुस को मारो,
प्रभु खम्बा में से निकले
आन जूठे फल सबरी के खाये,
सोई सुदामा के तन्दुल भाये
जरजोधन के मेवा त्यागे,
साग बिदुर घर जीम के आये
हरि मिलत हैं प्रेम से,
जिन ने उनखों प्रेम से ध्याये ।।
मोरी अरज सुनो ।।
जिंकड़ी भजनों में पूरी की पूरी राम कथा भी गाई जाती है। इनमें भगवान राम के जन्म से ले कर रावण के संहार तक का बड़ा रोचक वर्णन रहता है। वाल्मीकि रामायण अथवा तुलसीदास की रामचरित मानस के समान रसों, संवेगों एवं भावनाओं का सुंदर समावेश मिलता है। जिंकड़ी भजनों की राम-कथा के राम जहां अद्भुत शक्तियों के धनी हैं वहीं एक साधारण मानव की भांति परिस्थितियों के विषम प्रभाव से प्रभावित होते हुए दिखाई पड़ते हैं। जैसे लक्ष्मण को शक्तिबाण लग जाने के उपरान्त श्रीराम की विह्वलता के वर्णन की कुछ पंक्तियां देखिए-
बोलो बचन बिसार, बसाना पार हुआ लाचार,
भ्रात के कहा लगो है बान ।।
घर घुटनों पे शीस,
कहे जगदीश सुनो मोरे भाई,
अब तुम बिन वीरन कौन जो लड़हे लड़ाई
राम दल नैनों भर रोया,
भाई लछमन कैसे सोया पूछेगी दुनिया सारी,
मोरे नगर के नर औ नारी
मोरी सुमित्ता महतारी,
मर जेहे मार कटारी पूछेगी जब बे हाल,
कहां गओ लाल लखन
कहां छोड़े कृपानिधान मन में सोच करत।।
जब जीवन में असत के ऊपर सत की विजय होती दिखाई देती है तो व्यक्ति स्वयं ही सत और असत के बीच चुनाव करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है और तब वह दूसरों को भी उपदेशात्मक वचन बोलने लगता है। इन वचनों में यथार्थ जीवन दर्शन निहित रहता है -
मनुष तन पाके भज ले सीता राम।।
बालापन गए बीत, ज्वानी रस की छाई
निगत में निरखे देह, ने सूझे तनकऊ भाई
इते उते छलिया बन डोले
परनारी देख मुस्कयावै ।। मनुष तन पा के ।।
ज्वानी जो गई बीत, बुढ़ापा आन
तुलानो कापन लागी देह,
निंगत में पांव पिरानो
नैनन नीर ढलक रये री माया !
मुख से नई के पाये राम ।। मनुष तन पा के ।।
बुंदेली जिंकड़ी भजनों में कथ्य का अनगढ़ स्वरूप होते हुए भी चिन्तन की गहराई पाई जाती है। ये जीवन क्या है? इस जीवन को सद्गति कैसे दिलाई जाए? अपने आराध्य के प्रति अपने समर्पण को कैसे स्पष्ट किया जाए? ये तमाम गंभीर प्रश्न जिंकड़ी में सहज भाव से गायन के रूप में व्यक्त कर दिए जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज बनावटी लोकगीतों की भीड़ में जिंकड़ी जैसे विशुद्ध मौलिक भजनों का गायन कम हो चला है। आज यह बुंदेलखण्ड के सुदूर ग्रामीण अंचलों में ही गाया जाता है। भ्जन की यह अनुपम विधा यदि इसी प्रकार उपेक्षा की शिकार रही तो एक दिन यह भी विलुप्त हो जाएगी और गायक भी जिकड़ी भजनों के स्वर भूल जाएंगे।
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