Tuesday, February 27, 2024

पुस्तक समीक्षा | राजा बुकरकना : आधुनिक संदर्भों के साथ बुंदेली लोककथा का बेहतरीन नाट्य रूपांतर | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 27.02.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ श्यासुंदर दुबे की नाट्य-पुस्तक "राजा बुकरकना" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा     
राजा बुकरकना : आधुनिक संदर्भों के साथ बुंदेली लोककथा का बेहतरीन नाट्य रूपांतर
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक      - राजा बुकरकना
लेखक      - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक   - इंडिया पब्लिशिंग हाउस, ई 5/21, अरेरा काॅलोनी, हबीबगंज पुलिस स्टेशन रोड, भोपाल-16
मूल्य        - 100/-
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   लोक संस्कृति के मर्मज्ञ डाॅ. श्यामसुंदर दुबे ने बुंदेली लोक संस्कृति पर कई पुस्तकें लिखी हैं। उनकी नाट्य-पुस्तक ‘‘राजा बुकरकना’’ बुंदेली लोक कथा ‘‘राजा बुकरकना’’ पर आधारित है। इस नाटक को पढ़ते समय दो बातें मेरी स्मृति में उभर आईं- पहली यह कि एक ही लोककथा अपने विविध रूपों में विविध भौगोलिक क्षेत्रों में विद्यमान रहती है। और दूसरी यह कि यह नाटक भारतेन्दु परंपरा का कहा जा सकता है। लोक के कहन की अपनी सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि वह विद्रूपताओं पर उस चाबुक से वार करता है जो दिखाई तो नहीं देता है किन्तु गहरी चोट करता है। राजशाही के समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं रही। उस समय कोई भी स्पष्ट विरोध नहीं कर सकता था, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जाना तय था। अतः विरोध का स्वर किसी कथा अथवा गीत के रूप में मुखर किया जाता। इसीलिए लोक में प्रचलित कथाएं एवं गीत समसामयिक स्थितियों का इतिहास रचते हैं। वे तत्कालीन परिस्थितियों से अवगत कराते हैं। साथ ही वे इस बात के प्रति विश्वास प्रकट करते हैं कि अन्याय अथवा अव्यवस्था हमेशा नहीं रहती है। समय आने पर स्थितियों में परिवर्तन होता है। लगभग यही संदेश इस नाटक के कलेवर में भी उपस्थित है।

राजा बुकरकना से आशय है वह राजा जिसके कान बकरे के कान की भांति हैं। जैसा कि मैंने पहले उल्लेख किया कि प्रत्येक लोककथा सौ कोस में बोली के अंतर के साथ थोड़ी बदल जाती है। मैंने भी इस लोककथा को अपने बचपन में अपने नानाजी के मुख से अनेक बार सुना था। किन्तु नानाजी द्वारा सुनाई जाने वाली कथा में राजा के कान बकरे के कान की भांति नहीं थे बल्कि राजा के सिर पर दो सींग उग आए थे और इसीलिए कथा का नाम था ‘‘राजा के दो सींग’’। शेष कथानक लगभग वही था जो ‘‘राजा बुकरकना’’ का है। कथा संक्षेप में इस प्रकार है कि एक राजा के कान बढ़ते हुए बकरे के कान के समान लंबे हो जाते हैं (मेरी सुनी कथा के अनुसार सींग उग आते हैं) जिन्हें वह साफा बांध कर छुपाए रखता है। मगर राजा का हज्जाम बाल काटने के दौरान इस रहस्य को जान जाता है। राजा उसे धमकाता है कि यदि उसने यह बात किसी को बताई तो उसे मृत्युदंड दे दिया जाएगा। हज्जाम को व्याकुलता होती है और उससे चुप नहीं रहा जाता है तब वह जंगल में जा कर एक पेड़ को सारी बात बता देता है। कालांतर में उस पेड़ को काट कर उससे वाद्ययंत्र बनाए जाते हैं जो राजा के सारे रहस्य दुनिया के सामने उजागर कर देते हैं। इस लोककथा का नाट्य रूपांतर करते समय लेखक श्यामसुंदर दुबे ने सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की लंबी कविता ‘‘असाध्य वीणा’’ की आधार बनी चीनी लोककथा से भी प्रेरणा ली है जिसका उल्लेख उन्होंने आरंभ में ही किया है। लेखक ने लिखा है कि ‘‘इस लोककथा के साथ अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता ‘असाध्य वीणा’ की चर्चा करना चाहता हूं। यह लंबी कविता चीनी लोककथा का रचनात्मक विस्तार है। इसमें एक बड़ा पुराना किरीट तरु है। इस तरु की लकड़ी से वीणा बनाई जाती है। जब यह वीणा राजदरबार पहुंचती है तो कोई भी वीणा वादक इसे नहीं साध पाता है। केशकंबली नामक साधु इसे अपनी गोद में रखता है और वीणा अपने आप बजने लगती है। वीणा से वह सुर संसार निनादित होता है जो जीवन भर किरीट तरु अपनी छाया के विस्तार में पीता रहा है।’’ लेखक ने आगे लिखा है कि ‘‘ये दोनों पक्ष नाटक रचते समय थे। मैंने इस नाटक को इन दोनों प्रसंगों के स्थूल आशयों से मुक्त किया है। इसे अपने समय में विस्तारित करना चाहता था और मैंने किया भी वहीं। कुछ मुद्दे मेरे सामने थे इसमें पहला और महत्वपूर्ण मुद्दा है अभिव्यक्ति का संकट।’’

लोककथा ‘‘राजा बुकरकना’’ हो या अज्ञेय की ‘‘असाध्य वीणा’’, दोनों में अभिव्यक्ति के संकट को रेखांकित किया गया है। यही मूल मुद्दा ‘‘राजा बुकरकना’’ नाटक का भी है। राजा और उसके कथित ‘‘न्याय’’ के प्रसंग पर लेखक श्यामसुंदर दुबे ने भी भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक ‘‘अंधेर नगरी’’ का स्मरण किया है जिसमें एक फरियादी अपनी फरियाद ले कर राजा के पास पहुंचता है और कहता है कि कल्लू बनिए की दीवार गिर गई जिसमें उसकी बकरी दब कर मर गई। राजा न्याय करने के लिए कल्लू बनिए, कारीगर आदि को एक के बाद एक बुलाता है। सभी अपने आप को निर्दोष बता कर छूटते जाते हैं। अंततः राजा दीवार को फांसी दिए जाने का हुक्म सुनाता है। यह सटीक और अभिव्यंजनात्मक तीखा कटाक्ष ‘‘राजा बुकरकना’’ में भी है। इसीलिए से भारतेंदु परंपरा का नाटक कह सकते हैं। वैसे इसमें विजय तेंदुलकर के ‘‘शांताता कोर्ट चालू आहे’’ और ‘‘घासीराम कोतवाल’’ भी ध्वनित होता प्रतीत होगा क्योंकि लेखक ने अपने इस नाटक में भले ही लोककथा के राजशाही वातावरण को आधार बनाया है किन्तु इसमें भाषा एवं संवाद आधुनिक रखे हैं। इससे नाटक में कहन की धार और तीखी हो गई है। जैसे शाही हकीम राजा को बताता है कि एक वायरस फैला हुआ है जो काटता तो एक को है लेकिन उसका असर लाखों लोगों पर पड़ता है और यह किताब के पुराने पन्नों में चिपका रहता है। राजा फिर भी समझ नहीं पाता है तो शाही हकीम और विस्तार से समझाता है कि -‘‘ जी हां हुजूर! यही इस कीड़े की खासियत है। अक्षरों में फंसा-फंसा ये अपनी अपनी सेहत सुधारता रहता है। अक्षरों में क्या नही है हुजूर! अक्षर से खून रिसता है। अक्षर से आंसू बहते हैं। अक्षर में हंसी दुबकी बैठी है। अक्षर में फांसी का फंदा है। अक्षर से नहीं अलग कोई बंदा है। अक्षर चंदा है। अक्षर चुनाव है। अक्षर भाव है ताव है। अक्षर में घुसी है इमरजेन्सी! इमरजेन्सी के दिल में पांव पसारे लेटा है यह कीड़ा ! इस कीड़े के द्वारा फैलायी गयी पीड़ा भोगता है- देश सारा। राजन! आपके हलक में भी यह कीड़ा फंसा है वह बांयी ओर सरक कर दायी ओर आ रहा है। आपका यह कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा। जहा होता यह कीड़ा वहा होता आनंद ही आनंद!’’

यह आस्वाद विजय तेंदुलकर के नाटकों में मौज़ूद है। कहना होगा कि लेखक श्यामसुंदर दुबे ने लोककथा को बड़े सुंदर ढंग से आधुनिक प्रसंगों से जोड़ कर इसे समसामयिक बना दिया है। इस नाटक को पढ़ते समय विश्व इतिहास के कई प्रसंग भी सहसा स्मृति में कौंध जाते हैं। जैसे रोम के राजा नीरो की कथा। कहावत ही है कि ‘‘जब रोम जल रहा था तो नीरो बांसुरी बजा रहा था’’। या फिर फ्रांस के राजा लुई सोलहवें की कथा जिसकी रानी मारिया आंत्वानेत भूख से पीड़ित जनता को कहती है कि ‘‘रोटी ने मिले तो डबलरोटी खाओ!’’ शासनतंत्र का असंतुलित उत्सवी माहौल आमजन के लिए कष्टप्रद होता है। जैसे नाटक ‘‘राजा बुकरकना’’ में मंत्री सचिव से कहता है कि- ‘‘इस राष्ट्रीय दिवस को मनाने के लिये एक परिपत्र जारी किया जायेगा। सचिव महोदय ! नोट करें, कि इस दिन संपूर्ण राष्ट्र में केवल नाच-गान ही चलता रहे। अखंड नाच-गान। दुनिया को पता चलना चाहिए कि हमारा राष्ट्र ही दुनिया का सबसे बड़ा सुखमय राष्ट्र है। इस वर्ष की सुखी राष्ट्रों की विश्व सूची में राष्ट्र का नाम सबसे ऊपर होना चाहिए।’’
राजा के जन्म दिवस के समय का दृश्य है- ‘‘राजा का जन्म दिवस मनाने मंच सजाया गया है। एक बड़ा बैनर लगा है। जिस पर हैप्पी बर्थ डे लिखा है। एक केक भी सजाया गया है।’’ इसके बाद राजा सोने के चाकू से केक काटता है। लोग उसे उपहार भेंट करने को तत्पर होते हैं तब मंत्री कहता है- ‘‘सभी लोग अपने उपहार कोष प्रभारी के कक्ष में कार्यक्रम के बाद ले जाएंगे। अभी अपने-अपने पास ही रखें। अभी आप लोग हमारे विशेष कार्यक्रम का इस क्षण आनंद ले। ये कार्यक्रम हमारे राष्ट्रीय कला गुरुओं के द्वारा प्रस्तुत किया जायेगा। यह कार्यक्रम वाद्यवादन का आकर्षक कार्यक्रम है। तो लीजिए आप सब इसका आनंद लीजिए।’’ इसी के साथ का दृश्य - ‘‘एक चबूतरे पर संगीत मंडली बैठी है। वह अपना कार्यक्रम शुरू करती है। वाद्य यंत्रों को उनके वादक ठोकते पीटते हैं।’’
राजशाही का भोंडा यथार्थ इस नाटक में अपने अलग रंग और ढंग से प्रस्तुत हैं। इसे पढ़ते हुए आजकल छुटभैये नेताओं के बड़े-बड़े होर्डिंग्स पर लगाए जाने वाले जन्मदिन के बधाई संदेश आंखों के सामने कौंध जाते हैं।

बात वहीं आ अटकती है यथार्थ के अभिव्यक्ति की। सन 1805 में जन्मे डेनिश लेखक हैंस क्रिश्चियन एंडरसन द्वारा लिखित कहानी ‘‘द एम्परर्स न्यू क्लॉथ्स’’ जो विश्व की 100 से अधिक भाषाओं में अनूदित हो चुकी है, हिन्दी में ‘‘राजा नंगा है’’ के नाम से अनूदित हुई। इस कथा में अदृश्य वस्त्र पहनने के भ्रम में पड़ा राजा दरबार में भी निर्वस्त्र बैठने लगता है किन्तु किसी का साहस नहीं हो पाता है कि कह सके-‘‘राजा नंगा है’’। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन के अलग-अलग रूप राजशाही में खुल कर दिखाई दिए हैं। प्रजा को यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न हो तो राजदोष बना रहता है। इसीलिए लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी गई। ‘‘राजा बुकरकना’’ में हर अंक विसंगतियों को हाईलाईट करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पैरवी करता अनुभव होता है।

‘‘राजा बुकरकना’’ नाटक में सीमित पात्र हैं जो कि पठन और मंचन दोनों दृष्टि से उत्तम है। नाटक में मुख्य पात्र हैं- राजा कर्णेश्वर, शाही हज्जाम धन्ना, धन्ना की मां चमेली, राजकुमारी। गौण पात्र हैं- सेनापति, मंत्री कोष प्रभारी, चोबदार, संदेश वाहक, शाही हकीम, जल्लाद तथा तीन-चार लोग। भाषा सरल, सटीक, चुटीली और आधुनिक परिवेश की है। समूचा नाटक रोचकता से परिपूर्ण है। इसमें रंगमंच की लोकधर्मी परंपरा का निर्वाह किया गया है। नाटक के अंक-तीन का चौथा दृश्य धन्ना के काव्यात्मक एकालाप का है जिसमें वह पेड़ के पास जा कर राजा का रहस्य उसे बता देता है। यह दृश्य बेहद प्रभावी है। वस्तुतः यह नाटक राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्थितियों का एक ऐसा दृश्य प्रस्तुत करता है जो राजा और प्रजा के भेद तथा प्रजा पर शासन के शिकंजे का बखूबी रेखाचित्र खींच देता है। नाटक ‘‘राजा बुकरकना’’ राजशाही युग के पात्रों के माध्यम से आधुनिक जीवन का आख्यान प्रतीत होता है तथा इसमें बुंदेली लोककथा को समुचित और सटीक नाट्य-विस्तार दिया गया है। 
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